त्रेता के तीरों से लहूलुहान होता गणतंत्र!

डॉ. पंकज श्रीवास्तव डॉ. पंकज श्रीवास्तव
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कभी 26 जनवरी आने के कुछ दिन पहले से ही बाज़ार और मुहल्ले तिरंगी रंगत में डूबने लगते थे। चौराहों पर देशभक्ति के तमाम गीत बजने लगते थे जिनमें कभी कहा जाता था, “हम लाये हैं तूफ़ान से कश्ती निकालकर, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के”, कभी ये कि “इंसाफ़ की डगर पे बच्चों दिखाओ चल के, ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के” तो कभी “न हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद तू इंसान बनेगा…!”…..इन गीतों में एक ऐसा भारत बनाने का सपना दर्ज था जो इंसानियत और इंसाफ़ पर आधारित हो।
मगर 2024 के गणतंत्र दिवस के स्वागत का रंग बिल्कुल जुदा नज़र आया। अयोध्या में 22 जनवरी को राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के स्वागत में हर जगह भगवा झंडा लहराने के संगठित अभियान ने जैसे तिरंगे के लिए जगह ही नहीं छोड़ी। कुछ साल पहले की तरह न बाज़ारों और सड़कों पर तिरंगी झंडियो की झालरें नज़र आयीं और न घरों पर तिरंगे झंडे। ऐसा लगा मानो सिर्फ सरकारी इमारतें ही 26 जनवरी की औपचारिकताओं से बँधी हैं। यूँ तो तिरंगे में तीन रंग हैं लेकिन ये ऐसा गणतंत्र दिवस रहा जिसमें धूम सिर्फ एक यानी भगवा रंग की रही, हरा और सफ़ेद को जैसे पराया मानकर दरकिनार कर दिया गया।
ज़ाहिर है, ये एक बड़े सांस्कृतिक-राजनीतिक अभियान के चरम पर पहुँचने का संकेत है जिसने ताकत तो अयोध्या के राममंदिर निर्माण के अभियान से हासिल की लेकिन निशाने पर भारत का सेक्युलर गणतंत्र है। याद कीजिए आरएसएस ने तिरंगा को राष्ट्रध्वज बनने पर इसे अशुभ बताया था और लंबे समय तक नागपुर मुख्यालय पर इसे फहराने से इंकार किया था। इस अभियान के साथ नत्थी कथित मुख्यधारा मीडिया की शब्दावली और दृश्यचयन ने आबादी के एक बड़े हिस्से के दिलोदिमाग पर एक ऐसे अतीत के प्रति लालसा पैदा की है जो टीवी के पर्दे पर तो बेहद चमकदार नज़र आता है लेकिन हक़ीक़त में इससे जुड़े मूल्यों के ख़िलाफ़ लंबे संघर्ष ने ही भारत को आधुनिक गणतंत्र बनाया है।
अयोध्या में राममंदिर को लेकर आरएसएस-बीजेपी ने कॉरपोरेट मीडिया के सक्रिय समर्थन से जो तूफ़ान खड़ा किया है उसमें ‘जय हिंद’ को ‘जय श्रीराम’ से प्रतिस्थापित करने इच्छा साफ़ नज़र आती है। भारतीय संविधान ने राम और रहीम में भेद न करने की सीख दी है। लेकिन इस अभियान में राम को भारतीय होने की ‘शर्त’ की तरह पेश किया जा रहा है जो। यह संविधान के साथ-साथ भारत की दार्शनिक और आध्यात्मिक परंपरा के भी ख़िलाफ़ है। मीडिया के एंकर-रिपोर्टर जिस तरह ‘त्रेतायुग’ में वापसी की रट लगा रहे हैं, वह भी कम ख़तरनाक नहीं है। वे भूल गये हैं कि त्रेतायुग की मर्यादाएँ और बंधन से नत्थी होने के मतलब अपनी आज़ादी को खो देना है।
अयोध्या में राममंदिर बनने की ख़ुशी मनाना श्रद्धालुओं का हक़ है। लेकिन जिस तरह से तमाम विपक्षी दलों को इसके बहाने हिंदूविरोधी ठहराने की कोशिश की गयी है, वह इसके राजनीतिक लक्ष्यों का पर्दाफ़ाश करने के लिए काफ़ी है। हद तो ये है कि धार्मिक आधार पर 22 जनवरी को प्राणप्रतिष्ठा का विरोध करने वाले शंकराचार्यों के ख़िलाफ़ भी व्यापक रूप से निंदा अभियान चलाया गया। सवाल उठता है कि क्या राममंदिर जाना धार्मिक होने की एकमात्र कसौटी हो सकती है? और क्या भारतीय होने के लिए धार्मिक होना अनिवार्य है?
भारत में धार्मिक दृष्टि से तमाम धाराएँ हैं जो दशरथनंदन राम पर आस्था नहीं जतातीं। राम को विष्णु का अवतार माना गया है पर भारत में सौर, शाक्त, गाणपत्य और शैव मतों के भी मठ और गढ़ हैं। आरएसएस की कोशिश इन सब धाराओं को सरयू में विलीन करने की है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए आर्य समाज जैसी धाराएँ भी हैं जो किसी अवतार पर विश्वास नहीं करतीं और मूर्तिपूजा की घोर विरोधी रही है। स्वतंत्रता आंदोलन में विशिष्ट भूमिका निभाने वाले आर्यसमाज को क्या मूर्तिपूजा विरोध के लिए हिंदू धर्म से बाहर समझा जायेगा? यही नहीं, हिंदुओं के षडदर्शनों में एक ‘सांख्य दर्शन’ भी ईश्वर की अवधारणा पर विश्वास नहीं करता। लोकायत तो घोषित नास्तिक दर्शन है और जैन तथा बौद्ध भी निरीश्वरवादी दर्शन हैं जिन्हें आरएसएसस में ‘हिंदू धर्म का अंग’ बताने की भारी अकुलाहट नज़र आती है। गुरुनानक, कबीर, रैदास समेत तमाम मध्यकालीन संतकवियों के लिए राम अयोध्या में नहीं बल्कि सकल ब्रह्माँड में बसते हैं। आख़िर इनके प्रति क्या रुख होना चाहिए?
यही नहीं, एक धारा उनकी भी है जो राम के ‘विरोधी’ हैं लेकिन उनके बिना भारत की परिकल्पना नहीं हो सकती।“मैं नास्तिक क्यों हूँ” जैसा लेख लिखने वाले शहीदे आज़म भगत सिंह के लिए इस “राममय” समय में आख़िर क्या जगह होगी? क्या उनकी मूर्तियाँ हटायी जायेंगी? और डॉ.आंबेडकर के बारे में मोदी जी का क्या ख़्याल है जिन्होंने अपनी प्रसिद्ध 22 प्रतिज्ञाओं की दूसरी प्रतिज्ञा में ही राम और कृष्ण को ईश्वर न मानने और पूजा न करने को कहा है। क्या मोदी जी को सिर्फ भगत सिंह और डॉ.आंबेडकर की मूर्तियों पर माला चढ़ाने से मतलब है, उनके विचारों से नहीं? फिर तमिलनाडु के द्रविड़ आंदोलन से जुड़ी जनता और राजनीतिक दलों के लिए क्या जगह होगी? राम के बारे में पेरियार के विचार किसी से छिपे नहीं हैं! भारतीय संविधान के प्रस्तावना में ही विचार, अभिव्यक्ति, धर्म, विश्वास, उपासना की स्वतंत्रता दर्ज है। किसी को पूजने की शर्त क्या इस प्रस्तावना को उलटना नहीं होगा?
महात्मा गाँधी जब रामराज्य की बात करते थे तो किसी ऐतिहासिक युग में लौटने का आह्वान नहीं करते थे। उनके लिए राम इतिहास थे भी नहीं। वे एक ऐसे राज की कल्पना करते थे जिसमें किसी के साथ नाइंसाफ़ी न हो। लेकिन जब स्थूल रूप से राम की मूर्ति दिखाकर त्रेतायुग लौटने का दावा टीवी ऐंकर करते हैं तो फिर सवाल उठता है कि आख़िर त्रेतायुग और राजा राम किस सामाजिक मर्यादा से बँधे हैं। त्रेतायुगीन राम का राज्य एक राजतंत्र था। राम शूद्रों को जप-तप का अधिकार न देने की त्रेतायुगीन मर्यादा से इस कदर बँधे हैं कि इसे भंग करने वाले शंबूक का गला अपने हाथ से काट देते हैं। सीता की शुचिता पर संदेह होने की वजह से गर्भवती होने के बावजूद उन्हें जंगल में निष्कासित कर देते हैं। वर्णव्यवस्था आधारित ऊँच-नीच की व्यवस्था को बनाये रखने पर इस कदर आमादा हैं कि स्वयं कहते हैं- “पूजइं विप्र सकल गुन हीना, सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना!”
साफ़तौर पर त्रेतायुगीन रामराज्य और कलयुग के भारतीय गणतंत्र एक दूसरे के निषेध पर आधारित हैं। अयोध्या में राममंदिर के बहाने बीते कुछ दिनों से जिस तरह से त्रेतायुगीन मूल्य और मर्यादाओं को सम्मानित किया जा रहा है, वह गणतंत्र के लिए तो ख़तरनाक हैं। चित्रकूट के तुलसीपीठ के रामभद्राचार्य जैसे लोग टीवी पर खुलेआम शूद्र जाति के प्रति अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं और बाबा बागेश्वर ब्राह्मण होने का गुन गाते हैं। यह कथित हिंदू पुनर्जागरण दरअसल मनुवाद की पुनर्प्रतिष्ठा है। देश के करोड़ों आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों और स्त्रियों के लिए भी ख़तरे की घंटी हैं जिन्हें इतिहास में पहली बार मुक्ति के दस्तावज़े के रूप में डॉ.आंबेडकर का लिखा संविधान हासिल हुआ है।
भारतीय गणतंत्र को त्रेता के तीरों से बींधे जाने की इजाज़त देना, देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए ख़तरे की घंटी है।

पुनश्च: वैसे राम को आराध्य मानने की शर्त तो ‘रामराज्य’ में भी नहीं थी। किंवदंती है कि ब्राह्मणों के एक हिस्से ने रावण-वध को ब्रह्महत्या बताकर राम का विरोध किया और अयोध्या छोड़ सरयू के पार चले गये। वही सरयूपारीण ब्राह्मण कहलाते हैं।

(लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।  सत्य हिंदी में छप चुका है ये लेख)

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