योगी-राज में ठेले पर जाती हरिश्चंद्र की लाश !

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कोरोना के संकट में जो चंद सरकारें काफी सक्रिय दिख रही हैं, उसमें एक नाम उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का भी है। आये दिन बड़े पैमाने पर योजनाएँ, तस्वीरें, हिदायतें जारी हो रही हैं, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तस्वीर के साथ। डाक्टर और नर्स भले दस्ताने और मास्क की कमी की शिकायत कर रहे हों, पुलिस कोरोना से युद्ध में पूरी तरह डंडा लेकर सक्रिय है। कुल मिलाकर शासन-प्रशासन की चुस्ती का ऐलान चहुँओर है।

लेकिन हक़ीक़त?

हक़ीक़त जानने के लिए बुंदेलखंड कगे हमीरपुर ज़िले के राठ का यह क़िस्सा सुन लीजिए। मुगलावपुरा निवासी हरिश्चंद्र (46) को सांस की बीमारी थी। मज़दूरी करते थे। ज़ाहिर है, इलाज कराने की सीमा थी। शनिवार दोपहर उनकी सांस उखड़ने लगी तो परिजन अस्पताल ले गये। कोई साधन नहीं मिला तो एक ठेले पर लिटाकर ले गये। वहां डाक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।

 

 

यही वह क्षण था जब हरिश्चंद्र के लिए किसी भी शासन को संवेदनशील होना चाहिए था। मतलब एक अदद एम्बुलेंस की व्यवस्था जिस पर उनका शव, घर तक वापस पहुँच पाता। लेकिन रामराज में तो एंबुलेंस थी नहीं तो योगीराज में उम्मीद क्यों करें। लिहाज़ा कुछ न मिला। परिजन हरिश्चंद्र के शव को उसी ठेले पर लिटाकर वापस घर ले आये।

पांच बेटियों और एक बेटी के पिता हरिश्चंद्र ने बतौर मज़दूर अपने इलाके को सु्ंदर बनाने के लिए न जाने कितना श्रम किया होगा। जो भी विकास हुआ है, उसमें गिलहरी भर योगदान तो उनका माना ही जाना चाहिए। लेकिन शव को भी सम्मान न देने वाली सरकार के लिए क्या कहा जाये। शायद मज़दूरों की क़ीमत उसकी नज़र में कीड़े-मकोड़े जैसी है। या उतनी भी नहीं!

हमीरपुर से ऐसी ही एक और ख़बर है। इस बार मामला शहर का था। एक दलित परिवार की लड़की ने किसी वजह से आत्महत्या कर ली। पुलिस ने पोस्टमार्टम कराने के बाद शव परिजनों को सौंप दिया। आगे ? आगे की कोई ज़िम्मेदारी नहीं। पुलिस और अस्पताल प्रशासन ने हाथ खड़े कर दिये। न एंबुलेंस न कोई शव वाहन। आख़िरकार यहां ठेला ही काम आया। ठेले पर लड़की की लाश लेकर परिजन शहर की सड़कों से ग़ुज़रते रहे। किसी ने ध्यान नहीं दिया , वरना इस ठेले पर सरकार की लाश भी नज़र आती।

ये घटनाएं तो बस बानगी हैं। हक़ीक़त ये है कि कोरोना काल में किसी और बीमारी से कोई परेशान हो तो न अस्पताल हैं और न डाक्टरों के पास फुर्सत। मरने की आज़ादी पूरी है, पर शव को इज्ज़त मिलने की गारंटी नहीं है। ख़ासतौर पर जब मामला ग़रीब या मज़दूर टाइप के लोगों का हो। वैसे, लखनऊ में होने वाली दैनिक प्रेस कान्फ्रेंस से यह साबित ज़रूर होता है कि उछलकूद में कोई कमी नहीं की जा रही है।

अगर आपको हमीरपुर दूर और पिछड़ा इलाक़ा लग रहा हो तो ज़रा लखनऊ से सटे और किसी मुहल्ले की तरह धंसे बाराबंकी का हाल जान लीजिए। एक 82 साल के बुज़ुर्गवार कुछ हफ्ते पहले गुजरात से लौटे थे। प्रशासन ने 22 मार्च को उन्हें होमक्वारंटीन किया। डर था कि कहीं कोरोना न हो। किसी से न मिलने का फ़रमान जारी हुआ। इसके बाद प्रशासन जैसे उन्हें भूल गया। शनिवार को घर में उनकी लाश मिली जिसमें कीड़े पड़ चुके थे। कोई नहीं जानता कि वे कब मरे। सैंपल लिया गया है जिसकी रिपोर्ट आने पर पता चलेगा कि बुजुर्गवार को कोरोना था या नहीं।

लेकिन इन ख़बरों से योगी सरकार और प्रशासन की रिपोर्ट तो आपको मिल ही चुकी है। बीमारी का अंदाज़ा लगाइये। क्या लगता है, यूपी नाम का ये मरीज़ कितनी गंभीर बीमारी की चपेट में है?

 


 


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