चुुनाव चर्चा: उत्तराखंड के पहाड़ के नीचे मोदी जी का चुनावी ऊँट!


उत्तराखंड हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने हाल में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के एक मामले में केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) एफआईआर दर्ज कर मुख्यमंत्री रावत के खिलाफ छानबीन करने के आदेश दे चुकी है। जिन आरोपों की सीबीआई जांच का आदेश उच्च न्यायालय ने दिया है वे त्रिवेंद्र रावत के मुख्यमंत्री बनने से पहले के हैं। उन पर ‘ ढैंचा बीज घोटाला ‘ में गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। भ्रष्टाचार के मामलों में जोर शोर करने वाली भाजपा ने इस बारे में चुप्पी साध रखी है। 


चन्‍द्रप्रकाश झा चन्‍द्रप्रकाश झा
काॅलम Published On :


इंडिया दैट इज भारत में आबादी के हिसाब से सबसे बड़े प्रांत, उत्तर प्रदेश का पेट चीर कर 9 नवम्बर 2000 को बनाए पृथक राज्य, उत्तराखंड की सेहत के रखवाले होने का दंभ भरने वाले बहुत है पर दरअसल है कोई भी नहीं। होते सही रखवाले तो इस राज्य के विधिक रूप से अस्तित्व में आने के बाद के इन 21 बरसों में कोई तो टिकता। 

कहते हैं उत्तराखण्ड में कोई भी नेता किसी भी दूसरे को अपना नेता नहीं मानता। इसकी साफ झलक उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान केंद्र में कांग्रेस की पीवी नरसिम्हा राव सरकार द्वारा आन्दोलनकारियों को वार्ता के लिए दिल्ली बुलाने पर दिख गई। प्रधानमंत्री से वार्ता के लिए 65 संगठनों के नेता पहुंच गये।

इस पहाड़ी राज्य की अवाम की नजर में उत्तराखण्ड में पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी से लेकर बिल्कुल टटका-टटकी 11वे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी तक सब के सब ‘कामचलाऊ’ ही हुए हैं या साबित होने वाले हैं। क्यों और कैसे? ये हम अवामी न्यूज पोर्टल, मीडिया विजिल के इस हफ्तेवार अलहदा कॉलम, चुनाव चर्चा में कुछ तो आज के अंक में और शेष फिर बाद में इस राज्य में आगामी चुनाव तक चर्चा करेंगे.

 

विधान सभा का 2017 का पिछला चुनाव 

उत्तराखण्ड में 2017 में निर्वाचित मौजूदा विधानसभा के पांच बरस के कार्यकाल में एक ही पार्टी, भाजपा के तीन मुख्यमंत्री की तीन सरकार बन चुकी है।पिछले चुनाव में भाजपा को मिले प्रचंड बहुमत के बावजूद मुखयमंत्री की कुर्सी पर ‘ अब तक छप्पन ‘की स्टाइल में तीन शासक काबिज हो चुके हैं।इसकी कोई गारंटी नहीं है कि विधान सभा के अगले बरस फरवरी–मार्च में निर्धारित अगले चुनाव तक ‘ ए बी सी से लेकर एक्स वाय जेड ‘  नाम का कोई और चौथा नेता काबिज न हो जाए।

 

शपथ 

धामी जी को शनिवार तीन जुलाई को देहरादून में मोदी सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की अध्यक्षता में देहरादून में हुई बैठक में भाजपा के उत्तराखंड विधायक दल का ‘ सर्वसम्मति ‘ से नेता चुने जाने की घोषणा की गई। इसके बाद उन्होंने कुछ विधायकों के साथ उत्तराखंड राजभवन जाकर राज्यपाल बेबी रानी मौर्य से भेंट कर नई सरकार बनाने का औपचारिक दावा पेश किया. इसके बाद राज्यपाल ने उन्हे प्रदेश के 11वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ दिला दी.

भाजपा विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद धामी जी ने कहा: मेरी पार्टी ने मुझ जैसे सामान्य कार्यकर्ता को सेवा का अवसर दिया है.हम जनता के मुद्दों पर सबका साथ लेकर काम करेंगे. अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों के काम आगे बढाएंगे. उन्होंने मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के प्रति भी आभार व्यक्त किया। नया मुख्यमंत्री बनने की होड में निवर्तमान रावत सरकार में उच्च शिक्षा राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डा धन सिंह रावत और कांग्रेस से भाजपा में आए सतपाल महाराज भी शामिल थे।

पुष्कर सिंह धामी उत्तराखंड के दो भौगोलिक क्षेत्रों, गढ़वाल और कुमाऊँ में विभाजित में से कुमाऊँ की खटीमा विधानसभा सीट से दो बार, 2012 और 2017 में जीते हैं. उनका जन्म पिथौरागढ़ के टुंडी गांव में हुआ था.वह कॉलेज की पढ़ाई के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के उद्घोषित आनुषांगिक संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) में 1990 से 1999 तक रहे।  

गौरतलब है कि एबीवीपी के संविधान में लिखा है कि उसके सदस्य सियासत में भाग नहीं लेंगे। लेकिन उसका शायद ही कोई सदस्य इस बंदिश का पालन करता है। मोदी सरकार के अहम कैबिनेट मंत्री रहे दिवंगत अरुण जेटली भी दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान इंडिया टीवी के मालिक रजत शर्मा के संग एबीवीपी के सदस्य रहे थे।

धामी जी 2002 से 2006 तक भाजपा युवा मोर्चा (भाजयुमो) के उत्तराखंड प्रदेश अध्यक्ष और फिर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष भी रहे हैं. धामी जी निवर्तमान मुख्यमंत्री रावत तथा पूर्व मुख्यमंत्री और अभी महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी के अलावा रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के भी करीबी रहे हैं। वह उत्तराखंड में कोश्यारी के मुख्यमंत्री काल में उनके बाकायदा सलाहकार रहे थे। 

 

एक अनार सौ बीमार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी(भाजपा ) के भुवनचन्द्र खण्डूड़ी दो बार मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस के  हरीश रावत ने इस पद की शपथ तो एक ही बार ली लेकिन दो बार ‘आये-गये’ हुये। 

पृथक राज्य के बतौर उत्तराखंड, झारखंड और छतीसगढ़ का गठन केंद्र में भाजपा की ही अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में किया गया था। छत्तीसगढ़ में इन 21 बरस में तीन ही मुख्यमंत्री ने बागडोर संभाली है। कांग्रेस की इंदिरा गांधी सरकार के समय 1971 से कायम पड़ोसी राज्य, हिमाचल प्रदेश में पिछले 50 बरस में छह मुख्यमंत्री हुए। इनमें यशवन्तसिंह परमार, ठाकुर राम लाल, शान्ता कुमार, प्रेम कुमार धूमल दो-दो बार और वीरभद्र सिंह रिकॉर्ड 5 बार मुख्यमंत्री रहे। फिलहाल  जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री हैं। 

उत्तराखंड की अवाम को हैरानी है कि चालू वित्त वर्ष के लिए राज्य सरकार के बजट की रूपरेखा त्रिवेन्द्र सिंह रावत की सरकार ने तैयार की थी।मगर इसे खर्च करने का मौका दूसरे रावत, तीरथ रावत की बनाई सरकार को मिला। ये वित्त वर्ष खत्म होने के पहले ही  ‘आवत-जावत-रावत’ की कुर्सी के खेल में अचानक मुख्यमंत्री बन गए पुश्कर धामी की सरकार को भी मौका मिल ही गया। 

 

नित्यानन्द स्वामी

उत्तराखण्ड की सियासत में अस्थिरता उसी दिन शुरू हो गई थी जब उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सभापति रहे  नित्यानन्द स्वामी ने पहली नवम्बर 2000 के प्रथम प्रहार में नये राज्य में शासन की बागडोर संभालने के बाद 10 नवम्बर 2000 को अपने मंत्रिमण्डल का गठन किया। तब भगत सिंह कोश्यारी, नारायण रामदास और रमेश पोखरियाल निशंक जैसे नेताओं ने शपथग्रहण का वहिष्कार कर दिया था। इन तीनों के लिये अलग से 11 नवम्बर को दूसरी बार शपथ ग्रहण समारोह आयोजित करना पड़ा। टिहरी के विधायक लाखीराम जोशी भी मंत्री की कुर्सी नहीं मिलने से खुल कर बागी हो गए। उनकी और अन्य नेताओं की बगावत स्वामी जी को अपदस्थ करने के बाद ही खतम हुई। स्वामी जी ने 29 अक्टूबर 2001 को विधानसभा में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की घोषणा में कुछ कड़वी बातें भी कह दी।उन्होंने राज्य में उनकी अगुवाई में बनी पहली सरकार को गिराने के लिए शराब माफिया की शह पर अपनी ही पार्टी के आला नेताओं को इंगित कर दिया। वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर 354 दिन ही टिक सके। 


नारायण दत्त तिवारी

राज्य में कांग्रेस के कद्दावर नेता नारायण दत्त तिवारी को छोड़ कोई भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पांच बरस नहीं टिक सका है। उत्तर प्रदेश के कई बार मुख्यमंत्री रहे और कांग्रेस से भाजपा में चले जाने के बाद अब दिवंगत हो चुके तिवारी जी की भी सरकार जैसे-तैसे ही इस नए राज्य में पांच बरस टिक सकी थी। वह इस पहाड़ी राज्य की अपनी पहली विधानसभा के चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बने थे। तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हरीश रावत ने तिवारी सरकार को चैन से शासन करने नहीं दिया। हरीश रावत की शिकायत थी कांग्रेस ने चुनाव तो उनके नेतृत्व में जीता पर पार्टी आलाकमान ने शासन करने तिवारी जी को भेज दिया। 


भगत सिंह कोश्यारी

भाजपा ने 2007 का विधान सभा चुनाव  भगत सिंह कोश्यारी के नेतृत्व में जीता। पर पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने नवनिर्वाचित 34 विधायकों की बैठक में उनके समर्थन में उभरे स्पष्ट बहुमत को दरकिनार कर पौड़ी-गढ़वाल के लोकसभा सदस्य एवं तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री भुवन चन्द्र खण्डूरी को विधायक दल का नेता घोषित करवा दिया। कहते हैं, उस बैठक में 22 विधायक कोश्यारी जी के पक्ष में, 7 रमेश पोखरियाल निशंक के समर्थन में और सिर्फ 4 विधायक खण्डूरी के साथ थे।  भाजपा विधायको में भारी असंतोष के कारण खण्डूरी जी को 26 जून 2009 को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ गई। अगले ही दिन 27 जून को निशंक जी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो गए। लेकिन निशंक जी को भी खण्डूरी गुट और कोश्यारी गुट की बगावत के कारण  2 साल 75 दिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजे रहने के बाद यह पद छोड़ना पड़ गया। खण्डूरी जी 11 सितम्बर 2011 को फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ गए। 

 

विजय बहुगुणा

उत्तराखंड विधान सभा के 2012 के चुनाव में कांग्रेस की जीत होने पर मुख्यमंत्री की कुर्सी हरीश रावत के बजाय विजय बहुगुणा को मिल गई। वह बॉम्बे हाई कोर्ट के न्यायाधीश रहे हैं और उत्तर प्रदेश के दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के पुत्र हैं। हरीश रावत ने 690 दिन बाद ही उनसे मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन ली। 

कांग्रेस के इन ‘आदि रावत‘ जी को 31 जनवरी 2014 को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई। पर विजय बहुगुणा गुट  के 9 विधायकों ने 18 मार्च 2016 को विधान सभा में हरीश रावत सरकार का बजट पारित कराने में विघ्न डाल दिया। भारत के संसदीय इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। 

 

2017 का चुनाव

कुल 70 सीटों की विधान सभा के 2017 में हुये पिछले चुनाव में भाजपा ने 57 पर जीत दर्ज कर बहुमत हासिल किया फिर भी भाजपा उत्तराखंड को स्थिर सरकार नहीं दे सकी। पहले तो त्रिवेन्द्र रावत जी मुख्यमंत्री बने। लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने की चौथी वर्षगांठ मनाने के ऐन पहले उनसे कुर्सी छिन गई। भाजपा ने उनकी जगह 10 मार्च 2021 को गढ़वाल से लोक सभा सदस्य तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया। 

लेकिन, उफ ये लेकिन ! मोदी सरकार और उनकी भाजपा को खुद पैदा किये ‘ संवैधानिक संकट ‘ से बचने की जुगत में तीरथ सिंह रावत से मुख्यमंत्री की कुर्सी सौ दिन बीतते- बीतते छीन लेनी पड़ी। इन रावत जी को 2 जुलाइ 2021 को रात में देहरादून में उत्तराखंड राजभवन जाकर राज्यपाल को अपनी सरकार का इस्तीफा देना पड़ गया। 

उन्होंने इस्तीफा देने से पहले दिल्ली जाकर बुधवार 30 जून को केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा समेत पार्टी के आला नेताओं से मंत्रणा की। 

 

संवैधानिक संकट या कुछ और 

संकट इसलिए आया कि वह निर्धारित अवधि में विधायक बनने में नाकाम रहे।भारत के मौजूदा संविधान के अनुच्छेद 164 (4) और जन प्रतिनिधित्व अधिनियम (1951)  की धारा 151 ए के प्रावधानों के तहत किसी के लिए भी मुख्यमंत्री या मंत्री पद पर आसीन होने के छह माह के भीतर विधायक निर्वाचित होना अनिवार्य है। 

निर्वाचन आयोग ने विधान सभा की रिक्त किसी भी सीट पर उपचुनाव कराने का कदम नहीं उठाया। क्योंकि नियम ही ऐसा है जब विधानसभा चुनाव बरस भर के भीतर होने हैं तो उसकी रिक्त सीट पर उपचुनाव नहीं कराये जा सकते हैं। आयोग ने स्पष्ट कर दिया कि उत्तर प्रदेश की सात और उत्तराखंड की दो रिक्त विधान सभा सीट पर उपचुनाव नहीं काराये जाएंगे । 

यह भी गौरतलब है तीरथ सिंह रावत मुख्यमंत्री रहते गंगोत्री की रिक्त विधान सभा सीट पर उपचुनाव नही लड़ना चाहते थे। वे गढ़वाल लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र की ही किसी विधान सभा सीट से चुनाव लड़ने के इच्छुक थे।पर इसके लिए कोई मौजूदा विधायक अपनी सीट खाली करने राजी ही नहीं हुआ। 

 

रावत जी के जावत जी बन जाने पर 

कहा जाता है तीरथ सिंह रावत जी के जावत जी बन जाने की खुशी में उस रात देहरादून की डिफेंस कालोनी में पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत की कोठी में पटाखे छोड़े गए।

 

महामारी – रोजगार  

कोरोना कोविड 19 महामारी की दूसरी लहर के बाद उत्तराखंड में व्यापार-व्यवसाय ठप है। उत्तराखंड हाई कोर्ट ने महामारी से निपटने में राज्य सरकार के‘ कुप्रबंधन ‘ को जिम्मेवार ठहराते हुए ‘ चार धाम यात्रा’  पर रोक लगा दी है। इस यात्रा से असंख्य लोगों को रोजगार के अवसर मिलते रहे हैं। महामारी के चलते लगातार दो बरस से यह यात्रा बाधित है। इससे रोजी-रोटी का संकट  है। 

 

सीबीआई जांच

तीरथ सिंह रावत ने बतौर मुख्यमंत्री नर्सिंग भर्ती की तारीखों में बार-बार बदलाव किये।आरोप है कि इन बदलाव के पीछे का कारण धन का लेनदेन था। उन्होंने कई मसलों पर बेतुके बयान दिए। उन पर ‘ कुंभ टेस्टिंग घोटाले ‘ में लिप्त होने का भी आरोप है। 

उत्तराखंड हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने हाल में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के एक मामले में केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) एफआईआर दर्ज कर मुख्यमंत्री रावत के खिलाफ छानबीन करने के आदेश दे चुकी है। जिन आरोपों की सीबीआई जांच का आदेश उच्च न्यायालय ने दिया है वे त्रिवेंद्र रावत के मुख्यमंत्री बनने से पहले के हैं। उन पर ‘ ढैंचा बीज घोटाला ‘ में गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। भ्रष्टाचार के मामलों में जोर शोर करने वाली भाजपा ने इस बारे में चुप्पी साध रखी है। 

बाहरहाल , यह साफ है कि तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद से संवैधानिक संकट के कारण हटाने की मोदी सरकार , भाजपा और हड़बड़ हड़बड़ मीडिया का दावा सत्य नहीं हैं। उन्हें उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की शुरू जांच से डर कर मुख्यमंत्री पद से हटाया गया है। 

सीबीआई फिलहाल प्रधानमंत्री मोदी का पिंजरे में बंद तोता नहीं है। क्योंकि उसके नए निदेशक की हालिया नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री मोदी, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एन वी रमन्ना और लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी की हाई पावर्ड कमेटी की बैठक में मोदी जी की मंशा धरी की धरी रह गई । नए निदेशक के रूप में महाराष्ट्र के अरबों रुपये के तेलगी रेवेन्यू स्टाम्प घोटाला की सफलतापूर्वक जांच करने वाले अति वरिष्ठ आईपीएस अफसर सुबोध कुमार जायसवाल की ही नियमों के तहत नियुक्ति करने के जस्टिस रमन्ना के आग्रह पर मोदी जी को हामी भरनी पड़ी। अब उत्तराखंड चुनाव कब होते हैं और उसमें क्या होता है और क्या नहीं हो सकेगा ये हम चुनाव चर्चा के अगले अंकों में देखेंगे। इतना तो तय है कि मोदी जी का चुनावी ऊंट अब पहाड़ के नीचे आ गया है। कोई शक ? 

 

*मीडिया हल्कों में सीपी के नाम से मशहूर चंद्र प्रकाश झा 40 बरस से पत्रकारिता में हैं और 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण के साथ-साथ महत्वपूर्ण तस्वीरें भी जनता के सामने लाने का अनुभव रखते हैं।