आउटलुक हिंदी के संपादक रह चुके वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता का मंगलवार को दि इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख छपा है। इस लेख की शुरुआती पंक्तियां देखें, ”आप महाभारत के किरदारों भीष्म पितामह या युधिष्ठिर का वेश धर लें या फिर मौर्यकाल के चाणक्य का, क्या आप अपनी सेना या जनता से कह सकते हैं कि ‘सब कुछ लुट चुका है, देश डूब रहा है और हमारे सामने अब केवल अंधेरा और हताशा है?” इसके बाद वे नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी का हवाला देते हुए पूछते हैं कि क्या इन्होंने भी अपने साथियों और जनता में नई उम्मीद जगाने के लिए ऐसा किया था। यहां से वे निष्कर्ष निकालते हैं कि हताशाजनक स्थितियों में भी नरेंद्र मोदी अगर बेहतर भविष्य की उम्मीदें जगा रहे हैं, तो इसमें ग़लत क्या है।
लेख की नींव जिस दलील से आलोक मेहता ने रखी, वह अपने आप में अनैतिक है। झूठ बोलकर उम्मीद जगाए रखने की पैरोकारी करने वाला यह संपादक आज से पहले विशुद्ध कांग्रेसी माना जाता था। आलोक मेहता जब नेशनल दुनिया में थे, तो कौन नहीं जानता कि राज्यसभा की सांसदी लेने के लिए इन्होंने अख़बार के मंच का इस्तेमाल करते हुए क्या-क्या नहीं किया था। वे दूसरी पारी में आउटलुक में लौट कर आए तो तकरीबन पदिृश्य से गायब जान पड़ते थे।
यह लेख पहला संकेत है कि आलोक मेहता सरकार का दामन थामने की कोशिश करने वालों में फिर से शामिल हो गए हैं। वे कोई अर्थशास्त्री नहीं हैं, लेकिन एक घुटे हुए संपादक की तरह उन्होंने पहले तो कुछ पूर्व प्रधानमंत्रियों और मंत्रियों से अपनी पहचान और बातचीत का हवाला देकर दो-चार पैरे निकाल दिए। उसके बाद विश्व बैंक का नाम लेकर जीएसटी और नोटबंदी को ‘क्रांतिकारी’ करार दे दिया। जब विश्व बैंक को ही मुहर लगानी है यहां की सरकार के कदमों पर, तो काहे के पत्रकार और काहे के जानकार?
वैसे, मामला कांग्रेसी या भाजपाई होने का उस तरह से नहीं है जितना सत्ता के करीब रहने का है। आलोक मेहता हमेशा से सत्ता के करीब रहने की कोशिश करते आए हैं। सत्ता कांग्रेसी थी तो वे भी वैसे ही थे। सत्ता बदलने के तीन साल बाद अब पुराना पड़ चुका संपादक केंचुल बदल रहा है।
सोमवार को इस लेख पर जनसत्ता के पूर्व कार्यकारी संपादक ओम थानवी की फेसबुक टिप्पणी ज़रूर पढ़ी जानी चाहिए, जिनके लिखे से उपर्युक्त नोट प्रेरित है: