(आइबीसी-24 समाचार चैनल की समाचार ऐंकर सुप्रीत कौर से जुड़ी घटना के सामने आने के बाद उसके काफी कवरेज मिली है। आम तौर से राय यह रही है कि इस ऐंकर ने अपनी पेशेवर मर्यादा से समझौता नहीं करते हुए काफी साहस का परिचय दिया है। दो टिप्पणियां सोशल मीडिया पर ऐसी दिखी हैं जिन्होंने इस घटना को आलोचनात्मक नज़रिये से देखते हुए टीवी मीडिया और न्यूज़रूम की क्रूरता की ओर इशारा किया है। ये दोनों टिप्पणियां भी पाठकों को पढ़नी चाहिए। पहली टिप्पणी अध्यापक विनीत कुमार की है और दूसरी टिप्पणी पत्रकार अलबर्ट पिंटो (फेसबुक नाम) की है: संपादक)
क्या इस घटना में न्यूजरूम का क्रूर चेहरा नजर नहीं आ रहा?
विनीत कुमार
आपकी तरह मैं भी टीवी न्यूज एंकर सुप्रीत कौर की प्रोफेशनिज्म को सलाम करता हूं. मेरे लिए ये कल्पना करना ही खुद की पीठ पर कोडे मारकर लहूलुहान करने जैसा है कि अपने ही पार्टनर की मौत की खबर को कोई किस हालत में पढ सकेगा ? सुप्रीत ऐसा कर पायी क्योंकि पार्टनर को खो देने के वाबजूद खबर के स्तर पर खुद को मरने नहीं दिया. दूरदर्शन के दिनों को याद करते हुए इंदिरा गांधी की मौत की खबर और दूरदर्शन की न्यूज प्रेजेंटर सल्मा सुल्तान की प्रोफेशनलिज्म को याद किया जाता है. सल्मा सुल्तान की इस मुद्दे पर दर्जनभर बाईट है कि उस वक्त उन्हें कैसा महसूस हो रहा था. दूरदर्शन इस स्तर की प्रोफेशनलिज्म के बावजूद कभी पेशेवर पत्रकारिता का उदाहरण नहीं बन सका. हां सल्मा सुल्तान एक बेहतरीन टीवी प्रेजेंटर के साथ-साथ इस बात के लिए अलग से भी जरुर याद की जाती हैं कि उन्हें इतनी बड़ी खबर पढ़ी है. लेकिन
हम सुप्रीत कौर के अपने ही पति की मौत की खबर को पढ़े जाने को लेकर क्या सिर्फ इस सिरे से सोचकर रह सकते हैं कि सुप्रीत अपने काम के प्रति कितनी ईमानदार कि जीवन के सबसे कठोरतम क्षण में भी पेशे का साथ दिया. वो भी ऐसे दौर में जबकि व्यक्ति के मरने के पहले खबर के स्तर पर उन्हें मौत के घाट उतार दिया जा रहा हो. क्या हमारे जेहन में इस सिरे से कोई सवाल नहीं आता कि क्या इस चैनल में इस बात की कहीं कोई संभावना नहीं थी कि उनके बजाय कोई दूसरा न्यूज एंकर इस खबर को पढ़े ? जिस वक्त की बुलेटिन में ये खबर आयी, स्टैंड बाय में कोई ऐसा न्यूज एंकर नहीं था कि उन्हें इस भयानक इमोशनल क्राइसिस के समय में साथ किया जाता ?
न्यूज चैनलों की मेरी अपनी जितनी समझ है और जितना मैंने काम किया है, रनडाउन पर बैठे लोगों को इस बात की ठीक-ठीक जानकारी होती है कि किस खबर की क्या एंगिल है, कहां की खबर है, मामला क्या है ? आप जिसे लाइव खबर कहते हैं, उस वक्त भी थोड़े सेकण्ड का फासला होता है. यदि चैनल के न्यूजरुम को यह सब कुछ भी पता नहीं था तो आप समझिए कि खबर की किस दुनिया में आप कैसे जी रहे हैं ? और अगर पता था तो समझिए कि किस क्रूर माहौल में हमारे टीवी एंकर काम करते हैं. ये दोनों ही स्थिति कितनी खतरनाक है, आप अंदाजा लगा सकते हैं.
पिछले दिनों मीडियाखबर वेबसाइट ने एक पोस्ट प्रकाशित की जिसके अनुसार आजतक चैनल के स्टार एंकर सईद अंसारी को बुलेटिन के बीच में वॉशरुम जाना पड़ा. बुलेटिन के दौरान टैप से पानी की थोड़ी देर के लिए आवाज भी आयी. वजह ये कि सईद अंसारी कान से ईपी निकालकर जा नहीं सकते थे. जितनी देर वो वॉशरुम में रहे, खबरों के पैकेज चलते रहे.
आप सईद अंसारी, सुप्रीत कौर इनके जैसे देश के दर्जनों न्यूज एंकर की प्रोफेशनलिज्म को सलाम कर सकते हैं, करना भी चाहिए. लेकिन क्या आप ये महसूस नहीं करते कि न्यूजरूम की शक्ल कितनी क्रूर है कि इंसान अपनी मानवीय संवेदना सहेजने, वॉशरुम जाने जैसे बुनियादी काम ठीक से नहीं कर पाता. एंकरों की फौज के बीच आखिर ऐसी क्या मजबूरी होती है कि एक एंकर इस स्तर पर एकदम अलग और अकेला पड़ जाता है.
न्यूजरुम में खबरें मरतीं हैं, मार दी जाती हैं, ये हम सब जानते हैं लेकिन सांकेतिक तौर पर खुद इंसान को मारने का काम होता है, ये कितना डरावना है, इसका अंदाजा आप तभी लगी सकते हैं जब सीसीटीवी कैमरे की खौफ से आप रो तक नहीं सकते, चिल्ला नहीं सकते.
हम सुप्रीत कौर की इस प्रोफेशनलिज्म के प्रति गहरा सम्मान व्यक्त करते हैं. मेरी दुआएं उनके दुख को कम करने में शायद थोड़ी मदद करे लेकिन इसकी आड़ में हम न्यूजरूम के उस क्रूर चेहरे को भला कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं जो उन्हें इस बात तक मौका नहीं देता कि पहले एक बार वो इत्मिनान से रनडाउन पढ़ ले या फिर वहां के मौजूद लोग कह सकें- सुप्रीत, आज तुमने बुलेटिन पढ़ी तो हम सब थोड़े-थोड़े मर जाएंगे.
सबको यहीं घुट-घुट कर डर-डर कर मर जाना है
अलबर्ट पिंटो
आज कई वेबसाइटों पर एक खबर पढ़ी कि एक न्यूज एंकर ने लाइव बुलेटिन में अपने पति की मौत की खबर पढ़ी। उसे अपने पति की मौत का पता चल गया था, लेकिन वह खबर पढ़ते हुए रोई नहीं। उसने बुलेटिन पूरा किया, फिर रोई।
हिंदी-अंग्रेजी की सभी वेबसाइटों पर इस महिला का महिमामंडन किया गया है। इसकी बहादुरी में कसीदे पढ़े गए हैं। इस अमानवीयता और अस्वाभाविक प्रतिक्रिया के लिए उसकी तारीफ की गई है।
यह तारीफ कौन करवा रहा है? यह तारीफ किसके हक में जाती है? जवाब है- मालिकों के, धन्नासेठों के। वे हमेशा से चाहते हैं कि भले ही उनके अधीन कर्मचाारियों के घर पर वज्र गिर जाए, उनका परिवार बीमारी में हो, बच्चे भूखे हों, पर उनका कारखाना चलता रहे।
अगर आप ऐसा कर पाने में सक्षम हैं तो आप तारीफ के काबिल हैं, बहादुर हैं, बाजार में सम्मान पाने योग्य हैं, हीरो-हीरोइन हैं, समाज के आदर्श हैं, नौकरी के लिए उत्तम शख्स हैं।
अगर आप किसी हादसे से स्वाभाविक तौर पर दुखी हैं तो आप मालिक के काम के नहीं हैं। ये हमने कैसी कामगार व्यवस्था बना डाली है, जो हर स्थिति में मजदूरों से काम करवाना चाहती है? उन्हें अमानवीय बना रही है। हर पैदा होने वाले बच्चे के माथे पर लिख दिया जाता है कि ये फलां-फलां बनेगा। जो नौकरी-चाकरी नहीं करेगा, वह समाज का निकृष्टतम व्यक्ति होगा।
सचिन का बाप मरा, उसने शतक मारा, विराट कोहली का बाप मरा, उसने भी शतक मारा, ऋषभ पंत का बाप मरा, उसने आईपीएल में अर्धशतक मारा, वाह…। बाजार के हीरो…, सालों-साल के हीरो। नौकरीपेशाओं के आदर्श, मालिकों के लिए सटीक चमचे।
जब इतवार के दिन मालिक और उच्च अधिकारी घरों पर आराम करते हैं, उस दिन किसी कारखाने या दफ्तर की रौनक देखी है? सबसे निचले तबके के कर्मचारी कितने अच्छे माहौल में काम करते हैं…! और हफ्ते के बाकी दिनों में अपनी पीठ पर अपनी आंखें गढ़ाए रहते हैं कि कहीं मालिक उन्हें कमर सीधी करते हुए न देख ले।
ये कल-कारखाने, दफ्तर जेरेमी बेंथम और मिशेल फूको के पेनऑप्टिकन (गोल टावर जैसे कैदखानों) से ज्यादा कुछ नहीं हैं…. सबको यहीं घुट-घुटकर डर-डरकर मर जाना है…