धर्मांतरण विरोध का असली मक़सद दलितों को नर्क में बनाये रखना है!


डा. आंबेडकर लिखते हैं कि भारत में ईसाई मिशनों की सेवाएँ महान हैं. पर इन सबका लाभ ब्राह्मणों और उच्च हिन्दुओं ने ही उठाया. [वही, पृष्ठ 427-444, & 445-476] आरएसएस समेत भारत के सारे हिन्दू नेता इन्हीं ईसाई मिशन के स्कूल-कालेजों से फर्राटे की अंग्रेजी सीखकर निकले हैं. आज भी उच्च वर्गीय हिन्दू की अपने बच्चे के लिए पहली प्राथमिकता ईसाई मिशन का स्कूल ही होता है. ईसाई मिशन की संस्थाओं से लाभ उठाने में हिन्दुओं का राष्ट्रवाद खतरे में नहीं पड़ता है, परन्तु जैसे कोई दलित या आदिवासी ईसाई बनता है, तो इनके पूरे बदन में आग लग जाती है. यह है इनका पाखंडी राष्ट्रवाद.


कँंवल भारती
दस्तावेज़ Published On :


प्रिय पाठकों, चार साल पहले मीडिया विजिल में  ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी। एक बार फिर हम ये शृंखला छाप रहे हैं ताकि आरएसएस के बारे में किसी को कोई भ्रम न रहे। पेश है इसकी सातवीं कड़ी जो  2 अगस्त 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक

 


आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–7

 

प्रश्नोत्तरी का चौथा प्रश्न है–

किसी के ईसाई बन जाने से या हिन्दू बने रहने से क्या अंतर पड़ता है?  आखिर ईसाई बन जाने पर वह व्यक्ति भारतवासी तो रहता ही है?

आरएसएस ने इस  सच का यह जवाब दिया है—

‘धर्म बदल का क्या परिणाम—देखो नागा, मिजो और आसाम. भारत में जन्मा, मतांतरण के बाद अपने पूर्वजों को छोड़कर आक्रमणकारियों का पक्षधर बन जाता है. वह भारत माता, [और] यहाँ के महापुरुषों से दूर हो जाता है. और अब तो हम अकेले ऐसा नहीं कहते. बड़े-बड़े सेकुलर, मार्क्सवादी और कांग्रेसी भी यह मानने लगे हैं कि उत्तर पूर्वांचल में विद्रोह की जो ज्वाला पिछले 40-50 सालों से धधक रही है, और जो भी पृथकता आन्दोलन चल रहा है, उनमें प्रत्येक्ष या अप्रत्येक्ष चर्च का ही हाथ है, अर्थात पिछले सौ-सवा सौ सालों में हुए भारी मात्रा में धर्मपरिवर्तन का.

‘भारत का बार-बार विभाजन भी यही बताता है कि देश के जिस भाग में हिन्दू घटा, वही भाग देश से अलग होने का प्रयास करने ल्ग्त्सा है. संगठित हिन्दू ही भारत की एकता-अखंडता का पर्याय है.’

आरएसएस का यह जवाब भी एक मिथक है.  ऐसा लगता है कि आरएसएस ने पहले जवाब गढ़ा है, उसके बाद प्रश्न. किन्तु उसका यह जवाब चर्च और ईसाई बनने वाले लोगों पर बहुत बड़ा लांछन है, जो बेबुनियाद और दलित जातियों तथा आदिवासियों में अप्रासंगिक हिन्दुत्व को बचाने की सुनियोजित साजिश के सिवा कुछ नहीं है. उसके प्रश्न और जवाब में मुख्य गौरतलब तथ्य ये है—

  1. किसी के ईसाई बन जाने या हिन्दू बने रहने से अंतर नहीं पड़ता है.
  2. मतांतरण के बाद वह आक्रमणकारियों का पक्षधर बन जाता है.
  3. पृथकतावादी आन्दोलन में चर्च का हाथ है.
  4. जिस भाग में हिन्दू घटता है, वही भाग देश से अलग होने का प्रयास करता है.

इन तथ्यों पर अपनी चर्चा के दौरान मैं डा. आंबेडकर के इस विचार के प्रति अपने पाठकों का ध्यान आकर्षित कराना चाहूँगा, जो उन्होंने अपने लेख ‘Caste and Conversion’  में व्यक्त किया है,  कि ‘हिन्दू उच्च वर्ग के दिमाग में इस बात की खलबली मची हुई है कि जब हिन्दू संख्या में अधिक होते हुए मुसलमानों [या आक्रमणकारियों] का सामना नहीं कर पाए, तो उस समय उनकी क्या दुर्गति होगी, जब धर्मान्तरण के कारण उनकी संख्या और घट जायेगी? इसलिए वह दलितों और ईसाईयों के धर्मान्तरण का विरोध करता है. इसी से शुद्धि आन्दोलन यानि धर्मान्तरित लोगों को पुनः हिन्दू बनाने [आज घर वापसी] की उत्पत्ति हुई है.’  [Dr. Babasaheb Ambedkar Writtings and Speeches, vol. 5, 1989, p. 423]

शुद्धि अंदोलन या घर वापसी का उद्देश्य हिन्दू समाज की संख्या में वृद्धि करना है. पर जैसा कि डा. आंबेडकर पुनः कहते हैं, ‘कोई समाज अपनी बड़ी संख्या से शक्तिशाली नहीं होता है, बल्कि अपने ठोस गठन के कारण शक्तिशाली होता है. हिन्दू समाज को यदि जीवित रहना है, तो उसे अपनी एकात्मता में वृद्धि करनी होगी, जिसका अर्थ है जातिप्रथा का विनाश.’ [वही, पृ. 424]

लेकिन चाहे शुद्धि आन्दोलन हो, जो आर्य समाज ने चलाया था, या वर्तमान में आरएसएस का ‘घर वापसी’ अभियान जो, दोनों का उद्देश्य जातिप्रथा का विनाश करके हिन्दू समाज की एकात्मता में वृद्धि करना नहीं नहीं, बल्कि हिन्दू संस्कृति के अंतर्गत दलित जातियों को यथास्थिति में बनाये रखना है. दूसरे शब्दों में कोई दलित अगर जातीय नर्क से अपनी मुक्ति चाहता है, तो उसे उसी नर्क में वापस धकेलना है.

अब इस तथ्य को लेते हैं कि किसी के ईसाई [या मुसलमान] बनने से कोई फर्क पड़ता है या नहीं? सच यह है कि बहुत ज्यादा फर्क पड़ता है. उसकी सोच बदल जाती है, विचार बदल जाते हैं, रहनसहन बदल जाता है, संस्कार बदल जाते हैं, वह एक जातिवादी समाज से निकल कर एक  मानववादी समाज में प्रवेश कर जाता है, जहां उसके साथ छुआछूत नहीं होती. उसकी पढ़ाई-लिखाई होती है, और उसे अपनी जीविका में वह आज़ादी हासिल हो जाती है, जो पहले नहीं थी. इसलिए यह कहना कि कोई फर्क नहीं पड़ता है, सच को नकारना है. अगर कोई फर्क नहीं पड़ता, तो फिर हिंदुत्व उनकी क्यों चिंता करता है? वह कहीं भी जाए? पर हकीकत यह है कि धर्मांतरण से दलित के जीवन में एक बड़ा परिवर्तन आता है, इसलिए हिन्दू संगठन उसका विरोध करते हैं. इसी विरोध का परिणाम आरएसएस का यह मिथक है कि ‘धर्मान्तरित दलित अपने पूर्वजों को छोड़कर आक्रमणकारियों का पक्षधर बन जाता है.’ सच यह है कि आरएसएस आज तक अपने इस आरोप को साबित नहीं कर सका है. वह यह साबित क्यों नहीं करता कि किस धर्मान्तरित व्यक्ति या समुदाय ने अपने पूर्वजों को छोड़ा है, और आक्रमणकारियों के पूर्वजों को अपना पूर्वज माना है? वस्तुतः आरएसएस के पास कोई प्रमाण ही नहीं है, उसका काम  केवल मिथक गढ़कर नफरत फैलाना है.

यहाँ यह भी देख लिया जाय कि आरएसएस किन पूर्वजों की बात करता है? अगर वह राम, कृष्ण, राणाप्रताप, शिवाजी और बंदा वैरागी की बात करता है, तो उसे पूरी ईमानदारी से यह भी बताना चाहिए कि वे  किन हिंदुओं के पूर्वज हैं? और दलित जातियों से उनका क्या रिश्ता बनता है? आरएसएस को बताना चाहिए कि दलित जातियां किस उपकार पर इन राजाओं पर गर्व करें, और उन्हें अपना पूर्वज मानें? वर्ण, जाति, नस्ल, कुल, वंश, गोत्र किस आधार पर ये  दलित जातियों के पूर्वज ठहरते हैं? क्या दलितों के पूर्वजों को आरएसएस तय करेगा? वह जिसे भी कहेगा, वह दलित जातियों का पूर्वज हो जायेगा? यह सोचने में भी कितना वाहियात विचार लगता है. क्या दलितों के पास अपने पूर्वज नहीं हैं, जो वे दूसरों को अपना पूर्वज कहे? क्या एकलव्य, शम्बूक, बलि.  हिरण्यकश्यप, महिषासुर को हिंदू उच्च वर्ग अपना पूर्वज मानेगा? अगर नहीं, तो आरएसएस को अपने इस मिथक पर शर्म आनी चाहिए कि धर्मान्तरित दलित जातियां अपने पूर्वजों को छोड़कर आक्रमणकारियों के पक्षधर हो जाते हैं. सच्चाई यह है कि जब दलित जातियां राम, कृष्ण, राणाप्रताप. शिवाजी, बंदा वैरागी को अपना पूर्वज मानती ही नहीं हैं,  तो फिर धर्म बदलने के बाद उन्हें छोड़ने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है?

दरअसल आरएसएस पूर्वजों की आड़ में यह कहना चाहता है कि धर्म बदलने के बाद दलित जब मुस्लिम या ईसाई होता है, तो अपनी धार्मिक प्रेरणा कुरान या बाइबिल से लेता है, और उनके इतिहास को ही अपना इतिहास मानता है. इसमें क्या आपत्ति है ? यह स्वाभाविक बात है. कोई भी व्यक्ति जब अपना धर्म बदलता है, तो अपनी सारी आस्थाएं भी बदलता है. वैसे भी हिन्दू आस्थाओं के विरुद्ध ही वह धर्मांतरण करता है. यहाँ आरएसएस भूल जाता है, कि इतिहास में सबसे ज्यादा धर्मांतरण उच्च हिन्दुओं ने ही किया है. राजपूतों के गाँव के गाँव मुसलमान बने हैं और भारी संख्या में ब्राह्मणों ने धर्मान्तरण किया है. डा. आंबेडकर ने अपने लेख ‘Christianizing the Untouchables’ में लिखते हैं, कि ईसाईयत के प्रचार के लिए कैथोलिक चर्च का भारत में प्रवेश 1541 में फ्रांसिस ज़ेवियर  के आने के बाद हुआ था. जब वह यहाँ आया, तो  यह देखकर हैरान हो गया था कि दक्षिण में ईसाईयों की भारी संख्या थी, और पूरा मदुरा राज्य सीरीयाई ईसाई था., जो सब के सब ब्राह्मण समुदाय से थे. डा. आंबेडकर ने यहाँ एक दिलचस्प बात कही है कि भारत में  ईसाई मिशन ब्राह्मणों को ईसाई बनाने के लिए आया था. उसकी सोच यह थी कि अगर ब्राह्मण ईसाई बन गए,  तो अन्य जातियों को ईसाई बनाना आसान हो जायेगा. इसलिए उसने चिकित्सा के क्षेत्र में अस्पताल, सैनिटोरियम, मेडिकल स्कूल, विदेशी डाक्टर, विदेशी नर्सें, जच्चा-बच्चा अस्पताल आदि सोलह संस्थाएं चलायीं, और शिक्षा के क्षेत्र में प्रारम्भिक स्कूल, माध्यमिक स्कूल, कालेज, धर्म-विज्ञानं कालेज, और टीचर ट्रेनिंग स्कूल खोले.  डा. आंबेडकर लिखते हैं कि भारत में ईसाई मिशनों की सेवाएँ महान हैं. पर इन सबका लाभ ब्राह्मणों और उच्च हिन्दुओं ने ही उठाया. [वही, पृष्ठ 427-444, & 445-476] आरएसएस समेत भारत के सारे हिन्दू नेता इन्हीं ईसाई मिशन के स्कूल-कालेजों से फर्राटे की अंग्रेजी सीखकर निकले हैं. आज भी उच्च वर्गीय हिन्दू की अपने बच्चे के लिए पहली प्राथमिकता ईसाई मिशन का स्कूल ही होता है. ईसाई मिशन की संस्थाओं से लाभ उठाने में हिन्दुओं का राष्ट्रवाद खतरे में नहीं पड़ता है, परन्तु जैसे कोई दलित या आदिवासी ईसाई बनता है, तो इनके पूरे बदन में आग लग जाती है. यह है इनका पाखंडी राष्ट्रवाद.

ये पाखंडी राष्ट्रवादी कितनी निर्लज्जता से कह देते हैं कि भारत में पृथकतावादी आन्दोलन के पीछे चर्च का हाथ है. लेकिन ये सिर्फ गाल बजाते हैं, साबित नहीं करते हैं. इनका काम गाल बजाने से ही चल जाता है, क्योंकि ये अंधों के काने राजा हैं. काना जिधर ले जाता है, अंधे उधर ही चल पड़ते हैं. वे या तो खाई में गिरते हैं, या ऐसी डगर पर चल पड़ते हैं, जो कहीं नहीं जाती. अब इनसे कोई पूछे कि भारत का कौन सा भाग चर्च की साजिश से अलग हो गया है, तो ये एक भी राज्य का नाम नहीं बता पायेंगे. कोई इनसे पूछे कि जब चर्च भारत में पृथकतावाद को बढ़ावा दे रहा है, तो ऐसे कितने चर्चों के खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाया गया, तो वे एक भी चर्च का नाम नहीं बता पायेंगे. कोई उनसे पूछे कि जब ईसाई मिशन भारत के लिए खतरा हैं, तो उनके अस्पतालों और स्कूल-कालेजों  को क्यों मान्यता दी जा रही है, उन्हें बंद क्यों नहीं किया जा रहा है, तो उनकी बोलती बंद हो जाएगी. आज भी ईसाई मिशन की संस्थाओं का  लाभ उच्च हिन्दू ही उठा रहे हैं.  क्या यह पाखंड नहीं है? ये अंधों को कितने भोलेपन से उपदेश देते हैं कि जिस भाग में हिन्दू घटा है, वही भाग भारत से अलग हो गया है. और कोई अँधा उनसे पलट कर यह नहीं पूछता कि किस  भाग में हिन्दू घटा है, और कौन सा भाग अलग हुआ है? क्या आदिवासी इलाके अलग हो गये, जहाँ ईसाई मिशन ने उन्हें  उच्च शिक्षित करके उनका जीवन स्तर ऊपर उठाया है? क्या असम, मिजोरम और नागालैण्ड अलग हो गये, जहाँ के लोग भारत में नस्लीय भेदभाव के शिकार हैं? आरएसएस के पास इनमें से किसी भी प्रश्न का जवाब नहीं है.

 

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