राम प्रसाद बिस्मिल-अशफ़ाक़उल्ला: एक थाली में खाने वाले अभिन्न क्रांतिकारी!

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शहादत दिवस पर विशेष

 

“मैंने मुसलमानों में से एक नवयुवक निकालकर भारतवासियों को दिखला दिया, जो सब परीक्षाओं में पूर्ण उत्तीर्ण हुआ। अब किसी को यह कहने का साहस न होना चाहिए कि मुसलमानों पर विश्वास न करना चाहिए । पहला तजुर्बा था, जो पूरी तौर से कामयाब हुआ”- राम प्रसाद ‘बिस्मिल’

राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ और अशफाक़उल्ला आज़ादी के ऐसे दो दीवानों के नाम हैं, जिन नामों को अलग-अलग कर के नहीं लिया जा सकता। एक कट्टर आर्य समाजी, ‘शुद्धिकरण’ कराने वाला, दूसरा पक्का नमाज़ी। अंग्रेजों ने दोनों को आज के ही दिन (19 दिसंबर 1927, गोरखपुर और फैजाबाद की जेलों में ) फांसी पर चढ़ा दिया था। फांसी चढ़ते समय एक के हाथ में गीता, तो दूसरे के हाथ में कुरान थी। वह कौन सी रासायनिक प्रक्रिया घटित हुई जिसने इन्हें अभिन्न बना दिया। वह प्रक्रिया थी देश को आज़ाद कराने की ‘सरफ़रोशी की तमन्ना’ और उसे हासिल करने का क्रांतिकारी रास्ता। आइये सुनते है राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के मुंह से-

“अशफाक़ मुझे भलीभांति याद है, कि जब मैं बादशाही एलान के बाद शाहजहाँपुर आया था, तो तुम से स्कूल में भेंट हुई थी । तुम्हारी मुझसे मिलने की बड़ी हार्दिक इच्छा थी । तुमने मुझसे मैनपुरी षड्यन्त्र के सम्बन्ध में कुछ बातचीत करनी चाही थी । मैंने यह समझ कर कि एक स्कूल का मुसलमान विद्यार्थी मुझ से इस प्रकार की बातचीत क्यों करता है, तुम्हारी बातों का उत्तर उपेक्षा की दृष्टि से दे दिया था । …. तुम्हें उस समय बड़ा खेद हुआ था । तुम्हारे मुख से हार्दिक भावों का प्रकाश हो रहा था । तुमने अपने इरादे को यों ही नहीं छोड़ दिया, अपने निश्चय पर डटे रहे । ….. इस बात का विश्वा्स दिलाने की कोशिश की कि तुम बनावटी आदमी नहीं, तुम्हारे दिल में मुल्क की खिदमत करने की ख्वाहिश थी । अन्त में तुम्हारी विजय हुई । …… थोड़े दिनों में ही तुम मेरे छोटे भाई के समान हो गये थे, किन्तु छोटे भाई बनकर तुम्हें सन्तोष न हुआ । तुम समानता का अधिकार चाहते थे, तुम मित्र की श्रेणी में अपनी गणना चाहते थे । वही हुआ । तुम सच्चे मित्र बन गये । सब को आश्चेर्य था कि एक कट्टर आर्यसमाजी और मुसलमान का मेल कैसा ? मैं मुसलमानों की शुद्धि करता था । आर्यसमाज मन्दिर में मेरा निवास था, किन्तु तुम इन बातों की किंचितमात्र चिन्ता न करते थे । ….. जब मैं हिन्दी में कोई लेख या पुस्तक लिखता तो तुम सदैव यही अनुरोध करते कि उर्दू में क्यों नहीं लिखते, जो मुसलमान भी पढ़ सकें ? तुम ने स्वदेशभक्ति के भावों को भली भांति समझने के लिए ही हिन्दी का अच्छा अध्ययन किया । अपने घर पर जब माता जी तथा भ्राता जी से बातचीत करते थे, तो तुम्हारे मुंह से हिन्दी शब्द निकल जाते थे, जिससे सबको बड़ा आश्चर्य होता था । तुम्हारी इस प्रकार की प्रवृत्ति को देखकर बहुतों को सन्देह होता था कि कहीं इस्लाम धर्म त्याग कर शुद्धि न करा ले । पर तुम्हारा हृदय तो किसी प्रकार अशुद्ध न था, फिर तुम शुद्धि किस वस्तु की कराते ? तुम्हारी इस प्रकार की प्रगति ने मेरे हृदय पर पूर्ण विजय पा ली । बहुधा मित्र मंडली में बात छिड़ती कि कहीं मुसलमान पर विश्वास करके धोखा न खाना । तुम्हारी जीत हुई, मुझमें तुममें कोई भेद न था । बहुधा मैंने तुमने एक थाली में भोजन किए । मेरे हृदय से यह विचार ही जाता रहा कि हिन्दू मुसलमान में कोई भेद है ।”

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्माँ! हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है?

एक बात

हमलोग यह जानते रहे हैं कि यह राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की रचना है लेकिन वास्तव में ये अज़ीमाबाद (अब पटना) के मशहूर शायर बिस्मिल ‘अज़ीमाबादी’ की है। यह शेर राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने फांसी पर चढ़ते हुए कहा था। उसके बाद से अक्सर लोग इसे राम प्रसाद बिस्मिल की रचना बताते हैं। जो हो, इसके बाद से ही बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित वन्दे मातरम के बाद सरफ़रोसी की तमन्ना को गाते हुए न जाने कितने देशभक्त फाँसी के तख्ते पर झूल गये और जो आज भी यह नौवजवानों का कंठहार है।

 

रामजी राय की फ़ेसबुक पोस्ट, साभार प्रकाशित।

 


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