क्या ईसाई मिशनरियाँ साम्राज्यवादी अवशेष हैं?


मिशनरियों के विरूद्ध जो आरोप लगाए जाते हैं वे न केवल आधारहीन हैं बल्कि ईसाई धर्म के बारे में मूलभूत जानकारी के अभाव को भी प्रतिबिंबित करते हैं. सिन्हा के दावे के विपरीत, मिशनरियां साम्राज्यवाद का अवशेष नहीं हैं. भारत में ईसाई धर्म का इतिहास बहुत पुराना है. भारत में पहली ईसाई मिशनरी 52 ईस्वी में आई थी जब सेंट थॉमस मलाबार तट पर उतरे थे और उन्होंने उस क्षेत्र, जो अब केरल है, में चर्च की स्थापना की थी. विभिन्न भारतीय शासकों ने मिशनरियों के आध्यात्मिक पक्ष को देखते हुए उनका स्वागत किया और अपने-अपने राज्य क्षेत्रों में उन्हें उपासना स्थल स्थापित करने की इजाजत दी. महाराष्ट्र के लोकप्रिय शासक छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी सेना को यह निर्देश दिया था कि यह सुनिश्चित किया जाए कि हमले में फॉदर अम्बरोज के आश्रम को क्षति न पहुंचे. इसी तरह अकबर ने अपने दरबार में ईसाई प्रतिनिधियों का सम्मानपूर्वक स्वागत किया था.


राम पुनियानी राम पुनियानी
ओप-एड Published On :


आरएसएस चिंतक और राज्यसभा सदस्य राकेश सिन्हा ने ‘दैनिक जागरण’ को दिए एक साक्षात्कार (जुलाई 2021) में कहा कि अब समय आ गया है कि हम ‘ईसाई मिशनरी भारत छोड़ो’ अभियान शुरू करें. उनके अनुसार, ईसाई मिशनरियां आदिवासी संस्कृति को नष्ट कर रही हैं और भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का दुरूपयोग करते हुए आदिवासियों का धर्मपरिवर्तन करवा रही हैं. इसके पहले (22 मई 2018) उन्होंने एक ट्वीट कर कहा था कि क्या हमें मिशनरियों की जरूरत है? वे हमारे ‘आध्यात्मिक प्रजातंत्र के लिए खतरा हैं. नियोगी आयोग की रपट (1956) ने उनकी पोल खोल दी थी परंतु नेहरूवादियों ने उन्हें साम्राज्यवाद के एक आवश्यक अवशेष के रूप में संरक्षण दिया. या तो भारत छोड़ो या भारतीय चर्च गठित करो और यह घोषणा करो कि धर्मपरिवर्तन नहीं करवाओगे.‘‘

मिशनरियों के विरूद्ध जो आरोप लगाए जाते हैं वे न केवल आधारहीन हैं बल्कि ईसाई धर्म के बारे में मूलभूत जानकारी के अभाव को भी प्रतिबिंबित करते हैं. सिन्हा के दावे के विपरीत, मिशनरियां साम्राज्यवाद का अवशेष नहीं हैं. भारत में ईसाई धर्म का इतिहास बहुत पुराना है. भारत में पहली ईसाई मिशनरी 52 ईस्वी में आई थी जब सेंट थॉमस मलाबार तट पर उतरे थे और उन्होंने उस क्षेत्र, जो अब केरल है, में चर्च की स्थापना की थी (ऊपर तस्वीर देखें) . विभिन्न भारतीय शासकों ने मिशनरियों के आध्यात्मिक पक्ष को देखते हुए उनका स्वागत किया और अपने-अपने राज्य क्षेत्रों में उन्हें उपासना स्थल स्थापित करने की इजाजत दी. महाराष्ट्र के लोकप्रिय शासक छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी सेना को यह निर्देश दिया था कि यह सुनिश्चित किया जाए कि हमले में फॉदर अम्बरोज के आश्रम को क्षति न पहुंचे. इसी तरह अकबर ने अपने दरबार में ईसाई प्रतिनिधियों का सम्मानपूर्वक स्वागत किया था.

महात्मा गांधी, हिन्दू धर्म, इस्लाम और अन्य धर्मों की तरह ईसाई धर्म को भी भारतीय धर्म मानते थे. उन्होंने लिखा था “हर देश यह मानता है कि उसका धर्म किसी भी अन्य धर्म जितना ही अच्छा है. निश्चय ही भारत के महान धर्म उसके लोगों के लिए पर्याप्त हैं और उन्हें एक धर्म छोड़कर दूसरा धर्म अपनाने की जरूरत नहीं है.” इसके बाद वे भारतीय धर्मों की सूची देते हैं. “ईसाई धर्म, यहूदी धर्म, हिन्दू धर्म और उसकी विभिन्न शाखाएं, इस्लाम और पारसी धर्म भारत के जीवित धर्म हैं (गांधी कलेक्टिड वर्क्स खंड 47, पृष्ठ 27-28). वैसे भी सभी धर्म वैश्विक होते हैं और उन्हें राष्ट्रों की सीमा में नहीं बांधा जा सकता.

सिन्हा के अनुसार, मिशनरियां आध्यात्मिक प्रजातंत्र के लिए खतरा हैं. आईए हम देखें कि आध्यात्मिक प्रजातंत्र से क्या आशय है. मेरे विचार से आध्यात्मिक प्रजातंत्र का अर्थ है कि भारतीय संविधान की निगाह में सभी धर्म बराबर हैं और सार्वभौमिक नैतिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं. कई लेखकों का यह मानना है कि दरअसल भारत के आध्यात्मिक प्रजातंत्र को सबसे बड़ा खतरा जाति और वर्ण व्यवस्था से है. जो लोग भारत में जाति और वर्ण व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं वे भारत के आध्यात्मिक प्रजातंत्र के सबसे बड़े शत्रु हैं. यह बात सिन्हा को अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं लालकृष्ण आडवाणी और अरूण जेटली से सीखनी चाहिए थी. ये दोनों ईसाई मिशनरी स्कूलों में पढ़े हैं. सिन्हा अगर कोशिश करेंगे तो उन्हें अपनी विचारधारा के ऐसे बहुत से दूसरे नेता भी मिल जाएंगे जिन्होंने मिशनरी स्कूलों में अध्ययन किया होगा.

भारत में ईसाई मिशनरियां क्या करती हैं? यह सही है कि 1960 के दशक के पहले तक भारत में दूसरे देशों, विशेषकर पश्चिमी देशों, से मिशनरी आया करते थे. परंतु अब भारत के अधिकांश चर्च हर अर्थ में भारतीय हैं. वे भारतीय संविधान की हदों के भीतर काम करते हैं. वे मुख्यतः आदिवासी क्षेत्रों और निर्धन दलितों की बस्तियों में शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े काम करते हैं. इसके अलावा वे शहरों में स्कूल भी चलाते हैं जिनमें आडवाणी, जेटली और उनके जैसे अन्य महानुभाव पढ़ चुके हैं.

मिशनरियां आदिवासियों की संस्कृति को भला कैसे नष्ट कर रही हैं? मूलभूत आवश्यकताओं की कमी से जूझ रहे इन लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधाएं उपलब्ध करवाना उनकी संस्कृति को नष्ट करना कैसे है? वैसे भी संस्कृति कोई स्थिर चीज नहीं होती. वह एक सामाजिक अवधारणा है जो संबंधित समाज के लोगों के अन्य लोगों के संपर्क में आने से परिवर्तित होती रहती है. इस सिलसिले में संयुक्त राष्ट्र संघ की बेहतरीन रपट ‘सभ्यताओं का गठजोड़’ का अध्ययन करना चाहिए जिसमें मानवता के इतिहास का अत्यंत सारगर्भित वर्णन करते हुए कहा गया है कि दुनिया का इतिहास दरअसल संस्कृतियों, धर्मों, खानपान की आदतों, भाषाओं और ज्ञान के गठजोड़ का इतिहास है और इसी गठजोड़ के चलते मानव सभ्यता की उन्नति हुई है.

सच तो यह है कि अगर आदिवासियों के आचरण में कोई परिवर्तन कर रहा है तो वे हैं विहिप और वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठन. पिछले चार दशकों में आदिवासी क्षेत्रों में शबरी कुंभ का आयोजन कर और हनुमान की मूर्तियां लगाकर इन संगठनों ने आदिवासियों के आराध्यों को बदलने का प्रयास किया है. आदिवासी मूलतः प्रकृति पूजक हैं. उन्हें मूर्ति पूजक बनाना क्या उनकी संस्कृति को परिवर्तित करने का प्रयास नहीं है?

जहां तक धर्मपरिवर्तन का प्रश्न है, सन् 1956 में प्रस्तुत की गई नियोगी आयोग की रपट में निःसंदेह यह कहा गया था कि मिशनरियां धर्मपरिवर्तन करवा रही हैं. इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि कुछ मिशनरियां धर्मपरिवर्तन करवा रही होंगीं. वैसे भी हमारा संविधान सभी धर्मों के लोगों को अपने धर्म का आचरण करने और उसका प्रचार करने का अबाध अधिकार देता है. सिक्के का दूसरा पहलू भी है. पॉस्टर स्टेन्स और उनके दो नाबालिग बच्चों की हत्या उन्हें जिंदा जलाकर कर दी गई थी. इसके आरोप में बजरंग दल का राजेन्द्र सिंह पाल उर्फ दारासिंह जेल की सजा काट रहा है. उस समय यह प्रचार किया गया था कि पॉस्टर स्टेन्स आदिवासियों को ईसाई बना रहे हैं जो कि हिन्दू धर्म के लिए खतरा है.

एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त वाधवा आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि पॉस्टर स्टेन्स द्वारा धर्मपरिवर्तन नहीं करवाया जा रहा था और उड़ीसा के जिस इलाके (क्यांझार-मनोहरपुर) में वे काम कर रहे थे वहां ईसाईयों की आबादी में कोई वृद्धि नहीं हुई थी. धर्मपरिवर्तन के आरोप के संदर्भ में जनगणना संबंधी आंकड़े दिलचस्प जानकारी देते हैं. भारत में ईसाई धर्म 52 ईस्वी में आया था. सन् 2011 में ईसाई, भारत की कुल आबादी का 2.30 प्रतिशत थे. सन् 1971 में भारत की आबादी में ईसाईयों का प्रतिशत 2.60 था. 1981 में यह आंकड़ा 2.44, 1991 में 2.34 और 2001 में 2.30 था. इस प्रकार भारत में ईसाईयों की जनसंख्या या तो स्थिर है या उसमें गिरावट आई है. ईसाई धर्म में परिवर्तन से हिन्दू धर्म को खतरा होने की बात बकवास है. परंतु यह डर जानबूझकर फैलाया जा रहा है. आरएसएस ने हाल (जुलाई 2021) में चित्रकूट में आयोजित अपनी एक बैठक में ‘चादर मुक्त, फॉदर मुक्त’ भारत की बात कही.

भारत में जबरदस्ती या लोभ-लालच से धर्मपरिवर्तन रोकने के लिए पर्याप्त कानून हैं. ‘ईसाई मिशनरियों भारत छोड़ो’‘ और ‘चादर और फॉदर मुक्त भारत’ जैसे नारे देश पर हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडे को थोपने का प्रयास हैं. अगर मिशनरियां आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवा रही हैं तो इससे आदिवासी संस्कृति को खतरा होने की बात कहना बचकाना है. और अगर कुछ मिशनरियां धर्मपरिवर्तन के काम में लगी हैं तो भी यह उनका अधिकार है. हां, अगर वे जोर-जबरदस्ती या लालच देकर किसी को ईसाई बना रही हैं तो उनके खिलाफ उपयुक्त कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए. परंतु उन्हें भारत छोड़ने का आदेश देना अनौचित्यपूर्ण और असंवैधानिक है.

एक बात और. सिन्हा यह मानकर चल रहे हैं कि आदिवासी हिन्दू धर्म का हिस्सा हैं. तथ्य यह है कि हिन्दू एक बहुदेववादी धर्म है जिसके अपने धर्मग्रंथ और तीर्थस्थल हैं. इसके विपरीत, आदिवासी प्रकृति पूजक हैं, उनके कोई धर्मग्रंथ नहीं हैं और ना ही मंदिर और तीर्थस्थान हैं.

 

राम पुनियानी आईआईटी मुंबई के पूर्व प्रोफेसर और चर्चित समाजविज्ञानी हैं।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)