एक ज़माने में दिल्ली का बोट क्लब बड़े-बड़े राजनीतिक परिवर्तनों की पहली धमक दर्ज करता था। बड़ी-बड़ी रैलियाँ यहाँ की पहचान थी। इंडिया गेट से लेकर राष्ट्रपति भवन और संसद भवन के बीच पसरे विशाल आयाताकार मैदान में भारत के हर कोने का शोक, शक्ति बनकर उबल पड़ता था। लेकिन उदारीकरण के दौर में इस परंपरा को जैसे एक धब्बा मानकर धरना-प्रदर्शनों के लिए जंतर-मंतर की एक ख़ामोश सड़क निर्धारित कर दी गई। रैली के लिए बच गया बस, रामलीला मैदान। भारतीय राष्ट्र के तमाम प्रतीक चिन्हों से दूर।
अपवाद रहा निर्भया कांड के ख़िलाफ़ दिल्ली में उमड़ा आक्रोश, जब 144 जैसी तमाम धाराओं को तोड़कर छात्र-युवा इसी इलाके में फैल गए। राष्ट्रपति भवन के फाटकों ने उनकी धमक बहुत क़रीब से सुनी।
5 अक्टूबर यानी गुरुवार को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का एक ऐसा फ़ैसला आया जो बताता है कि अब जंतर मंतर पर धरना-प्रदर्शन नहीं हो पाएगा। एनजीटी ने ध्वनि प्रदूषण को लेकर हुई एक सुनवाई के बाद दिल्ली सरकार, दिल्ली पुलिस कमिश्नर और दिल्ली नगर निगम को आदेश दिेया है कि तत्काल प्रभाव से वो दिल्ली के जंतर मंतर पर होने वाले विरोध-प्रदर्शन और लोगों की होने वाली भीड़ पर रोक लगाएँ।
पता नहीं इस फ़ैसले की प्रतिक्रिया है, या फिर यूँ ही, हिंदी के वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी ने एक सपने को जन्म दे दिया। उन्होंने फ़ेसबुक पोस्ट लिखकर नारा दिया- बोट क्लब वापस दो ! इस पर तमाम लोगों ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए इसे एक राजनीतिक मुद्दा बनाने का आह्वान किया।
पढ़िए पहले असद ज़ैदी की पोस्ट और प्रतिक्रियाएँ-
Asad Zaidi
RECLAIM THE BOAT CLUB बोट क्लब वापस दो!
जंतर मंतर ऐसी जगह है जहाँ पता ही नहीं चलता कि अाप हैं कहाँ पर, अौर क्या कर रहे हैं। पाँच-दस हज़ार लोग भी वहाँ नहीं समा सकते। वह कोई मैदान भी नहीं, बस ज़रा सी सड़क है — दिल्ली के हिसाब से एक वीरान सड़क! सब जगह से छिपी हुई।
क्या इस मुल्क का विपक्ष फिर से बोट क्लब को रिक्लेम करेगा? उस ऐतिहासिक जगह को छोड़ा नहीं जाना चाहिए था। कम से कम वहाँ से भारतीय राज्यसत्ता की प्रतीक इमारतें — जैसे संसद, नॉर्थ व साउथ ब्लॉक, राष्ट्रपति भवन, विभिन्न मन्त्रालयों के भवन, इंडिया गेट — दिखाई तो देती हैं! फिर बोट क्लब के मैदानों पर, राजपथ के दोनों तरफ़, पाँच से दस लाख लोगों की रैलियाँ भी की जा सकती हैं। अतीत में — 1974 से तो मुझे याद है — तमाम ऐतिहासिक रैलियाँ, जिन्होंने देश की राजनीति पर अपनी छाप छोड़ी, वहीं हुई थीं। बोट क्लब ने वाम दलों की वे मशहूर रैलियाँ भी देखी हैं जिनमें लाखों किसान अौर मज़दूर अाकर जमा हो जाते थे।
लोकतांत्रिक प्रतिरोध के इस दीवाने अाम — बोट क्लब — को सत्ता अौर सुरक्षा तंत्र के क़ब्ज़े से मुक्त कराना हमारा नागरिक फ़र्ज़ है। विपक्षी पार्टियों से अपील की जानी चाहिए कि वे इस तरफ़ ध्यान दें।
Urmilesh Urmil सहमत!
Maheruddin Khan इस के लिए अलग से आंदोलन ज़रूरी है।
Pallav सहमत। वी पी सिंह जी ने यहीं से सत्ता बदलने का अभियान छेड़ा था।
Pankaj Srivastava सही है
Shubha Shubha अपने दिल की पुकार। और लाल किले का मैदान भी जहां से जुलूस बोट क्लब तक जाते थे।
Anis Ahmad Khan बेशक
Nalini Taneja Left parties should take up the demand and along with other parties pressurise the government. It would be a great rallying point in these days of suppression of dissent
Kuldeep Kumar In complete agreement.
ग़ौर से देखिए तो यह किसी की ख़ब्त नहीं, लोकतंत्र में प्रतिरोध के अधिकार के सिद्धांत को गरिमा दिलाने की माँग है। सवाल बस यह है कि क्या समाज इस माँग से जुड़ेगा। क्या विपक्ष इसे राजनीतिक मुद्दा बनाना पसंद करेगा। बढ़ते असंतोष आने वाले दिनों की तस्वीर का आभास दे रहे हैं…तो क्या जनता के पास संगठित प्रतिवाद दर्ज कराने की कोई गरिमापूर्ण जगह नहीं होनी चाहिए। बोट क्लब जैसी जगह जहाँ खड़े होकर वह सत्ताधीशों के कपाट पीट सके।
बोट क्लब में हर रंग और हर मिज़ाज की छाप है। आइए देखते हैं कुछ ऐसी तस्वीरें जो बोट क्लब को समेटे हुए आधुनिक इतिहास में दर्ज हो गई हैं–