बैलों से तीन गुना खटती हैं महिलाएँ, फिर भी सिर्फ़ ‘किसान भाइयों’ की बात!


संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन, सतत विकास विभाग की एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि, ‘भारतीय हिमालय में बैल की एक जोड़ी 1,064 घंटे, एक आदमी 1,212 घंटे और एक महिला एक साल में 3,485 घंटे काम करती हैं। यह एक ऐसा आंकड़ा है जो कृषि उत्पादन में महिलाओं के महत्वपूर्ण योगदान को दर्शाता है। देश में घरेलू खाद्य सुरक्षा में महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान है, जिसे कभी दिखाया ही नहीं जाता। फिर भी, खाद्य और कृषि संगठन (FAO) का अनुमान है कि ‘ज्यादातर विकासशील देशों में 60 से 80 प्रतिशत भोजन का उत्पादन महिलाएं करती हैं, और दुनिया के आधे खाद्य उत्पादन की भागीदार हैं। भारत में अधिकांश महिलाएं कृषि कार्यसे जुड़ी हैं, फिर भी उनके पास जमीन का मालिकाना नहीं है।


मीडिया विजिल मीडिया विजिल
ओप-एड Published On :


आजकल इन्टरनेट का जमाना है। इन्टरनेट या खासकर गूगल के पास आज हर सवाल का जवाब है, बस सर्च में जाकर आपको टाइप करना है और एक क्लिक करने की देर है आपके हर सवाल, हर खोज का परिणाम आपके सामने हाजिर हो जायगा। तो चलिए एक खोज करते हैं, गूगल पर टाइप करते हैं या farmer..आपको क्या दिखता है? किसान के बारे में गूगल सर्च के दौरान आपको ज्यादातर पुरुष किसानों की ही तस्वीर देखने को मिलती होगी।

‘फेमिनिस्म इन इंडिया’ वेबसाईट में 14 अप्रेल 2019 में सुरभि कुमारी की रिपोर्ट बताती है कि खेती जैसे पेशे को पुरुष प्रधानता से ही जोड़कर देखा जाता रहा है। महिला किसानों को अक्सर खेती किसानी में नामित ही नहीं किया जाता है। मीडिया संस्थानों, नेताओं और दूसरे संगठनों द्वारा भी ‘किसान भाई’ कहकर ही पुकारा जाता है। रिपोर्ट आगे बताती है कि ‘वोमेन अर्थ एलियन्स’ के अध्ययन के मुताबिक, भारत में ग्रामीण क्षेत्र की 85 प्रतिशत महिलाएं किसान हैं। जिनमें केवल 5 प्रतिशत महिला किसानों के पास खेती की जमीन का मालिकाना हक़ है। यानी जमीन का पट्टा उनके नाम पर है। जमीन का मालिकाना हक़, या अपने नाम का पट्टा न होने से महिलाओं को न ही सरकारी सुविधाएं मिल पातीं हैं और न ही वे बैंक से कर्ज की हकदार है, और तो और उनको मौत को भी एक किसान की मौत के रूप में नहीं देखा जाता ।

भारत में महिलाओं को भूमि का अधिकार विभिन्न ‘पर्सनल-लॉ’ के द्वारा स्थानांतरित किया जाता रहा है। देश में खेती योग्य जमीन विरासत के जरिए ही स्थानांतरित की जाती रही हैं। जमीन के मालिकाना हक़ को लेकर महिलाओं को अपने ही परिवार में गंभीर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। अब बिहार का उदाहरण ही लीजिये। यह रिपोर्ट कहती है कि राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक, बिहार के कृषि उद्दोग में काम करने वालों में 85 प्रतिशत से अधिक महिलाएं हैं, मगर आधिकारिक रूप से उन्हें किसान नहीं बल्कि उन्हें खेतिहर मजदूर या खेती करने वाली समझा जाता है। महिला किसान न सिर्फ इस प्रकार की भेदभाव का शिकार हो रही हैं, बल्कि खेती के दौरान कई प्रकार की संकटों का सामना कर रही हैं। यह समस्याएं रासायनिक, सीजनल, जैविक, पेशेवर और दूरी तरह से सम्बंधित हैं। कई सारी खेती के क्रियाकलापों में महिला किसानों को लगातार झुककर काम करना होता है,  इसके कारण उनके पांव, गर्दन, नाक और पीठ में भीषण दर्द होता है। कई बार हालत इतनी बिगड़ जाती है कि समय से पहले बच्चों का जन्म हो जाता है, उनमें से कई महिला किसानों को गर्भपात का सामना करना पड़ता है।

इसके अलावा एक बड़ी समस्या है महिला किसानों की कि वह तकनीकी तौर पर पुरुषों की तरह खेती से जुड़ी तकनीकी मशीनों के साथ सहज नहीं हैं। जिससे कई बार वह घायल हो जाती हैं। जख्मी होने का एक कारण यह है कि लैंगिकता के अनुरूप मशीनों का डिजाइन नहीं तैयार किया गया है, जिससे घायल होने का खतरा ज्यादा बना रहता है।

इस देश में किसानों की आत्महत्या बड़ी समस्याओं में से एक है, मगर महिला किसानों की आत्महत्या को लेकर चर्चा नहीं की जाती। आंकड़ों के मुताबिक, 2014 से 2015 के बीच किसानों की आत्महत्या की दर 42% तक बढ़ गई। साल 2019 में दिहाड़ी पर काम करने वाले 42,480 किसानों ने आत्महत्या कर ली। 2014 में कुल 8,007 किसानों ने खुदकुशी की थी, जिनमें से 441 महिला किसान थीं। एनसीआरबी के ही अनुसार ऐसी 577 महिलाएं भी इसमें शामिल थीं, जो खेतों में मजदूरी करती थीं।

खैर, हर साल देश में 15 अक्टूबर को राष्ट्रीय महिला किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन इसकी महत्ता तभी है जब, आर्टिकल 15 के तहत बिना किसी लैंगिग भेदभाव के महिला किसानों को बराबरी का अधिकार मिले।

हम हैं या हम नहीं हैं? अगर हम हैं तो कहाँ हैं?

‘ग्लोबल ग्रीनग्रांट फंड्स’ वेबसाइट में 9 अप्रेल 2013 में प्रकाशित रुचा चिटनिस की एक रिपोर्ट ‘ ‘Women farmers: the invisible face of agriculture in India’ में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन, सतत विकास विभाग की एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि, ‘भारतीय हिमालय में बैल की एक जोड़ी 1,064 घंटे, एक आदमी 1,212 घंटे और एक महिला एक साल में 3,485 घंटे काम करती हैं। यह एक ऐसा आंकड़ा है जो कृषि उत्पादन में महिलाओं के महत्वपूर्ण योगदान को दर्शाता है। देश में घरेलू खाद्य सुरक्षा में महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान है, जिसे कभी दिखाया ही नहीं जाता। फिर भी, खाद्य और कृषि संगठन (FAO) का अनुमान है कि ‘ज्यादातर विकासशील देशों में 60 से 80 प्रतिशत भोजन का उत्पादन महिलाएं करती हैं, और दुनिया के आधे खाद्य उत्पादन की भागीदार हैं। भारत में अधिकांश महिलाएं कृषि कार्यसे जुड़ी हैं, फिर भी उनके पास जमीन का मालिकाना नहीं है।

रुचा अपनी रिपोर्ट में बताती हैं कि पश्चिम बंगाल के सुंदरवन में महिलाओं के समूह ‘मां दुर्गा’ की एक सदस्य ने उनसे कहा कि ‘हमारा समाज सोचता है कि सिर्फ पुरुष ही किसान हैं, मगर सच है कि समूह के अन्य लोगों की तरह, उसके पास अपनी जमीन नहीं है, फिर भी वह दिनभर बाहर खेतों में काम करती है। हमें अपने कृषि कार्यों के लिए कभी पहचान नहीं मिलती। हमें मजदूरों की तरह देखा जाता है, लेकिन हमें लगता है कि हम भी किसान हैं। महिलाएं खेत के काम के हर पहलू का प्रबंधन करती हैं, लेकिन उन्हें किसान नहीं माना जाता है। वे खेतों में दिन-रात मेहनत करती हैं-रोपण, बुवाई, निराई से लेकर कटाई तक करती हैं, लेकिन जमीन की मालकिन नहीं हैं। वे फसल भी उपजाति हैं और कटाई भी करती हैं मगर ज्यादातर मामलों में बाजार और आमदनी को सिर्फ पुरुष ही अपने हाथ में रखते हैं। महिलाएं भारत की महत्वपूर्ण खाद्य फसलों की अविश्वसनीय किस्म का संरक्षण और प्रबंधन करने वाली पहली बीज रक्षक हैं।

सुंदरवन में रीता कामिला की खेती करने के काफी चर्चे हैं। उन्हें वहां स्थानीय महिला किसान मॉडल के रूप में देखा जाता है। बीते कई सालों से रीता ने अपनी खेती को जैविक रूप से विकसित किया है। वह अब खाद्य फसलों की आश्चर्यजनक विविधता को बढ़ावा दे रही हैं। रीता डेवलपमेंट रिसर्च कम्युनिकेशंस और सर्विस सेंटर के साथ मिलकर एकीकृत खेती का भी अभ्यास कर रही हैं। एक शिक्षित समाज समूह जो ग्लोबल ग्रीनग्रांट्स फंड के अनुदान का इस्तेमाल कर रहा है, ताकि गरीब ग्रामीण समुदायों में भोजन और आजीविका सुरक्षा का निर्माण हो सके, उसने पारिस्थितिक सिद्धांतों का उपयोग करके पशुधन और मछली को भी अपनी खेती का हिस्सा बनाया है। रीता ने एक बायो-डाइजेस्टर प्लांट भी स्थापित किया है, जो कृषि अपशिष्ट सहित खेत के कचरे से खाना पकाने के लिए ईंधन पैदा कर रहा है, पशुधन खाद सहित, फसलों को पोषक तत्व प्रदान करने के लिए विवेकपूर्ण तरीके से पुर्ननवीनीकरण किया जाता है।

रीता को अपने समुदाय से बहुत सम्मान मिला है और वह अक्सर उन किसानों की मदद करती है, जो अपने खेत में काम करने वालों से आदान-प्रदान के लिए रुकते हैं। वह कहती है कि अब साल भर परिवार के खाने के लिए बहुत कुछ है। ‘रीता मुस्कुराते हुए कहती है कि पहले हम बाजार पर ही निर्भर थे पर अब मैं बीज पैदा करती हूं और बेचती हूं और कुछ बचत भी हो जाती है। जब मैं दुखी होती हूं, तो मैं अपने खेत को देखती हूं और सुंदर जैव विविधता महसूस करती हूं और यह सब मुझे न केवल खुशी बल्कि जोश भी देता है।

बहरहाल, रीता कामिला जैसी महिला किसान बताती हैं कि वे बदलाव की महत्वपूर्ण वाहक हैं और परेशानियों का सामना कर सकती हैं। दिक्कतें ज़रूर हैं, मगर जिस तरह महिला किसान खेतों में अपनी जीवटता दिखाती हैं, उससे देर-सबेर ही सही पर एक दिन उन्हें महिला किसान के रूप में पूरी दुनिया में पहचान जरूर मिलेगी।


ई पत्रिका किसान से साभार प्रकाशित।