नगालैंड असेंबली चुनाव: नगा विक्षोभ और आकांक्षा की जड़ें 100 साल पुराने नगा क्‍लब तक जाती हैं



अनिल कुमार यादव

नगालैंड के 11 राजनीतिक दलों ने- जिसमें सत्तारूढ़ गठजोड़ नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) और उसकी घटक भाजपा के अलावा कांग्रेस के नेता भी शामिल हैं- एक संयुक्त समझौता पत्र जारी कर चुनाव आयोग से चुनाव टालने और केंद्र सरकार से ‘चुनाव से पहले समाधान’ के सिद्धांत पर अमल करते हुए लगभग छह दशक पुराने नगा समस्या के समाधान की मांग की थी। नगा नेताओं के नगा नागरिक संगठनों और प्रमुख नगा आदिवासी संगठन होहो की मांग के दबाव में आ जाने के बाद से केंद्र सरकार की चिंताएं बढ़ गई थीं। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरन रिजीजू- जो भाजपा की तरफ से नगालैंड में चुनाव प्रभारी हैं- उनके जरिये चुनाव के पक्ष में माहौल बनवाने का प्रयास किया गया। वहीं पार्टी स्तर पर इस मांगपत्र पर हस्ताक्षर करने वाले दोनों वरिष्ठ भाजपा नेताओं प्रदेश उपाध्यक्ष खेटो सेमा और सासेपी संगताम को निलम्बित करके पार्टी के दूसरे नेताओं को बगावत न करने की चेतावनी दे दी गई ।

दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यह कह कर कि उनकी पार्टी अपने स्थानीय नेताओं से विचार विमर्श के बाद ही चुनाव में जाने या न जाने का निर्णय लेगी, नगालैंड के लोगों के बीच भाजपा के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील छवि बनाने की कोशिश की जिससे भाजपा की धारणा के स्तर पर चुनौती बढ़ गई। यहां गौरतलब है कि अन्य पार्टियों द्वारा 1998 में चुनाव बहिष्कार के एलान से कांग्रेस सहमत नहीं थी और उसने चुनाव में भागीदारी करके 60 में से 53 सीटें जीत ली थीं।

नगालैंड का मौजूदा संकट अवश्यम्भावी था और समय का इंतजार कर रहा था। सबसे अहम कि इसके लिए स्थानीय सियासी, अलगाववादी या सामाजिक आंदोलनों के नेतृत्व को जिम्मेदार भी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि खुद पूरे नगा विधानसभा ने बहुमत से पिछले साल 14 दिसम्बर को ही प्रस्ताव पारित करके केंद्र सरकार से चुनाव को टालने और नगालैंड की राजनीतिक समस्या के एक ‘सम्मानजनक और स्वीकार्य हल’  के लिए ‘समय की मांग के अनुरूप खास कदम’ उठाने की मांग की थी। यानी गेंद पूरी तरह से केंद्र सरकार के पाले में थी और ऐसा भाजपा के गठबंधन वाली सरकार की तरफ से ही किया गया था। यानी यहां भाजपा के पास चुनाव बहिष्कार की स्थिति उत्पन्न होने की स्थिति में विपक्षी दलों पर इसकी तोहमत डालने का विकल्प भी मौजूद नहीं था। बावजूद इसके उसने समय रहते अपनी ही राज्य सरकार के प्रस्ताव पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया। यानी नगा लोगों द्वारा चुनाव बहिष्कार की घोषणा केंद्र सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और भ्रम की स्थिति को बनाए रखने का ही परिणाम ज्यादा थी जिससे केंद्र की मोदी सरकार की नगा विद्रोहियों से 2015 में हुए समझौते की विश्वसनीयता नगा अवाम में संदिग्ध हो गई है।

नगा विक्षोभ की वजह

दरअसल, चुनाव बहिष्कार की लोकप्रिय भावना की मुख्य वजह लोगों में इस धारणा का मजबूत होना है कि 2015 में मोदी सरकार और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (इसाक-मुइवा) गुट के साथ हुआ समझौता एक तरह का धोखा था जिसमें नगा लोगों की वृहत नगालैंड की आकांक्षाओं की पूर्ती जो कि आसपास के राज्यों के नगा बहुल इलाकों को जोड़ कर एक वृहद नगालैंड की मांग है, की दिशा में कुछ भी ठोस नहीं हुआ। दरअसल, इस ‘समझौते’ को बहुत सारे लोग ऐसे झांसे के बतौर देखते हैं जिसके विवरण, जिसकी दिशा और प्रस्ताव हस्ताक्षर करने वाले दोनों पक्षों के अलावा किसी को भी पता नहीं है। यानी समझौता के बिंदु सार्वजनिक ही नहीं किए गए और ना ही जिस पर राज्य सरकार का ही कोई स्पष्ट मत है कि यह क्या था और इसमें किन बातों पर समझौता हुआ था। लोगों में यह भी धारणा है कि इस कथित ‘समझौते’ के फोटोशूट से प्रधानमंत्री मोदी ने जहां अपनी ‘पीसमेकर’ की छवि प्रचारित कर ली तो वहीं इसाक-मुइवा गुट ने नगा आकांक्षाओं के एकमात्र प्रवक्ता के बतौर अपनी छवि बनाने की कोशिश की, समस्या का कोई हल नहीं निकला और ना ही उस दिशा में ही कुछ हुआ।

विधानसभा के एकस्वर में चुनाव को टालने और चुनाव से पहले समस्या को हल करने की मांग इसी लोकप्रिय धारणा की अभिव्यक्ति थी कि लोग अब फिर से धोखा नहीं खाना चाहते। यानी चुनाव बहिष्कार एक तरह से मोदी सरकार की अस्पष्ट नीतियों और खोखले और बड़बोले वादों के प्रति नाराजगी का परिणाम है। यहां यह याद रखना जरूरी होगा कि इस समझौते को केंद्र सरकार ने छह दशक पुरानी नगा समस्या के हल कर लिए जाने के बतौर प्रचारित किया था।

हिंसा के दौर की वापसी का खतरा

चुनाव बहिष्कार की एक वजह फिर से विद्रोही गुटों और सेना के साथ संघर्ष के दिनों की वापसी भी है क्योंकि मोदी सरकार ने वहां सक्रिय कई महत्वपूर्ण गुटों में से सिर्फ इसाक-मुइवा गुट से ही ‘अस्पष्ट समझौता’ किया था जिसके खिलाफ अन्य गुटों ने आपत्ति की थी। अब यही गुट जिसमें सबसे अहम खापलांग गुट है जिसने पूर्वोत्‍तर भारत के अन्य राज्यों में सक्रिय विद्रोही गुटों जैसे असम के उल्फा, मणिपुर और अरूणांचल प्रदेश के दर्जनों छोटे-बड़े अलगाववादी गुटों के साझा मंच का गठन करके शुरूआती छापामार हमलों से आने वाले दिनों के संकेत दे दिए हैं। इन संगठनों की नाराजगी को स्थानीय समुदाय तार्किक मानता है और इसलिए वह नहीं चाहता कि हिंसा और प्रतिहिंसा का दौर फिर आए। चुनाव बहिष्कार इस हिंसक कुचक्र से बचने की कोशिश थी जिसके प्रति केंद्र सरकार को संवेदनशील होना चाहिए था।

क्या है नगा आकांक्षा

ऐतिहासिक तौर पर नगा लोग अवधारणा के स्तर पर अपने को किसी भी राष्ट्र के अधीनस्थ नहीं मानते। वे अपने आप को एक स्वतंत्र और सम्प्रभु इकाई के बतौर देखते रहे हैं और आजादी से पहले से ही पूरे नगालैंड, मणिपुर, असम, अरूणाचल प्रदेश और बर्मा (अब म्यांमार) के नगा आबादी वाले इलाकों को मिलाकर एक स्वतंत्र देश बनाने की मांग रखते रहे हैं। इसी उद्येश्य से 1918 में कोहिमा में नगा क्लब का गठन हुआ था ताकि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के सामने नगा लोगों के हितों से जुड़े मसले रखे जा सकें। यह धारणा इतनी मजबूत रही है कि सायमन कमीशन के सामने नगाओं ने यह मांगपत्र रखा था कि उन्हें भारतीय संघ का हिस्सा न बनाया जाए और स्वतंत्र समूह के बतौर मान्यता दी जाए। इस दबाव का परिणाय हुआ कि 1935 के इंडिया ऐक्ट के तहत नगा आबादी वाले इलाकों को विशेष पिछड़े इलाके और वर्जित हैसियत वाले इलाकों के रूप में मान्यता दे दी गई।

1946 में यही नगा क्लब नगा नेशनलिस्ट कांउंसिल (एनएनसी) के नाम से जाना जाने लगा। जुलाई 1947 में इसके नेता फीजो ने महात्मा गांधी से मुलकात कर कहा कि 14 अगस्त 47 को वो अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करेंगे और ऐसा उन्होंने किया भी। 1948 में फीजो को भारत सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। 1952 में एक बार फिर फीजो और नेहरू के बीच वार्ता हुई लेकिन कोई समाधान नहीं निकल सका। 1954 में फीजो ने समानांतर सरकार की घोषणा कर दी लेकिन आगे चल कर इस आंदोलन के अंदर एक पक्ष ने भारतीय संघ के अंदर ही स्वायत्त राज्य की मांग पर गम्भीरता से विचार करना शुरू कर दिया। जिसकी भारतीय राज्य के साथ कई दौर की नाकाम वार्ताएं होती रहीं, जिसकी पहल बैपटिस्ट चर्च ने की और एक ‘पीस मिशन’ का गठन किया गया जिसमें नगा विद्रोहियों और भारत सरकार के तीन विश्वस्त लोगों को रखा गया- असम के मुख्यमंत्री बीपी चालिहा, सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण और एंग्लिकन पादरी माइकल स्‍कॉट।

1964 की गर्मियों में‘पीस मिशन’ युद्धविराम पर दस्तखत करवाने में सफल रहा जिसे 6 सितम्बर 1964 की सुबह चर्च के घंटे की पहली आवाज के साथ लागू मान लिया गया। इसके दो सप्ताह बाद भारत और नगा विद्रोहियों के बीच बातचीत की अंतहीन कहानी शुरू हुई जो आज तक बिना किसी उपलब्धि के जारी है, जिसमें नगा अवाम कभी चुनाव बहिष्कार की घोषणा करती है तो कभी भारत सरकार और सैन्य दस्ते तैनात करने की नीति अपना कर अपनी भूमिका निभाता है। वहीं अलगाववादी संगठन म्यामार, बांगलादेश और चीन के हाथों खेलते हैं। यानी जिस समस्या को राजनीतिक इच्छाशक्ति से हल किया जा सकता था वह 6 दशक बाद भी न सिर्फ बनी हुई है बल्कि और भी विकराल रूप अख्तियार करते जा रही है।

यहां प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा की पुस्तक ‘नेहरू के बाद भारत’ में जय प्रकाश नारायण द्वारा इस मुद्दे पर व्यक्त राय को जानना महत्वपूर्ण होगा कि ‘समझौता बिल्कुल सम्भव है क्योंकि दोनों ही पक्षों के पास सच्चाई का कुछ न कुछ अंश मौजूद है’। यानी ऐसा नहीं था कि नगा आकांक्षाओं को सम्मानजनक तरीके से समायोजित नहीं किया जा सकता था। इसलिए आज अगर नगा लोगों ने चुनाव बहिष्कार की घोषणा की है तो यह उनकी कम और भारत सरकार की राजनीतिक विफलता ज्यादा है। यह बात अलग है कि जन भावनाओं के खिलाफ जाकर मोदी सरकार वहां आज चुनाव करवा रही है। यहां मोदी सरकार को चाहिए था कि वह चुनाव को फिलहाल टाल कर 2015 के समझौते के बिंदुओं को सार्वजनिक कर उस पर समयबद्ध कार्ययोजना का खाका सामने रखे ताकि हिंसा के बुरे दौर की वापसी से देश बच सके। ऐसा लगता है कि अब मौका मोदी सरकार के हाथ से निकल चुका है।


लेखक लखनऊ के गिरि इं‍स्टिट्यूट में चुनाव पर शोध कर रहे हैं।