अनियंत्रित विकास का दुष्परिणाम है जोशीमठ त्रासदी

विजय शंकर सिंह विजय शंकर सिंह
ओप-एड Published On :


जोशीमठ के बारे में जो खबरें आ रही हैं, वह न केवल एक पहाड़ी शहर के ज़मींदोज होते जाने की, चिंतित करने वाली खबर हैं, बल्कि चीन की सीमा के नजदीक होने के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जुड़ा मामला है। जोशीमठ में मकानों और सड़कों में दरार आने की खबर आज से नहीं बल्कि पिछले दो साल से लगातार आ रही है, पर यह अलग बात है कि, सरकार अब जागी है और प्रधानमंत्री के स्तर पर एक उच्चस्तरीय बैठक हो रही है। समस्या है जोशीमठ की जमीन के निरंतर धंसते जाने की और यह गति इतनी तेजी से इधर होने लगी है कि, सड़कों, मकानों और अन्य भूभाग पर भी जगह जगह बड़ी बड़ी दरारें पड़ने लगी हैं। चमोली के जिला प्रशासन ने जिसके अंतर्गत जोशीमठ आता है, ने इस समस्या का निदान, फिलहाल तो, केवल, बड़े पैमाने पर लोगों का विस्थापन ही बताया है, क्योंकि जिस तरह से जमीन दरक रही है उसका कोई तकनीकी निदान फिलहाल संभव नहीं दिख रहा है। मीडिया की खबरों के अनुसार, वहां स्थित सेना और आईटीबीपी की इकाई के कर्मचारियों और अधिकारियों ने अपने परिवारों को सुरक्षित स्थानों पर भेजना शुरू कर दिया है।

जोशीमठ का भू-धंसाव हाल की सबसे बड़ी अनदेखी पर्यावरणीय घटनाओं में से एक है, क्योंकि स्थानीय क्षेत्र के भू विशेषज्ञों, जिसमे भूगर्भ वैज्ञानिक और पर्यावरण के विशेषज्ञ दोनो की वैज्ञानिक राय को दरकिनार कर के, पिछले कई सालों से, बिना यह सोचे कि, यह धरती कितना भार वहन कर पाएगी, जोशीमठ को, एक आधुनिक शहर बनाने की होड़ लगी हुई है। जोशीमठ में जिस तेजी से मानवीय गतिविधियां बढ़ी है, होटल, चौड़ी-चौड़ी सड़कें, और अब चार लेन ऑल वेदर रोड का विकास हो रहा है, और यह सब भी, भूगर्भ वैज्ञानिकों, पर्यावरण विशेषज्ञों की राय को कूड़ेदान में फेंक कर, केवल एक जिद और सनक को पूरा करने के लिए किया जा रहा है, जिसने इस त्रासदी को एक तरह से आमंत्रित ही किया है। पगलाए विकास की पिनक में, यह मूल सवाल भी नजरंदाज कर दिया गया कि, यह क्षेत्र, न केवल एक भूकंपीय क्षेत्र है बल्कि जोशीमठ खुद भी एक ग्लेशियर की जमीन पर बना है जो हिमालय के कच्चे पहाड़ का एक हिस्सा है। हाल ही के दिनों में लगातार बारिश और बाढ़ के कारण, मकानों की नींव और कमजोर हुई, और धीरे धीरे उनमें, दरारें और बढ़ने लगीं। जब धरती का आधार ही कमज़ोर होने लगेगा तो उस पर टिकी इमारतें और निर्माण तो धंसेगे ही।

हालाँकि, इस प्रकार के भू धंसाव की स्थिति में इस अचानक ट्रिगर के पीछे मुख्य कारण, भूगर्भ वैज्ञानिक, मेन सेंट्रल थ्रस्ट (MCT-2) का पुनः सक्रिय हो जाना बताते हैं। यह एक भूवैज्ञानिक फॉल्ट है, जहां भारतीय प्लेट ने हिमालयी प्लेट को, यूरेशियन प्लेट के नीचे धकेल दिया है। यह एक बेहद धीमी प्रक्रिया होती है और रुक रुक कर चलती रहती है। जमीन के अंदर ऐसी गतिविधियां बेहद खामोशी से चलती रहती हैं और उनका कोई प्रत्यक्ष असर ऊपर नही दिखता है। पर जब कोई गंभीर गतिविधि होती हैं, और जब उसका प्रत्यक्ष असर, जैसा कि, आजकल दिख रहा है, सामने आता है तो सरकार तमाम पुरानी शोध रिपोर्ट पर पड़ी धूल झाड़ना शुरू कर देती है। अब जब यह, MCT-2 ज़ोन फिर से सक्रिय हो गया है, और जोशीमठ में जमीन के धंसने का कारण बन रहा है तो, इस पर बातें होने लगी हैं। पर कोई भी भूवैज्ञानिक यह अनुमान नहीं लगा पा रहा है कि यह थमेगा कब और फिर से सक्रिय होगा कि नही। कुमाऊं विश्वविद्यालय के भूविज्ञान के प्रोफेसर, डॉ बहादुर सिंह कोटलिया कहते हैं, “हम दो दशकों से सरकारों को चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन सरकार इसे अब तक नज़रअंदाज़ करती आ रही है। आप प्रकृति से लड़ नहीं सकते और जीत भी नहीं सकते। जोशीमठ में, जिस तरह की भूगर्भीय घटनाएं हो रही हैं, वह केवल जोशीमठ तक ही सीमित नहीं रहेंगी और हो सकता है और भी पहाड़ी क्षेत्रों में इस तरह की घटनाएं घटने लगें।”

आज अचानक आज से पचास साल पहले जोशीमठ पर एक रिपोर्ट की चर्चा होने लगी जिसमे साफ साफ लिखा है कि कि जोशीमठ एक पुराने भूस्खलन क्षेत्र पर स्थित है और अगर इसी तरह का अनियंत्रित विकास जारी रहा, तो, यह शहर डूब भी सकता है, और सिफारिश की कि जोशीमठ में निर्माण निषिद्ध किया जाय। उत्तराखंड का जोशीमठ जब यूपी का हिस्सा था, तब से, धीरे धीरे धंस रहा है। पर तब यह गति बेहद धीमी थी। जब जगह जगह भू धंसाव के संकेत मिलने लगे तब, वर्ष 1976 में, गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर एमसी मिश्र की अध्यक्षता में, एक 18 सदस्यीय समिति का गठन किया गया, जिसे मिश्र कमेटी का नाम दिया गया, और समिति ने, जांच पड़ताल कर, भूस्खलन और भूस्खलन की आशंका वाले क्षेत्रों को मजबूत करने के लिए, वहां पौधे लगाने और वन क्षेत्र विकसित करने की सलाह दी थी। 1976 की इस कमेटी में सेना, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और अन्य विशेषज्ञ एजेंसियों सहित स्थानीय जनप्रतिनिधि भी शामिल थे।  3 मई 1976 को, कमेटी की रिपोर्ट के संबंध में एक बैठक हुई थी, जिसमें, भू धंसाव रोकने के लिए, दीर्घकालीन उपाय करने की बात कही गई थी। जाहिर है यह समस्या तब भी थी, हालांकि स्थिति तब इतनी भयावह नहीं थी। 18 सदस्यीय मिश्र कमेटी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट, आज एक भविष्यवाणी की तरह लग रही है।

अब तो जैसी खबरें मीडिया में आ रही हैं, उसके अनुसार, उत्तराखंड के पवित्र शहर जोशीमठ के निवासी शहर की इमारतों और गलियों में दरारें देखकर चिंतित हो गए हैं, इसे वे “धीरे-धीरे डूबता हुआ शहर” बताने लगे है।  जोशीमठ में 561 घरों में दरारें, मिट्टी के धंसने के कारण आ गई है। जब बात बहुत बढ़ गई तो, उत्तराखंड सरकार ने जन विरोध के कारण, 5 जनवरी को क्षेत्र में, समस्त  विकास कार्यों पर रोक लगा दी है। भूगर्भ वैज्ञानिकों और निर्माण विशेषज्ञों ने दस साल पहले ही इस पूरे क्षेत्र में भू-धंसाव की संभावना जता दी थी। इसका कारण भू परत का तेजी से और व्यापक निर्जलीकरण होना भी है। आज कटु  तथ्य यह है कि, शहर डूब रहा है, और कोई सुधारात्मक कार्रवाई की भी नहीं जा रही है और अब यह संभव भी नहीं है। स्थानीय लोगों के अनुसार, पिछले दस वर्षों में जोशीमठ शहर और उसके आसपास कई नई नई, बहु-मंजिले निर्माण विकसित हुए हैं। भू  धंसाव के कारण हाल ही में इनमें से एक बहुमंजिली इमारत झुक भी गई। यह जानते हुए भी कि, यह पूरा क्षेत्र, भूगर्भीय रूप से जोखिम भरा और संवेदनशील है, जोशीमठ और तपोवन के पास विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना सहित अनेक जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गई है।

अगस्त 2022 से उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (यूएसडीएमए) की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, अनियोजित निर्माण के परिणामस्वरूप जोशीमठ की समस्याएं और भी बदतर हो गई हैं, जिसमें भूमि पर पड़ने वाले दबाव और प्रभाव की क्षमता को ध्यान में नहीं रखा गया है। कई अतिरिक्त भवनों का विकास किया गया। नए नए होटल खुले और बहुमंजिले निर्माण भी किए गए। रिटेनिंग वॉल यानी पहाड़ को थामने के लिए बनाई जाने वाली दीवार, बनाकर भूस्खलन संभावित क्षेत्र को किसी भी प्रकार से रोकने का काम किया तो गया पर जब भूगर्भीय गतिविधियां बढ़ने लगीं तो वह उपाय भी बेअसर होने लगे। परिणामस्वरूप, शहर के कमजोर ढलान पर अब दबाव बढ़ने लगा और उसका असर भू धंसाव के रूप में आज दिख रहा है।

सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) हेलंग बाईपास के निर्माण के लिए बड़ी मशीनरी लगा रहा है, जिससे बद्रीनाथ मंदिर की यात्रा लगभग 30 किलोमीटर कम हो जाएगी।  विशेषज्ञों के अनुसार, टेक्टोनिक गतिविधियों के कारण यह, अनियंत्रित विकास आगे चलकर, और अधिक भूस्खलन का कारण बन सकता है।  मिश्र कमेटी ने अपनी 1976 की रिपोर्ट में जोशीमठ के आसपास के क्षेत्र में बड़ी इमारत के खिलाफ चेतावनी दी थी। 1976 के मिश्र कमेटी की रिपोर्ट ने जोशीमठ में डूबने का पहला मामला दर्ज किया गया था, जो भूस्खलन की चपेट में आने वाले क्षेत्र में स्थित है।  यह शहर एक पहाड़ी के मध्य ढलान पर स्थित है जो पश्चिम और पूर्व में कर्मनासा और ढकनाला धाराओं से और दक्षिण और उत्तर में धौलीगंगा और अलकनंदा नदियों से घिरा है। ढकनाला, कर्मनासा, पातालगंगा, बेलाकुची और गरुण गंगा ऐसी कुछ धाराएँ हैं, जिनकी शुरुआत मध्य हिमालय क्षेत्र में कुंवरी दर्रे के पास से होती है। जबकि अन्य अलकनंदा में जाकर मिल जाती हैं। धौलीगंगा की एक सहायक नदी भी है। भूस्खलन द्वारा उनके अवरोध के बाद, इन छोटी छोटी नदियों में, अचानक आई बाढ़ के कारण, ये धाराएँ पहले से ही,  विनाश फैलाने के लिए जानी जाती हैं। ताजे हालिया उपग्रह डेटा से पता चलता है कि, पर्वतीय धाराओं ने अपने मार्ग को बदल दिया है और अन्य छोटी छोटी शाखाओं में बढ़ने लगी है, जो पहले से ही कमजोर बेल्ट की ढलान अस्थिरता के कारण, भू धंसाव को और बढ़ा देती हैं। नदियों के प्रवाह मार्ग का यह महत्वपूर्ण परिवर्तन, वर्षा के प्रभाव का प्रमाण है।

जोशीमठ टेक्टोनिक गतिविधियों के कारण बेहद संवेदनशील है क्योंकि यह एक फॉल्ट लाइन पर है। वैकृत थ्रस्ट (वीटी) नामक एक भूगर्भीय फॉल्ट लाइन, जोशीमठ को लगभग छूती हुई गुजरती है।  इसके अतिरिक्त, मेन सेंट्रल थ्रस्ट (MCT) और पांडुकेश्वर थ्रस्ट (PT), दो प्रमुख भूवैज्ञानिक फॉल्ट लाइन, भी अपेक्षाकृत रूप से, शहर के पास से गुजरती हैं। जोशीमठ गांव को एमसीटी पर किसी भी टेक्टोनिक  गतिविधियों के प्रभाव क्षेत्र के भीतर, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा रखा गया है और इन भूगर्भीय गतिविधियों पर निरंतर भूगर्भ वैज्ञानिक शोध और सर्वे करते रहते हैं। क्योंकि यह सभी फॉल्ट लाइन, जोशीमठ शहर के दक्षिण में एक छोटे से शहर हेलंग के नीचे से गुजरती है, जो, गढ़वाल समूह की चट्टानों के साथ जुड़ा हुआ है।

शहर के डूबने का एक संभावित कारण, सतह से पानी का बढ़ता जमीनी रिसाव भी है। ऐसा विशेषज्ञों और यूएसडीएमए द्वारा पहले ही उजागर किया जा चुका था। लेकिन मानवजनित,  सतह-स्तर की गतिविधियों ने प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों को बाधित कर दिया, जिससे पानी के प्रवाह ने, वैकल्पिक जल निकासी मार्गों की तलाश कर नए रास्ते बना लिये। इसका भी असर भू क्षरण पर पड़ा और अब भी पड़ रहा है। इसके अलावा, जोशीमठ शहर में सीवेज या अपशिष्ट जल निपटान प्रणाली नहीं है। अनियंत्रित जल रिसाव, बेलगाम निर्माण के अत्यधिक बोझ से दबी, मिट्टी की भार वहन शक्ति को कमजोर कर देता है। जोशीमठ के सुनील गांव के आसपास के क्षेत्र में यह देखा गया है कि, जमीन धंसने के कारण पानी की रेखाएं और चौड़ी होकर एक या कई विवर बना रही हैं।

मुख्य रूप से जोशीमठ के बारे में कमेटी का मंतव्य यह था कि,  एक प्राचीन भूस्खलन से बने पहाड़ पर स्थित है, जिसका आधार, रेत और पत्थर का जमाव है, न कि किसी ठोस चट्टानी भूभाग पर। अलकनंदा नदी के किनारे और उससे लगे उठते हुए, पहाड़ी को पर शहर स्थित है। अलकनंदा और धौली गंगा नदियों के किनारे पर अक्सर भूस्खलन होता रहता है।”

वर्ष 1976 की मिश्रा समिति की रिपोर्ट ने साफ साफ  बताया था कि, “जोशीमठ रेत और पत्थर का एक जमाव है – यह शहर किसी बड़ी ठोस पहाड़ की चट्टानों पर नहीं टिका है, इसलिए यह, इलाका, एक टाउनशिप के लिए उपयुक्त स्थान नहीं है। ब्लास्टिंग, सड़कों पर, भारी ट्रैफिक आदि द्वारा उत्पादित कंपन के कारण, भूमि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और भूगर्भीय तरंगों से, धरती के खिसकने या धंसने का खतरा बढ़ जाता है। उचित जल निकासी सुविधाओं का अभाव भी भूस्खलन की गति को बढ़ाता है।

पानी को सोख लेने के लिए बने प्राकृतिक गड्ढे, जो पानी को धीरे-धीरे जमीन में उतरने का मार्ग देते हैं, वे,  मिट्टी और बोल्डर के बीच, बन जाने वाले भूगर्भीय गुहाओं का निर्माण करके खोखलापन बढ़ा देते हैं। इससे पानी का रिसाव और मिट्टी का क्षरण होने लगता है।”

कमेटी ने तब यह सुझाव भी दिया था कि,

० भारी निर्माण पर प्रतिबंध लगाया जाय।

० मिट्टी की भार-वहन क्षमता और साइट की स्थिरता की जांच करने के बाद ही निर्माण की अनुमति दी जानी चाहिए, और

० ढलानों की खुदाई पर प्रतिबंध भी लगाया जाना चाहिए।

 

लेखक भारतीय पुलिस सेवा के अवकाशप्राप्त अधिकारी हैं।