मुसलमानों की स्वास्थ्यकर्मियों या पुलिस से झड़प के पीछे क्या है..?

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क़ाज़ी फ़रीद आलम

 

समझना होगा कि आखिर क्या वजह है कि आए दिन पुलिसकर्मियों या स्वास्थ्यकर्मियों से जनता के टकराव की स्थिति ख़बर बन रही है और दोष , वर्ग विशेष के मत्थे मढ़ दिया जा रहा है । बिना इसकी वजह की पड़ताल किये , या जांचे परखे हम इन अप्रिय घटनाओं की सही तस्वीर पेश करने में असमर्थ हैं । लेकिन मौके पर ऐसा कुछ ज़रूर घट रहा है जिससे वर्ग विशेष की छवि ख़राब हो रही है । इससे पहले भी स्वास्थ्य विभाग की कार्यकर्तियां बेखौफ़ होकर पोलियो ड्राप पिलाने या पीलिया का टीकाकरण अभियान के दौरान घर- घर जाकर या स्थानीय स्कूलों में बच्चों को इकट्ठा करके टीका लगाने का काम करती रही हैं लेकिन उनके साथ बदसुलूकी या उन्हें मारने पीटने जैसी अप्रिय घटनाएं बिरले ही प्रकाश में आई हों। तो फिर इस बार ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण वारदातों की बाढ़ सी क्यों हैं ?

एक झलक यह भी, मुलाहिज़ा फ़रमाएँ-

मेरे एक करीबी रिश्तेदार, आज़मगढ़ शहर में एक नयी बस्ती,  रहमत नगर , निकट हर्रा की चुंगी में बीस वर्ष पहले आबाद हुए। कोई पांच साल हुए होंगे कि शहर में बालिकाओं की शिक्षा के लिए कायम नीसवां कॉलेज से बाबू के पद से रिटायर्ड हुए। इसी स्कूल की रोज़ी से मियां-बीवी , बूढ़ी मां और चार बच्चों का उनका परिवार इज़्ज़त आबरू से जीवन की नैय्या खे ले गया । नाम है आसिफ़ जमाल ।

ख़ैर , हुआ ये कि 23/04/2020 को अचानक तीन औरतों और एक लट्ठदार मर्द पर मुश्तमिल एक गिरोह उनके घर पहुंच कर घर के एक-एक सदस्य का नाम , वल्दियत, उम्र, आय के स्रोत , कमाने वाले सदस्यों की संख्या, घर में बीमारों की संख्या वगैरह वगैरह पूछने और मिले जवाब को नोट करने लगा । जब सवाल-जवाब के तवील सेशन से फ़राग़त हुई तो गिरोह बग़ैर मक़सद बताए खामोशी से अगले घर की ओर सरकने का इरादा किया । तभी मेरे उन रिश्तेदार के मन में देर से फूल रहा जिज्ञासा का गुब्बारा फूट पड़ा और उन्होंने भारत रक्षा दल के एक लठैत की निगरानी में आए उस गिरोह में शामिल एक महिला जो उस क्षेत्र की बीएलओ होने के कारण पहचान में थी , से कौतुहलवश पूछ ही लिया कि उस सर्वे का उद्देश्य क्या था और उन सब इन्क्वायरी से हासिल सूचनाओं का वह क्या करेंगी।

उनको उम्मीद थी कि लॉक डाउन के इस हंगामाख़ेज़  दौर में शायद सरकार कोरोना की जांच करवाने या घर-घर राशन बटवाने के लिये सर्वे करा रही थी । लेकिन समूह में आयी वह महिला चुप रही जैसे उसे कोई जवाब ही न सूझ रहा था।

तभी लठैत जी ने पलट काट खाया , “आप जान कर क्या करेंगे मोली साब ?”

अब मोली (मौलवी) साब को तो एक रंग आया और एक रंग गया । शब्द “मोली साब” त्रिशूल की नोक से ज़्यादा तीक्ष्ण निकला। एकदम से दनदनाता दिमाग़ में पैवस्त । लेकिन अगले ही पल वे संभले और ताड़ गये कि यह बत्तमीज़ी का महज़ एक पायलट सिग्नल था। किसी किस्म का ज़ुबानी रद्दो-अमल तकरार का सबब बन सकता था, लिहाज़ा वक्त और माहौल की नज़ाकत भांप कर “मोली साब” ने ग़ुस्से पर ख़ामोशी को तरजीह दी और मुंह को सिले घर मे चले गये। उनकी जगह कोई और होता तो शायद खबरचियों का शिकार बन अखबार में इश्तेहार की तरह चस्पा हो जाता और स्वास्थ्यकर्मियों से बदसुलूकी की नयी दास्तान गढ़ दी जाती । क्या किसी को अब यह भी जानने का हक़ नहीं कि उससे सवाल किस मक़सद से पूछे जा रहे हैं ?

भले ही चारण मीडिया समुदाय विशेष द्वारा स्वास्थ्यकर्मियों पर हमले की कथित परिस्थितिजन्य घटना पर तस्दीक की मुहर लगा रहा हो किंतु कोई सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि किसी के दरवाजे पर नेक-नीयती से आए व्यक्तियों पर मकान मालिक तब तक हमलावर नहीं हो सकता जबतक आने वाला कोई ऐसी बात न कहे या ऐसी हरकत ना करे जिससे उसके सामाजिक सम्मान या साख को गम्भीर ठेस पहुंचती हो। या कोई ऐसी बात कहे जो उसके मन मिजाज़ के प्रतिकूल हो। या कोई ऐसा व्यक्ति उसके द्वार पर पहुंच जाए जिससे वह कुपित हो और ख़ार खाये बैठा हो। जिस समुदाय विशेष की बदसुलूकियों की चर्चा-ए-आम आजकल सियासी और सहाफ़ती हलक़े में है, हर समाजी और सियासी सूझबूझ रखने वाला शख्स उसके बारे में जानता है कि वह समुदाय पिछले छः सात सालों से किन सियासी, समाजी और अदलियाती सदमें से गुज़र रहा है। सत्तारूढ दल और उसके अल्मा मैटर की इस समुदाय विशेष के खिलाफ आर्थिक, सामाजिक और न्यायिक ज़बरदस्तियां तथा नाकेबंदियां किस जम्हूरियत पसन्द शहरी से पोशीदा रही हैं ! वतन अज़ीज़ भारत से बेदख़ली के ख़ौफ़ वाले काले क़ानून के खिलाफ अपनी बाशिंदगी के तहफ़्फ़ुज़ (रक्षा या बचाव) के लिए उस समुदाय से उठी हर आवाज़ को कुचलने के लिए हुकूमते हिन्द के ज़ालिमाना हथकंडों ने जिस तरह उसके विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले सैकड़ों लड़के लड़कियों को सरेआम लाठियों से पीटकर लहुलुहान किया और तीस से ज़ायद लड़कों को सूबाई पुलिस की गोलियों का शिकार बनवा दिया, यह मंज़र अभी उसके ज़ेहन में धुंधला भी नहीं पड़ा था कि सरकार की नीतियों से इत्तफ़ाक़ न रखने वालों की यूएपीए क़ानून के तहत कोरोना महामारी की वायरस आलूद फिज़ा में गिरफ़्तारियां भी शुरु कर दी गयीं। वह समाज जो अपने कलेजे पर दिल्ली दंगों के दौरान अपनी सियासी बेकसी और अदालत की ग़ैर मुंसिफ़ाना बेबसी की चोट से दिल पर उभरे दाग़ पर आज भी सहानुभूति के मलहम को तरस रहा हो उस समाज को सामाजिक समरसता और सौहार्द के दुश्मन सरकारी भेड़ियों के गिरोह-मीडिया के खुले शिकार के हवाले कर दिया गया है कि वे जैसे चाहें इल्ज़ाम तराशी कर समुदाय विशेष के खिलाफ नफरतों का बाज़ार गर्म किये रहें और अपने आक़ाओं को ‘पॉज़िटिव’ खबरें परोस कर खुश रखें।

यदि वह ज़हर आलूद पत्रकारिता के खिलाफ अदालती चाराजोई करना चाहता है तो उसके लिए उच्चतम न्यायालय की ज़ंजीर जहांगीरी मायूस करती है जबकि ज़हर फ़शानी करने वालों का हौसला अफ़ज़ाइश किया जाता है। साम्प्रदायिक विद्वेष की हांडी को जोश देने की नीयत से महामारी कानून पर जारी अध्यादेश पर महामहिम की मुहर लग चुकी है जिसके तहत डाक्टर नर्सों पर और स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों पर हुए हमले से नुकसान की स्थिति में, अलावा सात साल के कारावास के , हुए नुकसान की दोगुनी रकम दोषियों से वसूली जाएगी । ये दोषी कौन लोग होंगे? वंचित तबके के लोग ही न , जो अस्पतालों में सामान्य स्वास्थ्य सुविधा भी न मिल सकने पर अपने किसी नज़दीकी की मौत पर अपना स्वभाविक नज़ला मरीज़ को अटेन्ड कर रहे डॉक्टर या अस्पताल पर निकालते हैं । सवाल यह नहीं होगा कि मरने वाले मरीज़ के रिश्तेदार अपना गुस्सा अस्पताल के अमले पर किस परिस्थिति में उतारते हैं। अब इस अध्यादेश ने अस्पताल प्रबंधन को मरीजों से जबरियां बिल वसूली का कारगर हथकंडा थमा दिया है । धनकुबेरों की पक्षधर और गरीबों के खिलाफ बनायी जा रही कुटिल नीतियां हीं दर असल हमें एक दूसरे के आमने सामने खड़ा कर रही हैं ।

रिजर्व बैंक का सरकारी कर्ज की सीमा पचहत्तर हजार करोड़ से बढ़ाकर दो लाख करोड़ कर देना , केंद्र सरकार के कर्मचारियों का 4% बढ़ाया गया महगाई भत्ता व पेंशनरों का डीआर काट कर धनकुबेरों को कर्ज माफी देना, आम तौर पर बड़े पैमाने पर लोगों की नौकरियों का समाप्त हो जाना, अर्थव्यवस्था का चरमरा जाना, नौजवानों में आमतौर पर आक्रोश के सबब हैं जिनके कारण इस प्रकार की घटनाओं में इज़ाफ़ा लाज़मी है । उच्चतम न्यायालय किसी तहसील की मुंसफ़ अदालत की तरह व्यवहार कर रहा है । जिस केस को देखना होता है अदालत रात में सज जाती है और जिसे न देखने की हिदायत होती है उसे दिन के उंजाले में भी तारीख़ डालकर आगे टरकाया जाता है। बहुत अहम मसलों में केस को ख़ारिज कर देने का भी ढीठपन है । मुल्क के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश की राज्य सभा की मेम्बरी बेहयाई का ही सुबूत है । सक्षम लोगों के लिये लॉकडाउन में भी आवागमन के सरकारी बंदोबस्त हैं लेकिन मेहनतकश वर्ग के लिए पुलिस की लाठी, परिवार से दूर भूख और बेबसी की मौत है । लोगों में लंबे लॉकडाउन और उसकी वजह से काम धंधा चौपटा हो जाने का आक्रोश है।

तवील (लंबे) लॉकडाउन से 80% दिहाड़ी मजदूर घर बैठने पर मजबूर कर दिये गये हैं । वे लोग जो अब तक चौदह घंटे सड़क से ही सरोकार रखते रहे हैं – मसलन ई-रिक्शा चालक से लेकर चाय-पान -बीड़ी के खोखे वाले, समोसे-पकौड़ी से लेकर मूंगफली-चना-भूनेना और फल सब्जियों के ठेला-रेहड़ी-पट्टी लगाने वाले, नाऊ-धोबी-दर्जी की दुकाने, सोने-चांदी के आभूषण से जुड़े कारीगर ,सभी इस अचानक अमल में लायी गयी तवील तालाबन्दी से सुनसान पड़ी सड़क को उम्मीद से तकते-तकते भूखों मरने की नौबत को पहुंच चुके हैं । छोटे छोटे घरों में ‘लेड़ी बुच्ची’ के साथ बसने वाले उनके संयुक्त परिवार सोशल डिस्टैंसिंग के तक़ाज़ों को पूरा करने में असमर्थ हैं । वे घबराहट में  बारम्बार घरों से निकलकर बाहर आते हैं जैसे अपनी ही आज़ादी से उनका पेंच लड़ गया हो। बच्चे अक्षर पहचानना भूल रहे हैं, ये इतने ख़ुशकिस्मत नहीं कि ऑनलाइन पढ़ लें क्यूंकि इनके घरों में बालकनी नहीं है। वे पुलिस पेट्रोलिंग का हूटर सुनते ही रेगिस्तानी नेवलों की भांति घरों में भाग कर घुसते हैं और पुलिस पार्टी के गुज़रते ही पुनः सड़क के किनारे ढंकी नाली के पत्थरों पर जमा होकर कल की चिंता की अंधेरी गुफ़ाओं में ग़ोते लगाने लगते हैं ।

शुरू में तो ताली-थाली बजाया , चिराग़ां भी किया , पुलिस की लठबाजी से भी आनन्दित हुए पर लम्बे होते लॉकडाउन और अनियन्त्रित फैलती बीमारी ने उनका विश्वास डगमगाया है और अब वे लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन करने लग रहे हैं। कर्मचारियों पेंशनरों संग दग़ाबाज़ियां और बैंक लुटेरों संग गलबहियां , मेहनतकशों संग सरकार की ढेरों वादाखिलाफियां और उन्हें काम पर खटाने के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 कर देने की योजना ने सरकार के कोरोना के खिलाफ जंग जीतने के दावों को खोखला साबित कर दिया । लोग भयंकर आक्रोश में हैं । फ़ारसी का एक मक़ूला है कि “तंग आमद ब जंग आमद ।”

मैं ठीक ठीक नहीं कह सकता कि भीतर भीतर कुछ सुलग रहा है या तप रहा है लेकिन धधक को हवा के एक झोंके की कसर ज़रूर है । मेरे भीतर एक फ़ैज़ लहक के पढ़ रहा है “उट्ठो सब ख़ाली हाथों को अब रन से बुलावे आते हैं।”


क़ाज़ी फ़रीद आलम यानी सोनी भाई। उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर शहर में स्कूल चलाते हैं और भू-जल संरक्षण को लेकर ख़ासे सक्रिय हैं। क़रीब एक दशक से ज़िले की एक सूखती जा रही नदी के पुनरुद्धार में जुटे हैं।


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