राममंदिर के लिए सूली पर लटकने की दर्पोक्ति में छिपा उमा भारती का डर !



कृष्ण प्रताप सिंह

लगता है, आजकल हमारे सत्ताधीशों को यह याद रखने में बड़ी मुश्किल पेश आ रही है कि न वे देश के स्वयंभू शासक हैं और न ही मनमानियां करने को ‘आज़ाद’। इसके उलट देश में एक संविधान है, जिसके तहत कराये गये चुनाव में जीत हासिल करके वे निर्धारित अवधि के लिए सत्ता में आये हैं। इस रूप में अपनी भूमिका के निर्वाह के लिए भी उन्होंने उसी संविधान की शपथ ले रखी है और उसने न सिर्फ उनके कर्तव्यपालन की परिधियां सुनिश्चित कर रखी है बल्कि उनका उल्लंघन रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को अपना संरक्षक भी बना रखा है।

संभवतः इसी मुश्किल से दो चार होते हुए गत 1 अप्रैल को छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने रायपुर में गोहत्यारों को सूली पर लटका देने जैसी बेहिस दर्पोक्ति की और 8अप्रैल को केन्द्रीय जलसंसाधन मंत्री सुश्री उमा भारती ने लखनऊ में (यह कहते हुए भी कि मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन होने के कारण वे ‘ज्यादा’ नहीं बोलेंगी ) एलान कर दिया कि अयोध्या में भव्य राममन्दिर का निर्माण न सिर्फ उनकी आस्था, बल्कि विश्वास और गर्व का भी विषय है, और उसके लिए जरूरत हुई तो वे जेल भी जायेंगी और सूली पर भी लटकेंगी।

इन दोनों के कथनों पर एक साथ विचार करें। रमन सिंह इतने भोले नहीं कि उन्हें पता न हो कि मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी संवैधानिक हैसियत उस गंजे से तनिक भी भिन्न नहीं है, जिसे खुदा ने इसलिए नाखून नहीं दिये कि बेचारे के पास नाखून होते तो खुजला-खुजलाकर अपनी ही खोपड़ी को खरोंचों से भर डालता या लहूलुहान कर लेता।

शायद संविधाननिर्माताओं को आशंका थी कि एक दिन कुछ ऐसे लोग भी प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री वगैरह बन सकते हैं, जो अपनी बदगुमानियों में इस लोकतंत्र को उसी के खात्मे के लिए इस्तेमाल करने की बीमार हसरत से पीड़ित हों। इसीलिए उन्होंने उन्हें किसी हत्यारे को फांसी तो क्या, किसी साधारण से साधारण अपराधी को साधारण से साधारण दंड देने का न्यायिक अधिकार भी नहीं दिया। उनके दुर्भाग्य से संविधान ने देश में व्यक्तियों के बजाय नियमों व कानूनों का शासन सुनिश्चित कर रखा है, और उसे आंख दिखाने की उनकी हरचंद कोशिश के बावजूद अभी हालात इतने खराब नहीं हुए हैं कि वे किसी को अपनी मर्जी से सूली पर लटकाने की हद तक जा सकें। न्यायालयों के आदेशों के बाद भी सूली पर लटकाये जाने की एक विधिक प्रक्रिया निर्धारित है और उसका अनुपालन हर किसी के लिए और हर मामले में लाजिमी है।

यह स्थिति बदलने के आकांक्षियों को, वे मुख्यमंत्री या मंत्री कौन कहे, प्रधानमंत्री भी हों तो पहले हमारे संविधान से ही मुठभेड़ करनी होगी।

उमा भारती के प्रसंग पर आयें तो याद दिलाना फिजूल है, क्योंकि विगत में कई बार याद दिलाया जा चुका है, कि वे इस विशाल बहुलतावादी देश की जल संसाधनमंत्री इसलिए नहीं हैं कि अयोध्या में ‘वहीं’ राममन्दिर का निर्माण उनके लिए आस्था, विश्वास व गर्व का विषय है। वे इसलिए मंत्री हैं कि उन्होंने देश के संविधान में विश्वास जताकर, दिखावे के लिए ही सही, उसकी शपथ ले रखी है और राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त जिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें इस पद के लिए मनोनीत किया है, उनका लोकसभा में बहुमत है। यह स्थिति बदलते ही वे मंत्री तो क्या संतरी भी नहीं रह जायेंगी और साध्वी की अपनी पूर्व गति को प्राप्त हो जायेंगी। हां, उन प्रधानमंत्री की सरकार ने, जिनका वे खुद भी हिस्सा हैं और इसके बावजूद याद नहीं रख पातीं कि उनका और उस सरकार का कोई सामूहिक उत्तरदायित्व भी है, देश की संसद की मार्फत आत्महत्या सम्बन्धी कानून में ऐसा संशोधन करा दिया है कि आत्महत्या का प्रयास अब अपराध नहीं रह गया है। इसलिए वे अपनी मर्जी से अपनी आस्था, विश्वास व गर्व के लिए सूली पर लटकने की हसरत पूरी ही करना चाहती हैं तो कोई उन्हें कानूनन उनके इस अधिकार के इस्तेमाल से नहीं रोक सकता। लेकिन अगर वे इस भ्रम में जी रही हैं कि ऐसा करके कोई बहादुरी का तमगा हासिल कर लेंगी तो उन्हें खुद को इससे यथासंभव अतिशीघ्र मुक्त कर लेना चाहिए। क्योंकि इस वक्त सम्बन्धित राममन्दिर के निर्माण के लिए उनके बलिदान की नहीं, उसके रास्ते की ‘बाधाओं’ को पहचानने और उन्हें दूर कर यह साफ करने की जरूरत है कि उसे वैमनस्य की भूमि पर बनाया जाना अभीष्ट है या सौहार्द की?

लेकिन क्या किया जाये कि उमा के दुर्भाग्य से अब राममन्दिर निर्माण में सबसे बड़ी बाधा उनके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही हैं, जो अपना आधा कार्यकाल बिता चुकने पर भी उसके व अयोध्या के नाम से अपना परहेज नहीं तोड़ पा रहे। अब वे विश्वस्तर के बड़े नेता बनने के फेर में हैं और जानते हैं कि मन्दिर-मस्जिद मामले में उलझाव से इसमें मदद नहीं मिलने वाली। यह विश्वास करने के भी कारण हैं कि बात उठी तो वे राममन्दिर को लेकर सूली पर लटकने की उमा की बात को भी उनकी निजी राय कहकर खारिज कर देंगे और उसे सरकार की प्रतिबद्धता से नहीं ही जोड़ेंगे। सो, वास्तव में राममन्दिर बनवाना है तो सूली पर लटकें उमा के दुश्मन, उन्हें तो बस प्रधानमंत्री को ‘बदलने’ में लगना चाहिए। वैसे भी अब उनकी जमात के इससे जुड़े वे पुराने बहाने भी खत्म हो गये हैं कि अभी अकेले अपने बूते वाली सरकार नहीं है या उत्तर प्रदेश में, जहां अयोध्या स्थित है, दूसरे बाधक दल की सरकार है। उमा की ही मानें तो सर्वोच्च न्यायालय में जो विवाद है, उसे उसने बातचीत की मार्फत न्यायालय से बाहर खत्म करने की इजाजत दे दी है और उससे भी बात न बने, तो संसद में कानून बनाने का रास्ता तो खुला ही हुआ है।

वैसे कई जानकार कहते हैं कि राममन्दिर के लिए कानून बनाने की भी जरूरत नहीं है। वह तो कांग्रेसी प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ही बनवा गये हैं और अब थोड़ी और इच्छा शक्ति ही दरशाने की जरूरत है। उनकी जानकारी के लिए, 1993 में लम्बे अरसे से चले आ रहे इस विवाद को समाप्त करने और सामाजिक सौहार्द व लोक व्यवस्था की स्थापना करने के उद्देश्य से जो अयोध्या विशेष क्षेत्र अधिग्रहण कानून बना, उसमें अधिगृहीत भूमि पर पांच निर्माणों की व्यवस्था है-राममंदिर, मस्जिद, पुस्तकालय संग्रहालय और जनसुविधाओं वाले निर्माण।

सवाल है कि क्या उमा भारती राम मन्दिर पर अपने गर्व के लिए इस प्रधानमंत्री को, जो उनके लिए संभवतः राममन्दिर जितना ही अजीज है, इस निर्माण के लिए राजी करने में किंचित भी ‘योगदान’ कर सकती हैं? नहीं कर सकतीं तो उनके लिए अपनी इस कमजोरी को ‘सूली पर लटकने’ की बेवजह की दर्पोक्ति की आड़ में छिपाने से बेहतर होगा कि ‘दिनन को फेर’ देखकर चुप हो बैठने की खड़ी बोली के पहले कवि रहीम की सलाह पर अमल और साथ ही अपनी जमात के नाखूनों के उगने या कि और बड़े होने का इंतजार करें। यह समझते हुए कि देशवासियों से भले ही गंजों को चुन लेने की चूक हो गयी है, वे इतने नादान नहीं हैं कि उनकी शातिर दर्पोक्तियों के पीछे छिपे असली मकसद को न समझ सकें।

वे समझते हैं कि उमा भारती बाबरी मस्जिद विध्वंस की साजिश रचने वाले अभियुक्तों में शामिल हैं, जिनकी बाबत सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया है कि उन्हें तकनीकी आधार पर नहीं छोड़ा जा सकता। सो, उनकी यह दर्पोक्ति फिर से मुकदमे व सजा की जद में आने और मंत्री पद गंवाने के अंदेशों से जुड़ी हुई भी हो सकती है। इस तथ्य से भी कि देश या उत्तर प्रदेश में उनकी जमात के लिए इन दिनों ‘सैंया भये कोतवाल’ वाली स्थिति है।

(लेखक फ़ैज़बाद के वरिष्ठ पत्रकार और दैनिक जनमोर्चा के स्थानीय संपादक हैं।)