उत्तर-अयोध्या: लोकतंत्र के परलोकतंत्र बनने का मतलब तानाशाही को निमंत्रण!

डॉ. पंकज श्रीवास्तव डॉ. पंकज श्रीवास्तव
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“हिंदू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिंदू सम्मान में सिर झुका देते हैं। धर्म का फ़ायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिंदू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें। ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकें। उनकी बातों पर कान न दें।’’

(12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ग्राम में दिया गया नेता जी सुभाषचंद्र बोस का भाषण जो 14 मई को आनंद बाज़ार पत्रिका में छपा। )

सुभाषचंद्र बोस का यह भाषण बताता है कि स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्म के इस्तेमाल के किस कदर ख़िलाफ़ थे। लेकिन विडंबना देखिए, सुभाषचंद्र बोस के जन्मदिन 23 जनवरी के सिर्फ़ एक दिन पहले अयोध्या के अधूरे राममंदिर में होने जा रहा प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम धार्मिक से ज़्यादा उस राजनीति की प्रतिष्ठा का ऐलान है जो धर्म का इस्तेमाल करके ही परवान चढ़ी।

निश्चित ही, 2024 के पहले महीने रचाये जा रहे इस ‘अयोध्या कांड’ के ज़रिए हम उस विचारधारा का उल्लासमंच सजते देख रहे हैं जिसने उन्हीं उपकरणों के सहारे सफलता पायी है जिसे लेकर नेताजी सुभाष कभी हिंदुओं को चेताया था। इसका भारत के समाज और राजनीति पर निर्णायक प्रभाव पड़ेगा। ये ख़तरा पैदा हो गया है कि कहीं हम उस भारत को हमेशा के लिए खो न दें जो 1947 में ‘साझा शहादत-साझा विरासत’ के शानदार संघर्ष से उपजे संकल्पों की चमक के साथ दुनिया के सामने आया था। जिसने धार्मिक आधार पर हुए विभाजन के बावजूद ‘हिंदू और मुसलमान को दो राष्ट्र’ मानने से इंकार कर दिया था और सेक्युलरिज्म की राह पर चलने का फ़ैसला किया था। जिसने विविधिताओं को समस्या नहीं संभावना की तरह देखा और अधिनायकवाद नहीं, लोकतंत्र की राह चुनी थी और जिसके असफल होने की आशंका ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल समेत दुनिया के तमाम राजनीतिशास्त्रियों ने जतायी थी। आज़ादी के अमृतकलश में उन आशंकाओं की छाया स्पष्ट है।

सुभाष बोस ही नहीं, पं.नेहरू, सरदार पटेल, डॉ.आंबेडकर से लेकर मौलाना आज़ाद तक सभी मानते थे कि आधुनिक लोकतंत्र की सफलता राजनीति और धर्म में दूरी रखकर ही संभव है। इसी से तरक्की की राह भी खुलती है। इतिहास गवाह है कि यूरोप ने तरक्की की रफ़्तार तभी हासिल की जब चर्च और राज्य में दूरी बनायी गयी। जब ये मान लिया गया कि धर्मग्रंथों में दर्ज बातों को तर्क की तुला पर तौलना ग़लत नहीं है और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं को धर्म की छाया से मुक्त रखा जाये। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकों का इतिहासबोध उन्हें बता रहा था कि भारत का भविष्य ‘स्वर्णिम अतीत’ के झूठे गौरवगान में नहीं, स्वर्णिम भविष्य के निर्माण में है। वे एक समतामूलक भारत की नींव रखना चाहते थे जो अतीत में अनुपस्थित था।

दरअसल वे लोकतंत्र को परलोकतंत्र बनने से बचाना चाहते थे। राजनीति और धर्म के घालमेल का यही नतीजा होता है। धर्म का अर्थ मोक्ष दिलाना है। हिंदू धर्म के लिहाज से आवागमन के चक्र से मुक्ति। धर्म का पूरा ज़ोर परलोक सुधारने पर है। जबकि लोकतंत्र का उद्देश्य लौकिक दुनिया को बेहतर बनाना है। अपनी लौकिक ज़रूरतें पूरा करने के लिए, लोक अपनी सरकार को चुनता है, जो आदर्श स्थिति में उसकी मालिक नहीं, नौकर होती है। जबकि धर्म राजव्यवस्था के रूप में शासक और शासित के रिश्ते को दैवीय मानता है। राजा धरती पर ईश्वर की छाया होता है जिसके विरुद्ध विद्रोह, ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह है।

यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि यहाँ धर्म को यहां किसी कर्तव्य या नैतिक बोध के अर्थ में नहीं, आसमानी ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए किये जाने वाले कर्मकांडों, उत्सवों, पूजा-पाठ आदि आयोजनों के संगठित स्वरूप के अर्थ में इस्तेमाल किया जा रहा है। इन चीज़ों पर जोर देकर कोई नेता खुद को ‘अलौलिक’ प्रचारित करने में क़ामयाब होता है। ऐसा करके वह महंगाई, भूख, बेकारी जैसे लौकिक सवालों की जिम्मेदार से बच जाता है क्योंकि व्यापक जनता इसे ‘हरि-इच्छा’ समझने लगती है। भाग्यवाद के इस खेल को लेकर डा.आंबेडकर ने चेताया था कि “धर्म में भक्ति, आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है। लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा, पतन और अंततः तानाशाही का एक निश्चित मार्ग है।“

अफसोस कि हम भारत में फिलहाल यही होते देख रहे हैं। लगभग दस साल से सत्ता पर काबिज बीजेपी ने धर्म का इस्तेमाल करके जनता के एक हिस्से को ‘आदेशपालक’ में बदल दिया है। यह भक्त समुदाय पीएम मोदी को ईश्वर का दर्जा देने पर आमादा है और किसी समस्या के लिए सरकार को जिम्मेदार  मानने के लिए तैयार नहीं है। यही नहीं, सरकार भक्ति में अंधे हो चुके ये लोक ज्ञान-विज्ञान के परिसरों को भी रौंद रहे हैं जो तर्क की प्रतिष्ठा करते हैं। इतिहास और समाजशास्त्र के परिसरों में शिक्षक कक्षाओं में कुछ बोलने से घबरा रहे हैं क्योंकि उन्हें तत्काल हिंसक प्रतिवाद का सामना करना पड़ सकता है। डार्विन की ‘थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन’ को कोर्स से बाहर करने की माँग हो रही है क्योंकि यह सृष्टि निर्माण की पौराणिक कथाओं का खंडन करती है। यह भारतीय नवजागरण को लेकर पहले से ही कमज़ोर रहे प्रयासों की गति को पूरी तरह उलट देना है।
दुर्भाग्य से जिस मीडिया पर उसे सचेत करने की ज़िम्मेदार थी पूरी तरह राजा का बाजा बन गया है। देश के कुछ कॉरपोरेट घरानों का उस पर नियंत्रण है जिन्हें सरकार अभूतपूर्व लाभ देकर इलोक्टोरल बांड के ज़रिए संसाधनों की दृष्टि से अभूतपूर्व स्थिति में पहुँच गयी है। सरकार के इशारे पर मीडिया विपक्ष के दैनिक आखेट में जुटा नज़र आता है। उसके लिए ये सवाल गौण है कि देश पर 205 लाख करोड़ का कर्ज हो गया है जिसे लेकर आईएमएफ चेतावनी जारी कर रहा है। ये आने वाली कई पीढ़ियों को क़र्ज़ में डुबोने की सूचना है। लेकिन मीडिया ने खतरनाक ढंग से चुप्पी साध ली है।

संविधान ने वैज्ञानिक चेतना के प्रसार का दायित्व सरकार पर सौंपा है, लेकिन सरकार के संरक्षण में अवैज्ञानिकता के पक्ष में जारी संगठित उत्सव ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारत की बढ़त को बुरी तरह प्रभावित करेगी। और सबसे बड़ी बात यह कि समता और समानता के लिए किये गये तमाम संघर्ष और उपलब्धियाँ अपनी चमक खो देंगी। धर्मध्वजा की आड़ में दलितों और स्त्रियों को दोयम दर्जे को मानने की धारा फिर प्रबल होगी।

कुल मिलाकर आने वाले दिनों में कोई बड़ा राजनीतिक प्रतिवाद संगठित नहीं हुआ तो एक उदारवादी लोकतंत्र के रूप में भारत अपनी पहचान खो देगा। लोकतंत्र सिर्फ चुनाव में वोट पड़ने का नाम नहीं, असहमति और विपरीत मत को समाहित करने की व्यवस्था भी है जो दिनो दिन कमजोर हो रही है। यह सारा कुचक्र संसाधनों की जिस लूट पर पर्दा डालने के लिए है उसके लिए इटली का तानाशाह मुसोलिनी बहुत पहले कह गया था- ‘फ़ासीवाद और कुछ नहीं कॉरपोरेट और सरकार का संश्रय है!’

लोकतंत्र के परलोकतंत्र बनने का मतलब तानाशाही को निमंत्रण देना है।

 

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।


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