प्रिय पाठको, चार साल पहले मीडिया विजिल में ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी। दिमाग़ को मथने वाली इस ज़रूरी शृंखला को हम एक बार फिर छाप रहे हैं। पेश है इसकी बाइसवीं कड़ी जो 16 अक्बटूर 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक
आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–22
स्वदेशी : देश का प्राण
‘स्वदेशी : देश का प्राण’ आरएसएस के राष्ट्र जागरण अभियान की आठवीं पुस्तिका है. विषय को देखकर किसी को भी लग सकता है कि आरएसएस को स्वदेशी उत्पादकों और उनके उत्पादनों की बड़ी चिंता है. पर ऐसा नहीं है. इस पुस्तिका में भरपूर शब्दजाल से यह बताने का प्रयास किया गया है कि भारत को विकास की समाजवादी प्रणाली और पूंजीवादी प्रणाली दोनों ही नहीं चाहिए. फिर क्या चाहिए? देखिए, वह अपने विश्लेषण में क्या कहता है—
‘बाज़ार-नियंत्रित पूंजीवादी प्रणाली में यह माना जाता है कि बाजार में स्वतंत्र एवं पूर्ण प्रतियोगिता के माध्यम से अधिकतम सामाजिक कल्याण को प्राप्त किया जा सकता है. इस विचार के समर्थकों का दावा है कि इस प्रकार की स्वतंत्र प्रतियोगिता उपभोक्ताओं को न्यूनतम कीमत पर वस्तुएँ, श्रमिकों को उचित मजदूरी और उद्यमियों को उचित लाभ दिला सकेगी. किन्तु दुनिया के जिन देशों में इस नीति को अपनाया गया, उनके अनुभव कुछ और ही हैं. यह नीति अधिकतम सामाजिक कल्याण के बजाए शोषण के दर्शन एवं तन्त्र के रूप में ही अधिक उभर कर सामने आई है.’ [पृष्ठ 5]
किसी संगठन की आर्थिक विचारधारा का मतलब होता है कि वह अपनी प्रणाली को देश के लिए कल्याणकारी समझता है. आरएसएस की कल्याणकारी आर्थिक प्रणाली क्या है, यह हम आगे देखेंगे. पर ऊपर उसने जिस बाज़ार-नियंत्रित पूंजीवादी प्रणाली को शोषण की प्रणाली कहा है, उससे साफ़ लगता है कि इस प्रणाली को वह देश के विकास के लिए ठीक नहीं समझता है. लेकिन यह उसका सबसे बड़ा झूठ है. आज आरएसएस संगठन सत्ता में है. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उसकी राजनीतिक ईकाई है, जिसकी केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार है. इसके सिवा भी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, और झारखंड में उसकी सरकारें हैं. किन्तु, कहीं भी—न केंद्र में और न इन राज्यों आरएसएस की कोई कल्याणकारी आर्थिक प्रणाली व्यवहार में नहीं है. व्यवहार में वही बाज़ार-नियंत्रित पूंजीवादी प्रणाली है, जिसे आरएसएस शोषण की प्रणाली कहता है. निश्चित रूप से यह शोषण की ही प्रणाली है, जिसमें आम जनता गरीब से गरीब होती जा रही है, और अमीर जनता की अमीरी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है. इस प्रणाली में कारपोरेट घरानों, कम्पनियों, उद्योगपतियों और बैंकों का मुनाफा प्रतिवर्ष कई गुणा बढ़ता जा रहा है, और उपभोगताओं की छोटी-छोटी बचतें भी उसी के पेट में समाती जा रही हैं. इस शोषण-आधारित आर्थिक प्रणाली ने शिक्षा, स्वास्थ्य, यहाँ तक कि तीज-त्यौहार भी बाजार-आधारित कर दिए हैं. परिणामत:, जिसके पास पैसा नहीं है, वह न शिक्षा हासिल कर सकता है, न बीमार पड़ने पर इलाज करा सकता है, क्योंकि सरकार ने जानबूझकर सार्वजनिक शिक्षा और चिकित्सा संस्थाओं की बदहाल स्थिति की हुई है, ताकि लोग प्राइवेट स्कूलों और अस्पतालों में जाएँ. लेकिन प्राइवेट में वही जायेगा, जिसके पास पैसा है. जब आरएसएस इस बाज़ार-नियंत्रित पूंजीवादी प्रणाली को शोषण की प्रणाली मानता है, तो वह उसे अपनी सरकार में लागू क्यों किए हुए है? क्या यह जनता की आँखों में धूल झोंकना नहीं है? क्या यह कहना गलत होगा कि जैसे हाथी के दांत दिखाने के अलग होते हैं, और खाने के अलग, वैसे ही आरएसएस का भी चरित्र है, जिसकी कथनी अलग है और करनी अलग है?
बाज़ार-नियंत्रित पूंजीवादी प्रणाली में जिस तरह जनता का आर्थिक शोषण हो रहा है, उसके विरुद्ध आरएसएस का एक भी नेता आवाज नहीं उठा रहा है. इससे भी बड़ी विडम्बना यह है कि इस आर्थिक शोषण के विरुद्ध जो लोग आवाज उठा रहे हैं, उसे आरएसएस और भाजपा के नेता कम्युनिस्ट कहकर राष्ट्रद्रोही बता रहे हैं. यह आरएसएस का कितना बड़ा पाखंड है कि शोषण करने वाला राष्ट्रवादी है और उसका विरोध करने वाला राष्ट्रद्रोही है. यह कितना दिलचस्प है कि जो प्रणाली शोषण की विरोधी है, आरएसएस उसी का विरोध करता है. देखिए, वह क्या कहता है—
‘इसके विपरीत मार्क्स के दर्शन पर आधारित साम्यवादी प्रणाली ने बाज़ार की शक्तियों एवं अर्थव्यवस्था पर केन्द्रीय सत्ता के पूर्ण नियन्त्रण के दर्शन को सामने रखा. किन्तु इस नई प्रणाली ने भी पहल और प्रेरणा की ऐसी गम्भीर समस्याएं खड़ी कर दीं, जिनके फलस्वरूप समूचा उत्पादन तन्त्र ही चरमराकर टूटने की स्थिति में पहुँच गया. साम्यवादी जगत और विशेषकर सोवियत रूस एवं अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों के बिखराव एवं आर्थिक दुर्दशा इसकी साक्षी है.’ [पृष्ठ 5-6]
वामपंथ के विरुद्ध दक्षिण पंथियों का पूर्वाग्रह स्वाभाविक है. क्योंकि दक्षिण पंथ समाजवाद नहीं चाहता. वह नहीं चाहता कि भूमि, उद्योग, कृषि, बीमा, आवास आदि पर राज्य का स्वामित्व हो, जबकि दुनिया की यह सबसे वैज्ञानिक, शोषण-मुक्त और कल्याणकारी प्रणाली है. यह सबके समान विकास की प्रणाली है. इसमें राजा और रंक, ब्राह्मण और दलित सबका उत्थान है. लेकिन जिसे समानता का दर्शन ही पसंद नहीं है, उसे क्या कहा जायेगा? जाहिर है कि वह समानता को नकारता है और असमानता को स्वीकारता है. दूसरे शब्दों में वह पूंजीवाद को स्वीकारता है, जो शोषण पर जीवित रहता है. चूँकि आरएसएस वर्णव्यवस्था में आस्था रखता है, जो सामाजिक असमानता के साथ आर्थिक असमानता का भी दर्शन है, इसलिये उसे पूंजीवाद रास आता है, जो आर्थिक असमानता पैदा करने में हिंदुत्व की मदद करता है.
आरएसएस, भाजपा और पूंजीवाद तीनों मिलकर हिंदुत्व के एजेंडे को धार दे रहे हैं. वे हिन्दू देवी-देवताओं, उसके शास्त्रों और उसके त्यौहारों का राष्ट्रीयकरण कर रहे है. उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अयोध्या में सरकारी खजाने से दो सौ करोड़ रूपये की लागत से उस श्रीराम की विशाल प्रतिमा बना रहे हैं, जिसने वर्णव्यवस्था के विरुद्ध आचरण करने वाले शूद्र ऋषि शम्बूक की हत्या कर दी थी. इसलिए मैं आरएसएस को हिंदूवादी नहीं, बल्कि हिन्दू पूंजीवादी कहता हूँ. वह वर्तमान पूंजीवाद का इसीलिए विरोध नहीं कर रहा है, क्योंकि उसी की शक्ति से उसका हिन्दूवाद आगे बढ़ रहा है, जिसका उद्देश्य निम्न वर्गों को आर्थिक रूप से कमजोर, असहाय, गरीब और बेरोजगार तथा सामाजिक रूप से अशिक्षित बनाकर रखना है, ताकि वे धर्मभीरू बने रहें और वामपंथी या समाजवादी या प्रगतिवादी परिवर्तन से, जिसे वह पश्चिमी कहता है, न जुड़ सकें. इसका परिणाम यह होता है कि लोगों में अपनी बदहाली से लड़ने की दृढ़ता और अपने सुखद जीवन को सुरक्षित रखने का संकल्प खत्म हो जाता है. ऐसी स्थिति में निर्धन वर्ग लोकतंत्र में भी निम्नतम स्थिति को झेलने के लिए राजी हो जाता है. इसलिए भारत में वर्तमान पूंजीवाद हिन्दूवाद के साथ गठजोड़ किए हुए है. इस गठजोड़ ने राज्यों के विश्वविद्यालय बरबाद कर दिए, सरकारी अस्पतालों को बदतर कर दिया, देशी उद्योग-धंधे चौपट कर दिए, और कृषि क्षेत्र का सत्यानाश कर दिया, जिसके कारण किसान या तो किसानी छोड़ रहे हैं, या आत्महत्या करके दुनिया छोड़ रहे हैं. लेकिन शहर-शहर और गाँव-गाँव में मन्दिरों का निर्माण होता जा रहा है, जिनमें सुबह-शाम गाए जाने वाले भजनों और कीर्तनों में लोग अपने दुखों को भूल रहे हैं. या कहिए, लोकतंत्र में इसी को अपना भाग्य समझ रहे हैं. दूसरी ओर धनाढ्य वर्ग, जो वर्चस्ववादी उच्च वर्ग है, सारे संसाधनों का उन्मुक्त उपभोग कर रहा है. उसके बच्चे विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं, पर विदेश में, इलाज के लिए उसने देश-विदेश में बेहतर अस्पतालों की व्यवस्था कर रखी है. उसके पास परिवहन के बेहतरीन साधन हैं, और वह सारा वैभव है, जिसकी निम्नवर्ग कल्पना भी नहीं कर सकता. इसी उच्च वर्ग के धन से आरएसएस का विश्व का सबसे समृद्ध और शक्तिशाली नेटवर्क चलता है.
आरएसएस की ‘स्वदेशी : देश का प्राण’ नामक इस पुस्तिका में वर्ष 2001 तक के आंकड़े दिए गए हैं. उस समय देश में कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी, जिसकी नरसिम्हा राव ने वैश्विक उदारीकरण की नई आर्थिक नीतियों को लागू किया था. उसका विरोध करते हुए, इस पुस्तिका में कहा गया है—
‘इन सबके कारण छोटे-बड़े स्वदेशी उद्योग बंद हो रहे हैं. देश में बेरोजगारी बढ़ रही है और देश भयावह आर्थिक संकट की ओर बढ़ रहा है. वैश्वीकरण की नीति अपनाने के बाद सरकारी आंकड़ों के अनुसार गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में 8 करोड़ की वृद्धि हुई है और देश में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न का उत्पादन घटा है. कृषि वैज्ञानिक एवं कृषि अर्थशास्त्री देश पर आसन्न खाद्यान्न संकट के प्रति चिंतामग्न हैं और उधर देश में वैश्वीकरण के नाम पर विदेशी बीज कंपनियों और अन्य कृषि उत्पाद बनाने वाली विदेशी कंपनियों को देश में आने की खुली छूट दी जा रही है. देश के परम्परागत कृषि ढांचे को ध्वस्त किया जा रहा है. विदेशी कंपनियां किसानों से कांट्रेक्ट फार्मिंग अर्थात ठेके पर खेती करवाने में काफी आगे बढ़ चुकी है. उधर देश के पशुपालन और मुर्गीपालन उद्योग पर भी संकट गहरा गया है, क्योंकि विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के अनुरूप दूध और मुर्गी के मांस के आयात की खुली छूट दी जा रही है.’ [पृष्ठ, 8-9]
निश्चित रूप से, 1991 में लागू हुए नए आर्थिक सुधारों के बाद की इस भयावह स्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता. किन्तु, आज आरएसएस और भाजपा के शासन में भी लागू किये गए सुधारों से देश की यही भयावह स्थिति है. आज गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 40 करोड़ से भी ज्यादा हो गई है. आज भी कृषि क्षेत्र संकट में है और किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं. आज छोटे उद्योग संकट में नहीं हैं, बल्कि तबाह हो गए हैं. आज देश की आर्थिक स्थिति पहले से और भी बदतर हो गई है. आज आरएसएस इस बदतर स्थिति के खिलाफ क्यों आवाज नहीं उठा रहा है? उसके नियन्त्रण वाली सरकार वैश्वीकरण की नीतियों पर क्यों चल रही है? क्या यह उसका पाखंडपूर्ण विरोधाभास नहीं है.
आरएसएस का एक और विरोधाभास देखिए. उसने कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार पर प्रहार करते हुए लिखा है—
‘भारत में संरचनात्मक समायोजन के नाम पर विदेशी कंपनियों के लिए द्वार खोल दिए गए हैं. पहले से प्रतिबंधित उद्योगों में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति दी गई और साथ ही साथ उद्योगों में विदेशी निवेश को तुरंत मंजूरी देने हेतु शक्तिशाली एवं उच्चाधिकार प्राप्त ‘विदेशी निवेश संबर्द्धन बोर्ड’ कर दिया गया. यह बोर्ड प्रधानमंत्री कार्यालय का ही एक विभाग है. कोका कोला, पेप्सी, सोनी जैसी कंपनियों को 100 प्रतिशत विदेशी पूंजी की इकाइयां स्थापित करने की अनुमति इसी बोर्ड ने दी है.’ [पृष्ठ 9-10]
लेकिन भाजपा की अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने क्या किया था? क्या उसने विदेशी पूंजी निवेश पर रोक लगा दी थी? क्या उसने विदेशी कंपनियों को देश से बाहर खदेड़ दिया था? क्या उसने वैश्वीकरण की नीतियों का परित्याग कर दिया था? सच यह है कि नरसिम्हा राव का लागू किया हुआ उदारवाद भाजपा के शासन में भी फलफूल रहा था. उसने तो पृथक से ‘विनिवेश’ मंत्रालय ही खोल दिया था, जिसके मंत्री अरुण शौरी बनाए गये थे. इस मंत्रालय ने अनेक स्वदेशी कम्पनियां, जो सरकारी नियन्त्रण में थीं, औनेपौने दामों में विदेशी पूंजीपतियों को बेच दीं थीं. हाँ, स्वदेशी जागरण मंच की नारेबाजी उस वक्त भी जरूर चल रही थी, जैसा कि वह आज भी चल रही है. जनता इस नारेबाजी का आनन्द सिर्फ एक हास्य प्रहसन के रूप में लेती है. वर्तमान में भी आरएसएस के नियन्त्रण में नरेंद्र भाई मोदी की सरकार काम कर रही है, जो अपने आप को प्रधानमंत्री की अपेक्षा प्रधान सेवक कहलाना पसंद करते हैं. आरएसएस के ये प्रधान सेवक भी वैश्वीकरण की नीतियों को ही जोरशोर से लागू किए हुए हैं. स्वदेशी के नाम पर उन्होंने ‘मेक इण्डिया’ का नारा जरूर दिया है, और युवाओं को विभिन्न उद्यमों में प्रशिक्षण के लिए कौशल केंद्र भी खोले गये हैं, पर वे सब दिखावा साबित हुए हैं. यहाँ तक विदेशी निवेश की बात है, नरेंद्र मोदी विश्व भर में जाकर विदेशी निवेशकों को ही भारत में निवेश करने की दावत देते हैं. पहली बार इसी सरकार ने रक्षा क्षेत्र में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश को स्वीकृति दी है. किस मायने में भाजपा की आर्थिक नीतियाँ कांग्रेस से भिन्न हैं? आरएसएस अच्छी तरह जानता है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों की आर्थिक नीतियाँ बाज़ार नियंत्रित पूंजीवादी प्रणाली की नीतियाँ हैं. फिर स्वदेशवाद का ड्रामा क्यों?
आरएसएस के स्वदेशी-प्रेम पर चर्चा करने से पहले, आइए, यह देख लेते हैं कि बाज़ार नियंत्रित पूंजीवादी प्रणाली और मार्क्सवादी साम्यवादी प्रणाली के इतर उसकी नई वैकल्पिक स्वदेशी प्रणाली क्या है? वह लिखता है—
‘स्वदेशी दर्शन से तात्पर्य है—अपने शाश्वत जीवन-मूल्यों के प्रकाश में अपने देश व समाज की प्रकृति-प्रवृत्ति एवं कौशल-प्रतिभाओं के बलबूते पर देश की कर्मशक्ति व ऊर्जा के जागरण के माध्यम से धारणक्षम, पोषणक्षम, संस्कारक्षम, सर्वमंगलकारी, संतुलित एवं सर्वतोमुखी विकास का दर्शन.’ [पृष्ठ 11-12]
स्वदेशी दर्शन को इन संस्कृतनिष्ठ शब्दों में व्यक्त करने का अर्थ है कि यह भरपूर शब्दजाल है, जिनका विशेष अर्थ कुछ नहीं है. लेकिन वह आगे बताता है—‘स्वदेशी संरचना से तात्पर्य है देश व समाज के हित-संवर्द्धन हेतु अपने ही देश के लोगों द्वारा निर्मित, संचालित व नियंत्रित उत्पादन व वितरण से सम्बन्धित अर्थतन्त्र का निर्माण करना.’ [वही, पृष्ठ 12]
लेकिन मुख्य समस्या देश के लोगों द्वारा निर्मित उत्पादन की नहीं है, बल्कि तकनीक की है. अगर किसी देश के पास तकनीक नहीं है, तो वह निर्माण कैसे कर सकता है? मिटटी, लोहे, लकड़ी, पत्थर और चमड़े से वस्तुएं बनाने की तकनीक लगभग हर सभ्यता में आरम्भ से रही है. यह तकनीक भारत में भी थी, और बेहतर थी, यह भी हम कह सकते हैं. पर क्या हमारे पास हवाई जहाज बनाने की तकनीक थी? क्या हमारे पास मोटर कार बनाने की तकनीक थी? क्या हमारे पास रेडियो बनाने की तकनीक थी? क्या हमारे पास बिजली बनाने की तकनीक थी? हमारे पास हाथ का पंखा बनाने की तकनीक थी, पर क्या बिजली का पंखा बनाने की तकनीक भी थी? क्या हमारे पास टाइपराइटर, टेलीफोन, टेलीविजन, मोबाइल, कम्प्यूटर, माइक्रोवेव बनाने की तकनीक थी? जवाब है कि हमारे पास इनमें से कोई तकनीक नहीं थी. यहाँ तक कि हमने चिकित्सा और विज्ञान के क्षेत्र में भी कोई आविष्कार नहीं किया. ऐसी स्थिति में स्वदेशी का नारा बैलगाड़ी युग पर मुग्ध होने का नारा है. स्वदेशी अर्थव्यवस्था तकनीक और आविष्कार से विकसित होती है, जो हमारे पास नहीं है और उसे हमें आयात ही करना है. इसलिए स्वदेशी के नाम पर बड़ी-बड़ी करना बकतोली के सिवा कुछ नहीं है. देखिए, वह क्या कहता है—
‘स्वदेशी दृष्टिकोण के अनुसार पूंजीवादी अथवा समाजवादी संरचना का सही विकल्प विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था ही हो सकती है. यह एक ऐसी विकेन्द्रित एवं स्वावलंबी अर्थरचना होगी, जो धर्म के मार्गदर्शन में सामान्य जनता द्वारा संचालित एवं निर्देशित होगी. समाज के सबसे कमजोर व्यक्ति—सबसे अंतिम व्यक्ति—के आर्थिक विकास का कौन सा मार्ग हो सकता है? गाँधी जी ने इस प्रश्न के उत्तर में ‘स्वराज’ में समाज की सबसे छोटी इकाई गाँव को स्वावलंबी होना चाहिए और गाँव के समाज को स्वायत्त.’ [वही]
इससे पता चलता है कि मामला स्वदेश-प्रेम से ज्यादा धर्म का है. इसलिए आरएसएस धर्म से संचालित और निर्देशित विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था चाहता है. यानी, बिखरी हुई अर्थव्यवस्था, और वह भी धर्म से नियंत्रित. कोई अर्थव्यवस्था धर्म से भी संचालित-नियंत्रित हो सकती है, यह अपने आप में ही एक मजाक है. इसे समझाने के लिए वह गाँधी जी के ‘स्वराज’ की याद दिलाते हुए समाज की सबसे छोटी इकाई गाँव को स्वावलंबी और ग्राम समाज को स्वायत्त बनाने की बात कहता है. इस तरह आरएसएस की विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था में तीन चीजें मुख्य हो गयीं—धर्म, गाँव और गाँव-समाज. यह आरएसएस का सबसे भयानक शब्दजाल है, जिसमें उसने हिन्दू वर्णव्यवस्था को पुर्स्थापित करने का काम किया है. गाँव में उत्पादन और निर्माण कार्य करने वाली शूद्र जातियां हैं, जो गरीब हैं. बनिया व्यापार करता है. वह गाँव का महाजन है. उसी की पूंजी से उत्पादक जातियां अपना उद्यम चलाती हैं. बनिया उन्हें ब्याज पर पूंजी देता है, और बदले में उसके पास जो भी अचल संपत्ति होती है, उसे बंधक रखता है. शिल्पकारों के उत्पाद को भी बनिया ही खरीदता है. पर वह भी उधार में खरीदता है, जिस पर वह कोई ब्याज नहीं देता है. किन्तु वह अपनी पूंजी पर ब्याज वसूलना नहीं भूलता है. इसलिए, जब वह हिसाब करता है, तो उत्पादक के हाथ में असल पूंजी और ब्याज काटकर जो रकम आती है, उससे उसे श्रम का मूल्य भी नहीं मिल पाता है. परिणामस्वरूप वह घर-गृहस्थी चलाने के लिए फिर बनिये से कर्ज लेता है. इस प्रकार गाँव की उत्पादक जातियां हमेशा बनिये की कर्जदार रहती हैं. कर्ज की दलदल से वह तभी मुक्त होता है, जब या तो हारी-बीमारी से मर जाता है, या गाँव से शहर भाग जाता है. इस तरह वर्णव्यवस्था ने जिस एक वर्ण को व्यापार का अधिकार देकर निजी पूंजीवाद का मार्ग प्रशस्त किया, उसने न केवल गरीबों का भरपूर शोषण किया, बल्कि गाँव के सभी देशी उद्यमों को बर्बाद कर दिया. इसी वैश्य वर्ण ने शहरों में बाज़ार कायम किए, और बाज़ार आधारित पूंजीवाद का विकास किया. जब भारत में 1991 में उदारवादी आर्थिक सुधारों के नाम पर अमेरिका की विनाशकारी आर्थिक नीतियों को अंगीकार किया गया, तो उसका स्वागत करने वाला भी यही वर्ग था. इस अर्थव्यवस्था ने जीवन की सभी मूलभूत आवश्यकताओं को बाज़ार के हवाले कर दिया. उसने शिक्षा, इलाज, आवास, खाद्यान्न, न्याय, रेल, ही नहीं, पानी को भी आम आदमी की पहुँच से दूर कर दिया. इसी पथ पर आरएसएस की भाजपा सरकार चल रही है. कहाँ है स्वराज? कहाँ है विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था?
लेकिन इससे पहले कि आरएसएस की कथनी और करनी पर कोई सवाल खड़े करे, वह चट से पैंतरा बदल देता है. कहता है—
‘स्वदेशी दृष्टिकोण न तो सरकार-आश्रित अर्थव्यवस्था में विश्वास करता है और न ही बाज़ार-आश्रित अर्थव्यवस्था में. यह तो एक ऐसी संरचना में विश्वास करता है, जो जन-आश्रित हो अथवा जिसके अंतर्गत जन-सहयोग एवं जन-सहभागिता के द्वारा विकास हो सके. इस संरचना में सरकार की भूमिका आदेश या नियन्त्रण की नहीं होगी, अपितु जनता द्वारा प्रारम्भ किए गए कार्यों में सहयोग देने की होगी.’ [पृष्ठ 13]
क्या दिलचस्प है कि आरएसएस की विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था सरकार द्वारा संचालित नहीं होगी. वह बस उसका सहयोग करेगी. किन्तु यदि सरकार ने सहयोग नहीं किया, तब क्या होगा? क्या सरकार को बाध्य करने के लिए संविधान में कोई प्राविधान किया जायेगा? क्या सरकार के संरक्षण और सहयोग के बिना स्वदेशी संरचना वाली अर्थव्यवस्था का कोई वजूद हो सकता है? इन तमाम सवालों का आरएसएस के पास कोई जवाब नहीं है. उसके पास अपनी स्वदेशी अर्थव्यवस्था के लिए सरकार पर दबाव बनाने का न कोई विचार है और न उसका संकल्प.
लेकिन वह सरकार की नीतियों के बिना ही—
‘किसान अथवा स्थानीय शिल्पकार अकेले अथवा समूहों में स्थानीय रूप से उपलब्ध वित्तीय साधनों के अंतर्गत परम्परागत तकनीकों एवं छोटे यंत्र-उपकरणों में आवश्यक सुधार लाकर एवं कुशलता लाकर उनकी सहायता से अपने कृषि उत्पाद को उपभोग योग्य वस्तुओं में बदलने का कार्य करेंगे. और इसके बाद वे बड़े व पूंजीगत उद्योग होंगे, जो कृषि व कुटीर उद्योगों के सहायक उद्योगों के रूप में विकसित होंगे,’ [वही]
इसे पढ़कर क्या यह नहीं लगता कि आरएसएस जनता के साथ मजाक कर रहा है. वह चाहता है कि सरकार किसान और शिल्पकार को कोई वित्तीय सहायता न दे, वे स्थानीय रूप से उपलब्ध वित्तीय साधनों, अर्थात स्थानीय साहूकारों से, अर्थात बनियों से कर्ज लें और स्वयं ही बिना किसी सरकारी प्रशिक्षण के तकनीकों और छोटे यंत्र-उपकरणों में सुधार करें, और अपने उत्पाद को उपभोग योग्य बनाएं. इसके बाद वे स्वयं ही बड़े व पूंजीगत उद्योग हो जायेंगे. अगर यह इतना आसान होता, तो गाँव के कुम्हार और लुहार देश के बड़े उद्योगपति कभी के बन गये होते. फिर अगर गाँव के शिल्पकारों को स्थानीय रूप से वित्तीय साधन उपलब्ध नहीं हुए, तो उनकी कौन मदद करेगा? आरएसएस की यह स्वदेशी संरचना जनता को मूर्ख बनाने की कहानी है. जब देश की अर्थव्यवस्था बाज़ार-आधारित है, तो आरएसएस ने इस सवाल पर विचार क्यों नहीं किया कि स्थानीय शिल्पकारों को बाज़ार कौन उपलब्ध कराएगा? जब उनके उत्पाद के लिए बाज़ार ही नहीं होगा, तो वे बड़े पूंजीगत उद्योग कैसे बन सकते हैं? अगर खादी को सरकार बाज़ार उपलब्ध नहीं कराती, तो क्या उसका विकास हो पाता? आज मिटटी के बर्तनों, खिलौनों और दियों का बाज़ार कहाँ है? दिवाली में भी हिन्दू बिजली से जलने वाले दिये और झालरें खरीदते हैं. बाज़ार आधारित पूंजीवाद ने देश के कितने ही कुटीर उद्योग बर्बाद कर दिए. कुटीर उद्योगों के तमाम शिल्पकार बड़ी कंपनियों में साधारण मजदूर बन कर रह गए हैं. क्या यही है स्वदेशवाद?
पुस्तिका के अंत में आरएसएस ने कांग्रेस सरकार से यह अपील की है—
‘सरकार को देश पर आसन्न संकट के मद्देनजर अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करना होगा. विदेशी व्यापार के भुगतान शेष की अल्पकालिक समस्या से निपटने के लिए देश पर स्थाई रूप से विदेशी कंपनियों का आधिपत्य स्थापित करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है. विदेशी निवेश के मोह-जाल से बाहर निकलना होगा. इस शोषणकारी व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप में कोई अंतर आने की सम्भावना नहीं है. उसे विश्व व्यापार संगठन से बाहर आना चाहिए.’ [पृष्ठ 14]
क्या यही अपील आरएसएस अपनी नरेंद्र मोदी सरकार से करेगा ?
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