जनाकांक्षा के खिलाफ नगालैंड में हो रहे असेंबली चुनाव पर वहां के अख़बारों का रुख़ क्‍या है?

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अभिषेक श्रीवास्‍तव

नगालैंड और मेघालय में आज विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हो रहे हैं। सुबह नगालैंड के एक मतदान केंद्र पर बम विस्‍फोट की खबर आई है। नगालैंड में माहौल अपेक्षाकृत तनावपूर्ण है क्‍योंकि करीब दो दशक बाद यह राज्‍य एक बार फिर चुनाव बहिष्कार के मुहाने पर आकर खड़ा हो गया था जिससे आशंका पैछा हुई थी कि यहां चुनाव कहीं टल न जाएं। ऐसा नहीं हुआ है, लेकिन नगाओं की राजनीतिक आकांक्षाओं को भी संबोधित नहीं किया गया जिसके चलते उनके भीतर असंतोष जमा है। यहां कई बातें पहली बार हो रही हैं।

मसलन, भारतीय जनता पार्टी ने कभी भी नगालैंड में इतना बड़ा दांव नहीं खेला था और कांग्रेस कभी भी इतनी कमज़ोर नहीं हुई थी। यह भी पहली बार हुआ है कि ईसाई बहुल इस जनजातीय राज्‍य में चुनाव ने मजहबी रंग ले लिया है और सारा मामला ईसाई बनाम हिंदू का बना दिया गया है। इसमें न सिर्फ भाजपा की भूमिका है बल्कि बैप्टिस्‍ट चर्च का भी हाथ है। चुनाव परिणाम चाहे जो हो, लेकिन स्‍थानीय अखबारों के संपादकीय देखकर माहौल थोड़ा समझ में आता है। नगालैंड पोस्‍ट राज्‍य का सबसे बड़ा अखबार है। ज़ाहिर है, चुनाव के पक्ष या विपक्ष में रहने के बजाय उसने इस पर चुप्‍पी अख्तियार कर रखी है। केवल खबरें दी जा रही हैं। अजीब स्थिति है कि मतदान से एक दिन पहले अखबार ने जलवायु संकट पर अपना संपादकीय छापा है।

इसके मुकाबले नगा अस्मिता को अपने यहां जगह देने वाले अखबार मोरंग एक्‍सप्रेस ने आज के संपादकीय में बहुत साफ़ सवाल किया है- वोट दें या नहीं? संपादकीय की शुरुआत चुनाव प्रणाली से मोहभंग का शिकार हो चुके लोगों के उदाहरण से होती है और अंत सकारात्‍मक उदाहरणों से किया जाता है। एक किस्‍म का संतुलन बरतने की कोशिश की गई है लेकिन समूचा संपादकीय चुनाव बहिष्‍कार की ओर झुका हुआ जान पड़ता है।

संगाई एक्‍सप्रेस नाम के अखबार ने संपादकीय में इस बात पर आश्‍चर्य जताया है कि कैसे चुनाव से ठीक पहले ”नगा समस्‍या के समाधान” का मसला ठंडे बस्‍ते में चला गया है। अखबार लिखता है, ”ऐसा नहीं है कि चुनाव से पहले समाधान का मसला केवल इसलिए अचानक भुला दिया गया हो कि सभी राजनीतिक दल चुनाव मे हिस्‍सा ले रहे हैं बल्कि ऐसा इसलिए है र्क्‍योंकि किसी को भी केंद्र और एनएससीएन(आइएम) और छह एनएनपीजी की वार्ता में दिलचस्‍पी नहीं रह गई है। अखबार कहता है कि यहां सच्‍चाई के दो आयाम हो सकते हैं: एक बात यह हो सकती है कि कोई भी राजनीतिक दल मौजूदा राजनीतिक संवाद का वोट खींचने के लिए राजनीतिकरण नहीं करना चाहता। दूसरी बात यह हो सकती है कि किसी भी दल के पास वोटरों के सामने शांति वार्ता पर कुछ कहने के लिए खास हो ही नहीं। दूसरा विकल्‍प कहीं ज्‍यादा परेशान करने वाला है और नगालैंड के मतदाताओं की नजर से यह बात चूकनी नहीं चाहिए।

दीमापुर पेज नाम का टेबलॉयड अपने संपादकीय में बहुत सतर्कता के साथ मतदाताओं से संवाद करते हुए उन्‍हें याद दिलाता है कि आखिर अब तक चुनपावी प्रणाली से उन्‍होंने क्‍या हासिल किया। अखबार कहता है कि लोग जब आज वोट देने को खड़े हों कतारों में, तो एक बार ज़रूर पलट कर सोचें कि पिछले कुछ चुनावों से उनके राज्‍य और उनकी जिंदगियों के साथ क्‍या घटा है और खुद से पूछें कि क्‍या वे अपना भविष्‍य अतीत का दुहराव चाहेंगे या फिर अतीत का जवाब। अखबार पिछले दरवाजे से आने वाले तमाम लोगों के लिए राजनीति में रास्‍ते बंद करने का मतदाताओं से आह्वान करता है।

नगालैंड के चुनावों पर मोरंग एक्‍सप्रेस ने एक वीडियो जारी किया है जिससे व्‍यापक संदर्भ में वहां के राजनीतिक हालात और चुनावी मुद्देां को समझने में आसानी होगी। इस वीडियो को नीचे देखा जा सकता है: