संविधान के पन्नों पर राम, बुद्ध, अकबर, टीपू सब! कहाँ हैं अब?


सेक्युलरिज़्म का अर्थ है राज्य का धर्म के मामलो से अलग रहना। राज्य लौकिक समस्याओं के लिए बनता है जबकि धर्म पारलौकिक समस्याओं पर चर्चा करता है। जब लौकिक समस्याओं का जवाब राज्य के पास नहीं होता तो राज्य पारलौकिक खेल में लिप्त हो जाता है। रोटी-रोज़गार की जगह मंदिर-मस्जिद का खेल करने लगता है। सेक्युलरिज़्म का हेतु व्यक्ति से नहीं राज्य से है। व्यक्ति तो धार्मिक रहकर भी सर्वधर्म समभाव रख सकता है, लेकिन राज्य का इन सब पचड़ों से दूर रहना ही सेक्युलरिज़्म है। धार्मिक चित्र होने से संविधान का चरित्र ग़ैरसेक्युलर नहीं हो जाता।




रामाधीन सिंह यूपी में बीजेपी के नेता हैं पर हम लोगों के लिए अध्यक्ष जी हैं। अध्यक्ष जी इसलिए कि जब 1984 में हमने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में क़दम रखा था, तो चारो तरफ़ उनके पोस्टर-बैनर ही नज़र आये थे। चुनाव उसी समय सम्पन्न हुए थे और वे अध्यक्ष चुने जा चुके थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय का अध्यक्ष चुनाव जाना बहुत प्रतिष्ठा की बात थी। इस नाते उनका सम्मान, विपरीत विचारधाराओं के लोग करते रहे हैं। यह उस दौर की बात है जब वामपंथी और एबीवीपी के छात्र रोज़ाना साथ चीय पीते हुए शालीनता से बहस कर सकते थे।

ख़ैर, आज रामाधीन सर की एक फेसबुक पोस्ट देखकर चौंक गया। उन्होंने भारतीय संविधान की मूल प्रति में प्रख्यात चित्रकार नंदलाल बोस के कुछ चित्रों का हवाला देते हुए सवाल किया है कि क्या आज ऐसा संभव था? आगे कुछ कहूँ, इससे पहले पढ़िये रामाधीन सर की पोस्ट का एक हिस्सा-

“#गणतन्त्र__दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
भारतीय संविधान 26 जनवरी 1950
को लागू किया गया था।e
#भारतवर्ष का #संविधान__लेखन
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#भारतीयसंविधान में #शिव #राम #कृष्ण
#हनुमान #बुद्ध #शिवाजी #अकबर #गुरुगोविन्दसिंह #झाँसीरानीलक्ष्मीबाई आदि आदि के चित्र पन्ने पर हैं।
विगत 30 वर्षों में भारतीय राजनीति ने ऐसा स्वरूप ग्रहण कर लिया है कि राम शिव आदि का नाम लेते ही कुकुरहट मच जाती है।
ऐसे में इन तथाकथित सेकुलरिस्ट गिरोहों से वाजिब सवाल है कि
क्या संविधान सभा अध्यक्ष #डाराजेन्द्र प्रसाद
या ड्राफ्ट कमेटी के चेयरमैन #डा#अम्बेडकर या प्रधानमंत्री #नेहरु को कोई #सम्प्रदायिक कह सकता है।”

ये पोस्ट ज़ाहिर है, ‘सेकुलरिस्टों’ को घेरने के लिए लगायी गयी है, ये भूल कर कि संविधान की मूल भावना ही सेक्युलर है, भले ही यह शब्द बाद में डाला गया हो। बहरहाल, धर्म तो संस्कृति का हिस्सा होता है। धर्म से जुड़ी कथाएँ लोगों के मानस में दर्ज रहती हैं। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। इन्हें स्वीकारने से कोई ग़ैरसेक्युलर नहीं हो जाता।

अफ़सोस है कि रामाधीन सर ने अर्धसत्य बताया है। संविधान की मूल प्रति में राम ही नहीं, बुद्ध, अकबर और टीपू सुल्तान भी दर्ज हैं। दरअसल, भारत की साझा संस्कृति की पूरी झलक ही मिलती है। पाँच हजार साल का पूरा इतिहास इस प्रति में दर्ज है। ऐसे में केवल राम, कृष्ण का जिक्र करके क्या कहना चाह रहे हैं, समझना मुश्किल नहीं है।

आइये आपको कुछ चित्र दिखाते हैं। शुरुआत होती है सिंधु घाटी सभ्यता में मिले ऋषभ से।

राम, सीता और लक्ष्मण की  पुष्पक विमान से अयोध्या वापसी

 

 

महाभारत में अर्जुन को गीता का उपदेश देते कृष्ण

गौतम बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन

अकबर का दरबार

शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह

 

रानी लक्ष्मी बाई और टीपू सुल्तान

जिन सुभाष बोस को भुलाने का आरोप लगता है, उनका दिल्ली चलो अभियान भी है-

और आज़ादी का जश्न छोड़कर नोआखाली में दंगापीडि़तों का दर्द बँटाते महात्मा गाँधी।

 

ऐसे ही न जाने कितने चित्र जो भारतीय संस्कृति के प्रवाह को रेखांकित करते हैं। तो फिर रामाधीन सर को केवल धार्मिक चित्र नज़र आये। यह नमूना है कि बीजेपी किसी अच्छे भले आदमी की दृष्टि को किस तरह धुंधला करती है। वैसे भी, भगत सिंह जैसे कुछ घोषित नास्तिकों को छोड़ दें तो ज़्यादातर स्वतंत्रता आंदोलन के नेता गहरे अर्थों में धार्मिक थे। आध्यात्मिकता को बहुत महत्व देते थे। महात्मा गाँधी तो रोज़ सुबह शाम प्रार्थना सभायें आयोजित करते थे। रामधुन गाते-गवाते थे। ये अलग बात है कि ‘ईश्वर और अल्ला तेरो नाम’ कर देते थे, इसलिए आरएसएस प्रशिक्षित नाथूराम गोडसे के हिंदुत्व ने उनके सीने पर तीन गोलियाँ उतार दीं।

सेक्युलरिज़्म का अर्थ है राज्य का धर्म के मामलो से अलग रहना। राज्य लौकिक समस्याओं के लिए बनता है जबकि धर्म पारलौकिक समस्याओं पर चर्चा करता है। जब लौकिक समस्याओं का जवाब राज्य के पास नहीं होता तो वह पारलौकिक खेल में लिप्त हो जाता है। रोटी-रोज़गार की जगह मंदिर-मस्जिद का खेल करने लगता है। सेक्युलरिज़्म का हेतु व्यक्ति नहीं राज्य है। व्यक्ति तो धार्मिक रहकर भी सर्वधर्म समभाव रख सकता है, लेकिन राज्य का इन सब पचड़ों से दूर रहना ही सेक्युलरिज़्म है। धार्मिक चित्र होने से संविधान का चरित्र ग़ैरसेक्युलर नहीं हो जाता।

हद तो ये है कि संविधान के पन्ने पर राम का चित्र होने से उन्हें संवैधानिक चरित्र के रूप में घोषित किया जाता है। राममंदिर को लेकर चले मुकदमे में अदालत में यह दलील दी गयी लेकिन उन्हीं पन्नों पर अकबर और टीपू भी दर्ज हैं जिनके ख़िलाफ़ जबरदस्त सांप्रदायिक अभियान चलता है। क्या यह दोहरा रवैया नहीं है? क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ रामाधीन सर…?

 

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।