संजय राउत को बेल देते हुए, अदालत की ED पर टिप्पणी क्यों अहम है?

मयंक सक्सेना मयंक सक्सेना
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31 जुलाई को प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा शिवसेना (उद्धव बालासाहेब) के सांसद संजय राउत की पात्रा चाल पुनर्विकास मामले में गिरफ्तारी पर ज़मानत के मामले की सुनवाई करते हुए, पीएमएलए अदालत ने ED पर जो तीख़ी टिप्पणियां की हैं, वो दरअसल केवल ईडी के काम करने के रवैये पर ही टिप्पणी नहीं हैं बल्कि उनके इरादों और केंद्र की नीयत पर भी टिप्पणी है।

पीएमएलए अदालत ने बुधवार को सुनवाई करते हुए, सिर्फ ये ही नहीं कहा है कि ईडी की ज़मानत पर रोक लगाने की मांग बेबुनियाद है और ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है, जिसके कारण संजय और प्रवीण राउत को जेल में रखा जाए। बल्कि अदालत ने ईडी की मंशा पर भी अहम सवाल खड़े किए हैं। पीएमएलए में विशेष जज एमजी देशपांडे ने अपने आदेश में, न केवल ईडी पर केंद्र सरकार को सीधे कटघरे में खड़ा कर दिया है। ये आदेश कई मामलों में अहम है क्योंकि इसको अगर क़ानून के छात्र के तौर पर आप पढ़ें तो आपको समझ में आएगा कि कैसे ईडी ने ख़ुद ही क़ानून की अवमानना कर दी है और अपनी ही स्थापना की मूल भावना के ख़िलाफ़ सरकारी दबाव में काम किया है।

ED द्वारा ये गिरफ्तारी ही ग़ैरक़ानूनी

इस फ़ैसले में प्रवीण राउत (आरोपी 3) और संजय राउत (आरोपी 5) की ज़मानत याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने साफतौर पर इस गिरफ्तारी को ही ग़ैरक़ानूनी ठहरा दिया। अदालत ने साफ कहा कि प्रवीण राउत पर अगर कोई मामला बन सकता है तो वह सिविल अदालत का मामला है और संजय राउत पर तो किसी तरह का कोई मामला ही नहीं बनता है, इसलिए ये गिरफ्तारी ही अवैध है। अदालत ने कहा,

“हमारे सामने जो भी दस्तावेज और विस्तार में बात आई, उससे साफ है कि प्रवीण रावत को एक पूरी तरह से सिविल केस में गिरफ्तार किया गया है, जबकि संजय रावत को बिना किसी कारण गिरफ्तार किया गया है। सत्य सामने स्पष्ट दिख रहा है। अदालत के सामने क़ानूनी बाध्यता है कि वह ज़मानत के स्तर पर भी सत्य को खोजे।”
अदालत ने इस आदेश में स्पष्ट लिखा है कि ये गिरफ्तारी ही ग़ैरक़ानूनी है। इसलिए ज़मानत की याचिका खारिज करने का सवाल ही नहीं पैदा होता। ईडी द्वारा दर्ज किए गए किसी मामले में ये एक बेहद सख़्त टिप्पणी है, जो कि दरअसल राजनैतिक दबाव की ओर भी इशारा कर रही है।

क्यों ED द्वारा दर्ज इस मामले का कोई आधार ही नहीं

अदालत के आदेश से ये भी स्पष्ट है कि ये पूरा मामला ही विसंगतिपूर्ण है, जहां एक केंद्रीय एजेंसी ने दुर्भावनापूर्ण ढंग से कार्रवाई की है लेकिन वो अपनी बात के लिए आधार नहीं खड़े कर सकी। किसी भी एजेंसी को ये करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है कि वह जैसे मन चाहे, वैसे क़ानूनों को दुरुपयोग करे। विशेष जज देशपांडे के आदेश में अदालत कहती है,

“सिविल विवाद को सीधे मनी लांडरिंग या आर्थिक अपराध बता देना, उनको (ईडी को) ये हैसियत नहीं दे देता है कि वह किसी निर्दोष व्यक्ति को, पीएमएल एक्ट के सेक्शन 19 और सेक्शन 45 (i)(ii) की दोहरी शर्तों के तहत एक दयनीय स्थिति में लाकर खड़ा कर दे।”

अदालत के सामने कोई भी हो..वह सत्य के साथ है!

साथ ही अदालत ने ईडी की ओर से जिरह कर रहे एडिशनल सॉलिसिटर जनरल अनिल सिंह से कहा कि अदालत के सामने कोई भी हो, उसे इसकी परवाह किए बिना वो करना है, जो सही हो। विशेष जज एमजी देशपांडे ने इस पूरे आदेश में लगभग हर जगह ईडी की नीयत पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। अदालत ने ईडी से सवाल किया कि अगर वाकई वो इस मामले में दोषियों को सज़ा दिलाना चाहती है तो मुख्य आरोपियों को आज़ाद छोड़कर, प्रवीण और संजय राउत को निशाना क्यों बनाया है? अदालत ने मुख्य आरोपी राकेश और सारंग वाधवन के लिए कहा,

“सारंग वाधवन के एफिडेविट के अनुसार भी राकेश और सारंग के गुमराह करने और मुख्य आरोपी होने के बावजूद, उन दोनों को ईडी ने गिरफ्तार नहीं किया बल्कि खुला छोड़ दिया है। जबकि प्रवीण राउत को एक सिविल मामले में जबकि संजय राउत को बिना किसी कारण गिरफ्तार कर लिया गया है। साफ इशारा करता है कि ईडी का रवैया पक्षपातपूर्ण और जानबूझ कर निशाना बनाने वाला है और अदालत इस पर चुप नहीं रह सकती बल्कि समानता लाए।”

इस मामले में ईडी का भेदभाव क्यों?

अपने आदेश में ज़मानत स्वीकार करने के आधारों का उल्लेख करते हुए, अदालत ने कहा है कि इस मामले में ईडी के पूरे रवैये से ही भेदभावकारी नीति साफ है। अदालत में जिस तरह से ये साफ हुआ है कि संजय राउत पर कोई मामला तक नहीं बनता है, उसके आधार पर अदालत ने अपने आदेश में ये टिप्पणी की है। अदालत ने इस मामले में ईडी द्वारा रखे गए तथ्यों को लेकर ही सवाल किया कि अगर ये इतना बड़ा मामला है, तो फिर जिस मीटिंग का हवाला देकर, संजय और प्रवीण राउत की गिरफ्तारी हुई है, उसी मीटिंग के हवाले से MHADA के किसी भी अधिकारी के ख़िलाफ़ मामला क्यों नहीं दर्ज किया गया है? ED के पास ज़ाहिर है कि इसका कोई जवाब नहीं था।

ऐसा होता रहा, तो लोग अदालत में भरोसा खो देंगे..

अदालत के इस आदेश में ईडी के जानबूझ कर, लोगों को निशाना बनाने के लिए चुनने की रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े किए गए हैं। इस आदेश में अदालत ने कहा कि वह ईडी की इस दुर्भावनापूर्ण रणनीति का साथ नहीं दे सकती है। इस आदेश में ईडी पर सवाल करते हुए, अदालत ने कहा कि अगर इस तरह के मामलों में अदालत, ईडी या सरकारी एजेंसियों के साथ खड़ी हुई, तो आम लोगों का न्यायपालिका से यक़ीन उठ जाएगा। अदालत ने कहा,

“अगर ऐसी स्थिति में भी अदालत, ईडी और म्हाडा की अपील स्वीकार कर के, प्रवीण राउत और संजय राउत की ज़मानत याचिका खारिज कर दे तो इसका मतलब होगा कि अदालत इनकी चुनकर लोगों को निशाना बनाने की रणनीति का साथ देगी। निश्चित रूप से ऐसे में कोई भी आम, निर्दोष और ईमानदार व्यक्ति, न्याय का मंदिर मानी जाने वाली न्यायिक व्यवस्था में अपना विश्वास खो देगा।”

‘सत्य ही हमारा मार्गदर्शक सितारा है’

इस फ़ैसले में अदालत ने सबसे अहम टिप्पणी, दरअसल पूरी न्यायिक व्यवस्था के लिए की है। अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को कोट करते हुए आदेश में लिखा है,

“सत्य, मार्गदर्शक सितारा है। आपराधिक मुकदमा, सत्य की खोज की यात्रा है। केवल सत्य की ही जीत होती है और न्यायालय को सत्य को खोजने और न्याय देने का हर प्रयास करना होगा।”

इस आदेश के हासिल

  • हालांकि ये न तो कोई हाईकोर्ट का आदेश है और न ही सुप्रीम कोर्ट की किसी बेंच का, लेकिन उसके बावजूद तंत्र और सरकारी दबाव पर अपनी अहम टिप्पणियों के लिए ये मामला लंबे समय तक याद रखा जा सकता है। 
  • इस आदेश में साफ है कि ईडी अपनी ओर से अदालत के सामने एक भी ऐसा साक्ष्य या तथ्य नहीं रख सकी कि संजय राउत पर किसी तरह का मामला भी बनता हो, उसके बावजूद उनको 3 महीने से अधिक समय तक जेल में रहना पड़ा। 
  • ईडी ने अपनी जांच में परस्पर विरोधाभासी तथ्य अदालत के सामने रख दिए, जिनमें वो ख़ुद ही उलझ गई। इससे साफ है कि संजय राउत को किसी भी कीमत पर गिरफ्तार करने पर आमादा ईडी ने अपनी जांच भी ठीक से नहीं की।
  • अदालत ने इस आदेश में साफ कहा है कि आरोपी को जेल भेजना अपवाद है, जबकि बेल देना सामान्य प्रक्रिया है। जबकि ईडी ठीक इसके उलट अपील कर रही थी। 
  • अदालत ने इस आदेश में ईडी से एक अहम सवाल भी किया है कि जिस तरह की जल्दी वो गिरफ्तारी के लिए दिखाती है, वैसी ही तत्परता वह केस हल करने और अदालती प्रक्रिया के लिए क्यों नहीं दिखाती। अदालती कार्रवाई में उसकी रफ्तार सुस्त क्यों हो जाती है?
  • अदालत ने ईडी पर बेहद कड़ी टिप्पणी में ये भी कहा है कि आज तक ईडी ज़्यादातर मामलों में अगर आरोपियों को सज़ा नहीं दिला सकी है, तो फिर उसके अस्तित्व के लिए ये सवाल क्यों नहीं है? क्या वह अपने मकसद पर काम कर भी रही है?

 


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