‘दलितों का बाप बनने की कोशिश न करे RSS, अपमान के ग्रंथ ईसाईयों ने नहीं लिखे!’


दलितों के राम निर्गुण राम हैं. निर्गुण का अर्थ ही होता है गुणरहित. गुण के लिए देह चाहिए. देह के साथ ही गुण हो सकता है. इसलिए दलितों के राम कबीर और रैदास के राम हैं, जो हर तरह के—जन्म-मरण, स्वर्ग-नर्क, परलोक, आवागमन, पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, हिंसा, बैर, आदि गुणों से रहित है. कबीर ने इसे अच्छी तरह स्पष्ट भी कर दिया है कि वह दशरथ के घर में जन्म लेकर रावण को मारने वाला अवतार पुरुष नहीं है—‘ना दशरथ घरि औतरि आवा, ना लंका का राव सताया.’ [कबीर ग्रंथावली, सं. श्यामसुंदर दास, पृष्ठ 185] और हाँ, कबीर और रैदास विदेशी विश्वविद्यालयों के छात्र नहीं थे


कँंवल भारती कँंवल भारती
दस्तावेज़ Published On :


प्रिय पाठकों, चार साल पहले मीडिया विजिल में  ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी।  दिमाग़ को मथने वाली इस ज़रूरी शृंखला को हम एक बार फिर छाप रहे हैं। पेश है इसकी  बारहवीं कड़ी जो  27 अगस्त 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक

 

 

सच और मिथक:  दलित समाज और ईसाई मिशनरी

 

आरएसएस के राष्ट्र जागरण अभियान की दूसरी पुस्तिका ‘राष्ट्रीय आन्दोलन और संघ’ है. इस विषय पर लिखने के दौरान ही आरएसएस की ‘दलित आन्दोलन पत्रिका’ के अगस्त 2017 के अंक में मेरी नजर ‘दलित समाज और ईसाई मिशनरी’ लेख पर पड़ी.  इस लेख के लेखक भी वही डा. विवेक आर्य हैं, जिन्होंने झूठ पर झूठ गढ़ कर सावरकर को भारत का प्रथम दलित उद्धारक साबित करने का हास्यास्पद प्रयास किया है. इस ‘दलित समाज और ईसाई मिशनरी’ लेख में यह महोदय और भी मजेदार झूठ लेकर आये हैं,  पूरा लेख पढ़ने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचना लाजमी है कि झूठ गढ़ने में आरएसएस के दिमाग का कोई सानी नहीं है.  अवश्य ही इनका काम इतिहास को तोड़मरोड़ कर उसे अपने हिन्दू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अनुकूल बनाना है. इस काम में वे यह भी नहीं देखते कि जो झूठ वे गढ़ रहे हैं, वे किस कदर तथ्यहीन और हास्यास्पद हैं.

गपोड़े गढ़ने में ये कितने कुशल हैं, इस सम्बन्ध में चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने अपनी किताब ‘भारत के आदि निवासियों की सभ्यता’ में लिखा है—

‘ब्राह्मण लालबुझक्कड़ प्रायः ऐसी ही ऊटपटांग गढ़ी हुई कहानियां सुनाकर सदा अपने भक्तों का समाधान करते रहते हैं. उदाहरणार्थ किसी ने पूछा, ‘महाराज, कौवा काना क्यों होता है?’ महाराज ने उत्तर दिया, ‘इसका बड़ा इतिहास है. लिखा है, बनवास के समय चित्रकूट पर जब श्री रामचंद्र जी सीता जी के साथ विराजमान थे, तो इंद्र के पुत्र जयंत ने कौवे का रूप धरकर सीता जी के वक्षस्थल पर चोंच मारी थी. सीता जी के स्तनों से खून निकलता देखकर श्री रामचन्द्र जी ने क्रोध से सादा तीर मारकर उस कौवे की एक आँख फोड़ दी थी. तब से सारे कौवों के एक ही आँख होती है.’ किसी ने पूछा, ‘महाराज, बादल में जो बिजली चमकती है, वह क्या है?’ महाराज ने कहा, ‘भागवत में इसकी कथा है. कंस ने जब वसुदेव की आठवीं कन्या को पटक दिया, तो वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी, और बिजली हो गयी. तब से आज तक वह कंस अर्थात कांसे पर गिरती है.’ किसी ने पूछा, ‘महाराज ग्रहण क्या चीज है?’ महाराज बोले, ‘शास्त्रों में इसका इतिहास है. लिखा है, समुद्रमंथन से निकले हुए अमृत के घड़े को जब मोहिनी रूपधारी भगवान छलपूर्वक दैत्यों से छीनकर देवताओं को पिलाने लगे, तो देवताओं की पंक्ति में राहु नामक दैत्य छिपकर बैठ गया और अमृत पीने लगा. यह देखकर सूर्य और चन्द्र ने चुगली खाई कि यह देवता नहीं, चांडाल है. यह सुनते ही विष्णु भगवान ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट डाला. लेकिन थोड़ा अमृत उसके गले से नीचे उतर गया था, इसलिए दो खंड हो जाने पर भी वह मरा नहीं, वरन एक की जगह राहु और केतु नाम के दो हो गए. उसी बैर के कारण दुष्ट आज भी चुगली खाने वाले चन्द्र और सूर्य को ग्रसने दौड़ते हैं. उस समय उनकी बिरादरी वाले चांडालों को दान करने से वे सूर्य और चन्द्र को छोड़ देते हैं.’ किसी ने कहा, ‘महाराज, यह भूकम्प क्यों होता है?’ पंडित जी ने चट कह दिया, ‘श्री भागवत जी में लिखा है, यह पृथ्वी शेषनाग के फन पर रखी है.  जब पृथ्वी पर अधिक पाप होता है, लोग ब्राह्मणों के रचे शास्त्रों के विरुद्ध चलते हैं, तो शेषनाग अपना सर हिला देते हैं, और धरती कांपने लगती है.’ इत्यादि.’ [पृष्ठ 23-24, सं. छठा, 1969]

इतना लम्बा-चौड़ा उद्धरण यहाँ इसलिए दिया गया है, क्योंकि ऐसी ही बेसिरपैर की लालबुझक्कड़ कहानियों ने हिन्दू समाज के मानस का निर्माण किया है. जिनका जादू आज भी बरकरार है. ये कहानियां जिस काल में भी लिखी गयी हों,  यह मानना पड़ेगा कि उस काल में भी आरएसएस जैसा ही कोई संगठन जरूर रहा होगा, जिसने हजारों साल आगे की सोचकर बेवकूफों पर राज करने की योजना बनाकर यह काम किया था. यही काम आज आरएसएस कर रहा है, बल्कि यह काम वह पिछले 90 सालों से कर रहा है. वह भी सैकड़ों साल आगे के अपने प्रभुत्व और वर्चस्व के लिए हिन्दुओं का एक बेवकूफ मानस तैयार कर रहा है, जो उसकी तरह देखे, उसकी तरह सोचे और उसके हिसाब से चले. इसके लिए उसका आसान शिकार और साध्य भी दलित-पिछड़ी जातियां और आदिवासी समाज है. इस विशाल समाज  को वह तीन साधनों से अपना गुलाम बना सकता है, एक, धर्मोन्माद से; दो, अशिक्षा से और  तीन, गरीबी से. इसलिये आरएसएस की पूरी कोशिश इन  वर्गों में इन तीनों चीजों को बनाए रखने की रहती है. अब यह काम उसके लिए और भी आसान हो गया है, क्योंकि अब अनेक राज्यों में उसकी सरकारें बन गयी हैं, जो निम्न वर्गों में उसके इसी एजेंडे पर चल रही हैं. इसलिए उसे इस एजेंडे में काफी हद तक सफलता भी मिली है.

इस भूमिका के बाद ही डा. विवेक आर्य के लेख ‘दलित समाज और ईसाई मिशनरी’ में थोपे गये झूठे तथ्यों को ठीक से समझा जा सकता है.

 

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दलित कभी किसी की कठपुतली नहीं रहे

अपने लेख के पहले पैरे में ही डा. विवेक आर्य सफ़ेद झूठ बोल रहे हैं.  वह लिखते हैं–

‘पिछले कुछ दिनों से समाचार पत्रों के माध्यम से भारत में दलित राजनीति की दिशा और दशा पर बहुत कुछ पढ़ने को मिला. रोहित वेमुला, गुजरात में ऊना की घटना, महिसासुर शहादत दिवस आदि घटनाओं को पढ़कर यह समझने का प्रयास किया कि इस खेल में कठपुतली के समान कौन नाच रहा है, कौन नचा रहा है, किसको लाभ मिल रहा है और किस की हानि हो रही है? विश्लेषण करने के पश्चात् निष्कर्ष यह है कि भारत के दलित कठपुतली के समान नाच रहे हैं, विदेशी ताकतें विशेष रूप से ईसाई प्रचारक, अपने अरबों डालर की धन-संपदा, हजारों कार्यकर्ता, राजनीतिक शक्ति, अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ताकत, दूरदृष्टि, एनजीओ के बड़े तंत्र, विश्वविद्यालयों में बैठे शिक्षाविदों आदि के दम पर दलितों को नचा रहे हैं और इसका तात्कालिक लाभ भारत के कुछ राजनेताओं को मिल रहा है और इससे हानि हर उस देशवासी की हो रही है, जिसने भारत देश की पवित्र मिट्टी में जन्म लिया है.’ [दलित आन्दोलन पत्रिका, अगस्त 2017, पृष्ठ 26]

यहाँ मेरा पहला सवाल यह है कि आरएसएस दलितों से बाप का रिश्ता क्यों जोड़ रहा है? अगर ईसाई मिशनरी दलितों को नचा रहे हैं, तो उसके पेट में दर्द क्यों हो रहा है? दलित कभी किसी के कठपुतली न रहे—न आज और न कल.  हकीकत यह है कि आरएसएस ही उन्हें अपनी कठपुतली बना रहा है, और उसे अपने हिसाब से नचा रहा है. वह चाहता है कि दलित अपना दुश्मन मुसलमानों को माने और उसके कहने पर वह मुसलमानों को मारे. वह चाहता है कि दलित अपना दुश्मन ईसाईयों को माने, और उसके कहने पर वह ईसाईयों के घरों और चर्चों में आग लगाये. वह चाहता है कि दलित रोहित वेमुला के साथ अपनी संवेदना न जोड़ें, ऊना की घटना पर उत्तेजित न हों, महिसासुर के वध में अपना इतिहास न देखें और सहारनपुर कांड से भी अपनी अस्मिता को न जोड़ें, बल्कि  जो आरएसएस कहे वह करें, जो आरएसएस कहे वह मानें, जो आरएसएस पढ़वाए, वह पढ़ें और अगर आरएसएस कहे कि भारतीय जनता पार्टी को वोट दो, तो एक मत होकर  भारतीय जनता पार्टी को वोट दे. क्यों भाई? आरएसएस ने क्या दलितों का ठेका लिया हुआ है?

डा. विवेक आर्य आप किन अरबों डालर की धन-संपदा और हजारों कार्यकर्ताओं की बात कर रहे हैं? आरएसएस के मुकाबले अरबों डालर की धन-संपदा और लाखों कार्यकर्ता किस संगठन के पास  हैं ? आरएसएस के सिवा कोई संगठन नहीं है, जिसके पास अरबों डालर की संपदा और लाखों नहीं, करोड़ों अंधे कार्यकर्ता हों. आरएसएस की अरबों डालर की संपदा और उसके करोड़ों अंधे कार्यकर्ता सिर्फ मुसलमानों और ईसाईयों को दबाने, कुचलने और मारने  के काम के  लिए हैं, जबकि ईसाई मिशनरी इस धन और जनशक्ति का उपयोग हिन्दुओं को दबाने, कुचलने और मारने के लिए नहीं करते हैं. अगर विवेक आर्य के पास कोई उदाहरण हो तो  वे बताएं. ईसाई मिशनरी अपने धन और कार्यकर्ताओं का उपयोग दलितों और आदिवासियों को शिक्षित करने के लिए करते हैं. क्या आरएसएस ने दलितों के लिए कोई विश्वविद्यालय खोला है? क्या उनकी शिक्षा के लिए कोई आन्दोलन चलाया है? वह तो उनकी शिक्षा का दुश्मन बना हुआ है. वह तो चाहता ही नहीं कि दलित शिक्षित हों. अगर आरएसएस किसी का हित सोचता है, तो सिर्फ द्विजों का सोचता है, शूद्रों का नहीं, जबकि सच यह है अगर हिन्दूधर्म  जिन्दा है, तो  शूद्रों के बल पर जिन्दा है. क्योंकि द्विज हिन्दूधर्म का व्यापार करते हैं और शूद्र उसमें अपनी पूंजी का निवेश करता है. अगर शूद्र पूंजी निवेश बंद कर दे, तो क्या हिन्दू धर्म रहेगा?

डा. विवेक आर्य अपने लेख के दूसरे पैरे में लिखते हैं—

‘1947 में अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने पर अंग्रेज पादरियों ने अपना बिस्तर-बोरी समेटना आरम्भ ही कर दिया था, क्योंकि उनका अनुमान था कि भारत अब एक हिन्दू देश घोषित होने वाला है. तभी भारत सरकार द्वारा घोषणा हुई कि भारत अब एक सेक्युलर देश कहलायेगा. मुरझाये हुए पादरियों के चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गयी. क्योंकि सेक्युलर राज में उन्हें कोई रोकने वाला नहीं था. द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात संसार में शक्ति का केंद्र यूरोप से हटकर अमेरिका में स्थापित हो गया. ऐसे में पादरियों ने भी अपने केंद्र अमेरिका में स्थापित कर लिए. उन्हीं केन्द्रों में बैठकर यह विचार किया गया कि भारत में ईसाईयत का कार्य कैसे किया जाए? भारत में बसने वाले ईसाईयों में 90 प्रतिशत ईसाई दलित समाज से धर्मपरिवर्तन कर ईसाई बने थे, इसलिए भारत के दलित को ईसाई बनाने के लिए रणनीति बनाई गयी. यह कार्य अनेक चरणों में आरम्भ किया गया.’ [वही, पृष्ठ 26-27]

यहाँ डा. आर्य ने एक बड़े रहस्य का उद्घाटन करते हुए यह बता दिया है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक आरएसएस के नेता कांग्रेस और प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू से इतनी नफरत क्यों करते हैं? यह नफरत इस बिना पर है कि 1947 में आज़ादी के बाद भारत सरकार ने, जो जाहिर है कि कांग्रेस की सरकार थी और नेहरू उसके प्रधानमंत्री थे, भारत को सेक्युलर देश घोषित कर दिया था, जबकि आरएसएस और हिन्दू महासभा ने यह सपना देखा था कि भारत एक हिन्दू देश घोषित होगा. पर इस घोषणा के बाद इन सभी हिन्दू नेताओं के चेहरे उतर गए थे. अगर भारत हिन्दू देश बन जाता, [जो प्रत्यक्ष रूप से हमेशा रहा है], तो ईसाई मिशनरी अपने देश लौट जाते, और हिन्दू संगठन भारतीय ईसाईयों को डरा-धमकाकर और मारपीट कर हिन्दू बना ही लेते. लेकिन सेक्युलर भारत ने उनकी मुश्किलें बढ़ा दीं. क्योंकि ईसाईयों के अलावा उनके दुश्मन भारतीय मुसलमान भी थे, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान नहीं गए थे. सो आरएसएस को जब-जब और जहाँ-जहाँ मौका मिलता है, ईसाईयों पर हमले करता है, उनकी हत्याएं कराता है. बीती सदी में उसी ने उड़ीसा में मिशनरियों  को जिन्दा जलाकर मारा था, और अनेक चर्चों को तबाह कर दिया था. यह अवश्य ही धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध उसकी हिंसक अभिव्यक्ति  है, जो उसके हिंदुत्व का एजेंडा भी है.

डा. आर्य को शायद मालूम नहीं है, कि भारत के दलित वर्ग ने इसी बिना पर स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लिया था, क्योंकि उन्हें भय था कि अंग्रेजों के जाने के बाद अगर हिन्दुओं के हाथों में सत्ता आई, तो वे हिन्दू राज कायम करेंगे और दलित फिर कभी हिन्दुओं की गुलामी से आज़ाद नहीं हो पायेंगे. इसलिए, डा. आंबेडकर ने बार-बार अंग्रेजों के सामने यही मांग रखी थी कि वे दलितों को हिन्दुओं के सहारे छोड़कर न जाएँ, बल्कि उनके संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करके देश छोड़ें. वे कांग्रेस और हिन्दू नेताओं से भी यही मांग बार-बार रखते थे कि जिस स्वतंत्रता की वे मांग कर रहे हैं, उसका स्वरूप क्या होगा?  क्या वह लोकतंत्र होगा, या  कुछ और? अगर लोकतंत्र होगा, तो क्या वह व्यस्क मताधिकार पर आधारित होगा? लेकिन इन सवालों पर कांग्रेस और स्वराजवादी हिन्दू नेता अपने मत में स्पष्ट नहीं थे. दलितों  की मुक्ति के सवाल पर उनका कहना था कि यह हमारी घरेलू समस्या है, जिसे हम आज़ादी के बाद सुलझा लेंगे. लेकिन डा. आंबेडकर इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं थे. अत: यह दलित वर्गों के संघर्षों का परिणाम था कि स्वतंत्र शासकों ने भारत को हिन्दू देश नहीं बनाया, और इस धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में दलित भी अपनी स्वतंत्रता का उपभोग कर रहे हैं.

 

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राम और शम्बूक

डा. विवेक आर्य लेख के तीसरे पैरे में ‘शोध के माध्यम से शैक्षिक प्रदूषण’ का जिक्र करते हुए लिखते हैं—

‘ईसाई पादरियों ने सोचा कि सबसे पहले दलितों के मन से उनके इष्ट देवता विशेष रूप से श्रीराम और रामायण को दूर किया जाए. क्योंकि जब तक राम भारतीयों के दिलों में जीवित रहेंगे, तब तक ईसा मसीह अपना घर नहीं बना पायेंगे. इसके लिए उन्होंने सुनियोजित तरीके से शैक्षिक प्रदूषण का सहारा लिया. विदेश में अनेक विश्वविद्यालयों में शोध के नाम पर श्रीराम और रामायण को दलित और नारी विरोधी सिद्ध करने का शोध आरम्भ किया. विदेशी विश्वविद्यालयों में उन भारतीय छात्रों को प्रवेश दिया गया, जो इस कार्य  में उनका साथ दें. रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, कांचा इलैया आदि इसी रणनीति के पात्र हैं.’ [वही, पृष्ठ 27]

असल में. जो यथार्थ का दिग्दर्शन है, आरएसएस के लाल बुझक्कड़ी उसे ही  ‘शैक्षिक प्रदूषण’ कहते हैं, जबकि शैक्षिक प्रदूषण वह ज्ञान है, जो आरएसएस थोप रहा है. दलितों के नामों में आगे पीछे राम देखकर, जैसे रामदास, रामनाथ, रामराज, राम विलास, कांशीराम, बेचन राम, मोतीराम, तोताराम आदि, आरएसएस ने झट से गढ़ लिया कि ‘श्रीराम’ दलितों के इष्ट देवता हैं. क्यों भई, दलितों के नामों में तो आगे-पीछे कृष्ण भी हैं, हरि भी हैं, फिर कृष्ण और हरि भी दलितों के इष्ट देवता क्यों नहीं हुए? श्रीराम ही क्यों हुए? वह इसलिए कि श्रीराम से आरएसएस का एक ख़ास राजनीतिक मनोरथ पूरा होता है, जो कृष्ण और हरि से नहीं होता. मगर सवाल यह है कि दलितों के नामों में राम तो लगा है, पर श्रीराम कहीं नहीं लगा है. यह ‘राम’ और ‘श्रीराम’ का क्या चक्कर है? इसे समझना भी जरूरी है, क्योंकि ‘राम’ और ‘श्रीराम’ में बहुत बड़ा अंतर है, उतना बड़ा,  जितना आकाश और धरती में है. दलितों में ‘राम’ का शब्द कबीर और रैदास से आया है, जबकि ‘श्रीराम’ का शब्द आरएसएस के हिंदुत्व से आया है. हिंदुत्व का ‘श्रीराम’, जैसा कि उसके नाम से ही ध्वनित होता है, किसी राजपुरुष का नाम है, वरना ‘श्री’ कहने का कोई मतलब नहीं होता. ‘श्री’ किसी व्यक्ति का गुण होता है. श्रीराम अयोध्या के राजा थे. तुलसी के अनुसार, वे विष्णु के अवतार हैं, जो संतों, गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए थे—‘विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार.’ [मानस, बालकाण्ड-225] अत: जो श्रीराम एक खास मिशन पर पृथ्वी पर आये थे, और बीस हजार से भी ज्यादा ब्राह्मण-शत्रुओं की हत्याएं करके, दंडकारण्य और लंका में ‘विभीषणों’ की मदद से ब्राह्मण-राज्य कायम करके, और कुछ दिन राजसुख भोग कर सरयू में जल-समाधि लेकर अपने लोक चले गए थे, उनके मिशन में दलितों के लिए ऐसा क्या था, जो वे उन्हें अपना इष्ट देवता मानते? क्या वे दलित-मुक्ति के मिशन पर आये थे? शरीरधारी, पत्निधारी, मारने-तोड़ने और डराने-धमकाने वाले श्रीराम दलितों के इष्ट राम कैसे हो सकते हैं? यह शैक्षिक प्रदूषण का घिनौना फलसफा आरएसएस और डा. आर्य अपने पास ही रखें.

दलितों के राम निर्गुण राम हैं. निर्गुण का अर्थ ही होता है गुणरहित. गुण के लिए देह चाहिए. देह के साथ ही गुण हो सकता है. इसलिए दलितों के राम कबीर और रैदास के राम हैं, जो हर तरह के—जन्म-मरण, स्वर्ग-नर्क, परलोक, आवागमन, पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, हिंसा, बैर, आदि गुणों से रहित है. कबीर ने इसे अच्छी तरह स्पष्ट भी कर दिया है कि वह दशरथ के घर में जन्म लेकर रावण को मारने वाला अवतार पुरुष नहीं है—‘ना दशरथ घरि औतरि आवा, ना लंका का राव सताया.’ [कबीर ग्रंथावली, सं. श्यामसुंदर दास, पृष्ठ 185] और हाँ, कबीर और रैदास विदेशी विश्वविद्यालयों के छात्र नहीं थे.

अपने शैक्षिक प्रदूषण में डा. विवेक आर्य आगे और भी लिखते हैं—

‘कुछ उदाहरण देकर हम सिद्ध करेंगे कि कैसे श्रीराम जी को दलित-विरोधी, नारी-विरोधी, अत्याचारी आदि सिद्ध किया गया. शम्बूक वध की काल्पनिक और मिलावटी घटना को उछाला गया और श्रीराम जी के शबरी भीलनी और निषाद राजा केवट से सम्बन्ध की अनदेखी जानकर की गयी. वीर हनुमान और जामवंत को बन्दर और भालू कहकर उनका उपहास किया गया, जबकि वे दोनों महान विद्वान, रणनीतिकार और मनुष्य थे. रावण को अपनी बहन शूर्पणखा के लिए प्राण देने वाला भाई कहकर महिमामंडित किया गया, श्रीराम और उनके भाइयों को राजगद्दी से बढ़कर परस्पर प्रेम को वरीयता देने की अनदेखी करी गई. श्रीकृष्ण जी के महान चरित्र के साथ भी इसी प्रकार की बेईमानी की गयी. उन्हें भी चरित्रहीन, कामुक आदि कहकर उपहास का पात्र बनाया गया. इस प्रकार से नकारात्मक खेल खेलकर भारतीय विशेष रूप से दलितों के मन में श्रीराम की छवि को बिगाड़ा गया.’ [द.आ.प., वही]

इसे कहते हैं, चित भी मेरी और पट भी मेरी. ये सारी छवियाँ गढ़ी हैं वाल्मीकि, तुलसी और पुराणों ने, और दोषी बनाया जा रहा है रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब और कांचा इलैया को. क्या अद्भुत दिमाग है! क्या शम्बूक की घटना रोमिला थापर की गढ़ी हुई है? या इरफ़ान हबीब की या कांचा इलैया की? क्या श्रीराम द्वारा शम्बूक की हत्या का विवरण वाल्मीकीय रामायण में नहीं मिलता है? क्या उसके उत्तरकांड का सर्ग 74, 75 और 76 यह नहीं बताता है कि एक ब्राह्मण बालक की अकाल मृत्यु का दोषी शूद्र ऋषि शम्बूक की उलटी तपस्या को मानकर राम ने उसकी हत्या की थी? उलटी तपस्या का इसके सिवा क्या अर्थ हो सकता है कि वह वर्णव्यवस्था को उलट रहा था, और ब्राह्मण बालक की अकालमृत्यु का अर्थ ब्राह्मणवाद के भविष्य की मृत्यु के सिवा क्या हो सकता है? क्योंकि यह बड़ा गहरा सवाल है कि ब्राह्मण का बालक ही क्यों मरा,  क्षत्रिय और वैश्य का बालक भी तो मर सकता था? शम्बूक की घटना अगर काल्पनिक है, तो फिर रामायण भी काल्पनिक होनी चाहिए, और आदिकवि वाल्मीकि भी काल्पनिक होने चाहिए, जो उसके रचयिता माने जाते हैं. दलित साहित्य में इस घटना पर सबसे पहला नाटक 1924 में स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ ने लिखा था. फिर ललई सिंह यादव ने लिखा था. मंगलदेव विशारद ने इस पर खंडकाव्य लिखा था, जिसे अस्सी के दशक में रामस्वरूप वर्मा ने ‘अर्जक’ में छापा था. हिंदी साहित्य में तो रामकुमार वर्मा और जगदीश गुप्त आदि कितने ही लोगों ने इस घटना पर कलम चलाई है. 1940 के आसपास योगेशचन्द्र चौधुरी ने भी अपने ‘सीता’ नाटक में इसका मार्मिक वर्णन किया था, जिसका अनुवाद आर्यसमाजी विद्वान् संतराम बी. ए. ने 1948 में प्रकाशित अपनी किताब ‘हमारा समाज’ में दिया था. इनमें से किसी ने भी इस घटना को विदेशी विश्वविद्यालय से नहीं, बल्कि वाल्मीकि की रामायण से लिया था.

किसी समय ‘माधुरी’ के सम्पादक रहे अरविन्द कुमार ने, [जो अब थियारस पर महत्वपूर्ण काम करने के लिए जाने जाते हैं] ‘राम का अंतरद्वंद्व’ शीर्षक से एक लम्बी कविता लिखी थी, जो ‘सरिता’ के जुलाई 1957 के अंक में छपी थी. हिन्दू धर्मगुरुओं ने इस पर पूरे दिल्ली शहर में उपद्रव किया था. दिल्ली प्रेस को भी, जहाँ से ‘सरिता’ छपती है, आग लगाने का प्रयास किया था. दिल्ली प्रेस के पास ही आरएसएस का संस्कृति भवन है. जाहिर है कि इस उपद्रव में उसका हाथ था. फलत: कविता जब्त कर ली गयी, और लेखक व संपादक पर 295 A के अंतर्गत मुकदमा चला. लेकिन लम्बी पेशियों और गवाहियों के बाद कोई अभियोग साबित नहीं हुआ था. इसी आधार पर भारत भूषण अग्रवाल ने ‘अग्निलीक’ खंड काव्य लिखा था, जिसमें जबरदस्त स्त्री-विमर्श था, सीता के सवालों ने राम को निरुत्तर कर दिया था. सवाल यह है कि क्या अपने नायकों का पुनर्पाठ और उनके चरित्रों पर सवाल उठाना ईसाई मिशनरियों ने सिखाया है? क्या आरएसएस के हिन्दूराष्ट्र में, जिसे वह बनाने का सपना देख रहा है, प्रगतिशील और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखना अपराध होगा?

डा, आर्य का कहना है कि श्रीराम के शबरी भीलनी और निषाद राजा केवट से सम्बन्ध की अनदेखी जानकर की गयी. पहली बात तो मुझे यहाँ यह कहनी है कि शबरी भीलनी का प्रसंग एक किंवदंती है. उसका रामायण और रामचरितमानस में उल्लेख नहीं मिलता है. कम-से-कम मुझे तो अब तक नहीं मिला है. हाँ मीरा के काव्य में एक पद जरूर मिलता है, जिसमें यह किंवदन्ती आई है कि उसने अपने जूठे बेर राम को खिलाये थे. इस किंवदन्ती को अगर नजरअंदाज न भी किया जाए, तो यह सवाल तो उभरता ही है कि जूठे बेर खाने से अगर प्रेम उत्पन्न होता है, तो दलित जातियों ने तो सदियों तक सवर्णों की जूठन खाई है, उनके साथ सवर्णों का प्रेम और भाईचारा क्यों उत्पन्न नहीं हुआ? यहाँ तक निषाद राजा केवट का प्रश्न है, तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है.  केवट राजा था, और  एक राजा दूसरे राजा को सम्मान देता ही है. और अगर वह राजा नहीं भी था, तो भी वह एक राजा से अपनी नाव से पार उतारने का क्या मूल्य लेता? अभी का समाचार है, झारखंड के मुख्यमंत्री ने नारियल पानी बेचने वाले से नारियल लिया, जिसका पैसा वह नहीं ले रहा था, पर मुख्यमंत्री ने उसे पैसे दिए. इसलिए केवट के मामले में भी यह क्यों न विचार किया जाता कि राम को उसे धन देना चाहिए था. धन नहीं, तो उसका किसी अन्य तरीके से कल्याण किया जाना चाहिए था. क्या इसके आगे का वृतांत कोई श्रीरामभक्त बताएगा?

श्रीराम के दलित-विरोधी और अत्याचारी होने के सवाल पर डा. आर्य को यह समझना चाहिए कि जिन श्रीराम का जन्म गौओं और ब्राह्मणों के हित के लिए हुआ था, उन्हें वह जबरदस्ती दलित-हितैषी बनाने पर क्यों तुले हुए हैं? क्या तड़का आदि कई स्त्रियों और राक्षसों का वध अत्याचार के अंतर्गत नहीं आता है? अब यह मत कहिए कि वे राक्षस थे. जब आप हनुमान और जामवंत को बन्दर और भालू न मानकर मनुष्य मान रहे हैं, तो वे आदमखोर राक्षस कैसे हो सकते हैं? वे भी तो मनुष्य थे, जिन्हें श्रीराम ने बेदर्दी से मारा था. ताड़का की हत्या जिस नृशंसता से की गई थी, उसका मार्मिक वर्णन वाल्मीकि ने इस तरह किया है—‘विश्वामित्र ने कहा, ‘रघुनंदन, तुम गौओं और ब्राह्मणों का हित करने के लिए इस दुष्ट तड़का का वध कर डालो. तब श्रीराम ने पहले उसके दोनों हाथ काटे, फिर नाक-कान काटे, और बाद में उसका सीना चीर दिया.’ दंडक वन को विराध से मुक्त कराने के लिए उसकी हत्या भी क्रूरता से की गयी. पहले उसके हाथ काटे, फिर तलवार से क्षत-विक्षत कर एक गड्ढे में डालकर एक पैर से उसका गला दबा कर खड़े हो गये, और लक्ष्मण ने मिटटी और पत्थरों से पाटकर उसे जिन्दा ही दफना दिया, [वाल्मीकीय रामायण, गीताप्रेस, बालकांड 26, अरण्यकांड 4, ] क्या यह अत्याचार नहीं है?

सीता जी फिर भी संवेदनशील थीं, जो इन हत्याओं से विचलित हो गयीं थीं. उन्होंने विरोध करते हुए श्रीराम से कहा था- ‘आप महान पुरुष हैं, फिर भी आप अधर्म पर चल रहे हैं. मैं सोचती हूँ कि आपका कल्याण कैसे होगा? इनका अपराध क्या है, जो आप इन्हें मार रहे हैं. बिना किसी बैर और अपराध के किसी को मारना अच्छा काम नहीं है.’  इस पर श्रीराम सीता जी को जो उत्तर देते हैं, वह भी गौरतलब है—‘ सीते, मैं अपने प्राण छोड़ सकता हूँ, तुम्हें और लक्ष्मण को छोड़ सकता हूँ. किन्तु ब्राह्मणों के लिए की गयी अपनी प्रतिज्ञा को नहीं तोड़ सकता.’ [वही, अरण्यकाण्ड, 9/2-25, 19/17] ऐसे श्रीराम आरएसएस के ब्राह्मणों के ही आदर्श हो सकते हैं.

यहाँ तक रावण की बात है, तो उससे दलितों का कुछ भी लेनादेना नहीं है. किन्तु, न्याय की अवधारणा के साथ जब भी  रावण का मूल्याँकन किया जायेगा, तो श्रीराम उसके सामने कहीं नहीं ठहर पायेंगे. ‘श्रीराम और उनके भाइयों को राजगद्दी से बढ़कर परस्पर प्रेम को वरीयता देने की अनदेखी’ पर मैं इतना ही कहूँगा कि यह कोई सामजिक मूल्य नहीं है. राजपरिवारों में इस तरह के उदाहरण अनेक मिल जायेंगे. अनुकरणीय मूल्य वे होते हैं, जो सामाजिक यथार्थ पर निर्मित होते हैं.

और डा. आर्य का यह आरोप तो बहुत ही बचकाना है कि कृष्ण का चरित्रहनन ईसाई मिशनरियों के प्रभाव से हुआ है. सच तो यह है कि कृष्ण को चरित्रहीन और कामुक बनाने का काम पुराणों ने ही किया है. नगर-नगर और गाँव-गाँव में रासलीला क्यों होती हैं,  जिनमें बहूबेटियों के सामने कृष्ण के रासजीवन की कथाएं सुनाई जाती हैं? डा. आर्य को ब्रह्मवैवर्त पुराण पढ़ना चाहिए, जिसमें कृष्ण ही नहीं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश सबके चरित्रों का नंगा चित्रण किया गया है. मैं इस पुराण से अनेक उद्धरण दे सकता हूँ, जो खुल्लमखुल्ला सम्भोग के हैं. पर मुझे लिखते हुए अच्छा नहीं लगेगा, और पाठको को पढ़ते हुए. क्या डा. आर्य, ये पुराण भी ईसाई मिशनरियों के लिखे हुए हैं? अगर हैं, तो इनका छपना, बेचना, और वाचन बंद तुरंत करवाइए.

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