ज्ञानवापी मस्जिद में मिले तथाकथित लिंग के विषय में दिल्ली विश्विवद्यालय में इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफेसर रतनलाल, जो कि दलित अधिकार कार्यकर्ता भी हैं, ने अपने फेसबुक वाॅल पर एक पोस्ट लिखा। पोस्ट किसी अदद हिंदू की धार्मिक भावनाओं को आहत कर गया। आहत हिंदू ने पुलिस में प्रोफेसर रतनलाल के खिलाफ एफआईआर कर दी, और पुलिस ने पहले प्रोफेसर रतनलाल को पूछताछ के लिए थाना मौरिस नगर बुलाया और फिर उन्हे गिरफ्तार कर लिया।
प्रोफेसर रतन लाल के थाना मौरिस नगर पहुंचने की खबर सुनते ही, दिल्ली विश्वविद्यालय के एक वामपंथी छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन के छात्रों ने थाना मौरिस नगर पर जमा होना, नारे लगाना और प्रदर्शन करना शुरु कर दिया। धीरे-धीरे इस प्रदर्शन में अन्य छात्र संगठन, बहुजन एक्टिविस्ट, डीयू के अध्यापक, और अन्य बुद्धिजीवी भी मौरिस नगर थाना स्थित साइबर सेल में पहुंच गए और प्रदर्शन जो शुरु में बहुत हल्का दिख रहा था, वो बड़ा होता गया। देखते ही देखते, ट्विटर पर ये मामला ट्रेंड करने लगा। रात भर में पूरे देश में प्रोफेसर रतनलाल की रिहाई की मांग को लेकर एक सैलाब सा आ गया।
ध्यान से देखा जाए तो प्रोफेसर रतनलाल की टिप्पणी दरअसल शिवलिंग की बाबत थी ही नहीं, बल्कि वो तो उस तथाकथित पत्थर के टुकड़े को शिवलिंग बताने वालों पर तंज था। लेकिन भावनाओं के आहत होने की कोई सीमा नहीं होती, और जैसा कि आज के दौर की परंपरा है, प्रोफेसर रतनलाल को गिरफ्तार कर लिया गया। ग़ौरतलब ये भी है कई लोग ये कहते भी मिले कि हालांकि टिप्पणी ऐसी नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन फिर भी अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर प्रोफेसर रतनलाल को गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए था। व्यंग्य और अभद्रता में फर्क ना समझने वालों को एक बार फिर से उस तस्वीर को देखना चाहिए जिसके बारे में प्रोफेसर रतनलाल ने टिप्पणी की थी। फिर अगर हो सके तो उस टिप्पणी को पढ़ना चाहिए और फिर अपने सवर्णवादी खोल से बाहर निकल कर ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए कि क्या ये टिप्पणी अभद्र है, अश्लील है, या महज़ व्यंग्य उन लोगों के जे़हन और सोच पर, जो किसी भी तरह बस विवाद को तूल देना चाहते हैं।
खैर दिल्ली के मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट सिद्धार्थ शुक्ला की अदालत में जब सुबह प्रोफसर रतन लाल की पेशी हुई तो उन्हे जमानत मिल गई। जमानत देते हुए मजिस्ट्रेट सिद्धार्थ शुक्ला ने कुछ बहुत दिलचस्प टिप्पणियां की, जैसे उन्हेाने अपने आदेश में कहा कि, “भारत 130 करोड़ लोगों को देश है कि और किसी विषय पर 130 करोड़ नज़रिए और धारणाएं हो सकती हैं। किसी एक व्यक्ति द्वारा भावनाओं को आहत महसूस करना, पूरे समूह या समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं माना जा सकता है, बल्कि आहत भावनाओं संबंधित ऐसी शिकायतों को तथ्यों/परिस्थितियों के सम्पूर्ण आलोक में देखा जाना चाहिए।”
मजिस्ट्रेट श्री सिद्धार्थ शुक्ला ने अपने आदेश में ये भी लिखा कि, “अधोहस्ताक्षरी निजी जीवन में हिंदू धर्म का गर्वशाली अनुयायी है और इस पोस्ट को अरुचिकर और एक विवादास्पद विषय पर बेकार की टिप्पणी कहेगा। किसी दूसरे इन्सान के लिए यही पोस्ट शर्मनाक हो सकती है, लेकिन दूसरे समुदाय के प्रति घृणा की भावनाएं भड़काने वाली ना हों। इसी तरह अलग-अलग लोग, पोस्ट को, बिना आहत हुए, अलग-अलग तरीके से देख सकते हैं, और इस बात के लिए अफसोस भी कर सकते हैं कि बिना दुष्परिणामों को समझे हुए आरोपी ने एक ग़ैरज़रूरी टिप्पणी कर दी।”
प्रोफेसर रतनलाल को जमानत देते हुए मजिस्ट्रेट ने कहा कि, ”पोस्ट दोषपूर्ण भले ही हो, लेकिन विभिन्न समुदायों के बीच घृणा फैलाने का काम नहीं करती।”
प्रोफेसर रतनलाल को पचास हज़ार रुपये की जमानत पर छोड़ा गया है।
अदालत की इस कार्यवाही को सोशल मीडिया पर जीत, लोकतंत्र की जीत, बहुजन की जीत आदि कह कर इसकी प्रषंसा की जा रही है। लेकिन अब गौर से देखने के लिए अदालत का फैसला है। अदालत ने सही कहा कि देश के 130 करोड़ लोगों की विभिन्न मामलों में अलग राय हो सकती है, और किसी एक व्यक्ति की भावनाएं आहत होने को समुदाय की भावनाएं आहत होने का मामला नहीं माना जा सकता। लेकिन इसी के साथ ये भी कह दिया कि, “आहत भावनाओं संबंधित ऐसी षिकायतों को तथ्यों/परिस्थितियों के सम्पूर्ण आलोक में देखा जाना चाहिए।” और इस तरह आइंदा भी इस तरह की शिकायतों के लिए रास्ता छोड़ दिया।
अदालत ने कहा कि, ”आरोपी ने दुष्परिणामों को समझे बिना एक ग़ैरज़रूरी टिप्पणी कर दी” यहां अदालत ने तो स्पष्ट नहीं किया कि दुष्परिणाम क्या थे, लेकिन हम देख ही रहें हैं कि एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी के दुष्परिणामों से अदालत का तात्पर्य क्या है और क्या हो सकता है। प्रोफेसर रतनलाल को मिलने वाली धमकियों के संदर्भ में अदालत ने कोई टिप्पणी नहीं की, और ना ही पुलिस को इस बारे में कोई निर्देश दिए। साफ है कि मौजूदा सत्ता में इस तरह के दुष्परिणामों के लिए तैयार रहें।
अदालत ने अपने आदेश में साफ कहा कि, ”पोस्ट दोषपूर्ण भले ही हो, लेकिन विभिन्न समुदायों के बीच घृणा फैलाने का काम नहीं करती।” इसके बावजूद एफ आई आर को खारिज करके प्रोफेसर रतनलाल को रिहा नहीं किया गया बल्कि उन्हे पचास हजार रुपये की ज़मानत पर छोड़ा गया। यदि अदालत ये मानती कि इस मामले को चलना चाहिए, क्योंकि दोष साबित होता है, तो प्रोफेसर रतनलाल की जमानत का औचित्य समझ में आता, लेकिन एक तरफ जिस धारा में मामला दर्ज हुआ, उसे खारिज करना और दूसरी तरफ उस धारा में गिरफ्तार व्यक्ति को छोड़ने की जगह उसे जमानत देना, समझ में नहीं आता है।
खै़र छात्र संगठनों, प्रोफेसरों, बुद्धिजीवियों और तरक्कीपसंदों की इस मामूली ही सही, पर जीत को मंदा करने की हमारी कोई मंशा नहीं है। प्रोफेसर रतनलाल को बधाई कि कम से कम जेल जाने से बच गए, वरना यहां तो इसी बात पर बहस हो रही है कि कोई अपने भाषण में क्रांतिकारी इस्तकबाल या इंकलाबी सलाम क्यों कहता है। देखें प्रोफेसर रतनलाल को इस कतई मामूली, तंजभरी पोस्ट की कीमत कितनी देर तक चुकानी पड़ेगी।