क्रांतिकारियों के लिए हमेशा धड़कता रहा नेहरू का दिल!



विषेश आलेख:

 

जवाहर लाल नेहरू के जेल जीवन और क्रांतिकारियों से उनके अन्तर्सम्बन्धों को लेकर मैं निरन्तर सोचता रहा। खास तौर पर नेहरू के जेल जीवन के बारे में पढ़कर मुुझे उनके प्रति अपनी पूर्व धारणाओं को तब्दील करना पड़ा, जिनका आधार प्रायः सुुनी-सुनाई बातें ही रहीं जो मेरे प्रारम्भिक जीवन की अनगढ़ बुनियाद में रच-बन गई थीं। गांधी के बरक्स नेहरू की क्रांतिकारी चेतना और पक्षधरता हमारे इतिहास का एक सर्वथा भिन्न अध्याय है, जिसका पाठ किया जाना चाहिए। यहां हम असहयोग आंदोलन के समय के घटनाक्रम को याद करते हैं, जिसके साथ गांधी ने खिलाफत आंदोलन को जोड़ा और संचालित किया। इस पर बार-बार बहस होती रही कि असहयोग से खिलाफत को संलग्न करना किसी तरह उचित नहीं था, जिसके दुष्परिणामों में उन दिनों बन गई हिन्दू-मुस्लिम एकता की आगे चलकर बहुत क्षति हुई। भारतीय क्रांतिकारियों ने असहयोग की घोषणा होते ही कलकत्ता की अपनी बैठक में अपने संग्राम को पूरी तरह रोककर भारतीय राजनीति में गांधी के इस सर्वथा नए प्रयोग को देखना तय किया था और उस अवधि में उन्होंने अपने समस्त कार्यक्रम स्थगित कर दिए थे। वे भी यह देखना चाहते थे कि देश के मुक्ति-युद्ध में असहयोग का यह अभियान आखिर उसे किस मुकाम तक ले जाएगा। क्रांतिकारी यह भी मानते थे कि खिलाफत आंदोलन तुर्की में खलीफा की धार्मिक कठमुल्ला सल्तनत की वापसी के लिए किया जाने वाला इतिहास और समय के पहिये को उल्टा घुमाने सरीखा कदम है और यह कमाल पाशा के प्रगतिशील क्रांतिकारी उपायों द्वारा वहां स्थापित की गई धर्मनिरपेक्ष सत्ता के विरोध में चलाया जा रहा है, जिसका भारत की ज़मीन से कोई रिश्ता नहीं है। ऐसे में असहयोग के साथ खिलाफत के संग-साथ को ऐतिहासिक की भूल ही कहा जाएगा, जिसे समय ने साबित भी कर दिया कि उस आंदोलन के समाप्त होते ही भारत के मुसलमान असहयोग और स्वतंत्रता आंदोलन से प्रायः दूर जा पड़े जो ऊपर से एक समय संयुक्त अभियान की तरह संचालित दिखाई पड़ रहा था। नेहरू ने इस पर बाद को अपनी टिप्पणी इस प्रकार दर्ज की थी, ‘1921 में खिलाफत को जो महत्व दिया गया, उसके कारण बहुत-से मौलवियों और मुुस्लिम धर्मनेताओं ने संग्राम में महत्वपूर्ण भाग लिया। उनके कारण आंदोलन को धार्मिक रंग मिल गया और मुसलमान इस रंग से प्रभावित हुए। कई पाश्चात्य प्रभाव में आये हुए मुसलमान, जो किसी प्रकार धार्मिक कट्टता के कायल नहीं थे, दाढ़ी रखाकर कट्टर लोगों के ढंग पर चलने लगे। नए विचारों और प्रगतिमूलक पाश्चात्य विचारों के कारण मौलवियों की साख काफी घट चुकी थी, पर अब वह फिर बढ़ने लगी और ये मौलवी मुसलमानों पर छा गए। अलीबन्धु धार्मिक विचारों के थे और उन्होंने इस प्रक्रिया को बल पहुुंचाया और गांधी जी ने भी इसमें हाथ बँटाया क्योंकि वह मौलानाओं और मौलवियों की बहुत इज्जत करते थे।’

नेहरू ने असहयोग के एकाएक स्थगन पर अपनी प्रतिक्रिया इन शब्दों में व्यक्त की थी, ‘अचानक 1922 की फरवरी के शुरू में ही सारा दृश्य बदल गया और जेल में ही हमने बड़े आश्चर्य और भय के साथ सुना कि गांधी जी ने सविनय-भंग की लड़ाई रोक दी और सत्याग्रह स्थगित कर दिया है। हमने पढ़ा कि यह इसलिए किया गया कि चौरी-चौरा नामक गांव के पास लोगों की एक भीड़ ने बदले में पुलिस-स्टेशन में आग लगा दी और उसमें करीब आधे दर्जन पुलिसवालों को जला डाला था। जब हमें मालूम हुआ कि ऐसे वक्त में, जबकि हम अपनी स्थिति मजबूत करते जा रहे थे और सभी मोर्चों पर आगे बढ़ रहे थे, हमारी लड़ाई बन्द कर दी गई तो हम बहुत बिगड़े। मगर हम जेल वालों की मायूसी और नाराजगी से क्या हो सकता था ? सत्याग्रह बन्द हो गया और उसके साथ ही असहयोग भी जाता रहा। कई महीनों की दिक्कत और परेशानी के बाद सरकार को आराम की सांस मिली, और पहली बार उसे अपनी तरफ से हमला करने का मौका मिला। कुछ हफ्तों बाद उसने गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें लम्बी कैद की सजा दे दी।’

असहयोग के इसी देशव्यापी अभियान में भविष्य के जिन क्रांतिकारियों का प्रवेश हुआ, उनमें चन्द्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त और रोशन सिंह प्रमुख थे। आज़ाद की उम्र उस समय 15 या 16 साल की थी। पकड़े जाने पर उन्हें बेतों की सजा मिली जिसके हर प्रहार पर वे ‘गांधी जी की जय’ का उद्घोष करते रहे। लेकिन असहयोग की निराशाजनक समाप्ति पर क्रांतिकारी जिस तरह सोचते थे, ठीक वैसा ही उस समय नेहरू और गांधी के कुछ दूसरे सिपाही भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे। वे सब अपने को सचमुच नाराज और हारा हुआ महसूस करने लगे थे। ‘बनारस षड्यंत्र केस’ में काला पानी की सजा से छूटने के बाद शचीन्द्रनाथ सान्याल जिन लोगों से देश में आकर मिले उनमें नेहरू प्रमुख थे। उन्होंने बाहर आते ही मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दास (सीआर दास) से भी भेंट की। बाकी राजबंदियों की रिहाई के लिए सान्याल तय कार्यक्रम के अनुसार ‘आनन्द भवन’ में नेहरू के पास पहुंचे। करीब डेढ़ घंटे तक बातचीत चलती रही। सान्याल जी ने क्रांतिकारी आंदोलन की आवश्यकता और उसकी सफलता के बारे में नेहरू को विश्वास दिलाना चाहा। पहले तो नेहरू ने चर्चा में अधिक दिलचस्पी नहीं ली लेकिन जैसे-जैसे वार्ता का क्रम आगे बढ़ा कि उन्होंने भी गम्भीरतापूर्वक तर्क करना प्रारम्भ किया। सान्याल जी रूस और जर्मनी का उदाहरण देकर बताना चाहते थे कि आधुनिक समय में भी इन देशों में सशस्त्र क्रांति संभव हुई है, जबकि नेहरू का कहना था, ‘गुप्त रीति से षड्यंत्र के मार्ग को ग्रहण करने पर हम कभी भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकेंगे। कारण एक तो हमें मार्ग में थोड़े आदमी मिलेंगे और दूसरे यह कि जो मिलेंगे भी उनमें से हमेशा मुखबिर पैदा होंगे। इन मुखबिरों की वजह से संगठन का कोई काम पूर्ण नहीं हो पाएगा। हम लोग गुप्त रीति से षड़यंत्र रचेंगे। थोड़े दिनों में सब बातें खुल जाएंगी। जेलखाने तथा फांसी के तख्तों पर हम लोगों की जानें जाएंगी और इस मार्ग से हम लोग कुछ भी नहीं कर पाएंगे।’

सान्याल ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली कि गुप्त रीति से काम करने पर मुखबिर तो अवश्य पैदा होंगे और इन मुखबिरों के कारण बार-बार हमारा संगठन टूट जाएगा और बार-बार हमारे आदमी काले पानी में तथा फांसी के तख्तों पर अपनी जानें देंगे। तथापि बार-बार क्रांतिकारी संगठन पुनः तैयार होगा और हर बार यह संगठन पहले की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली एवं व्यापक बनता जायगा और फांसी के तख्तों पर तथा काले पानी में जीवन विसर्जन करने के परिणामतः देश भर में लोगों के दिलों में त्याग की भावना फैलेगी। नेहरू और सान्याल के मध्य यह बहस व्यापक रूप से हुई जिसमें नेहरू से उन्होंने अहिंसा नीति के बारे में कुछ व्यक्तिगत प्रश्न भी किए जिनका संबंध विप्लववाद की युक्ति धारा के साथ कुछ भी न था। हुआ यह कि नेहरू ने उनके सब प्रश्नों के उत्तर बड़ी शांति से दिए और उनसे जरा भी असंतुष्ट नहीं हुए। इस लंबी वार्ता को सान्याल की प्रसिद्ध कृति ‘बन्दी जीवन’ में पढ़ा जा सकता है।

क्रांतिकारियों की गांधीवाद की आलोचना का आधार यह भी था कि गांधी राजनीति और धर्म का मिश्रण कर रहे हैं। असहयोग आंदोलन की निराशाजनक असफलता के बाद उत्पन्न हुए राजनीतिक शून्य को भरने के लिए क्रांतिकारी मार्ग के अनुयायी फिर से अपने छोड़े हुए हथियार हाथ में लेकर संग्राम में अधिक तीव्रता और विचारों के साथ कूद पड़े। उन्होंने असहयोग की समाप्ति के बाद पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर क्रांतिकारी संगठन का निर्माण किया  जिसे‘हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ’ (हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन-एचआरए) नाम दिया गया। इस दल ने बाकायदा एक संविधान निर्मित किया, जो बोलचाल में ‘पीला पर्चा’ नाम से ख्यात हुआ। यह कलकत्ता के प्रेस में छपा। इसे लिखने वाले थे शचीन्द्रनाथ सान्याल जिन्होंने उसमें कहा था कि वे ऐसी आजा़दी के लिए प्रयत्नशील हैं जिसमें एक मनुष्य द्वारा दूसरे का तथा एक राष्ट्र के हाथों दूसरे राष्ट्र का शोषण संभव नहीं होगा। सान्याल जी स्वयं कहते हैं कि इस संविधान में उन्होंने सत्यभक्त और दूसरे लोगों से विमर्श करके कम्युनिज्म के अच्छे सिद्धान्तों का भी समावेश कर लिया था। 9 अगस्त 1925 को हुए काकोरी ट्रेन एक्शन को इसी दल के एक बड़े अभियान और ब्रिटिश सरकार को सीधे दी जाने वाली चुनौती के तौर पर देखा जाना चाहिए, जिसे उत्तर भारत के दस क्रांतिकारियों ने रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में कुशलता से सम्पन्न किया। लखनऊ में 18 महीने तक इस मुकदमे को चलाये जाने के बाद फैसले में बिस्मिल सहित अश्फ़ाक़उल्ला खां, रोशनसिंह और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को फांसी तथा शेष को लंबी सजाएं तजवीज कर जेल में डाल दिया गया। इस केस की पैरवी के लिए बीके चौधरी, गोविन्द बल्लभ पन्त, चन्द्रभान गुप्त, मोहनलाल सक्सेना, कृपाशंकर हजेला जैसे वकील थे। बाद को सेशन सुपुर्द होने के बाद इस मामले में क्रांतिकारियों की मदद के लिए एक समिति बनी जिसमें मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू थे।

सजा पाने के बाद बंदीगृह में एक बार काकोरी के क्रांतिकारी विष्णुशरण दुबलिश का नैनी में जेल अधिकारी विलियम्सन से झगड़ा होने पर नेहरू को जैसे ही पता लगा, उन्होंने ‘आनंद भवन’ से मेजर ढोण्ढी को टेलीफोन किया और जेल विजिटर वकील आनन्दी प्रसाद दूबे के साथ जेल में आकर दुबलिश से विस्तार से बातचीत की। ढोण्ढी जानता था कि दुबलिश निर्दोष हैं, पर मुकदमा विलियम्सन ने तैयार किया था। इसमें दुबलिश को दोषी न होने पर भी आजन्म कैद की सजा मिली। बाद को वे अर्जी देकर अण्डमान चले गये।

1937 में संयुक्त प्रांत में पहली बार कांग्रेसी मंत्रिमण्डल बनने पर काकोरी के क्रांतिकारियों की जेल से रिहाई कर दी गई। उस समय वे सभी इलाहाबाद की नैनी जेल में बंदी थे। उनके छूटने पर स्वागत-सम्मान में नेहरू ने ‘आनन्द भवन’ में एक ‘चाय पार्टी’ का आयोजन किया। नैनी जेल के गेट से ‘आनन्द भवन’ तक वे सब बड़े जुलूस की शक्ल में ले जाए गए। उस समय की एक बहुत दिलचस्प घटना का उल्लेख करना यहां प्रासांगिक होगा। ‘आनन्द भवन’ में भीतर क्रांतिकारियों के स्वागत में जलसा हो रहा था। काकोरी के एक प्रमुख क्रांतिकारी मुकुन्दीलाल, जिन्हें ‘भारतवीर’ कहा गया, वे बाहर दरवाजे पर ही रह गए। वहां एक ओर कांग्रेसी नेता आचार्य कृपलानी खडे़ हुए यह कह रहे थे, ‘देखो, इस साले जवाहरलाल की मति मारी गई है। साला चोर-डाकुओं का स्वागत कर रहा है। साला गांधी बुड्ढा सुनेगा तो क्या कहेगा। सब साले भीतर से हिंसा को मानते हैं।’ कृपलानी की यह शब्दावली और लहजा सुनकर मुकुुन्दीलाल को गुस्सा आ गया। वे कृपलानी को पहचानते नहीं थे। ऐसी गालियां सुनते ही वे तमतमाते हुए कृपलानी की ओर बढ़े कि लोगों ने उन्हें दौड़ कर रोका। कहा कि वे आचार्य कृपलानी हैं। यह उनके बोलने का ढंग है। सभी कहने लगे कि कृपलानी भी तो यहां क्रांतिकारियों के स्वागत-सम्मान के लिए ही आए हैं। आखिर लोगों ने आचार्य कृपलानी से पूछ ही लिया कि दादा, जब आप क्रांतिकारियों को चोर-डाकू कह रहे हैं तब आप फिर यहां क्यों आए ? कृपलानी अपने उसी खास लहजे में बोले, ‘तुम साला हमको बेवकूफ समझता है, हमको ननकू बनाना चाहता है, इलाहाबाद का सभी बड़ा-बड़ा लोग आ गया और हम साला नहीं आता तो वहीं सब इलाहाबाद की सड़कों से निकलने पर साला पत्थर नहीं मारता। हम भइय्या जनता से आइसोलेट होना नहीं मांगता, इसलिए हम झक मारके यहां आया, जाओ भइय्या, अपने दोस्त को ले जाओ और समझाओ कि हम पर गुस्सा न करें।’ यह सुनकर वहां उपस्थित सभी लोग खिलखिलाकर हंस पड़े और दादा कृपलानी के गले लग गए।

कहा जाता है कि ‘आनंद भवन’ के इस आयोजन पर गांधी ने अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए इसे अपने मिशन की हार बताया था। हम जानते हैं कि गांधी क्रांतिकारियों की कारगुजारी के कड़े आलोचक थे। वे ‘यंग इंडिया’ सहित अनेक जगहों पर उनके विपक्ष में निरन्तर अपना मत व्यक्त करते रहे। लेकिन इस मामले में नेहरू की सोच गांधी से एकदम भिन्न थी। वे गांधी की क्रांतिकारियों की ऐसी आलोचना से कभी सहमत नहीं हुए। विप्लवमार्गियों के प्रति गांधी की इस तिरस्कार भावना को लेकर नेहरू ने कहा था कि उनके कामों की भर्त्सना करना न्यायोचित नहीं है, बिना उन कारणों को जाने जो इसके पीछे हैं। लाहौर में दिसम्बर 1928 को सांडर्स वध के तुरंत बाद नेहरू ने ‘नौजवान भारत सभा’ को आश्वासन दिया कि, ‘भारत में अनेकों आपके लिए हमदर्दी रखते हैं और हर संभव सहायता देने के लिए तैयार हैं। मुझे उम्मीद है कि सभा के संगठन के रूप में और मजबूत होगी और भारत के एक राष्ट्र के रूप में निर्माण के अग्रणी भूमिका निभाएगी।’    (‘सर्च लाइट’ 11 जनवरी, 1929)

नेहरू 1926 में यूरोप में थे। उनकी छोटी बहन कृष्णा भी गर्मियों के शुरू में वहां पहुंच गई थीं। यहां बहुत से पुराने क्रांतिकारी और हिन्दुस्तान से निकाले हुए भाई से वे मिले जिनमें श्यामजी कृष्ण वर्मा भी थे जो जिनेवा के एक मकान की सबसे ऊपरी मंजिल पर अपनी बीमार पत्नी के साथ रहते थे। नेहरू कहते हैं, ‘वह मिलने आए प्रत्येक व्यक्ति को शक की निगाह से देखते थे। उनकी जेबों में ‘इण्डियन सोशियॉलाजिस्ट’ नाम के अखबार की पुरानी कापियां भरी रहती थीं। वह उन्हें खींचकर निकालते और कुछ जोश के साथ उन लेखों को दिखाते, जो उन्होंने कोई बारह बरस पहले लिखे थे। वह ज्यादातर पुराने ज़माने की बातें किया करते थे। हैम्स्टीड में इण्डिया-हाउस में क्या हुआ, ब्रिटिश सरकार ने उनके भेद लेने के लिए कौन-कौन शख्स भेजे और उन्होंनेे किस तरह उन्हें पहचान कर उनको चकमा दिया, आदि। उनके कमरों की दीवारें पुरानी किताबों से भरी अलमारियों से ढंकी हुई थीं। उन किताबों को पढ़ता-पढ़ाता कोई नहीं था, इसलिए उन पर धूल जमी हुई थी और वे, जो कोई वहां पहुंचता उनकी तरफ दुःख-भरी निगाहों से देखती-सी मालूम होती थीं। किताबें और अख़बार फ़र्श पर भी इधर-उधर पड़े रहते थे। ऐसा मालूम पड़ता था कि मानो वे कई दिनों और हफ्तों से, मुमकिन है महीनों से, इसी तरह पड़े हुए हैं। तमाम जगह में शोक की छाप, मनहूसियत की हवा छाई हुई थी। ज़िन्दगी वहां ऐसी मालूम पड़ती थी जैसे कोई अनचाहा अजनबी घुस आया हो। अंधेरे और सुनसान बरामदों में चलते हुए ऐसा डर मालूम पड़ता था कि किसी कोने में कहीं मौत की छाया तो नहीं छिपी हुई है। जाने वाले उस मकान से निकलकर ही चैन की लम्बी सांस लेते और बाहर की हवा पाकर खुश होते थे। श्याम जी अपनी दौलत की बाबत कुछ इन्तज़ाम, पब्लिक के कामों के लिए कोई ट्रस्ट, कर देना चाहते थे। शायद वह विदेशों में शिक्षा पाने वाले हिन्दुस्तानियों के लिए कुछ इन्तज़ाम करना पसन्द करते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं भी उनके उस ट्रस्ट का एक ट्रस्टी हो जाऊं। मैं नहीं चाहता था कि मैं उनके रुपये-पैसे के मामलों के चक्कर में फंसूं। इसके अलावा मैंने यह भी महसूस किया कि अगर मैंने कहीं जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी जाहिर की तो उन्हें फौरन की शक हो जायगा कि उनकी दौलत पर मेरा दांत है। यह तो किसी को नहीं मालूम था कि उनके पास कितनी दौलत है। अफवाह भी उड़ी थी कि जर्मनी में सिक्के की क़ीमत गिरने से उनको बहुत नुकसान हुआ था। कभी-कभी कोई नामी-गिरामी हिन्दुस्तानी जिनेवा में होकर गुज़रते थे। उनमें जो लोग राष्ट्र-संघ में शामिल होने के लिए आते थे, वे तो हाकिमी किस्म के लोग होते थे और ज़ाहिर है कि श्यामजी ऐसे लोगों के पास तक नहीं फटक सकते थे। लेकिन मजदूर-दफ्तर में कभी-कभी नामी गै़र-सरकारी हिन्दुस्तानी आ जाते थे, जिनमें मशहूर कांग्रेसी भी होते थे। श्यामजी इन लोगों से मिलने की कोशिश करते। श्यामजी से मिलकर उन लोगों पर जो असर होता था, वह बड़ा ही दिलचस्प होता था। पर श्यामजी से मिलते ही यह लोग घबरा उठते थे और न सिर्फ पब्लिक में ही उनसे मिलने से बचने की कोशिश करते थे, बल्कि ख़ानगी में भी उनसे मिलने के लिए किसी-न-किसी बहाने से माफ़ी मांग लेते थे। वे लोग समझते थे कि श्यामजी से ताल्लुक रखने या उनके साथ देखे जाने से ख़ैर नहीं है। इसलिए श्यामजी और उनकी पत्नी को एकाकी ज़िन्दगी बतानी पड़ती थी। उनके न तो कोई बाल-बच्चे ही थे, न कोई रिश्तेदार या दोस्त ही। उनका कोई साथी भी नहीं था। शायद किसी भी मनुष्य-प्राणी से उनका सम्पर्क नहीं था। वह तो पुराने ज़माने की यादगार थे। सचमुच उनका ज़माना गुज़र चुका था। मौजूदा ज़माना उनके लिए मौजूं नहीं था। इसलिए दुनिया उनकी तरफ मुंह फेरकर मज़े से चली जा रही थी। लेकिन फिर भी उनकी आंखों में पुराना तेज था, और यद्यपि उनमें और मुझमें एक-सी कोई चीज़ नहीं थी, फिर भी उनके प्रति मैं अपनी हमदर्दी व इज्जत को नहीं रोक सकता था।’ हाल ही में अख़बारों में ख़बर छपी कि वह मर गये ओर उनके कुछ दिन बाद ही वह भली गुजराती महिला भी, जो दूसरे मुल्कों में देश-निकाले में भी ज़िन्दगी-भर उनके साथ रही थी, मर गई। अख़बारों की ख़बरों में में यह भी कहा गया था कि उन्होंने और उनकी पत्नी ने विदेशों में हिन्दुस्तान की औरतों की शिक्षा के लिए बहुत-सा रुपया छोड़ा है।’    (‘मेरी कहानी’ पृश्ठ-187-188)

विदेश में बनी क्रांतिकारियों की अंतरिम सरकार के राष्ट्रपति बने राजा महेन्द्रप्रताप से भी नेहरू की मुलाकात सर्वप्रथम स्विट्ज़रलैण्ड में हुई थी। ‘मेरी कहानी’ में महेन्द्रप्रताप के बारे में लिखते हैं, ‘एक और मशहूर शख्स, जिनका नाम मैंने अक्सर सुना था। उनकी आशावादिता ज़बरदस्त थी। मेरा ख़याल है कि अब भी वह आशावादी हैं। वह बिल्कुल हवा में रहते हैं और असली हालत से कतई कोई ताल्लुक रखने से इंकार करते हैं। मैंने जब उन्हें पहले-पहल देखा तो थोड़़ा-सा चौंक पड़ा। वह एक अजीब तरह की पोशाक पहने हुए थे, जो तिब्बत के ऊंचे मैदानों के लिए भले ही मौजूं हो या साइबेरिया के मैदानों में भी, लेकिन वह उन दिनों की गर्मियों में वहां बिल्कुल बेमौंजू थी। यह पोशाक एक क़िस्मी की आधी फ़ौजी पोशाक-सी थी। वह ऊंचे रूसी बूट पहने हुए थे और उनके कोट में बहुत-सी बड़ी-बड़ी जेबें थीं, जो फोटो तथा अख़बार इत्यादि से भरी हुई थीं। इन चीजों में जर्मनी के चान्सलर बैथमैन हॉलवेग का एक ख़त था। कै़सर की एक तस्वीर थी, जिस पर उसके अपने दस्तख़त थे। तिब्बत के दलाई लामा का लिखा हुआ भी एक खूबसूरत खर्रा था। इसके अलावा अनगिनत काग़ज़ात और तस्वीरें थीं। उन जेबों में कितनी चीज़ें भरी हुई थी, यह देखकर हैरत होती थी। उन्होंने हमसे कहा कि एक दफ़ा चीन में उनका एक डिस्पैच बक्स खो गया, जिसमें उनके बड़े कीमती काग़ज़ात भरे हुए थे, तबसे उन्होंने इसी में ज्यादा हिफ़ाजत समझती है कि वह हमेशा अपने काग़ज़ात अपनी जेबों में ही रखें। इसी से उन्होंने इतनी ज्यादा जेबें बनवाई थीं। महेन्द्रप्रताप जी के पास जापान, चीन, तिब्बत और अफ़गानिस्तान की और उन यात्राओं में जो घटनाएं हुईं, उनकी कहानियों की भरमार थी। उनको अपनी ज़िन्दगी तरह-तरह की हालतों में बितानी पड़ी, जिनका हल बड़ा दिलचस्प था। उस वक्त उनको सबसे ज्यादा जोश ‘आनन्द-समाज’ (ए हैपीनेस सोसाइटी) के लिए था, जो खुद उन्होंने क़ायम किया था और जिसका मूल-मन्त्र था-‘आनन्द से रहो।’ मालूम पड़ता था कि इस संस्था को लटाविया (या लिथुआनिया) में बहुत कामयाबी मिली। उनके प्रचार का तरीक़ा यह था कि वह वक़्तन-बवक़्तन जिनेवा या दूसरी जगह होने वाली कान्फ्रेंसों के मेम्बरों के पास पोस्टकार्ड पर छपे हुए अपने बहुत-से सन्देश भेज दिया करते थे। इन पोस्टकार्डों पर उनके दस्तख़त रहते थे। लेकिन जो नाम रहता था वह विचित्र, लम्बा और विविध। महेन्द्रप्रताप का तो उन्होंने म.प्र. यही रहने दिया था, लेकिन उसके साथ और बहुत-से नाम जोड़ दिये गये थे, जो जाहिरा तौर पर जिन देशों की उन्होंने सैर की थी, उनमें से उनके मनचाहे देश के नाम के द्योतक थे। इस तरह वह इस बात पर ज़ोर देते थे कि वह अपने को जाति, मजहब और क़ौम के बन्धनों से ऊपर समझते हैं। उस विचित्र नाम के नीचे आख़िरी विशेषण ‘मनुष्य-जाति का सेवक’ बिल्कुल मौजूं था। महेन्द्रप्रताप जी की बातों को ज्यादा महत्व देना मुश्किल था। वह तो मध्यकालीन उपन्यासों के एक पात्र से–डॉन क्विक्ज़ोट-से–मालूम होते थे, जो गलती से बीसवीं सदी में आ भटके थे। लेकिन थे वह सोलहों आने सच्चे और अपनी धुन के पक्के।’

महेन्द्रप्रताप और श्यामजी कृष्ण वर्मा का नेहरू का मूल्यांकन मार्के का है। चीजों के आर-पार देखना और  निष्पक्षता व निर्भीकता से अपनी बात कहने का नेहरू का पक्ष सचमुच अनोखा था। उनके पास काव्यमय भाषा का दुर्लभ गुण था। पेरिस में नेहरू जब मदाम कामा से मिले, तब का दृश्य उनके शब्दों में देखिये, ‘बूढ़ी मैडम कामा जब किसी के पास आकर उसके चेहरे की तरफ़ ग़ौर से देखतीं, और अंगुली उठाकर एकाएक उससे यह पूछतीं कि आप कौन हैं, तब वह कुछ-कुछ खूँखार और डरावनी-सी मालूम होती थीं। आपके जवाब से उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता, शायद उनको इतना ऊंचा सुनाई देता था कि वह आपकी बात सुन ही नहीं पातीं। वह अपनी इच्छाओं के अनुसार धारणाएं बना लेती हैं, और फिर उन्हीं पर अड़ी रहती हैं, चाहे वाक़यात उन धारणाओं के ख़िलाफ़ ही हों।’

1927 की ही बात है। महीना फरवरी का था। नेहरू कुछ समय पहले ही बर्लिन की एक लघु यात्रा पर गए थे। वहीं उन्हें ब्रुसेल्स में होने वाले साम्राज्य विरोधी प्रस्तावित सम्मेलन का पता लगा। यह उनके राजनीतिक जीवन के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। यहां वे अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्तियों के संपर्क में आए। मौलाना बरकतउल्ला विदेश में बनी क्रांतिकारियों की अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री चुने जा चुके थे जिसका राष्ट्रपति महेन्द्रप्रताप को चुना गया था। मौलाना गदर पार्टी के बड़े नेता थे। वे ब्रुसेल्स में देश के प्रतिनिधि जैसी हैसियत से शामिल हुए। लेनिन ने उन्हें वही सम्मान दिया जो किसी स्वतंत्र देश के राष्ट्राध्यक्ष को दिया जाता है। सामाजिक-राजनीतिक इतिहास के रूसी राज्य अभिलेखागार, मास्को से पता चलता है कि मौलाना बरकतउल्ला ने जवाहरलाल नेहरू के माध्यम से कॉमिन्टर्न और भारतीय राष्ट्रीय क्रांतिकारियों के बीच सहयोग के लिए एक गुप्त योजना की रूपरेखा के दो दस्तावेज भेजे थे। कॉमिन्टर्न को पहला पत्र 6 मई 1926 को बर्लिन से लिखा गया था, ‘हाल ही में मैंने प्रसिद्ध भारतीय क्रांतिकारी जवाहरलाल नेहरू को स्विटजरलैण्ड में देखा जिन्हें विशेष रूप से भारत से भेजा गया है। यह भी दर्ज मिलता है कि बरकतउल्ला और  जवाहरलाल नेहरू गोपनीयता बनाए रखने के लिए कॉमिन्टर्न के प्रतिनिधियों के साथ व्यक्तिगत अनुबन्ध करने वाले एकमात्र प्रतिनिधि होंगे।’ (आजीएएसपी 495-68-207) इस अभियान अर्थात ‘लीग अगेंस्ट इंपीरियलिज्म’ का घोषित उद्देश्य ‘साम्राज्यवादी सरकारों को कमजोर राष्ट्रों पर अत्याचार करने से रोकना’ था। बरकतउल्ला के सम्बन्ध में नेहरू की मूल्यांकनपरक दृष्टि से यह भी बचा नहीं रह सका, ‘मौलवी बरकतउल्ला साहब बिल्कुल दूसरी क़िस्म के थे। वह बड़े मज़ेदार और बूढ़े आदमी थे। बड़े उत्साही और बहुत ही भले। वह बेचारे कुछ सीधे-सादे थे और बहुत तीव्र-बुद्धि न थे। फिर भी वह नये ख़यालात को अपनाने और आजकल की दुनिया को समझने की कोषिष करते थे। जबकि हम लोग स्विट्ज़रलैण्ड में थे, 1927 में सेन-फ्रांसिस्को में उनकी मौत हुई। उनकी मौत की ख़बर सुनकर मुझे बहुत रंज हुआ।’ (मौलाना बरकतउल्ला की कब्र सैक्रामेण्टो में है–लेखक)

यह गौरतलब है कि ब्रुसेल्स में नेहरू पहली बार जार्ज लांसबरी, अलबर्ट आइंस्टीन, रोम्या रोलां तथा मदाम सन यात सेन जैसे विश्वप्रसिद्ध लोगों के संपर्क में आए। ऐसा होने से कांग्रेस में औपनिवेशिक तथा आश्रित देशों की समस्याओं को समझाने में उनकी मदद की। बाद में नेहरू ने अपनी पत्नी की स्वास्थ्य में सुधार होने पर उनके साथ फ्रांस, इंग्लैण्ड, जर्मनी तथा इटली की संक्षिप्त यात्राएं कीं, जहां उन्हें भीखाजी कामा, एमएन राय, वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, मौलवी ओबेदुल्ला जैसे अनेक भारतीय क्रांतिकारियों से मिलने और चर्चा करने का अवसर मिला।

1929 में ही कम्युस्टिों पर अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का ’मेरठ षड्यंत्र केस’ चला जिसमें तीस से ऊपर श्रमिक नेताओं को बन्दी बना लिया गया था। इनमें अंग्रेज हचिन्सन और फिलिप स्प्रेट तथा वेन ब्रैडले भी थे। इस मुकदमे के विरोध में 21 मार्च को मोतीलाल नेहरू ने केन्द्रीय विधान सभा में काम रोको प्रस्ताव पेश किया। आइंस्टीन ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड को पत्र लिखकर इस मुकदमे को हटाने की मांग की। इस मामले में घिरे कैदियों को बचाने के लिए जवाहरलाल नेहरू, एमए अंसारी, कैलाशनाथ काटजू तथा एम.सी.छागला आगे आये।

‘लाहौर षडयंत्र केस’ के एक प्रमुख क्रांतिकारी थे विजय कुमार सिन्हा जिन्हें चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में नवगठित ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ (एचएसआरए) में अन्तर्राष्ट्रीय संपर्कों और प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। 8 अप्रैल 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त की ओर से दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने बाद दी गई गिरफ्तारी की खबर मिलते ही नेहरू ने विजय कुमार सिन्हा को बरेली के बुधौली गांव में स्वतंत्रता सेनानी ठा0 पृृथ्वीराज सिंह के घर बच्चों के ट्यूटर के तौर पर रखवा दिया था। इसका विस्तृत विवरण उनकी पत्नी श्रीराजयम सिन्हा की भारतीय विद्या भवन, बम्बई से प्रकाशित पुस्तक ‘ए रिवोल्यूशनरी क्विस्ट फॉर सैक्रीफाइस’ में दर्ज है। विजय दा फरारी के अपने उन दिनों में ठाकुर साहब के बच्चों के प्यारे ‘बंगाली मास्टर’ बन गए थे जिन्हें वे एक दिन शहर के कैण्ट इलाके में सिनेमा दिखाने लाए और वहीं थोड़ी ही देर में पुलिस की गिरफ्त में आ गए, जहां से उन्हें लाहौर शड्यंत्र वाले मुकदमे में ले जाया गया। बाद को विजय दा को इस मुकदमे में काला पानी की सजा मिली और वे अंडमान भेज दिए गए, लेकिन छूटने के बाद भी उन्होंने बुधौली के अपने फरारी के दिनों और नेहरू को कभी विस्मृत नहीं किया।

‘लाहौर षड्यंत्र केस’ के बंदी क्रांतिकारी जेल के भीतर अनशन की लंबी लड़ाई लड़ रहे थे। साम्राज्यवाद के विरुद्ध उनका यह संघर्ष बाहरी लड़ाई की मुकाबले अधिक कठिन था। भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त और उनके साथियों का अपनी मांगों के लिए अनशन का संग्राम दिल्ली से लेकर लाहौर तक अनवरत जारी रहा। यहां तक कि क्रांतिकारियों को भारतीय जेलों और अंडमान में सजाएं देकर भेजने के बाद भी उनका यह संघर्ष तीव्रतर होता चला गया जिसमें अनेक लोग खेत रहे। 5 जुलाई 1929 को भगतसिंह और दत्त की भूख हड़ताल पर नेहरू ने जेल के भीतर क्रांतिकारियों से मिलने के बाद एक प्रेस वक्तव्य में इन देशभक्तों के साथ गहरी संवेदना प्रकट की थी। उन्होंने भूख हड़तालियों को बलपूर्वक खुराक देने के अमानुषिक तरीकों की घोर निंदा की। नेहरू ने यह भी कहा कि भूख हड़ताली जो तपस्या कर रहे हैं वे किसी निजी स्वार्थ के लिए नहीं कर रहे। सभी राजनीतिक बंदियों को सुविधाएं दिलाना ही उनका एकमात्र उद्देश्य है। उन्होंने यह शुभकामना की थी कि भगतसिंह और दत्त–दोनों वीर योद्धा अपने संग्राम में सफल होंगे।

(शहीद यतीन्द्रनाथ दास के भाई किरणचन्द्र दास जो जेल में अपने भाई के अनशन के समय निरन्तर उनके साथ रहने का अवसर मिला। उन्हीं की लिखी ‘पुस्तक अमर शहीद जतीन दास’ पृष्ठ-35)

लाहौर जेल में अनशन के साथ जो लड़ाई क्रांतिकारियों ने शुरू की उसमें यतीन्द्र नाथ दास 63 दिन बाद शहीद हो गए। तब नेहरू ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, ‘भारत की स्वतंत्रता के लिए अनेकों वीरों ने अपने प्राणों की बलि दी है। आज शहीदों की इस आकाशगंगा में एक और दैदीप्यमान नक्षत्र की वृद्धि हुई है। हमारे बहादुर नौजवानों में से एक और आगे निकला है और उसने हंसते-हंसते अपने प्राणों को देश की आज़ादी के लिए बलिदान कर दिया है। जतीन ने जो कुछ किया अपनी आत्मा की आवाज पर ठीक ही किया, इसलिए अगर हम उनके लिए कुछ शोकपूर्ण शब्द कहें, यह ठीक नहीं, और उनकी कुर्बानी तो इतनी महान् है कि हम उनकी प्रशंसा में कुछ कहें भी तो क्या कहें। कई सप्ताह की लम्बी और यातनापूर्ण तपस्या के बाद जतीन ने स्वतंत्रता प्राप्त कर ही ली और एक ऐसे संसार में चले गए जहां अंग्रेजी साम्राज्य का कोई अमल-दखल नहीं। मैंने लाहौर जेल के अस्पताल में जतीन को देखा था–क्या मैं उस चेहरे को भूल सकता हूं–जिसमें एक सुुकुमारी कन्या की सी कोमलता थी–लेकिन इसके साथ ही मैंने यह भी महसूस किया कि उसी चेहरे में लोहे की सी सख्ती और फौलाद की ताकत और बरफ की शीतलता–दिखाई देती है और ऐसा चेहरा उसी नर वीर का हो सकता हैै जिसकी गणना देश की विभूतियों में होती हो। जतीन तो अपना कर्त्तव्य पूरा करके सफल हुए–लेकिन हम किधर जाएंगे–हमारे लिए ही तो उन्होंने अपनी जिन्दगी दी थी। क्या इतना ही काफी है कि हम कुछ आंसू बहा लें, शोक प्रस्ताव पास कर लें और सरकार के खिलाफ नारे लगा लें–इसके बाद हम अपने दैनिक धन्धों में फिर उलझ जाएं और भूल जाएं कि हमारे देश की जनता लूट-खसोट की चक्की में पिस रही है, जो दुःख और यातना हमारा देश भुगत रहा है, उसे भूल जाएं–हमारे सैकड़ों नौजवान ऐसे हैं, जो जेल की काल कोठरियों में अपने यौवन और उमंगों भरी जिन्दगी को दांव पर लगाए बैठे हैं–और देश सेवा कर रहे हैं, लेकिन जिनके साथ इन्सानों का-सा सुलूक नहीं हो रहा। यह जुल्म कब तक होते रहेंगे। यह कहां का न्याय है कि देश के बहादुर नौजवानों को इतनी यातनाएं भुगतनी पड़ें। वह दिन कब आएगा कि ये देशभक्त आज़ाद और खुली हवा में सांस ले सकेंगे और एक स्वतंत्र आकाश के नीचे विचरेंगे। आखिर भूख हड़ताल करने की स्थिति ही क्यों आए ? क्या यह हकीकत नहीं कि हमारे महान् देश में उपज के इतने साधन हैं कि सबकी आवश्यकताएँ पूरी हो सकती हैं तो फिर परिश्रमकर्त्ता मजदूरों और किसानों को भूख का शिकार क्यों होना पड़े और उनको बोझा खींचने वाले पशुओं का-सा जीवन क्यों बिताना पड़े? आओ हम कमर कस कर तैयार हो जाएं और अपने दिलों कोे मजबूत कर लें और परमात्मा से प्रार्थना करें कि हमें भी उसी रास्ते पर कदम उठाना सिखाए जिस रास्ते पर चलते-चलते जतीन शहीद हो गए हैं। हमें अब प्रतिज्ञा करनी है–जिस किसी को हम अपना प्रिय या इष्ट मानते हैं उसके नाम पर–कि हम गुलामी और शोषण का अन्त करके रहेंगे।–लेकिन याद रखिए–करनी कथनी से कहीं ज्यादा महान् होती है–और जब हम अपनी आंखों के सामने जतीन को देश पर कुर्बान होता देख चुके हैं तो फिर कुछ कहने की गुंजाइश ही क्या रह गई है। नतमस्तक होकर, आओ, हम प्रार्थना करें कि परमात्मा हमें आगे बढ़ने की शक्ति प्रदान करे और हम संघर्ष जारी रखें, चाहे यह कितना ही लम्बा क्यों न हो और हमें कितनी ही कुर्बानियां क्यों न देनी पड़ें–यह संघर्ष हमारी अंतिम विजय तक चलता रहे–ऐसा हमारा निश्चचय है।’    (वही ‘जतीन दास’ पृश्ठ-87 से 89)

लाहौर और काकोरी मामले के बंदी क्रांतिकारियों की जेल के भीतर दशा, उनकी भूख हड़ताल आदि के सम्बन्ध में नेहरू ने प्रेस को जारी बयान में कहा था, ‘यूपी जेल जांच समिति ने गत वर्ष सिफारिश की थी कि इन राजबन्दियों को ऊपर की क्लास में रखा जाए और उन्हें सुविधाएं दी जाएं परन्तु ऐसा नहीं किया गया। जेल में मिलने गये एक व्यक्ति के अनुसार शचीन्द्रनाथ सान्याल को पूर्णतः तनहाई में रखा गया है और उन्हें बेड़ियां डाल दी गई हैं। छःह माह से अधिक तनहाई में रहने के कारण उनके मानसिक संतुलन के बिगड़ने के संकेत मिले हैं। उनका वजन 24 पौंड गिर गया है। इसमें से 5 पौंड गत तीन माह में गिरा है। मुझे जानकारी मिली है कि सुरेशचंद्र भट्टाचार्य को क्षय रोग हो गया है और वह सुल्तानपुर जेल में हैं। उनका वजन 30 पौंड गिर गया है। रामकृष्ण खत्री, भूपेन्द्रनाथ सान्याल, राजकुमार सिन्हा और रामनाथ के साथ, हर प्रकार का दुर्व्यहार किया जा रहा है। जेल की दीवारों के बाहर सच्चा समाचार आना कठिन है। परन्तु थोड़ी बहुत जो सूचना मिली है उससे यह बात स्पष्ट है कि इन राजनीतिक बन्दियों को सताया जा रहा है और उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है।’  (‘लीडर’ 14 जनवरी, 1930)

‘लिबर्टी’ ने भी अपने 14 जनवरी के अंक में नेहरू के इस वक्तव्य पर टिप्पणी की थी। नेहरू इस बात से आश्चर्यचकित होते थे कि क्रांतिकारी इतनी कठिन परिस्थितियों मेें जेल के भीतर अपने अध्ययन और चिंतन का क्रम जारी रखते हैं। एक बार की बात है जब नेहरू और सान्याल दोनों इलाहाबाद की जेल में थे। सान्याल ने नेहरू को एक स्लिप लिखकर भेजी जिसमें उन्होंने उस समय प्रकाशित नई पुस्तक ‘दि डिकलाइन ऑफ वेस्ट’ को पढ़ने के लिए देने का अनुरोध किया। नेहरू ने सान्याल को लिखा कि इतनी मोटी तथा गम्भीर पुस्तक जेल में पढ़ने के लिए उपयुक्त नहीं है। पर सान्याल ने किसी सूत्र से वह पुस्तक प्राप्त कर ली और उसे एक माह से कम अवधि में पढ़ लिया। उन्होंने किताब में ही नोट लिख दिया। इसके बाद उन्होंने नेहरू से कहा कि वह इस पुस्तक के बारे में अपने विचार बतायें और अपनी टिप्पणियां भी उन्हें दे दीं। नेहरू ने तुरन्त सान्याल को जवाब में लिखा, ‘मुुझे यह जानकार आश्चर्य हुआ कि इतने कम समय में उन्होंने यह पुस्तक पूरी पढ़ ली। नेहरू ने इतनी मोटी पुस्तक के आलोचनात्मक अध्ययन की सान्याल की क्षमता का कम अनुमान लगाने के लिए उनसे क्षमा मांगी।

इसके बाद आया 27 फरवरी 1931 का दिन जब इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में क्रांतिकारी दल के सेनापति चन्द्रशेखर आज़ाद ब्रिटिश पुलिस से घिर कर सन्मुख युद्ध मारे गए। यह सूचना मिलने पर नेहरू ने कहा था, ‘इस लड़के की शहादत ने आज इलाहाबाद वालों का सिर ऊंचा कर दिया।’ उसके बाद इलाहाबाद में हुई शोक सभा में सान्याल जी की पत्नी प्रतिभा सान्याल और कमला नेहरू ने हिस्सेदारी की थी। आज़ाद अपने जीवन काल में नेहरू से मुलाकात कर चुके थे। ‘मेरी कहानी’ में नेहरू लिखते हैं, ‘मेरे जेल में से छूटने के पहले ही या पिताजी के मरने से पहले या बाद यह घटना हुई। हमारे स्थान पर एक अजनबी मुझसे मिलने आया। मुझसे कहा गया कि वह चन्द्रशेखर आज़ाद है। मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा था। हां, दस वर्ष पहले मैंने उसका नाम जरूर सुना था, जबकि 1921 के असहयोग-आन्दोलन के ज़माने में स्कूल से असहयोग करके वह जेल गया था। इस समय वह कोई पन्द्रह साल का रहा होगा और जेल के नियम-भंग करने के अपराध में जेल में उसे बेंत लगाये गये थे। वह मुझसे इसलिए मिलने को तैयार हुआ था कि हमारे छूट जाने से आमतौर पर आमतौर पर आशाएं बंधने लगीं कि सरकार और कांग्रेस में कुछ-न-कुछ समझौता होने वाला है। वह मुझसे जानना चाहता था कि अगर कोई समझौता हो तो उनके दल के लोगों को भी कु्छ शान्ति मिलेगी या नहीं? क्या उनके साथ तब भी विद्रोहियों का-सा बर्ताव किया जायेगा? जगह-जगह उनका पीछा इसी तरह किया जायेगा? उनके सिरों के लिए इनाम घोषित होते ही रहेंगे और फांसी का तख्ता हमेशा लटकता रहा करेगा, या उनके लिए शान्ति केे साथ काम-धन्धे में लग जाने की भी कोई सम्भावना होगी? उसने कहा कि खुद मेरा तथा मेरे दूसरे साथियों का यह विश्वास हो चुका है कि आतंकवादी तरीके बिलकुल बेकार हैं और उनसे कोई लाभ नहीं है। हां, वह यह मानने को तैयार नहीं था कि शान्तिमय साधनों से ही हिन्दुस्तान को आज़ादी मिल लायेगी। उसने कहा, ‘आगे कभी सशस्त्र लड़ाई का मौका आ सकता है। मगर वह आतंकवाद न होगा। हिन्दु्स्तान की आज़ादी के लिए उसने आतंकवाद को खारिज ही कर दिया था। पर उसने फिर पूछा कि अगर मुझे शान्ति के साथ जमकर बैठने का मौका न दिया जाय, रोज-रोज मेरा पीछा किया जाय, तो मैं क्या करूंगा? उसने कहा, इधर हाल में जो आतंककारी घटनाएं हुई हैं वे ज्यादातर आत्म-रक्षा के लिए ही की गई हैं। मुझे आज़ाद से यह खबर सुनकर खुशी हुई थी और बाद में उसका और सबूत भी मिल गया कि आतंकवाद पर से उन लोगों का विश्वास हट गया है। एक दल के विचार के रूप में तो वह अवश्य ही लगभग मर गया है और जो कुछ व्यक्तिगत इक्की-दुक्की घटनाएं हो जाती हैं वे या तो किसी कारण बदले के लिए या बचाव के लिए या किसी की व्यक्तिगत लहर के फलस्वरूप हुई घटनाएं हैं। न कि आम धारणा के फलस्वरूप। अवश्य ही इसके यह मानी नहीं हैं कि पुराने आतंकवादी और उनके नये साथी अहिंसा के हामी बन गए हैं या ब्रिटिश सरकार के भक्त बन गये हैं। हां, अब वे पहले की तरह आतंकवादियों की भाषा में नहीं सोचते। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि उनमें से बहुतों की मनोवृत्ति निश्चित रूप से फासिस्ट बन गई थी। मैंने चन्द्रशेखर आज़ाद को अपना राजनैतिक सिद्धान्त समझाने की कोशिश की और यह भी कोशिश की कि वह मेरे दृष्टिबिंदु का कायल हो जाय। लेकिन उसके असली सवाल, कि ‘अब मैं क्या करूं?’ का मेरे पास कोई जवाब न था। ऐसी कोई बात होती हुई नहीं दिखाई देती थी कि जिससे उसको या उसके जैसों को कोई राहत या शान्ति मिले। मैं जो कुछ उसे कह सकता था वह इतना ही कि वह भविष्य में आतंकवादी कार्यों को रोकने की कोशिश करे, क्योंकि उससे हमारे बड़े कार्य को तथा खुद उसके दल को भी नुकसान पहुंचेगा। दो-तीन हफ्ते बाद ही, जब गांधी-इर्विन बातचीत चल रही थी मैंने दिल्ली में सुना कि चन्द्रशेखर आज़ाद पर इलाहाबाद में पुलिस ने गोली चलाई और वह मर गया। दिन के वक्त एक पार्क में वह पहचाना गया और पुलिस के एक बड़े दल ने आकर उसे घेर लिया। एक पेड़ के पीछे से उसने अपने को बचाने की कोशिश की। दोनों तरफ से गोलियां चलीं। एक-दो पुलिस वालों को घायल कर अन्त में गोली लगने से वह मर गया।’

निश्चय ही नेहरू उस क्रांतिकारी संग्राम से पूरी तरह सहमत नहीं थे जिसे क्रांतिकारी दल के लोग संचालित कर रहे थे। बावजूद इसके उन्होंने आज़ाद को उनके क्रांतिकारी के कार्यों के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की थी, यह सब भलीभांति जानते हैं।

फिर 23 मार्च 1931 का दिन, जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने देश के तीन नररत्नों भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव को लाहौर जेल में फांसी पर झुला दिया। लोग हैरत में रह गए। एक दिन पहले सारे अन्तर्राष्ट्रीय नियमों को तोड़कर संध्या के समय उन्हें चुपके से फांसी दे दी गई। नई दिल्ली में राष्ट्रपति की हैसियत से नेहरू ने बहुत आहत होकर अगले दिन जो वक्तव्य दिया, वह इस प्रकार है, ‘मैंने इन देशभक्तों के अंतिम दिनों में अपनी जबान पर लगाम लगा रखी थी, क्योंकि मेरे जबान खोलते ही कहीं फांसी की सजा रद्द होने में बाधा न पहुंचे। यद्यपि मेरा हृदय बिल्कुल पक गया था और खून अंदर से उबाल खा रहा था, परंतु तिस पर भी मैं मौन था। परंतु अब फैसला हो गया। हम देश भर के लोग मिलकर भी भारत के ऐसे युवक की रक्षा न कर सके, जो हमारा प्यारा रत्न था और जिसका अदम्य उत्साह, त्याग और विकट साहस भारत के युवकों को उत्साहित करता था। भारत आज अपने प्यारे बच्चों को फांसी से छुड़ाने में असमर्थ है। इस फांसी के विरोध में देश भर में हड़तालें होंगी और जुलूस निकलेंगे। हमारी इस परतंत्रता और असहायता के कारण देश के कोने-कोने में शोक का अंधकार छा जाएगा। परंतु उनके ऊपर हमें अभिमान भी होगा और जब इंग्लैण्ड हमसे संधि का प्रस्ताव करेगा, उस समय हमारे बीच भगतसिंह का मृत शरीर उस समय तक रहेगा, जब तक हमें उसे विस्मृत न कर दें।’     (अमर शहीद भगतसिंह’ लेखक: जितेन्द्रनाथ सान्याल पृष्ठ-293)

‘अभ्युदय’ के 8 मई, 1931 के अंक में नेहरू ने भगतसिंह की शहादत पर लिखा था, ‘यह क्या बात है कि यह लड़का यकायक इतना प्रसिद्ध हो गया और दूसरों के लिए रहनुमा हो गया। महात्मा गांधी, जो अंहिंसा के दूत हैं, आज भगतसिंह के महान त्याग की प्रशंसा करते हैं। वैसे तो पेशावर, शोलापुर, बम्बई और अन्य स्थानों में सैकड़ों आदमियों ने अपनी जान दी है। बात यह है कि भगतसिंह का स्वार्थ-त्याग और उसकी वीरता बहुत ऊंचे दर्जे की थी। लेकिन इस उत्तेजना और जोश के समय भगतसिंह का सम्मान करते हुए हमें यह न भूलना चाहिए कि हमने अहिंसा के मार्ग से अपने लक्ष्य की प्राप्ति का निश्चय किया है। मैं साफ कहना चाहता हूं कि मुझे ऐसे मार्ग का अवलम्बन किए जाने पर लज्जा नहीं होती लेकिन मैं अनुभव करता हूं कि हिंसा मार्ग का अवलम्बन करने से देश का सर्वोत्कृष्ट हित नहीं हो सकता और इससे साम्प्रदायिक होने का भी भय है। हम कह नहीं सकते कि भारत के स्वतंत्र होने के पहले हमें कितने भगतसिंहों का बलिदान करना पड़ेगा। भगतसिंह से यह सबक लेना चाहिए कि हमें देश के लिए बहादुरी के साथ मरना चाहिए।’ क्या यह कहना उचित ही होगा कि 1929 की लाहौर कांग्रेस पर भगतसिंह की फांसी का साया था। नेहरू ने वहां अध्यक्ष की हैसियत से ‘पूर्ण स्वाधीनता’ का प्रस्ताव रखा जिसे पारित कराते समय वे उत्साह से गौरवान्वित थे।

यह आश्चर्यजनक है कि नेहरू ने लगातार भगतसिंह की क्रांति शैली का गांधी के विरोध के बावजूद समर्थन किया। असेम्बली बम कांड में क्रांतिकारियों के बयान को नेहरू ने कांग्रेस के बुलेटिन में प्रकाशित कर दिया। इसके लिए गांधी उनसे नाराज हुए। नेहरू ने संकोच के साथ गांधी को लिखा, ‘मुुझे खेद है कि आपको मेरा भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के बयान को कांग्रेस बुलेटिन में देना सही नहीं लगा। यह बयान इसलिए छापना पड़ा क्योंकि कांग्रेसी हलकों में प्रायः इस कार्रवाई की सराहना हुई।’ कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने पर 26 जनवरी, 1930 को नेहरू ने प्रेस-विज्ञप्ति में कहा, ‘हमारे राष्ट्रीय तिरंगे झंडे और मजदूरों के लाल झंडे के बीच न कोई दुश्मनी है और न होनी चाहिए। मैं लाल झंडे का सम्मान करता हूं क्योंकि यह मजदूरों के खून और दुःखों का प्रतीक है।’

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मैं यहां नेहरू के देहरादून जेल में बंदी दिनों को याद करना चाहता हूं। उस समय ‘पेशावर काण्ड’ के विख्यात क्रांतिकारी चन्द्रसिंह गढ़वाली अपने कैदी जीवन से छूटे तो उनके रहने का कोई ठिकाना न था। उनकी ज़मीन-जायदाद तब सब जब्त हो चुकी थी और गढ़वाल प्रवेश पर भी प्रतिबंध लगा हुआ था। गढ़वाली ने नेहरू को यह जानकारी भेजी। उन्होंने जेल से ही गढ़वाली को एक पत्र में लिखा-

प्रिय चन्द्रसिंह जी,

        आपका पत्र मिला। आपके छूटने की ख़बर से मुझे बेहद खुशी हुई। ‘आनन्द भवन’ में आप इत्मीनान से जब तक चाहें, हमारे मेहमान होकर रहें। मुझे अफसोस है, मैं आपसे मिलने के लिए वहां खुद नहीं मौजूद रहूंगा। जब बापू जी आपको बुलायें आप वर्धा जाइये और जितने दिन तक कहें, वहां उनके पास रहिये। फिर वापस आकर ‘आनन्द भवन’ में ठहरिये। मैंने महादेव भाई से जिक्र कर दिया है। 

                                                     आपका – जवाहरलाल नेहरू

इस पत्र पर तिथि अंकित नहीं है। इसकी नकल मुझे अपने प्रसिद्ध पत्रकार पी.डी टण्डन से इलाहाबाद में प्राप्त हुई थी। उन्होंने इसे लेकर एक छोटा मजमून भी लिखा जब 1941 में गढ़वाली से इलाहाबाद में हुई मुलाकात में उनके झोले में उन्हें नेहरू का यह पत्र मिला।

(गढ़वाली पर पीडी टंडन के ‘नवनीत’ पत्रिका में छपे लेख से)

गढ़वाली बहुत दिन तक ‘आनन्द भवन’ में नहीं रहे। वे गांधी के पास वर्धा भी गए लेकिन वहां टिके नहीं। उनका स्वभाव ही कुछ ऐसा था। नेहरू उन्हें ‘बड़े भाई’ कहा करते थे।

एक बार का किस्सा है कि उत्तर प्रदेश की गोविन्द बल्लभ पन्त सरकार से गढ़वाली को पत्र मिला कि 30 रुपए मासिक की पेंशन दी जा रही है। पढ़ा तो बहुत गुस्से में आ गए। जिद्दी थे ही। उन्होंने उस कागज को फाड़कर एक लिफाफे में रखा और पन्त को कुछ उल्टा-सीधा लिखकर भेज दिया। गढ़वाली की नाराजगी का यह मामला नेहरू तक पहुंचा। दिल्ली की एक मुलाकात में नेहरू ने आखिर पूछ ही लिया, ‘बड़े भाई, पेंशन क्यों नहीं लेते ?’ गढ़वाली अपने लहजे में बोले, ‘कांग्रेसियों को सौ रुपए और मुझे सिर्फ तीस ?’ नेहरू कुछ कहने लगे तभी बीच में बात काटकर गढ़वाली ने कहा कि मुझे कुछ एकमु्श्त रकम दे दी जाए जिससे मैं सहकारी बैंकों की कर्जदारी के बोझ को हल्का कर सकूं।’ नेहरू ने उन्हें ऐसा करने का आश्वासन दिया। नेहरू गढ़वाली की पारिवारिक स्थिति से बहुत पहले से परिचित थे। वे आज़ादी की लड़ाई के दौर में गढ़वाली की पत्नी भागीरथी देवी को निरंतर आर्थिक सहयोग करते रहे। उस स्त्री ने गढ़वाली के जेल में रहते बहुत कष्टपूर्ण जीवन जिया। नेहरू का एक पत्र हमारे सामने है-

आनन्द भवन, इलाहाबाद

5-10-40

श्री चन्द्रसिंह गढ़वाली                                                                                    ज़िला जेल, देहरादून

    प्रिय चन्द्रसिंह जी,

          मैं अभी लखनऊ गया और मैंने वहां दरयाफ्त किया कि पिछले वर्ष श्रीमती भागीरथी देवी को क्या भेजा गया। मुझे मालूम हुआ कि सितंबर 1936 से जुलाई 1940 तक कुल 220 रुपये भेजे गए थे। उनको फौरन मैंने 50 रुपये और भेजवा दिये। इसका भी इंतजाम कर दिया है, कि उनके नये पते पर हर महीने 20 रुपये भेजे जायेंगे। मैंने उनको पत्र लिखा है, कि वह मुझे लिखें अगर उनको और रुपये की आवश्यकता हो-मैं उसका प्रबंध कर दूंगा। अगर मैं न हुआ तब श्री महादेव देसाई, सेवाग्राम, वर्धा सी0पी0 को लिखें।

          आशा है आप अच्छे होंगे।

                                                         आपका–जवाहर लाल नेहरू

(राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक ‘वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली’ पृश्ठ-255)

यहां देहरादून जेल के उस प्रसंग को याद करना भी जरूरी है जब वहां गढ़वाली को उसी कमरे में रखा गया था जिसमें नेहरू रहे थे। वे यहां 9 महीने तक रहे। उनकी पत्नी भागीरथी देवी का गुरुकुल में पढ़ने का इंतजाम कर दिया गया था। युक्त-प्रदेश की कांग्रेस कमेटी ने भागीरथी को तीस रुपया मासिक देने का भार अपने ऊपर ले लिया था लेकिन हुआ यह कि कमेटी के मंत्री महोदय उसे भेजना भूल गए। गुुरुकुल के प्रबंधक रमेश चंद्र बहुखण्डी गढ़वाली थे। जब भागीरथी देवी का पैसा नहीं आया तो उनके सामने समस्या खड़ी हो गई कि खर्च का क्या किया जाय। उन्होंने भागीरथी देवी को निकाल बाहर करने की जगह यही अच्छा समझा कि उनसे कोई काम लिया जाय, और उन्हें चौका-बर्तन पर लगा दिया। वे एक दिन मुलाकात के लिए अपने पति गढ़वाली के पास आईं तो उसकी साड़ी पर कालिख लगी देखकर पूछने पर उन्होंने बताया कि मैं तो चौका-बर्तन करती हूं। गढ़वाली को यह सुनकर बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने नेहरू और गांधी को इसके बारे में चिट्ठी लिखी। गुरुकुल की आचार्या विद्यावती सेठ उनसे मिलने आईं तब उनसे भी उन्होंने यह बात कही। बहुखण्डी ने पूछने पर बताया कि पैसा नहीं आया, मैं क्या करता ? नेहरू ने पता लगाकर तुरंत रुपया भिजवाया। बहुखण्डी निकाले गये। इस प्रकार चार-पांच महीने के चौका-बर्तन में लगे रहने के बाद भागीरथी देवी की पढ़ाई फिर शुरू हुई। बहुखण्डी, भागीरथी देवी से मुुलाकात करने के बहाने खुद भी नेहरू से भेंट करने आये। इसके तीसरे दिन नेहरू लखनऊ में आ गये। देहरादून जेल में रहते नेहरू के स्थान को देखकर इंजीनियर ने बताया कि इसकी कड़ियां कमजोर हैं, छत गिरने का डर है, उधेड़ कर मरम्मत करने की जरूरत है। नेहरू वहां नहीं रह सकते थे इसलिए उन्हें लखनऊ जिला जेल भेज दिया गया जहां वे 42 दिन रहे। यहां गढ़वाली को उनके निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। एक दिन नेहरू ने उनसे पूछ लिया, ‘भागीरथी कहां है ?’ वे बोले, ‘यहां आ गई है।’ इसी सिलसिले में उन्होंने कहा कि एक ‘गलती’ हो गई है। नेहरू ने तुरन्त कहा, ‘शाबाश बहादुर!’ गढ़वाली ने आशंकित होकर कहा, ‘लोक (लोग) क्या कहेंगे, मेरे राजनीतिक जीवन पर आंच लगेगी।’ नेहरू ने कहा, ‘क्या बात करते हो। कोई चिंता मत करो।’ फिर भी गढ़वाली बोल ही पड़े, ‘बेचारे जेलर भोला सिंह का क्या होगा ?’ नेहरू बोले, ‘6 जून को विजय लक्ष्मी छूटेगी। उसे मैं कह दूंगा। वह भागीरथी को नौबस्ता से आनंद भवन ले जायगी। वहां सब इंतजाम हो जाएगा।’

विजय लक्ष्मी छूटने पर नौबस्ता गईं। मुहल्ले वालों ने उनका बड़ा स्वागत किया और यह जानकर उन्हें कौतूहल हुआ कि गढ़वाली की बीवी को देखने पं0 नेहरू की बहन आई हैं। लेकिन वहां एक बूढ़ी ने उस वक्त भागीरथी को जाने नहीं दिया। कहा कि अभी साइत अच्छी नहीं है। अच्छी साइत पर नेहरू के प्राइवेट सेक्रेटरी शिवदत्त उपाध्याय आये और वह 10 मार्च 1941 को भागीरथी देवी को कानपुर होते ‘आनंद भवन’ (इलाहाबाद) ले गये। वहीं 26 जुलाई 1941 को गढ़वाली की पहली संतान माधवी का जन्म हुआ।

जेल में रहते गढ़वाली बखूबी नेहरू के स्वभाव को जान गए थे। इस बात को भी कि नेहरू कई बार अचानक कुछ क्षण के लिए बहुत तुनकमिजाज हो जाते थे। राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं, ‘बड़े भाई (गढ़वाली) उस दो मिनट के नेहरू को भी पसंद नहीं करते जबकि वह किसी बात पर बौखला उठते। लेकिन, उनका कहना है, दो मिनट को छोड़कर बाकी 58 मिनट के नेहरू स्वभाव में बड़े ही सुंन्दर, कोमल और किसी के लिए लिये भी आदर तथा स्नेह के भाजन हो सकते हैं। गुस्से का उबाल आता, जरा देर में वह प्रचण्ड रूप धारण कर लेता, लेकिन उसके विलुप्त होते देर नहीं लगती। जिसे एक बार दो मिनट वाले नेहरू से मिलने का मौका मिला, वह उनके प्रति गलत धारणा रख सकता है। नेहरू की दिनचर्या को ‘बड़े भाई’ बड़े गौर से देखते।’ एक बार जेल के भीतर गढ़वाली के सामने चने मिली मोटी-झोटी रोटी और रूखी-सूखी दाल सामने थी। इसी समय नेहरू वहां आ पहुंचे। उन्होंने देखकर एकाएक कहा, ‘बड़े भाई, तुम खाना खाना नहीं जानते।’

‘फिर कैसे खाना चाहिए ?’

इस पर नेहरू ने रोटी ले ली। उसको मींजकर गोली बना ली, फिर गोली आसमान की ओर फेंकी और वह सधी हुई मुंह के भीतर आ पड़ी। ‘बड़े भाई’ ने भी कोशिश की, कई गोलियां आसमान में फेंकी, लेकिन वह मुंह की जगह ज़मीन पर जा गिरी। नेहरू ने एक अधिक गोलियां खाईं और एक को भी मुंह से नीचे नहीं गिरने दिया। ‘बड़े भाई’ को उनका लोहा मानना पड़ा। यहां एक और बात का उल्लेख करना चाहूंगा कि नेहरू की दी हुई सौ-डेढ़ सौ पुस्तकें गढ़वाली के पास थीं। छूटने पर उन्होंने उन्हें संरक्षित रखने के ख्याल से लैन्सडौन की बड़थ्वाल लाइब्रेरी को दे दीं लेकिन वहां से लोग उठा ले गए और इस तरह वह बौद्धिक सम्पदा पूरी तरह नष्ट हो गई।

हिन्दी के प्रसिद्ध पत्रकार और लेखक पं0 बनारसी दास चतुर्वेदी के माध्यम से जब नेहरू को शहीद चन्द्रषेखर आज़ाद की मां जगरानी देवी के जीवित होने और उनके दुर्दिनों की जानकारी मिली तो उन्हें सबसे पहले 500 रुपए की आर्थिक सहायता भेजने वाले नेहरू ही थे। उन्होंने 1945 में अपनी सिंध यात्रा के दौरान शहीद हेमू कालाणी की माता श्रीमती जेठी बाई कालाणी से मिलकर उनके शहीद पुत्र को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी। हरिद्वार में शहीद होने वाले जगदीश प्रसाद वत्स की स्मृति में नेहरू ने 1945 में जो ट्राफी उनके परिवार को भेंट की, उसकी शब्दावली इस प्रकार है, ‘दिस ट्रॉफी अवार्डेड टु वत्स फैमिली ऑफ खजूरी अकबरपुर इन मेमोरी ऑफ श्री जगदीश प्रसाद वत्स द मार्टियर हू वाज शॉट डेड इन पुलिस स्ट्रगल ऑफ 1942 एट हरिद्वार।’ श्री वत्स आयुर्वेदिक कालेज हरिद्वार के छात्र थे जो 14 अगस्त 1942 को हरिद्वार रेलवे स्टेशन पर झंडा फहराते हुए पुलिस की गोली से शहीद हो गए। बाद को उनका शव परिवार वालों को नहीं दिया गया। पुलिस ने उन पर रेलवे बुकिंग ऑफिस से पैसा लूटने का झूठा आरोप लगाया था, पर जज ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। ऋषिकुल स्तानक संघ की ओर से शहीद वत्स की प्रतिमा अब हरिद्वार के आयुर्वेदिक कालेज के प्रांगण में स्थापित करा दी गई है।

नेहरू का सम्बन्ध देश के बड़े क्रांतिकारियों से रहा। राजा महेन्द्रप्रताप, मौलाना बरकतउल्ला के अलावा नेता जी सुभाष चन्द्र बोस, एमएन राय, कर्मवीर पं0 सुन्दर लाल, दुर्गा भाभी, दामोदर स्वरूप सेठ, कुमिल्ला में डीएम स्टीवेंस को उसके बंगले पर मारने वाली बंगाल की क्रांतिकारिणी शांति घोष, काकोरी केस के राजकुमार सिन्हा, झांसी बम कांड के लक्ष्मीकान्त शुक्ल, कानपुर के क्रांतिकारी नारायण प्रसाद अरोड़ा आदि से उनके रिश्ते को जानना सचमुच बहुत दिलचस्प और प्रेरक है। शांति घोष ने अपनी आत्मकथा ‘अरुण वह्नि’ में लिखा है कि उनके पिता ने, जब वे छात्रा थीं, उन्हें एक नाटिका में हिस्सेदारी करने जाने से रोकते हुए कहा था, ‘जवाहरलाल कारागार में हैं और युवराज का मनोरंजन करने के लिए लड़के-लड़कियां स्कूल जाएंगे, यह कभी नहीं हो सकता।’ यह थी सुदूर बंगाल की धरती तक नेहरू की लोकप्रियता।

नेहरू क्रांतिकारियों का बहुत सम्मान करते थे। यह सर्वविदित है कि ‘आज़ाद हिन्द फौज’ के सैनिकों पर चले मुकदमे में नेहरू ने वकील की हैसियत से पैरवी की थी। वे ‘आज़ाद हिन्द फौज डिफेन्स कमेटी’ में भी थे। नेहरू 1951 में चीन जाने वाले एक गुडविल मिशन का नेता बनाकर पं0 सुन्दरलाल को वहां भेजा, जिसमें सदस्य के रूप में उनके साथ मुल्कराज आनन्द और आरके करंजिया जैसे लोगों को सम्मिलित किया गया था। चीन में सुन्दरलाल की माओ से भेंट हुई। एक समय के बड़े क्रांतिकारी और बाद को गांधी-मार्ग के अनुयायी बने सुन्दरलाल ने स्वयं नेहरू के बारे में लिखा है, ‘जवाहरलाल के साथ मेरा राजनीतिक संपर्क सन् 1916 में हुआ था। वे भी अपने पिता की तरह जाति, संप्रदाय, वर्ण, धर्म और प्रान्तीयता के विचारों से ऊपर थे। वे भारतीय पहले थे और भारतीय अन्त में। अपने उदार दृष्टकोण में वे साधारण मानवजाति के विश्वासी थे और अगर अवसर मिलता तो वे अपने को विश्व का नागरिक कहना अधिक पसन्द करते। वे सभी जातियों की, बड़ी हों या छोटी, राजनैतिक आज़ादी के दृढ़ विश्वासी थे। विदेशी अधिकार से अपने देश को तथा अन्य पराधीन देशों को मुक्त करने के लिये काम करने को, उसके लिये जीने और, ज़रूरत हो तो, सभी प्रकार के त्याग करने को उनका दिल ललचाता था। फिर भी पहले पहल जवाहरलाल अत्यन्त स्पष्ट नहीं थे कि किस उपाय से हिन्दुस्तान को अंगरेजी राज से मुक्त कराया जाय। उन्होंने देखा कि भारत के लाखों-लाख लोगों के ऊपर महात्मा गांधी का अत्यंत व्यापक और बढ़ता हुआ प्रभाव है एवं महात्मा गांधी के उपायों ने राष्ट्र की कल्पना को प्रभावित कर रखा है। इसलिए वे बहुधा महात्मा गांधी को एक जादूगर कहते थे। सन् 1947 में, जब भारत को स्वतंत्रता मिली और देश में संसदीय सरकार की प्रतिष्ठा हुई तो गांधी जी दर्द भरे स्वर में बोले, ‘यह तो बला आ गई, इससे तो मुझे लड़ना पड़ेगा।’राजेन्द्र प्रसाद, बल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू जैसे प्रमुख कांग्रेस नेता इस पर गांधी जी से सहमत नहीं हुये। इस विषय पर जवाहरलाल और गांधी जी के बीच एक आलोचना में मैं उपस्थित था। गांधी जी द्वारा अपना दृष्टिकोण समझाने के बाद, मुझे याद है कि, जवाहरलाल ने उत्तर में ये शब्द कहे थे, ‘आप कहते हैं कि गवर्नमेण्ट छोड़ दें, मेरी समझ में नहीं आता, बड़ी जिम्मेदारी हम पर आई है, यह किस पर छोड़ दें ? अगर कल को कोई तंग-नज़र फ़िरके़वाराना पार्टी पावर में आ गई तो मुल्क का क्या होगा ?’ गांधी ने कहा था, ‘तुम बिल्कुल परवाह न करो, काले चोर के हाथ में गवर्नमेंट आने दो। अगर हम जनता को शिक्षित और मजबूत करेंगे, तो जो कुछ हम जनता की तरफ से कहेंगे तो जो भी गवर्नमेण्ट में होगा उसे वह करना पड़ेगा।’ गांधी के तर्क या उनके दृष्टिकोण का जवाहरलाल और उनके साथियों पर कोई असर नहीं पड़ा। लेकिन इन मतभेदों के बावजूद गांधी और जवाहरलाल में एक दूसरे के लिये एक विषेश भावनात्मक आकर्षण था। अंशतः इसका कारण था जवाहरलाल की स्पष्टवादिता। वे समस्त साम्प्रदायिक संकीर्णता से पूर्णतः मुक्त थे। यही गांधी के दिल पर असर डालता है।’ सुन्दरलाल कहते हैं, ‘जवाहरलाल ने मुझे संसद में केन्द्र मंत्रिमंडल में भी रखना चाहा, किन्तु मैंने इस तर्क से अपनी माफी चाही कि संसदीय कार्य मेरे उपयुक्त नहीं। फिर भी हम एक दूसरे को प्यार करते रहे। हम दोनों के बीच एक विषेश बन्धन था। हमारा दृढ़ असाम्प्रदायिक, धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण। जवाहरलाल ने अपने प्रधानमंत्रित्व के प्रारम्भिक वर्षों में साम्प्रदायिक दानव के साथ जिस प्रकार संग्राम किया वह सराहनीय है। उन्हें असुविधाओं का सामना करना पड़ा, क्योंकि उनके मंत्रिमंडल के कई सहकर्मी साम्प्रदायिक विष के शिकार हो चुके थे। जवाहरलाल ने मुझे साम्प्रदायिक सद्भावना के लिये कई नाजुक मिशनों पर भेजा। हैदराबाद में पुलिस कार्यवाही के बाद एक अफ़वाह फैल गई थी कि हजारों निरीह मुसलमानों पर हिन्दुओं ने घातक प्रहार किया है। जवाहरलाल ने मुझे हैदराबाद जाकर दोनों संप्रदायों के बीच संपर्क स्थापित करने के लिये तथा घटनाओं की पूरी जांच-पड़ताल करके उन्हें रिपोर्ट देने को कहा। मैं काज़ी अब्दुल ग़फ़्फ़ार और मौलाना अब्दुल्ला मिस्त्री के साथ वहां गया। हमारे द्वारा इस प्रकार की गई जांच-पड़ताल की योजना बल्लभभाई पटेल को पसंद नहीं आई। हमारे प्रयास ने उस राज्य में कौमी यकजहती के पक्ष में अच्छा असर डाला। हमने भारत सरकार के सामने अपनी रिपोर्ट पेश की। बल्लभभाई ने सरकार के सामने वह रिपोर्ट रखे जाने से पहले हमसे बातचीत करनी चाही। मैं उनसे मिला और उनका मन्तव्य सुना लेकिन रिपोर्ट उन्हें दिखाये बिना पेश कर दी। कुछ दिनों बाद नागा समस्या का अध्ययन करने के लिए जवाहरलाल ने मुझे नागालैण्ड भेजा। मैं नागालैण्ड के भीतरी जिलों में गया, कई नागा नेताओं से मुलाकात की और कोहिमा में उनके सरदार से भी मिला। मैंने उनके दुःख-कष्ट सुने। दिल्ली लौटने पर मैंने जवाहरलाल को अपनी रिपोर्ट दी। मैंने देखा कि नागा आंदोलन का एक मुख्य कारण यह है कि आज़ादी से पहले अंगरेज अफसर नागाओं से बहुत मिलते-जुलते थे। आजादी के बाद हिन्दुस्तानी अफसर उनसे उतना मिलते-जुलते नहीं थे। हिन्दू अफसर नागाओं से नफरत करते हैं क्योंकि वे गोमांस खाते हैं और मुसलमान भी उनसे मिलते-जुलते नहीं क्योंकि वे सुअर का मांस भी खाते हैं। अपनी रिपोर्ट में मैंने सलाह दी कि आइन्दा कोई भी असफर, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, अगर वह इस छूत-छात को मानता हो तो उसे नागालैण्ड न भेजा जाय। मुझे मालूम है कि जवाहरलाल ने मेरी सलाह को महत्व दिया और उसी के अनुसार कार्य करने की कोषिष की। वे मेरे मत से पूर्ण सहमत थे।’

पंडित सुन्दर लाल का चीन और सोवियत रूस में बहुत सम्मान था। नेहरू अक्सर उनसे इन देशों के मसलों पर चर्चा करते थे। 28 अपै्रल, 1961 को सुन्दरलाल ने एक ‘व्यक्तिगत और गोपनीय’ पत्र रूस के प्रधानमंत्री निकिता ख्रुश्चेव के नाम लिखा था जिसमें भारत-चीन के प्रश्न पर गंभीर विमर्श था। इस लंबे पत्र में दोनो देशों के मध्य सीमा विवाद का मसला प्रमुख था। ख्रुश्चेव ने सुन्दरलाल से कहा कि वे इस विषय पर जवाहरलाल को बता दें। सुन्दर लाल ने नेहरू से सारी बातें उनके सामने रखीं। यह बातचीत दो घंटे से ज्यादा की थी। नेहरू ने ख्रुश्चेव को लिखे उनके पत्र की प्रति ध्यान से पढ़ी, उसकी प्रशंसा की और उसकी एक प्रति अपने पास रख ली। उसके बाद ख्रुश्चेव जवाब पढ़ा और बहुत खुश हुए। उसके बाद सहज भाव से उन्होंने सुन्दरलाल से पूछा कि वे अक्साई चिन के साथ समान सरहदी ज़मीन हमें कहां देंगे। सुन्दरलाल ने उनसे कहा कि शायद यह बात हमारी इच्छा पर छोड़ दी जायेगी और मुझे विश्वास है कि मानसरोवर की ओर जाने वाली सीमा और उसकी सरहदी ज़मीन हमारे लिए अक्साई चिन से ज्यादा उपयोगी होगी। सुन्दर लाल कहते थे कि कुछ समय के लिए नेहरू तृप्त और आनन्दित दिखाई पड़े। ख्रुश्चेव को जवाब देने से पहले उन्हें अपने कुछ सहकर्मियों की सम्मति प्राप्त करने के लिये दो-तीन दिन समय देने के लिए उन्होंने सुन्दरलाल कोे सलाह दी। उसके कुछ दिनों बाद सुन्दरलाल को पता चला कि नेहरू ने सारी बातें अपने एक प्रमुख सहकर्मी के सामने रखीं। सुन्दरलाल उस सहकर्मी का नाम नहीं बताते थे। सुन्दरलाल के पास इस विषय और उससे सम्बन्धित नेहरू के नाम उनके पत्र तथा नेहरू के उत्तर की प्रतियां सुरक्षित थीं। सुन्दरलाल की आत्मकथा में इसका विस्तृत उल्लेख किया गया है। इसमें नेहरू से उनके रिश्ते की अनेक बानगियां ही नहीं, बल्कि सुन्दरलाल के नाम 1957 से लेकर 1963 तक के जरूरी पत्रों को समाहित किया गया है। अंग्रेजी के विख्यात लेखक डॉ0 मुल्कराज आनन्द ने 30 जून, 1985 को एक दीर्घ पत्र मुझे लिखा, जो प्रायः सुन्दरलाल के सन्दर्भ में था, लेकिन उसमें नेहरू के जिस पक्ष को रेखांकित किया गया, वह बहुत महत्वपूर्ण है, ‘दिल्ली के एक सेमिनार में, जो ‘जवाहरलाल नेहरू: एक बुद्धिजीवी के रूप में’ विषय पर आयोजित था, उसमें पं0 सुन्दरलाल ने स्वयं स्वीकार किया था कि वह नेहरू की मृत्यु के बाद तर्कसंगत चिन्तन के क्षेत्र में हुए क्षय से दुःखी थे। पं0 सुन्दरलाल के सन्दर्भ में यह बताना प्रासंगिक है, और दुःखद भी, कि जवाहरलाल की भांति वह भी उन कुछ बुद्धिजीवियों में से थे, जो गांधी का अनुसरण श्रद्धा भाव से करते हुए भी, कभी-कभी ऐसा महसूस करते थे कि महात्मा जी का स्वर धार्मिक पुनर्जागरणवादियों जैसा है और यह इस बात का शक पैदा करता है कि उनकी पूर्ण आस्था धर्मनिरपेक्ष भारत के प्रति है। नेहरू और सुन्दरलाल की भांति एमएन राय भी कुछ ऐसा ही अनुभव करते थे। इसलिए ये तीनों ही व्यक्ति भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के घोर रूढ़िवादियों द्वारा ‘छिपे हुए साम्यवादी ’ की उपाधि से विभूषित किए जाते थे। यह अपने में विलक्षण इसलिए है कि न तो कभी सुन्दर लाल ने अपने साम्यवादी होने से इन्कार किया और न कभी जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं को फेबियन के विचारों का ऋणी होने का खण्डन किया। एमएन राय ने भी कभी मार्क्स को अस्वीकार नहीं किया, बल्कि मार्क्स की पुनर्व्याख्या एक उग्र मानवतावादी के रूप में की।…..यों नेहरू जी के नेतृत्व में संविधान-सभा ने मानव अधिकारों और प्रत्येक धर्म के लिए समान आदरभाव के मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित एक धर्मनिरपेक्ष, प्रजातान्त्रिक और समाजवादी समाज की संकल्पना की थी किन्तु डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद ने, जिन्होंने उस संविधान-सभा की अध्यक्षता की थी तथा उस सभा के कुछ और भागीदारों ने, नेहरू जी जिस तरह धर्मनिरपेक्ष समाजवादी समाज के सिद्धान्त पर बल दे रहे थे, उससे अपने को अलग रखा था।’

हम जानते हैं कि एमएन राय का बहुत समय बरेली केन्द्रीय कारागार में राजनीतिक कैदी में रूप में व्यतीत हुआ। उनकी पुस्तक ‘लेटर्स फ्राम जेल’ में प्रायः इसी जेल से अपनी पत्नी एलिन के नाम लिखे गए पत्र हैं। बाद को इसी शहर में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की और खादी का कुर्ता-पायजामा व टोपी धारण की। उस समय राय ने कहा भी था, ‘लाल अब सफेद हो गया है।’ यह नेहरू का प्रभाव ही था जिसने राय को कांग्रेस से जोड़ा। यद्यपि वहां भी वे टिक नहीं पाये और रैडिकल ह्यूमनिज्म की तरफ उनका चले जाना बहुत आश्चर्यजनक नहीं रहा। राय अपने इसी चिंतन और बदलती पक्षधरताओं के चलते भारतीय वामपंथियों के स्थायी दुश्मन बनते चले गये।

क्रांतिकारिणी दुर्गा भाभी के प्रति नेहरू के मन में विशेष सम्मान था। वे स्वयं उनके माण्टेसरी विद्यालय का शिलान्यास करने 7 फरवरी 1957 के दिन लखनऊ आये। ‘बनारस षड्यंत्र केस’ के पुराने क्रांतिकारी दामोदर स्वरूप सेठ से भी नेहरू की अत्यधिक निकटता थी। सेठ जी उन्हें ‘जवाहर’ कह कर बुलाते थे। कांग्रेस की अनेक कांफ्रेन्स में उन्होंने सेठ जी के साथ हिस्सेदारी की। नेहरू ने उन्हें संविधान निर्मात्री परिषद में रखा, पर वे संविधान के मसविदे पर अपनी इस लिखित असहमति को दर्ज करने से नहीं चूके कि यह संविधान समाजवाद विरोधी है और इसको लागू करने से देश में समाजवाद की स्थापना नहीं हो सकती। आज़ादी के बाद सेठ जी एक व्यक्ति की धोखाधड़ी के चलते एक फाइनेंस कंपनी के फर्जी मुकदमे में फंसे तब अदालत में उनके पक्ष में गवाही देने वालों में नेहरू और बाबू श्रीप्रकाश ही थे। नेहरू ने शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद की मां जगरानी देवी के दुर्दिनों की खबर लगते ही उन्हें सबसे पहले आर्थिक सहायता भेजी। काकोरी शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की बहन शास्त्री देवी भी बताया करती थीं कि पिता जी की हालत दुःख में खराब हुई। उनके परिवार को उन दिनों बहुत मुसीबत उठानी पड़ी, फिर पांच सौ रुपये पं0 जवाहरलाल जी ने भेजे। तब माता जी ने कहा कि कुछ जगह ले लो।’

1958 में दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय क्रांतिकारी सम्मेलन में नेहरू ने हिस्सेदारी की थी। तब उन्होंने विप्लव-पथ के उन सेनानियों से सघन विचार-विमर्श किया था। वे भगतसिंह के साथ दिल्ली की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त से मिले। उर्दू ‘स्वराज्य’ के संपादक शांतिनारायण भटनागर और अमीर चन्द बम्बवाल से भी उनकी भेंट हुई तथा क्रांतिकारिणी सुशीला दीदी, पं0 परमानन्द झांसी वाले, काकोरी केस के रामकृष्ण खत्री के साथ उनके विप्लवपथियों से उनका मिलना-जुलना होता था। प्रथम लाहौर शड्यंत्र केस के पुराने क्रांतिकारी भाई परमानन्द, जो बाद को हिन्दू महासभाई हो गये, उन्हें नेहरू ने हिन्दू धर्म के अनेक सवालों पर एक बड़ा ही तर्कपूर्ण पत्र लिखा था जिसमें उनकी कड़ी असहमतियां दर्ज हैं।

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अब हम पुनः भगतसिंह पर आते हैं। जुलाई 1928 के ‘किरती’ में सुभाष चन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू पर भगतसिंह ने एक लंबा लेख लिखा था, जिसमें प्रायः इन दोनों नये नेताओं के विचारों पर तुलनात्मक चर्चा की है। भगतसिंह का यह आलेख एक क्रांतिकारी की दृष्टि से नेहरू को देखना भी है। हम इस आलेख के कुछ अंश यहां उद्धृृत करते हैं-

असहयोग आंदोलन की असफलता के बाद जनता में बहुत निराशा और मायूसी फैली। हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों ने बचा-खुचा साहस भी खत्म कर डाला। लेकिन जब देश में एक बार जागृति फैल जाये तब देष ज्यादा दिन तक सोया नहीं रह सकता। कुछ ही दिनों बाद जनता बहुत जोश के साथ उठती और हमला बोलती है। आज हिन्दुस्तान में फिर से जान आ गयी है। हिन्दुस्तान फिर जाग रहा है। देखने में तो कोई बड़ा जन-आन्दोलन नज़र नहीं आता लेकिन नींव जरूर मजबूत की जा रही है। आधुनिक विचारों के अनेक नये नेता सामने आ रहे हैं। इस बार नौजवान नेता ही आगे बढ़े और देश में नौजवानों के ही आन्दोलन चल रहे हैं। नौजवान नेता देषभक्त लोगों की नज़रों में आ रहे हैं। बड़े-बड़े नेता बड़े होने के बावजूद एक तरह से पीछे छोड़े जा रहे हैं। इस समय जो नेता आगे आये हैं वे हैं–बंगाल के पूजनीय श्री सुभाषचन्द्र बोस और माननीय पण्डित श्री जवाहरलाल नेहरू। यही दो नेता हिन्दुस्तान में उभरते नज़र आ रहे हैं और युवाओं के आन्दोलनों में विशेष रूप से भाग ले रहे हैं। दोनों ही हिन्दुस्तान की आज़ादी के कट्टर समर्थक हैं। दोनों ही समझदार और सच्चे देशभक्त हैं। लेकिन फिर भी इनके विचारों में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। एक को भारत की प्राचीन संस्कृति का उपासक कहा जाता है तो दूसरा को पक्का पश्चिम का षिश्य। एक को कोमल हृदय वाला भावुक कहा जाता है और दूसरे को पक्का युगान्तकारी। हम इस लेख में उनके अलग-अलग विचारों को जनता के समक्ष रखेंगे, ताकि जनता स्वयं उनके अन्तर को समझ सके और स्वयं भी विचार कर सके। लेकिन उन दोनों के विचारों का उल्लेख करने से पूर्व एक और व्यक्ति का उल्लेख करना भी जरूरी है जो कि इन्हीं की भांति स्वतन्त्रता प्रेमी है और युवा-आन्दोलनों की एक विषेश शख्सियत है। साधू वासवानी जी चाहे कांग्रेस के बड़े नेताओं की भांति जाने-माने तो नहीं, चाहे देश के राजनैतिक क्षेत्र में उनका कोई विशेष स्थान तो नहीं, तो भी युवाओं पर, जिन्हें कि कल देश की बागडोर संभालनी है, उनका असर है और उनके ही द्वारा शुरू हुआ आन्दोलन ‘भारत-युवा संघ’ इस समय युवाओं में विशेष प्रभाव रखता है। उनके विचार बिल्कुल अलग ढंग के हैं। उनके विचार एक ही शब्द में बताये जा सकते हैं–‘वापस वेदों की ओर लौट चलो।’ (बैक टु वेद्स)। यह आवाज सबसे पहले आर्यसमाज ने उठायी थी। इस विचार का आधार इस आस्था में है कि वेदों में परमात्मा ने संसार का सारा ज्ञान उड़ेल दिया है। इससे आगे और अधिक विकास नहीं हो सकता। इसलिए हमारे हिन्दुस्तान ने चौतरफा जो प्रगति कर ली थी उससे आगे न दुनिया बढ़ी है और न बढ़ सकती है। खैर, वासवानी आदि इसी आस्था को मानते हैं। तभी एक जगह कहते हैं–‘हमारी राजनीति ने अब तक कभी तो मैजिनी और वाल्टेयर को अपना आदर्श मानकर उदाहरण स्थापित किये हैं और या कभी लेनिन और टालस्टाय से सबक सीखा। हालांकि उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि उनके पास उनसे कहीं बड़े आदर्श हमारे पुराने ऋषि हैं।’ वे इस बात पर यकीन करते हैं कि हमारा देश एक बार तो विकास की अन्तिम सीमा तक तक जा चुका था और आज हमें आगे कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं, बल्कि पीछे लौटने की जरूरत है।

आप कवि हैं। कवित्व आपके विचारों में सभी जगह नज़र आता है। साथ ही वह धर्म के बहुत बड़े उपासक हैं।….वे एक भावुक कवि की तरह कहते हैं कि एकान्त में भारत की आवाज मैंने सुनी है। मेरे दुःखी मन मन कई बार यह आवाज सुनी है कि ‘आज़ादी का दिन दूर नहीं।’…..यह कवि का विलाप है कि वह पागलों या दीवानों की तरह कहते रहते हैं, ‘हमारी माता बड़ी महान है। बहुत शक्तिशाली है। उसे परास्त करने वाला कौन पैदा हुआ है। वे बताते हैं कि हमें अपने राष्ट्री जन-आन्दोलन को देश-सुधार का आन्दोलन बना देना चाहिए। तभी हम वर्गयुद्ध के बोल्शेविज्म के खतरों से बच सकेंगे। वह इतना कह कर ही कि गरीबों के पास जाओ, गांवों की ओर जाओ, उनको दवा-दारू मुफ्त दो–समझते हैं कि हमारा कार्यक्रम पूरा हो गया। उनके दकियानूसी और संक्षिप्त-से विचार यही हैं।

अब हम श्री सुभाषचन्द्र बोस और श्री जवाहरलाल नेहरू के विचारों पर आ रहे हैं। दो-तीन महीनों से आप बहुत-सी कान्फ्रेंसों के अध्यक्ष बनाये गये और आपने अपने-अपने विचार लोगों के सामने रखे। सुभाष बाबू को सरकार तख्तापलट गिरोह का सदस्य समझती है और इसीलिए उन्हें बंगाल अध्यादेश के अन्तर्गत कैद कर रखा था। आप रिहा हुए और गर्म दल के नेता बनाये गये। आप भारत का आदर्श पूर्ण स्वराज्य मानते हैं, और महाराश्ट्र कान्फ्रेंस के अध्यक्षीय भाषण में आपने इसी प्रस्ताव का प्रचार किया।

पण्डित जवाहरलाल नेहरू ‘स्वराज्य पार्टी’ के नेता पण्डित मोतीलाल नेहरू जी के सुपुत्र हैं। बैरिस्टरी पास हैं। आप बहुत विद्वान हैं। आप रूस आदि का दौरा कर आये हैं। आप भी गर्म दल के नेता हैं और मद्रास कान्फेंस में आपके और आपके साथियों के प्रयासों से ही पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव स्वीकृत पेश हुआ था। आपने अमृतसर कान्फ्रेंस के भाषण में भी इसी बात पर जोर दिया। लेकिन फिर भी इन दोनों सज्जनों के विचारों में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। अमृतसर और महाराष्ट्र कान्फ्रेंसों के इन दोनों अध्यक्षों के भाषण पढ़कर ही हमें इनके विचारों का अन्तर स्पष्ट हुआ था। लेकिन बाद में बम्बई के एक भाषण में यह बात स्पष्ट रूप से हमारे सामने आ गयी। पण्डित जवाहरलाल नेहरू इस जनसभा की अध्यक्षता कर रहे थे और सुभाषचन्द्र ने भाषण किया। वह एक बहुत भावुक बंगाली हैं। उन्होंने भाषण आरंभ किया कि हिन्दुस्तान का दुनिया के नाम एक विशेष सन्देश है। वह दुनिया को आध्यात्मिक शिक्षा देगा। खैर, आगे वे दीवाने की तरह कहना आरम्भ कर देते हैं–चांदनी रात में ताजमहल को देखा और जिस दिल की यह सूझ का परिणाम था, उसकी महानता की कल्पना करो। सोचो एक बंगाली उपन्यासकार ने लिखा है कि हममें ‘यह हमारे आंसू ही जम-जमकर पत्थर बन गये हैं।’ वह भी वापस वेदों की ओर ही लौट चलने का आह्वान करते हैं। आपने अपने पूना वाले भाषण में ‘राष्ट्र्वादिता’ के सम्बन्ध में कहा है कि अन्तर्राष्ट्रीयतावादी, राष्ट्रीयतावादी को एक संकीर्ण दायरे वाली विचारधारा बताते हैं, लेकिन यह भूल है। हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता का विचार ऐसा नहीं है। वह न संकीर्ण है। न निजी स्वार्थ से प्रेरित है ओर न उत्पीड़नकारी है, क्योंकि इसकी जड़ या मूल तो यह ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ है, अर्थात ‘सच, कल्याणकारी और सुन्दर।’

यह भी वही छायावाद है। कोरी भावुकता है। साथ ही उन्हें भी अपने पुरातन युग पर बहुत विश्वास है।  वह प्रत्येक बात में अपने पुरातन युग की महानता देखते हैं। पंचायती राज का ढंग उनके विचार में कोई नया नहीं। ‘पंचायती राज और जनता का राज’ वे कहते हैं कि हिन्दुस्तान में बहुत पुराना है। वे तो यहां तक कहते हैं कि साम्यवाद भी हिन्दुस्तान के लिए नयी चीज नहीं। खैर, उन्होंने सबसे ज्यादा उस दिन के भाषण में जोर जिस बात पर दिया था वह यह थी कि हिन्दुस्तान का दुनिया के लिए एक विशेष सन्देश है। पण्डित जवाहरलाल आदि के विचार इसके बिल्कुल विपरीत हैं। वे कहते हैं, ‘जिस देश में जाओ वही समझता है कि उसका दुनिया को संस्कृति सिखाने का ठेकेदार बनना है। मैं तो कोई विशेष बात अपने देश के पास नहीं देखता। सुभाष बाबू को उन बातों पर बहुत यकीन है।’ जवाहरलाल कहते हैं, ‘प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनैतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं जो आकर कहे कि फलां बात कुरान में लिखी हुई है। कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं माननी चाहिए।’

यह एक युगान्तकारी के विचार हैं और सुभाष के एक राजपरिवर्तनकारी के विचार हैं। एक के विचार में हमारी पुरानी चीजें बहुुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया जाना चाहिए। एक को भावुक कहा जाता है और एक को युगान्तकारी विद्रोही! पण्डित जी एक स्थान पर कहते हैं कि जो अब भी कुरान के जमाने के, अर्थात 1300 बरस पीछे के अरब की स्थितियां पैदा करना चाहते हैं या जो पीछे वेदों के जमाने की ओर देख रहे हैं उनसे मेरा यही कहना है कि यह तो सोचा भी नहीं जा सकता कि वह युग वापस लौट आयेगा, वास्तविक दुनिया पीछे नहीं लौट सकती, काल्पनिक दुनिया को चाहे कुछ दिन यहीं स्थिर रखो। और इसीलिए वे विद्रोह की आवश्यकता महसूस करते हैं।

सुभाष बाबू पूर्ण स्वराज्य के समर्थन में हैं क्योंकि वे कहते हैं कि अंग्रेज पश्चिम के वासी हैं। हम पूर्व के। पण्डित जी कहते हैं, ‘हमें अपना राज कायम करके सारी सामाजिक व्यवस्था बदलनी चाहिए। उसके लिए पूरी-पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त करने की आवश्यकता है।

सुभाष बाबू मजदूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनकी स्थिति सुधारना चाहते हैं। पण्डित जी एक क्रान्ति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं। सुभाष भावुक है–दिल के लिए नौजवानों को बहुत कुछ दे रहे हैं, पर मात्र दिल के लिए। दूसरा युगान्तकारी है जो कि दिल के साथ-साथ दिमाग को भी बहुत कुछ दे रहा है–हमारा आदर्श समाजवादी सिद्धान्तों के अनुसार पूर्ण स्वराज्य होना चाहिए, जोकि युगान्तकारी तरीकों के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। केवल सुधार और मौजूदा सरकार की मशीनरी की  धीमी-धीमी की गयी मरम्मत जनता के लिए वास्तविक स्वराज्य नहीं ला सकती। यह उनके विचारों का ठीक-ठाक अक्स है। सुभाष बाबू राष्ट्रीय राजनीति की ओर उतने समय तक ही ध्यान देना आवश्यक समझते हैं जितने समय तक दुनिया की राजनीति में हिन्दुस्तान की रक्षा और विकास का सवाल है। परन्तु पण्डित जी राष्ट्रयीता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गये हैं।

अब सवाल यह है कि हमारे सामने दोनों के विचार आ गये हैं। हमें किस ओर झुकना चाहिए। एक पंजाबी समाचार-पत्र ने सुभाष की तारीफ के पुल बांधकर पण्डित जी आदि के बारे में कहा था कि ऐसे विद्रोही पत्थरों से सिर मार-मारकर मर जाते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि पंजाब पहले ही बहुत भावुक प्रान्त है। लोग जल्द ही जोश में आ जाते हैं और जल्द ही झाग की तरह बैठ जाते हैं।

सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक खुराक नहीं दे रहे हैं। अब आवश्यकता इस बात की है कि पंजाब के नौजवानों को इन युगान्तकारी विचारों को खूब सोच-विचार कर पक्का कर लेना चाहिए। इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त जरूरत है और यह पण्डित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अन्धे पैरोकार बन जाना चाहिए। लेकिन जहां तक विचारों का सम्बन्ध है, वहां तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए, ताकि वे इन्कलाब के वास्तविक अर्थ, हिन्दुस्तान में इन्कलाब की आवश्यकता, दुनिया में इन्कलाब का स्थान क्या है, आदि के बारे में जान सकें। सोच-विचार के साथ नौजवान अपने विचारों को स्थिर करें ताकि निराशा, मायूसी और पराजय के समय में भी भटकाव के शिकार न हों और अकेले खड़े होकर दुनिया से मुकाबले में डटे रह सकें। इसी तरह जनता इन्कलाब के ध्येय को पूरा कर सकेगी।

नेहरू का दृष्टिकोण बहुत व्यापक था। वे विश्व इतिहास के अध्येता थे। ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ इसका प्रबलतम साक्ष्य है। इसे दुनिया भर में पाठक मिले। नेहरू के भीतर पूरी दुनिया को अपनी पैनी नज़र से ही नहीं, बल्कि आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखने-परखने की क्षमता थी। आज़ादी के बाद काकोरी के क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण विभाग में संपादक नियुक्त हुए तब भी वे निर्भीक होकर सरकार के विरोध में लिखते-बोलते रहे। एक बार मेरे प्रश्न के उत्तर में मन्मथनाथ ने मुझे 11/10/1992 को एक पत्र में लिखा था, ‘कोई भी समाजवादी सरकार ही क्यों न हो, यह बर्दाश्त नहीं करेगी कि उसके नौकर उसकी जड़ पर कुठाराघात करते रहें। इसलिए विद्रोह करना है तो बचाकर करें। मेरी नौकरी के जमाने में और इस जमाने में फर्क यह है कि अब नेहरू ऐसा कोई नहीं, जिसकी आड़ लेकर हम क्रांतिकारी प्रचार करते थे।’ मन्मथनाथ ने सूचना विभाग में रहते जो एक बड़़ा काम किया वह था कर्मवीर पं0 सुन्दरलाल का गौरव-ग्रंथ ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ का पुनर्प्रकाशन, जिसे ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था।

नेहरू के स्वातंन्न्य-योद्धा की वैश्विक ख्याति थी। जिन दिनों वे जेल में बन्दी थे, उसी समय वियतनाम के क्रांतिकारी नेता हो चि मिन्ह भी अपने देश की मुक्ति के लिए संघर्ष करते हुए चीन के कैदखाने में अपने दिन बिता रहे थे। बन्दी जीवन में ही 1943 के वर्श में उन्होंने नेहरू पर एक कविता लिखी। कहा जाता है, शायद सच है कि हो चि मिन्ह ने वियतनाम की कविता और साहित्य को क्रांतिकारी मोड़ दिया। चीन की जेल में नेहरू पर लिखी हो की कविता पढ़कर हम सचमुच गौरवबोध से भर जाते हैं-

संघर्षरत हूं मैं, सक्रिय हो तुम भी                                                                                        

कैद में हो तुम और मैं भी काराबंदी        

हजारों मील की है दूरी, हम मिले नहीं कभी                                                                                  

पर संपर्क में हैं शब्दों के बिना भी                                                                                            

तुम्हें और मुझे जोड़ते हैं साझे विचार                                                                                    

कमी है तो बस एक व्यक्तिगत भेंट की                                                                                

मुझे बंदी बना रखा है एक पड़ोसी मित्र ने                                                                                         

और जंजीरों में जकड़ रखा है शत्रु ने तुम्हें भी।

 

क्रांतिकारी चेतना का यह साझा विचार नेहरू को बहुत बड़ा योद्धा बनाता है।

 


सुधीर विद्यार्थी देश के उन बिरले लेखकों में हैं  जिन्होंने क्रांतिकारियों के विचार और जीवन पर लिखने में  जीवन खपाया है। यह लेख अकार पत्रिका में किसी अन्य शीर्षक के साथ छप चुका है। साभार प्रकाशित।

संपर्क- 6, फेज-5 विस्तार, पवन विहार पो0 रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली-243006  मो-9760875491

 

 

 

 

 

 

 


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