रामजी तिवारी
सन 1947 में जब देश आजाद हुआ, तो सबसे बड़ी समस्या उसके पुनर्निर्माण की थी। एक लम्बी गुलामी के बाद वह हर तरफ से समस्याओं में घिरा हुआ था। ये समस्याएं राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मोर्चों पर हमसे व्यवस्थित समाधान की मांग कर रही थी हमें अपनी विशाल आबादी को साथ लेकर चलना था और उसके देखे गये सपनों को पूरा भी करना था लगभग तीन वर्ष के मैराथन प्रयास के बाद हमारा गणतंत्र अस्तित्व में आया, जब हमने अपना संविधान बनाया और उसे अपने ऊपर लागू किया। यह राष्ट्र-निर्माण की दिशा को तय करने वाला रोडमैप था अब हमें अपने भविष्य को अपने हाथों से संवारने का अवसर मिला था। अब हमारी चुनौतियां सिर्फ हमारी थीं।
अंग्रेजों ने जब भारत छोड़ा था, तब कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाला अपना देश आर्थिक मोर्चे पर हर तरह से बदहाल था। उसे ऐसी वित्तीय संस्थाओं की आवश्यकता थी, जो उसे संभाल सकें, जो उसके भविष्य को बेहतर बना सकें। इसमें एक क्षेत्र बीमा-व्यवसाय का भी था। दुर्भाग्यवश इस क्षेत्र की हालत भी देश के अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों की तरह ही खस्ताहाल और अफरातफरी वाली थी। तब बीमा क्षेत्र पूर्णतया निजी भागीदारी मे संचालित हो रहा था, जिसमें 250 के आसपास निजी कम्पनियां काम कर रही थीं। आलम यह था कि जब किसी बीमा कम्पनी के सामने थोड़ी अधिक देनदारी उपस्थित होती, तो वह अपने को दीवालिया घोषित कर देती। यानि ये कम्पनियां अपना काम तभी तक संचालित करती थी, जब तक उन्हें आय और मुनाफे की संभावना दिखाई देती थी। ऐसे में प्रतिवर्ष कुछ पुरानी कम्पनियां दीवालिया होती और प्रतिवर्ष कुछ नयी अस्तित्व मे आतीं। अर्थात गुलामी के दौरान देश के नागरिक बीमा क्षेत्र की चक्की मे पिसने के लिए मजबूर थे। अव्वल तो बीमा क्षेत्र आम जनता की पहुँच से बाहर था। लेकिन जिसकी पहुँच यहाँ तक होती भी थी, उसका पैसा भी भयावह रूप से असुरक्षित था। लगभग सम्पूर्ण बीमा परिदृश्य ‘आया राम-गया राम’ के सिद्धांत पर संचालित हो रहा था।
कह सकते हैं कि देश की जनता को न तो बीमा की सामाजिक सुरक्षा उपलब्द्ध थी और न ही उसके पैसे की वापसी की कोई गारंटी। जाहिर है बीमा कंपनियों द्वारा एकत्र किया हुआ पैसा भी देश के आधारभूत और महत्वपूर्ण क्षेत्रों मे नहीं पहुँच पाता था। ऐसे में बीमा क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण की मांग हर तरफ से उठने लगी। कहना न होगा कि तत्कालीन माहौल भी राष्ट्रीयकरण के पक्ष में था। सैकड़ों वर्षों की गुलामी से आजाद हुए तीसरी दुनिया के अधिकतर नव-स्वतन्त्र मुल्क समाजवादी व्यवस्था की तरफ झुक रहे थे। जहाँ राज्य से अपेक्षा की जा रही थी कि वह अपने नागरिकों के सर्वांगीण विकास का जिम्मा उठाए। यहाँ एक तथ्य बहुत रोचक है कि बीमा क्षेत्र में काम करने वाली एक ट्रेड यूनियन (ऑल इंडिया इंश्योरेंस इम्प्लाइज एसोसिएशन) का गठन सन 1951 में ही हो गया था। जाहिर है कि इसका प्राथमिक उद्देश्य श्रमिकों के उपर होने वाले शोषण और अन्याय का विरोध करना और अपने हितों की रक्षा करना था। साथ ही साथ तमाम बीमा कम्पनियों के श्रमिकों को एक कॉमन प्लेटफार्म भी उपलब्ध कराना भी। लेकिन कुछ समय बाद इस ट्रेड यूनियन ने भी यह बात समझ ली कि बीमा क्षेत्र के निजी हाथों में रहते हुए न तो उनके हित सुरक्षित हैं, और न ही बीमाधारकों के। जाहिर है देश के आर्थिक हित भी नहीं। तो यह श्रमिक संगठन भी बीमा क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण की मुहिम में जुट गया। यह रेखांकित करने वाली बात है कि बीमा क्षेत्र का वह श्रमिक संगठन आज भी जीवन बीमा निगम में श्रमिक हितों के लिए काम कर रहा है। वह आज भी बीमाधारकों के हितों के सक्रिय है।
तो निजी बीमा कंपनियों की असफलता, समाजवाद के पक्ष मे देशव्यापी माहौल और श्रमिक संगठनों की भूमिका ने राष्ट्रीयकरण का रोडमैप तैयार कर दिया। यह माहौल 1956 में भारतीय जीवन बीमा निगम को अस्तित्व मे ले आया, जब संसद ने इसके लिए क़ानून बनाया। तब के वित्त-मंत्री सी.डी.देशमुख ने बीमा क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव संसद मे प्रस्तुत करते हुए कहा था कि “बीमा व्यवसाय का राष्ट्रीयकरण जनता की बचत को प्रभावी ढंग से नियोजित करने के लिए एक जरूरी कदम है। बीमा एक ऐसी सामाजिक सेवा है, जिसे प्रत्येक लोककल्याणकारी राज्य को अपनी जनता के लिए उपलब्ध कराना चाहिए। जहाँ केवल लाभ कमाना उद्देश्य न हो, वरन जनता को बेहतर सेवा देना राष्ट्रीयकरण का ध्येय हो। इसलिए बीमा का सन्देश सम्पूर्ण जनता तक प्रभावी ढंग से पहुंचाया जाना चाहिए।”
तो 1956 में बीमा क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण संसद के द्वारा बनाए गये कानून के द्वारा किया गया। सभी निजी बीमा कम्पनियों के दायित्व और संपत्ति भारतीय जीवन बीमा ने स्वीकार किये। सरकार ने भी उसे पांच करोड़ रूपये की आरंभिक पूँजी उपलब्ध कराई। साथ ही साथ सरकार ने अपनी काउंटर गारंटी भी भारतीय जीवन बीमा निगम के पीछे प्रदान की। इसका मतलब यह हुआ कि यदि किसी भी कारण से भारतीय जीवन बीमा निगम अपने बीमाधारकों का पैसा नहीं लौटा पाता है, या अपने दायित्व से मुकरता है तो भारत सरकार उस पैसे का भुगतान करेगी। यह एक ऐतिहासिक कदम था। अब भारतीय जीवन बीमा निगम के चार उद्देश्य साफ़-साफ़ परिभाषित कर दिए गये। पहला यह कि बीमाधारकों के हितों की हर-हाल मे रक्षा की की जायेगी। यदि किन्हीं भी वजहों से भारतीय जीवन बीमा निगम इसमें असफल होता है तो सरकार उन दायित्यों को पूरा करेगी। यह बीमा व्यवस्था में चल रही अफरातफरी और “आया राम-गया राम” के बरक्स एक बहुत बड़ी बात थी। इससे बीमाधारकों के हित अब पूरी तरह से सुरक्षित घोषित हो गये।
दूसरी बात यह थी कि बीमा को लाभ कमाने का हथियार न मानकर वरन लोककल्याणकारी राज्य का दायित्व माना गया। इसे सामाजिक-सुरक्षा के हिसाब से परिभाषित किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि बीमा अब आम आदमी के हाथों मे पहुचंने लगा। निम्न आयवर्ग के व्यक्ति के लिए भी अब बीमा के दरवाजे खुल गये। यदि गरीब तबका अपना प्रीमियम देने ने असमर्थ था, तो सरकार और निगम द्वारा उसे सब्सिडी देकर भी बीमा का लाभ दिया जाने लगा। तीसरी बात यह थी कि सरकार की काउंटर गारंटी और सामाजिक सुरक्षा के उद्देश्य ने बीमा क्षेत्र मे आम जनता के भरोसे को लौटाया। ध्यान रहे कि उस समय भरोसे का न होना ही सबसे बड़ा संकट था। तो इस भरोसे ने आम जनता की छोटी बचतों को प्रोत्साहित करना शुरू किया। यह बीमाधारक के लिए भी लाभप्रद था, और जीवन बीमा निगम के लिए भी। कहना न होगा कि देश के लिए भी। और जो चौथी महत्वपूर्ण बात थी कि इस राष्ट्रीयकरण के कारण बीमा क्षेत्र मे निवेश होना वाला पैसा अब सरकार की विभिन्न योजनाओं मे लगना था। यह एक तरह से उस पैसे की सुरक्षा की गारंटी भी थी, और जनता के पैसे का पुनः उसी जनता के हित में नियोजन करने की कोशिश भी। यानि अब निगम द्वारा जनता से संग्रहित पैसे का उपयोग सड़क, बिजली, बाँध, पानी, स्कूल और अस्पताल बनाने में होना था।
आज भारतीय जीवन बीमा निगम के राष्ट्रीयकरण के 65 वर्ष हो रहे हैं। तो इन छः दशकों की यात्रा को देखना समीचीन होगा कि राष्ट्रीयकरण के समय जो सपना देखा गया था, उसको पूरा करने मे यह संस्थान कहाँ तक सफल हुआ है। तो राष्ट्रीयकरण का पहला घोषित लक्ष्य यह था कि लोगों में बीमा व्यवसाय के लिए विश्वास की बहाली हो। लोग यह समझें कि यह उनके जीवन के लिए जरुरी है और उन्हें यह भरोसा रहे कि वे जो अपनी बचत का पैसा अपने भविष्य के लिए जमा कर रहे हैं, तो यह संस्थान उनके कठिन दिनों में उनका मददगार होगा। वह अपना दिया हुआ वादा निभाएगा। राष्ट्रीयकरण से पहले की तरह निजी कम्पनियों के व्यवहार को नहीं दुहरायेगा। इस आधार पर जब हम भारतीय जीवन बीमा निगम का मूल्यांकन करते हैं तो पाते हैं कि निगम ने अपनी स्थापना के समय घोषित लक्ष्य में सौ फीसदी कामयाबी हासिल की है। अपने छः दशकों से अधिक के बीमा व्यवसाय में उसने एक बार भी जनता से किये गए अपनी वायदे को नहीं तोडा है। किन्हीं भी प्राकृतिक, मानव-निर्मित और वैश्विक चुनौतियों के बावजूद जनता के भरोसे को बनाये रखा है। यहाँ तक की आपात परिस्थितियों में निगम ने अपने तमाम मानदंडों को शिथिल करते हुए बीमाधारकों के पक्ष में भुगतान किया है। यह पहल और भरोसा ही इसकी सबसे बड़ी सफलता है।
दूसरे भारतीय जीवन बीमा निगम ने अपने व्यवसाय को दुनिया के मानदंड के अनुरूप विकसित किया है, उसे बढ़ाया है। आज निगम के पास लगभग 40 करोड़ से अधिक बीमाधारक हैं। यह संख्या भारत और चीन की जनसंख्या के बाद तीसरी सबसे बड़ी संख्या है। साथ ही साथ सरकार द्वारा प्रदत्त 5 करोड़ की आरंभिक पूंजी से शुरूआत करके भारतीय जीवन बीमा निगम ने अपनी संपत्ति को आज 32 लाख करोड़ के लाइफ-फंड तक पहुंचा दिया है। अर्थात भारतीय जीवन बीमा निगम ने सामाजिक दायित्व को निभाते हुए देश में बीमा कराने योग्य एक बड़ी आबादी को कवर किया है। साथ ही साथ उनकी छोटी बचतों को प्रोत्साहित भी किया है। इन छोटी बचतों का राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में क्या महत्व होता है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि जब सन 2008 में विश्वव्यापी आर्थिक मंदी आयी थी, तो भारत जैसे देश अपनी छोटी घरेलू बचतों के कारण ही उस आर्थिक जलजले को आसानी से झेल गये थे।
तीसरे निगम ने इन बचतों को इकठ्ठाकर सरकार को एक बड़ा फंड उपलब्ध कराया है, जिससे वह देश के विकास की विभिन्न परियोजनाओं में उसका इस्तेमाल कर सके। आज भारतीय जीवन बीमा निगम के पास जो 32 लाख करोड़ का लाइव फंड है, उसमें से लगभग 24 लाख करोड़ रूपये सरकार की विभिन्न विकास परियोजनाओं निवेशित किये गये हैं। वे चाहें पंचवर्षीय योजनायें हों या फिर सड़क, बिजली, पानी, बाँध, स्वास्थ्य, शिक्षा और आधारभूत संरचनाओं के विकास की परियोजनाएं हों। यह दोतरफा फायदे की बात है। कि जहाँ एक तरफ जनता का पैसा सरकार की योजनाओं मे लगने के कारण सुरक्षित है, वहीं इन योजनाओं के द्वारा देश की तरक्की में भी वह काम आ रहा है।
चौथी जैसा कि निगम की स्थापना के समय तत्कालीन वित्त मंत्री सी.डी.देशमुख ने कहा था कि बीमा व्यवसाय का राष्ट्रीयकरण इसलिए भी किया जा रहा है कि हम अपने देश की जनता को सामाजिक सुरक्षा प्रदान कर सकें। तो इस आधार भी निगम का प्रदर्शन शानदार रहा है। उसने सिर्फ शहराती या मालदार लोगों के जीवन को ही बीमा के दायरे में नहीं कवर किया है। वरन एक आम साधारण नागरिक के लिए भी बीमा का कवर उपलब्ध कराया है। और ऐसा करते हुए उसने अपने लाभ को किनारे भी रखा है। मसलन जो कमजोर आय वर्ग के लोग है, वे बहुत छोटे बीमाधन का बीमा कराते हैं। ऐसी पालिसियों में निगम का प्रशासनिक खर्चा उनकी प्रीमियम राशि से अधिक आता है। इसलिए ऐसे बीमाधारकों के लिए निगम को अपने मुनाफे में से सब्सिडी देनी पड़ती है। ये बात भले ही व्यावसायिक दृष्टि से लाभकारी नहीं मानी जाए, लेकिन सामाजिक दृष्टि से एक विकाशशील देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण मानी जा सकती है।
और पांचवी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय जीवन बीमा निगम के दावा भुगतान का रिकार्ड बहुत शानदार रहा है। दुनिया की किसी भी बीमा कंपनी से बेहतर। यदि हम आंकड़ों में बात करें तो लगभग 98 प्रतिशत। यानि जो दायित्व निगम स्वीकार करता है, उसे निभाता भी है। जबकि निजी कम्पनियों में दावा भुगतान का प्रतिशत अभी भी बहुत ख़राब देखा जाता है। ये निजी कम्पनियां प्रीमियम की वसूली करते समय वादा तो बहुत तरह से करती हैं, लेकिन बीमाधारक के साथ घटना-दुर्घटना होने पर दावा भुगतान के समय तमाम तरह की जांच और नियमों का हवाला देकर उसके दावे को लटकाती है, उससे इनकार करती है। अभी भारत में लगभग बीस निजी कम्पनियां काम कर रही हैं, जिनमें सबसे अच्छा दावा भुगतान का रिकार्ड जिस कंपनी के पास है, वह भी मात्र 70 प्रतिशत ही है। यानि निजी कंपनियों के दावा भुगतान का ट्रैक रिकार्ड न तो 70 वर्ष पहले ठीक था और न ही आज की तारीख में उनका शातिरपना कम हुआ है। इसके बरक्स निगम अपने दायित्वों लगभग शत-प्रतिशत निर्वहन करना है। बीमा नियामक संस्था I.R.D.A. द्वारा जारी आंकड़े इस बात की गवाही भी देते हैं।
यानि भारतीय जीवन बीमा निगम ने अपने राष्ट्रीयकरण के दिन से ही अपने सारे घोषित उद्देश्यों का खयाल रखा है, उन्हें पूरा किया है। बीमाधारक के पैसे की सुरक्षा, किसी भी प्रकार के उत्पन्न दावे का समय पर भुगतान, छोटी बचतों को प्रोत्साहित करना तथा जनता के पैसे को सरकार के माध्यम से पुनः जनता के हितों मे निवेश करना इसमें शामिल है। यहाँ यह तथ्य भी याद रखना चाहिए कि ऐसा सफल प्रदर्शन करते हुए भारतीय जीवन बीमा निगम ने सरकार द्वारा दी गयी काउंटर गारंटी का कभी उपयोग नहीं किया है। यानि उसने अपने आर्थिक माडल को इतना बेहतर और पारदर्शी रखा है कि उसे कभी सरकार के सामने हाथ फैलाने की नौबत नही आयी है। बल्कि इसके विपरीत जब कभी भी सरकार को आर्थिक जरुररत पड़ी है, निगम ने हमेशा उसका साथ दिया है। चाहें वह शेयर बाजार को सँभालने की बात हो, या अन्य महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियों को संचालित करने की कवायद हो। निगम के इस बेहतरीन प्रदर्शन को भारत सरकार ने स्वयं सराहा है। उसके द्वारा घोषित “सबसे अधिक विश्वसनीय सेवा ब्रांड” का खिताब पिछले लगभग कई वर्षो से भारतीय जीवन बीमा निगम के पास ही रहा है।
जाहिर है, इस नाते यह देश और दुनिया की देशी-विदशी बीमा कम्पनियों की निगाह में भी रहा है। 1990 के दशक में जब दुनिया मे उदारीकरण की बयार चली थी, तो वह बयार भारतीय बीमा क्षेत्र के दरवाजे पर भी पहुंची थी। कहा गया कि यह ज़माना प्रतियोगिता का है। दुनिया से कदम मिलाकर चलने का है। यदि हम इसमें पीछे रह गये तो हमारा देश विकास की दौड़ मे भी पीछे रह जाएगा। ऐसे में भारतीय बीमा क्षेत्र को भी प्रतियोगी माहौल मे उतारा गया। सन 2000 में इस क्षेत्र में देशी और विदेशी बीमा कम्पनियों का सयुंक्त आगमन हुआ, जब लगभग 20 कम्पनियों ने अपना कामकाज शुरू किया। उस समय भारतीय जीवन बीमा निगम को लेकर तमाम तरह की बातें हवा मे उछाली गयी। जिनका सार यह था कि अभी तक बीमा क्षेत्र में भारतीय जीवन बीमा निगम का एकाधिकार रहा है। उसे किसी प्रतियोगिता का सामना करना नहीं पड़ा है। अब प्रतियोगी माहौल मे उसके प्रदर्शन की हकीकत सामने आयेगी।
तो आज जब उस प्रतियोगी माहौल को 20 वर्ष का समय हो गया है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि इस दौरान भारतीय जीवन बीमा निगम का प्रदर्शन कैसा रहा है। देश को यह जानकर ख़ुशी होगी कि इन दो दशकों के प्रतियोगी माहौल में, जहाँ 20 से अधिक बीमा कम्पनियों काम कर रही हैं, भारतीय जीवन बीमा निगम का शेयर सम्पूर्ण बीमा व्यवसाय का लगभग तीन चौथाई है। पालिसियों में लगभग 74 प्रतिशत और प्रीमियम मे लगभग 68 प्रतिशत। आप किसी भी अन्य क्षेत्र से तुलना करके देखिये, जहाँ निजी और विदेशी भागीदारी की अनुमति हैं, जहाँ उनसे प्रतियोगिता है, तो भारतीय जीवन बीमा निगम का यह प्रदर्शन आपको गर्व करने का अवसर प्रदान करेगा। यहाँ यह तथ्य भी जान लेना जरूरी होगा कि भारतीय निजी क्षेत्र के लगभग सभी महत्वपूर्ण घरानों ने बीमा क्षेत्र के उदारीकृत होने के बाद इसमें प्रवेश किया है। इनमें टाटा, बिड़ला, रिलायंस, बजाज, HDFC, ICICI, IDBI, महेन्द्रा, सहारा और स्टेट बैंक जैसे बड़े नाम शामिल हैं। और यह भी कि इन सबने दुनिया के बीमा क्षेत्र के सबसे बड़े निजी संस्थानों के साथ सहयोगी बनकर काम किया है। इन बड़े नामों मे ‘AIA’, ‘प्रूडेंशियल’, ‘सनलाइफ’, ‘एलायंज’, ‘अविवा’ और ‘मेटलाइफ’ शामिल हैं।
बीमा क्षेत्र के उदारीकरण के समय ऐसा नैरेटिव रचा गया कि भारतीय जीवन बीमा निगम के एकाधिकार के कारण बीमा क्षेत्र का विस्तार नहीं हो पा रहा है। देश की बहुत बड़ी आबादी इसके दायरे से बाहर है। खासकर ग्रामीण आबादी, जो देश में लगभग 80 करोड़ है। तो आज बीस वर्षों के निजी हस्तक्षेप के बाद यह देखना समीचीन होगा कि क्या उस समय के वायदे और उस समय की उम्मीदों को इन निजी कंपनियों ने पूरा किया है। नहीं, आपको जानकार शायद कोई हैरानी नहीं होगी कि इनके काम काज का तरीका बिलकुल इनकी छबि के मुताबिक ही है। इनका अधिकतर कामकाज बड़े महानगरों और शहरी क्षेत्रों तक सीमित है, जहाँ से अधिकाधिक प्रीमियम मिल सके। उन्होंने कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में बीमा करने के प्रति कोई संजीदगी नही दिखाई है, क्योंकि यह लाभकारी नहीं है। यानि सामाजिक सुरक्षा के उद्देश्य को इन्होंने बिलकुल ही ताक पर रख दिया है। आज भी ग्रामीण क्षेत्र के बीमा की जिम्मेदारी भारतीय जीवन बीमा निगम के उपर ही आयत है। इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जहाँ निगम ने अपनी स्थापना के समय से ही अपनी जिम्मेदारी निभाई है, वहीं निजी कम्पनियों ने शुरुआत से ही अपने वायदे को भुला दिया है।
इन निजी कम्पनियों ने स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करने के बजाय “बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण” पर इस बात का दबाव बनाया कि भारतीय जीवन बीमा निगम के पीछे जो सरकार की सावरेन गारंटी लगी हुई है, उसे हटा लिया जाय। उन्होंने तर्क दिया कि ऐसा करने से बीमा क्षेत्र में सबके लिए एक “लेवल प्लेयिंग फील्ड” तैयार होगा और सरकार का फेवर किसी एक बीमा कम्पनी को नहीं जाएगा। जबकि सच्चाई यह थी कि 1956 में अपने गठन के समय से ही भारतीय जीवन बीमा निगम ने कभी भी सरकार की सावरेन गारंटी का उपयोग नहीं किया। इसके विपरीत उसने सरकार को हर वर्ष मुनाफा ही कमा कर दिया। यानि भारतीय जीवन बीमा निगम के पास सरकार की सावरेन गारंटी एक तरह से बीमाधारकों के हितों से अधिक जुडी हुई है। बेशक इसका लाभ निगम को भी होता है, लेकिन इसका मुख्य लाभ अंततः बीमाधारकों के लिए जाता है। वे अपने पैसे सुरक्षित होने को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं, जो किसी भी लोक-कल्याणकारी राज्य की जनता के लिए जरुरी है। ऐसे में निजी कम्पनियों की यह मंशा तो उजागर हो ही जाती है कि वे आम बीमाधारकों के हितों के लिए कितने चिंतित हैं।
देश के आर्थिक विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला भारतीय जीवन बीमा निगम इस समय अन्यत्र कारणों से चर्चा में है। सरकार उसे बाजार में सूचीबद्ध करना चाहती है और उसके कुछ शेयर्स को आई.पी.ओ. (इनिशियल पब्लिक आफरिंग) के द्वारा बेचना चाहती है। हालाकि अभी यह तय नहीं है कि इस कथित आई.पी.ओ.में कितना हिस्सा बाजार में उतारा जाएगा। लेकिन जो बात समाचार माध्यमों के द्वारा “लोक-विमर्श’ में तैर रही है, वह पांच से पच्चीस प्रतिशत तक के विनिवेश की है। यानि अब यह कम्पनी पूर्णरूप से सरकार के अधीन नहीं रह जायेगी। और साधारण शब्दों में कहें तो इसके निजीकरण का दरवाजा खुल जाएगा। लेकिन क्यों …? इसका जबाब जानने के लिए वित्तमंत्री द्वारा संसद में प्रस्तुत पिछले बजट को समझना होगा। उन्होंने इस आई.पी.ओ. का प्रस्ताव रखते हुए मुख्यतया चार बातें कहीं थी। पहली यह कि इससे बाजार मे पूंजी उपलब्द्ध होगी। दूसरी कि इससे छोटे निवेशको को लाभ होगा। तीसरी कि इससे बाजार में पारदर्शिता आयेगी और निगम का अनुशासन बेहतर होगा। और चौथी यह कि इस आई.पी.ओ. से बीमाधारकों और निगम के कर्मचारियों को लाभ होगा। तो ऐसे में बेहतर है कि इन चारों आधारों पर हमें भी बिन्दुवार विचार करना चाहिए।
पहला तर्क पूंजी की आवश्यकता को रेखांकित करता है। तो सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय जीवन बीमा निगम को वास्तव में पूंजी निवेश की आवश्यकता है ? जिसके पास साढ़े पांच लाख करोड़ की आय हो, 32 लाख करोड़ की संपत्ति हो, नियमित प्रीमियम की मजबूत आधार हो और जो केन्द्रीय सरकार के कर्ज लेने की क्षमता का लगभग 25 प्रतिशत अकेले वहन करने की क्षमता रखता हो, क्या उस निगम को अपने व्यवसाय के लिए पूँजी की आवश्यकता है ? नहीं, यह तर्क गले नहीं उतरता। सच बात तो यह है कि निगम के इस पैसे की आवश्यकता बाजार को है। चूंकि आज की नव-उदारवादी व्यवस्था में शेयर बाजार को अर्थव्यवस्था के एक बड़े पैरामीटर के रूप में दर्शाया जाता है, इसलिए यह कवायद की जा रही है। हालाकि स्वतन्त्र विश्लेषक इस पैरामीटर को ही खारिज करते हैं।
दूसरे तर्क के अनुसार आम निवेशकों को फायदा होगा। यहाँ आम निवेशकों को आम जनता के रूप में दर्शाया जा रहा है। तो क्या सच में आम जनता ही आम निवेशक है ? एक अनुमान के अनुसार भारत की 135 करोड़ की आबादी मे से लगभग चार करोड़ लोगों की पहुँच ही शेयर बाजार तक हो पायी है। तो क्या ये चार करोड़ लोग ही हमारे देश की आम जनता हैं, जिनके लाभ के लिए निगम को शेयर बाजार मे धकेला जा रहा है ? नहीं, ये चार करोड़ लोग राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से प्रभावशाली लोग हैं, जो अपने लाभ के लिए आम जनता का नैरेटिव गढ़ रहे हैं। ऐसे मे यह तर्क बेहद हास्यास्पद हो जाता है कि सरकार आम जनता को फायदा पहुँचने के लिए भारतीय जीवन बीमा निगम के शेयर को बेचना चाहती है।
तीसरे तर्क के अनुसार इससे बाजार में पारदर्शिता आयेगी और निगम का अनुशासन बेहतर होगा। लेकिन क्या सच में…? देश की कुछ बड़ी कम्पनियां, जैसे कि DHFL, ILF&S, Rcom, Reliance, और YES BANK तो बाजार में सूचीबद्ध थीं, लेकिन इन्होंने जनता का पैसा डूबा दिया। इनके किये फ्राड को यह शेयर बाजार तो नहीं रोक पाया। यानि बाजार में सूचीबद्द होने का मतलब यह नहीं है कि वह कंपनी अब पारदर्शी और ईमानदार हो गयी। जबकि दूसरी तरफ भारतीय जीवन बीमा निगम भले ही बाजार में सूचीबद्ध नहीं है, लेकिन वह संसद के प्रति जरुर जबाबदेह है। निगम की वार्षिक रिपोर्ट संसद के पटल पर रखी जाती है। साथ ही साथ “बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण” के यहाँ भी तिमाही, छमाही और वार्षिक विवरण भेजना पड़ता है। आंतरिक और बाहरी आडिटर प्रतिवर्ष उसके खातों की जांच करते हैं। छः दशक से लम्बे समय के इतिहास में निगम के ऊपर भ्रष्टाचार या कदाचार का कोई बड़ा आरोप नहीं लगा है। न ही निगम ने जनता के पैसे का कभी दुरूपयोग किया है। सच्चाई यह है कि पारदर्शिता और अनुशासन के नाम पर भारतीय जीवन बीमा निगम के ऊपर दबाव बनाने की कोशिश हो रही है। यह बात हमें समझनी होगी।
और चौथी बात कही जा रही है कि इससे बीमाधारकों और निगम के कर्मचारियों को लाभ होगा। तो यह बात सही है कि सरकार ने अभी निगम में अपनी सावरेन गारंटी को कायम रखने की बात कही है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि निजीकरण की शुरुआत में ऐसा ही कहा जाता है। आज पांच-दस या पचीस प्रतिशत शेयर बेचने की बात हो रही है, कल बात इससे अधिक की भी हो सकती है। और इस तरह से एक दिन सरकार निगम से बाहर भी हो सकती है। यानि यह एक तरह से दरवाजे के खुलने वाली बात है। तो जो बात बीमाधारकों और निगम के कर्मचारियों के लिए अभी फायदेमंद बताई जा रही है, वही बात उनके खिलाफ चली जायेगी। जाहिर है देश के खिलाफ भी। इसलिए सरकार द्वारा भारतीय जीवन बीमा निगम में प्रस्तावित विनिवेश तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है।
फिर सरकार निगम में विनिवेश क्यों करना चाहती है…? क्या निगम ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका नहीं निभाई है ? क्या निगम ने जनता के पैसे को मोबेलाइज नहीं किया है ? क्या निगम ने उस पैसे का राष्ट्रीय और सामाजिक उपयोग नहीं किया है ? क्या निगम ने जनता का विश्वास बरकरार नहीं रखा है ? क्या निगम ने प्रतियोगी माहौल का सामना सफलतापूर्वक नहीं किया है? अब आप खुद फैसला कीजिये कि इन सभी सवालों के क्या उत्तर हैं …? कोई भी स्वतंत्र विश्लेषक यही कहेगा कि निगम ने अपनी सारी भूमिकाएं बखूबी निभाई हैं ।
हम जानते हैं, कि सोवियत संघ में समाजवाद के विघटन के बाद राष्ट्रीयकरण की पूरी बहस अब उलटी दिशा में पलट गयी है। पूरी दुनिया में निजीकरण के पक्ष में एक जनमत तैयार हो चुका है। जाहिर है, हमारी सरकार भी उसी मंशा से संचालित हो रही है। बावजूद इसके हम महसूस करते हैं कि सरकार का यह फैसला किसी भी तरह से उचित नही है। इसी एक सितम्बर को भारतीय जीवन बीमा निगम ने अपनी स्थापना की 65वीं वर्षगाँठ मनाई है। यह वर्षगाँठ उसकी सफलता की कहानी की वर्षगाँठ भी है। प्रतियोगी माहौल को जीतने और उसमें सर्वोत्तम देने की वर्षगांठ भी। आज जब सरकार आत्मनिर्भर भारत की बात कर रही है, तो उसे अपनी बातों का ख्याल भी रखना चाहिए। उसे समझना चाहिए कि भारतीय जीवन बीमा निगम जैसे सार्वजनिक संस्थान उसकी देश की आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को सबसे बेहतर तरीके से क्रियान्वित कर सकते हैं। यहाँ तक कि वे अन्य सार्वजनिक संस्थानों को रास्ता भी दिखा सकते हैं। इसलिए अपनी तो यही मांग है कि सरकार को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। और भारतीय जीवन बीमा निगम में सरकार के पूर्ण स्वामित्व को बरकरार रखना चाहिए।
रामजी तिवारी लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।