वर्धा विश्वविद्यालय का फ़रमान: आम्बेडकर की रचनाओं का सार्वजनिक वाचन ‘अशांति फैला सकता है!’

सुभाष गाताडे
ओप-एड Published On :


किस तरह एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय को डॉ अम्बेडकर को अपमाानित करने दिया जा रहा है और चौतरफा खामोशी का षड्यंत्र बरकरार है!

 

‘एक अहमक का दिमाग दर्शन को मूर्खता में, विज्ञान को अंधश्रद्धा में और कला को विद्या के मिथ्या अभिमान बदल सकता है। इसलिए विश्वविद्यालय की शिक्षा जरूरी होती है।’

 

(A fool’s brain digests philosophy into folly, science into superstition, and art into pedantry. Hence University education)
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ – George Bernard Shaw

महान आयरिश नाटककार, लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता जार्ज बर्नार्ड शाॅ  (1856-1950 ) ने पता नहीं किन परिस्थितियों में विश्वविद्यालय की अहमियत को लेकर यह बात कही हो, मगर विगत लगभग एक दशक से भारत के विश्वविद्यालयों का जो हाल किया गया है, उसमें यह प्रतीत हो सकता है कि वहां प्रबुद्ध युवाओं के बजाय अहमक बनाने पर अधिकाधिक जोर है।

इसकी ताज़ी मिसाल महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय  हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट से सामने आयी है, जहां डा अम्बेडकर की रचनाओं और भाषणाें के सार्वजनिक वाचन को ‘अशांति फैलाने वाला’ बताया गया और उसे जबरन समाप्त किया गया ; इस पहल को आगे बढ़ाए  वहां लम्बे समय से कार्यरत दलित अध्यापकों के खिलाफ कारण बताओ नोटिस जारी किए गए, यहां तक कुछ के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी की गयी।

चार माह का वक्फा गुजर गया, मगर यह मसला ख़बर तक नहीं बन सका।और सब कुछ उनकी जानकारी में होने के बावजूद यूजीसी एवं मानव संसाधन मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी कुंभकर्ण की नींद सोते रहे दिखते हैं। कभी अम्बेडकर आंदोलन का गढ़ रहे इस इलाके में किसी अख़बार या मीडिया की इतनी हिम्मत तक नहीं हुई कि वह अपने पाठकों को इसकी सूचना दे।गनीमत थी कि अंग्रेजी के प्रतिष्ठित दैनिक द टेलीग्राफ के सम्वाददाता ने विश्वविद्यालयों में नाॅर्मल बनायी जा रही इस सेन्सारशिप को  ख़बर बनाया, तभी यह समाचार शेष भारत को पता चल सका।

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तीन दिन बीत गए जब यह समाचार प्रकाशित हुआ, ‘अम्बेडकर की रचनाओं के विश्वविद्यालय परिसर में सार्वजनिक वाचन को तत्काल रोक दे, जो ‘/सहभागी/ छात्रों की सुरक्षा और स्वास्थ्य को खतरे में डाल सकता है और विश्वविद्यालय की ‘प्रतिष्ठा को नुकसान’ पहुंचा सकता है।
डा अम्बेडकर की रचनाओं का सार्वजनिक वाचन ‘अशांति फैला सकता है’ ऐसा फतवा देने वाला यह संस्थान महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय  हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र  ; उस वक्त भी मीडिया में छाया था, जब वहां आधिकारिक तौर पर चीन के कुछ हिन्दी विद्वानों ने भेंट दी थी, जो बाद मे चुपचाप नागपुर स्थित राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ के कार्यालय पहुंचे थे और वहां संघ के लीडरानों से मुलाक़ात की थी। बाद में यह भी कहा गया कि वह दरअसल चीन के विदेश विभाग के अधिकारी थे।

गनीमत थी कि किसी अख़बार ने यह समाचार लीक कर दिया वरना भारत के अंदर चीन की कथित घुसपैठ के समाचारों के दिनों में वहां के कथित विद्वानों की यह यात्रा गुप्त ही रह जाती।

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यह बात विचलित करनेवाली है कि चार माह बीत गया, इस अनोखे प्रयोग को जबरन रोक दिया गया – जिसे यह दलित अध्यापक अम्बेडकर स्टडी सर्कल इंडिया – नाम से चलाते थे। दो साल से – फरवरी 2022 से – यह कार्यक्रम शुरू हुआ था। हर गुरूवार की शाम छह बजे अध्यापक और इस विषय में रूचि रखने वाले अन्य कर्मचारी, छात्र तथा आम प्रबुद्ध जन इकटठा होते थे, सबसे पहले भारत के संविधान की प्रस्तावना /preamble  पढ़ते थे – फिर अम्बेडकर की रचनावली, जो केन्द्र सरकार तथा महाराष्ट्र  सरकार ने भी प्रकाशित की है, उसका कोई हिस्सा लेकर पढ़ते थे और शाम आठ बजे यह सार्वजनिक वाचन का कार्यक्रम समाप्त होता था। एकत्रित सभी लोग राष्ट्रगान  गाते थे और अपने अपने आवासोें की तरफ बढ़ जाते थे।

क्षेपक के तौर पर यह भी बता दें कि यह सार्वजनिक वाचन विश्वविद्यालय परिसर में बनी डॉ अम्बेडकर की प्रतिमा के नीचे लाॅन में बैठ कर होता था, जिस प्रतिमा के निर्माण मे खुद विश्वविद्यालय के अध्यापकों तथा अन्य लोगों ने भी आर्थिक योगदान दिया था।

प्रश्न उठता है कि विश्वविद्यालय के प्रशासन को सामूहिक वाचन का यह सिलसिला किस वजह से आपत्तिजनक लगा, ‘अशांति फैलाने वाला लगा’ ? क्या उसे इस बात का डर था कि छात्र तथा उनके अध्यापक सामूहिक तौर पर सोचना शुरू कर रहे है, वह उनके लिए ख़तरनाक हो सकता है ?

गौरतलब था कि विश्वविद्यालय के यह अध्यापक – जिनमें विगत लगभग बीस साल से वहां अध्यापनरत प्रोफेसर कारूण्यकारा जैसे स्कूल आफ कल्चर के डीन तथा डा अम्बेडकर सिद्धू कानू मूर्म दलित एंड ट्राइबल स्टडीज सेंटर के निदेशक  – जो संस्थान के सबसे वरिष्ठ प्रोफेसर भी हैं  – अपने इस काम के जरिए एक तरह से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रस्तावित पेशागत नीति की संहिता / कोड ऑफ प्रोफेशनल एथिक्स/ का पालन कर रहे थे :
..’The teacher should participate in extension, co-curicular and extra-curricular activities, including community service… Teacher should work to improve education in the community, and strengthen the community’s moral and intellectual life.’.. 
ऐसा प्रतीत होता है कि अपने ही संस्थान के इन वरिष्ठ अध्यापकों के खिलाफ विश्वविद्यालय प्रशासन इस कदर बदले की भावना से भरा था कि उसने महज इस पहल को जारी रखने के लिए उन्हें शोकॉज / कारण बताओ नोटिस जारी किए, कुछ लोगों का अपने स्थान से दूर तबादला कर दिया, कुछ प्रोफेसरों का अपना स्टाफ कम कर दिया आदि।

याद रहे डा अम्बेडकर की रचनाओं के सार्वजनिक वाचन को लेकर ऐसी कार्रवाई वही व्यक्ति या समूह कर सकता है, जो डा अम्बेडकर के चिन्तन से या स्वतंत्र विचार करने की प्रक्रिया के प्रति नफरत करता है ; जिसे / जिन्हें यह लगता है कि डा अम्बेडकर का विश्वदृष्टिकोण, उन्होंने जिस तरह भारत के इतिहास रैडिकल तरीके से व्याख्या की और उसमें सुधार के लिए क्रांतिकारी सुझाव दिए, उससे भारत को अपने सपनों के मुताबिक आकार देने का – हिन्दु राष्ट्र  बनने का प्रोजेक्ट खटाई में पड़ सकता है।
यह भी विडम्बना ही है कि केन्द्रीय विश्वविद्यालय होने के नाते इस समूचे घटनाक्रम की जानकारी होने के बावजूद यूजीसी के सीनियर अफसरों  और मानव संसाधन मंत्रालय के आला अफसर भी खामोश रहे, उन्हें इस मामले में तहकीकात करने की भी जरूरत नहीं लगी।

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वैसे विगत एक दशक से मोदी हुकूमत की और उनके मातहतों की सक्रियताओं को करीब से देखने वाले को इस समूचे प्रसंग को पढ़ कर या सुन कर शायद ही आश्चर्य होगा !

यही देखने में आ रहा है कि भारत की सियासत पर जबसे हिन्दुत्व वर्चस्ववादी ताकतें हावी हुई हैं – तबसे ऊपरी तौर पर भले ही डा अम्बेडकर का गुणगान बढ़ा हो मगर वास्तव में  वह जुबानी जमाखर्च तक सीमित रहा है और व्यवहार में वह बार बार अपमानित किए जाते रहे हैं, उनके विचारों को विकृत बना कर पेश किया गया है, उनकी छवि को बार बार बिगाड़ा गया है।

पता नहीं डा अम्बेडकर के ऐतिहासिक नारे ‘शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो ’को बिगाड़ने के  गुजरात सरकार की असफल कवायद  के बारे में कितने लोगों ने सुना है  । गुजरात सरकार के पाठयपुस्तक बोर्ड और उसके विशेषज्ञों की करामात ही कहेंगे कि उन्होंने इस नारे का एक नया अवतार ही पांचवी के पाठयपुस्तक में पेश कर दिया।

भारतरत्न अम्बेडकर नाम से बच्चों के लिए लिखे गए लेख में ‘शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो’ की बजाय लिखा गया ‘शिक्षित बनो, संगठित हो और स्वावलंबन ही असली सहायता है।’ जैसा कि उम्मीद की जा सकती थी कि अम्बेडकर के इस नारे के इस विद्रूपीकरण के खिलाफ – जिस नारे का प्रयोग डा अम्बेडकर ने आल इंडिया शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन के 1945 के सम्मेलन में भी किया था – अम्बेडकरी दायरों में आवाज़ बुलन्द हुई और यह मांग की गयी कि उसे तत्काल संशोधित किया जाए। एक साधारण आदमी भी कह सकता था कि ‘संघर्ष करो’ की जगह ‘स्वावलंबन ही असली सहायता’ के इस विचित्र बदलाव को प्रूफरीडर की गलती भी नहीं कहा जा सकता।

वैसे अगर हम इस सरकार के पिछले रेकार्ड को देखें तो पता चलता है कि अम्बेडकर को लेकर सरकारी दावे और हक़ीकत में अक्सर अन्तराल देखा गया है।
गौर किया जा सकता है कि वर्ष 2015 में तत्कालीन आनंदीबेन पटेल सरकार ने अपने द्वारा ही लिखवायी गयी डॉ अम्बेडकर की जीवनी को न केवल वापस लिया था बल्कि सरकारी स्कूलों में बांटने के लिए प्रकाशित उसकी लाखों प्रतियों को लुगदी बना कर नष्ट किया। वजह थी लेखक ने डॉ अम्बेडकर की उन बाईस प्रतिज्ञाओं को किताब में शामिल किया जिन्हें वर्ष 1956 में बौद्ध धर्म स्वीकारते वक्त सभी ने स्वीकारा था। इन प्रतिज्ञाओं में डॉ अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म से पूरी तरह सम्बन्ध विच्छेद की बात की थी। यह प्रतिज्ञाएं हिन्दु विश्वासों और आचारों की जड़ों पर जबरदस्त प्रहार करती हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि यह प्रतिज्ञाएं नव बौद्धों से यह कह रही थी कि वह अंधश्रद्धा, खर्चीले और अर्थहीन रस्मों से अपने आप को मुक्त कर लें। इसने आम जनता के दरिद्रीकरण को बढ़ावा ही दिया था और वर्चस्वशाली जातियों को सम्रद्ध बनाया था। ये प्रतिज्ञाएं नव बौद्धों से यह अपील कर रही थी कि वे हिन्दू ईश्वर पर विश्वास न रखें और उनकी पूजा न करे।

और इस तरह सरकार ने बार बार यह साफ किया कि वह अम्बेडकर का सम्मान करती है मगर अपनी शर्तों पर।

प्रश्न उठता है कि क्या महज गुजरात के हिन्दुत्ववादी ही अम्बेडकर के विचारों की रैडिकल अन्तर्वस्तु से परेशान दिखते हैं या यह उनके खेमे में अखिल भारतीय परिघटना है ?

इस मामले में पड़ोसी सूबा महाराष्ट्र  का अनुभव आंखें खोलनेवाला है।

याद रहे वर्ष 2016 डा अम्बेडकर के 125 वे जन्मदिन के जशन का साल था और सरकार की तरफ से बाकायदा योजना बनी कि न केवल मुल्क में बल्कि बाहरी देशों में भी इस धूमधाम से मनाया जाए। सूबा महाराष्ट की सरकार ने भी योजना बनायी कि वह दादर, मुंबई मेें डा अम्बेडकर का विशाल स्मारक बनाएगी तथा जिसके लिए 500 करोड़ रूपयों का इन्तज़ाम भी किया गया, उसी तरह दादर के इंदु मिल में भी अम्बेडकर की याद में स्मारक बनाने की योजना बनी। यही वह साल था जब महाराष्टराष्ट्र  सरकार ने खुद डा अम्बेडकर द्वारा निर्मित अम्बेडकर भवन को नष्ट कर दिया ताकि 17 मंजिल वाले एक व्यावसायिक संकुल के लिए जगह मिल सके।  /25 जून 2016/ इस तबाही को शनिवार सुबह अंजाम दिया गया। आफिस फर्निचर, प्रिंटिंग प्रेस और किताबों का दुर्लभ संग्रह सभी जमीन में समा गया। वे किताबें जो दफन नहीं हो सकीं उन्हें पानी के बौछारों से नष्ट किया गया। मुंबई में मेट्रो रेल का निर्माण के दौरान ‘इसी बेरूखी के चलते कई सारे दुर्लभ दस्तावेज नष्ट भी हुए होंगे।

आखिर वास्तविक अम्बेडकर के बारे में इस बेरूखी भरे व्यवहार की जड़ें कहां हैं ?

क्या यह इसी वजह से है क्योंकि चालीस के दशक में ही डा अम्बेडकर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा जैसे संगठनों को ‘‘प्रतिक्रियावादी संगठन’’ कहते हुए खारिज किया था। वर्ष 1942 में डॉ अम्बेडकर ने जिस शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना की थी उसके घोषणा पत्र में साफ लिखा गया था:

’’शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे प्रतिक्रियावादी संगठनों के साथ कोई गठबंधन नहीं करेगा। ’’

अपने ऐतिहासिक ग्रंथ  ‘पाकिस्तान  पार्टीशन आफ इंडिया’ में भी उन्होंने ‘हिन्दू राज’ के हिमायतियों की तरफ से किए जा रहे दावे और संभावित बहुसंख्यकवादी रूझानों पर अपनी चिन्ता प्रगट की थी:

“अगर हिन्दू राज हक़ीकत बनता है तो निस्सन्देह वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ी तबाही का सबब होगा। हिन्दू जो भी दावा करें, हिन्दू धर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के लिए एक ख़तरा है और इस वजह से जनतंत्रा के साथ उसका मेल नहीं हो सकता। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’’

यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं कि भले ही हिन्दुत्ववादी जमातों ने डा अम्बेडकर को अपना आयकन/नायक घोषित किया हो और आए दिन उनका स्तुतिगान करते रहते हों, मगर बुनियादी तौर पर डा अम्बेडकर के बारे में उनका वही आकलन है, जो उनके एक चिन्तक/विचारक ने अपनी कुछ सौ पन्नों की किताब ‘वरशिपिंग फाॅल्स गाॅडस’ में पेश किया था। नब्बे के दशक के मध्य में आयी इस किताब में डा अम्बेडकर के खिलफ बहुत सारी अनर्गल बातें कही गयी थीं।  ध्यान रहे कि इतने अर्से के बावजूद अभी भी संघ परिवार की तरफ से इस किताब को लेकर कोई आत्मालोचना या मुआफी भी नहीं मांगी गयी है।

तय बात है कि विश्वविद्यालय के परिसर में शिक्षकों की पहल पर संविधान निर्माता डा अम्बेडकर की रचनाओं के सार्वजनिक वाचन से ‘अशांति फैलती है’ यह मानसिकता अगर मुल्क में हावी है – सत्ता की बागडोर संभाले लोगों को मुफीद लगती है – तो यह बेहद ख़तरनाक संकेत है।

वैसे हिन्दुत्व वर्चस्ववादी जमातें – फिर वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हो या हिन्दू महासभा हो – जिन्होंने नवस्वाधीन भारत में एक व्यक्ति एक वोट के आधार पर बन रहे एक अलग संविधान निर्माण का विरोध किया था और जन्म के आधार पर लोगों को उंच नीच ठहराने वाली मनुस्मृति को ही संविधान के स्थान पर लागू करने की बात की थी, उनके वारिस इसी ढंग से सोच सकते हैं। यह बात भी इतिहास हो चुकी है कि उन्होंने हिन्दू स्त्रियों को पहली दफा अधिकार दिलाने वाले हिन्दू कोड बिल का विरोध किया था, डा अम्बेडकर के आवास पर प्रदर्शन किए थे तथा उन्हें मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया था।

निश्चित ही इन बातों की कभी विस्तार से चर्चा की जा सकती है।

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अंत में विचारणीय मसला यह है कि अगर ‘टेलीग्राफ’ ने इस मसले पर स्टोरी नहीं की होती तो डा अम्बेडकर के खुल्लमखुल्ला अपमान की यह हरकत दबी ही रह जाती।
प्रश्न उठता है कि लोकतंत्र का प्रहरी कहलाने वाले स्थानीय / क्षेत्रीय मीडिया ने इस सरासर अन्याय की ख़बर क्यों नहीं छापी ?
आखिर इस अन्यायकारी कदम के खिलाफ कभी अम्बेडकरी आंदोलन का गढ़ रहे विदर्भ- नागपुर के इलाके में व्यापक प्रदर्शन क्यों नहीं हुए, याद किया जा सकता है कि इसी नागपुर में 1956 में डा अम्बेडकर की अगुआई में लाखों लोगों ने बौद्ध धर्म का स्वीकार किया था और हर साल विजयादशमी पर वहां लाखों लोग इकटठा होते हैं।

क्या यह कहना मुनासिब होगा कि इस चुप्पी की असली वजह अम्बेडकरी आंदोलन की अपनी रैडिकल धारा समाप्ति की ओर चली है और यह इस बात का संकेत है कि (कभी रैडिकल दलित नेता के तौर पर सामने आए ) रामदास आठवले की तर्ज पर (या कुछ साल पहले गुजरे ) रामबिलास पासवान की तरह या मायावती की तरह, अम्बेडकर के युवा अनुयायियों को भी इस बात से गुरेज नहीं है कि उन्हें संघ की शाखाओं में प्रातः स्मरणीय बनाए गए अम्बेडकर के ‘केसरिया रूपांतरण’ से भी परहेज नहीं है।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र लेखक हैं।

तस्वीर द टेलीग्राफ़ से साभार।


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