6 दिसंबर: रिपोर्टर पिटा,अख़बार बढ़ा और मालिक पहुँचा राज्यसभा !

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भाऊ कहिन-5

raghvendraबहरहाल एक हिन्दी अखबार के हिन्दुत्व समर्थक हो जाने का मकसद बहुत बाद में समझ सका । जब उसके मालिक राज्यसभा में सांसद हुए । भाजपा से । (दैनिक जागरण के मालिक संपादक नरेंद्र मोहन-संपादक)  रिपोर्टरों से कार सेवकों का शौर्य लिखवाने का यह रिटर्न ( पारितोषिक ) शायद दो साल बाद । ठीक – ठीक याद नहीं है । इसी परिवार से एक दूसरे प्रभुत्वशाली व्यक्तित्व (महेंद्र मोहन-सं ) समाजवादी पार्टी से राज्यसभा में गए ।

पहले लिख चुका हूं कि आदरणीय स्व. प्रभाष जोशी ने तो खुद को करेक्ट कर लिया था । ( देखें पहले की पोस्ट )। उन्होंने आडवाणी का धतकरम लिखा । बाबरी मस्जिद के ढहे मलबे पर, शाम के धुंधलके में राम लला उन्हें बहुत उदास दिखे। आदरणीय जोशी जी की व्यथा और आहत मन के अक्षरों की तासीर तो ताप की थी , स्पेस काला था । बाद में उन्होंने खूब लिखा , कागद कारे और उसमें धर्म का मर्म परिभाषित किया। प्रभाष जी भी स्व.राजेन्द्र माथुर की तरह हिन्दी में अंग्रेजी से आये थे । आज तक हम सबके स्वाभिमान और गर्व हैं। अपनी यश: काया में । दोनों व्यक्तित्व ।

याद आता है एक बार का वाकया । मैं और अनिल कुमार यादव मीराबाई मार्ग ( लखनऊ ) स्थित राज्य अतिथि गृह गए थे। यहीं अचानक जोशी जी से मुलाकात हो गई।वह हम दोनों को ही बखूबी जानते थे । उन दिनों वह अपने स्तंभ में निहायत एकांतिक और खुद से ही की गई बातचीत ज्यादा लिखने लगे थे ।
—‘ इंसुलिन की कार्टेज लगी देखने में पेन जैसी सूई मुझे स्वीडेन के डॉक्टर ने दी थी …’। (फिर, टहलने के दौरान धोती में खोंसे हुए उस छोटे से मीटर के बारे में , जिससे पता चल जाता था कि अब तक कितनी कैलोरी बर्न हो चुकी है )

एक बार उन्होंने लिखा था – मेरे चसकों में हल्का सा दर्द हो रहा था ..। मैं उठ कर टहलने लगा । रात के समय बच्चे अपने कमरों में सो रहे थे । मैंने कुकिंग रेंज पर खुद के लिए काफी बनाई । पी और अब अपने झबरे के आगे हिज मास्टर्स वॉयस वाली मुद्रा में बैठ गया था ।
हम लोगों ने उनकी लिखी लाइनें उनके सामने करीब – करीब , जस का तस रखते हुए पूछा था – इससे हिन्दी और पत्रकारिता का क्या भला होगा ?
उन्होंने मुस्कराते हुए कहा था – अरे यह बैक गेयर कभी-कभी लग जाता है। उन्हें नमन ।
बाबरी ध्वंस से ठीक पहले और उसके बहुत बाद तक पं.विद्यानिवास मिश्र जी कई बार अयोध्या आये, गए । लेकिन वह लिख रहे थे – कातिक आया बोओ काटो । राधा का लास्य ।
वह भी आखिर राज्यसभा में भाजपा से गए । उन्होंने अटल जी की कविताओं का विमोचन भी किया ।
बहुत पहले मुलायम सिंह यादव जी की पहल पर आयोजित समाजवादियों के विराट सम्मेलन की अध्यक्षता भी कर चुके थे । बद्री विशाल पित्ती की पत्रिका समय का सम्पादन भी ।
गुंबद पर जैसे मधुमक्खियों का छत्ता टूट पड़ा हो। 12 . 15 बजे तक मस्जिद के तीनों गुम्बद पर हिन्दू वीर चढ़ चुके थे और असंख्य मूड़ीयों के बीच भगवाjagaran-ayodhya फहराने लगा ।
नीचे खड़े पुलिस वाले चिल्ला – चिल्ला कर इस बात की हिदायत दे रहे थे कि कार सेवक इतनी तादाद में एक साथ गुम्बद पर न चढ़ें । फिसलने – गिरने का डर है । लेकिन , उनकी यह भी कौन सुन रहा था । जय श्रीराम के उद् घोष से आसमान फटा जा रहा था ।
थोड़ी देर बाद गुबंद पर गैंती और फावड़े चलने लगे । तीनों गुबंद सुर्खी और चूने की धूल में डूब गए । मैं और अनिल कुमार यादव मस्जिद से बस 4 या 5 फुट की दूरी पर थे ।
हवा में इस कारसेवा के संचालकों की सीटी गूंज रही थी । पुलिस और उसके बड़े अफसर तक हतप्रभ खड़े थे । अयोध्या की गलियों में उन्माद नाच रहा था । भाले , त्रिशूल और फरसे क्षितिज पर हिंदुत्व के रक्षा की मंत्रबिद्ध सीमा खींच रहे थे । लोग इतिहास खोदने और उससे और अनबन बढ़ाने आये थे । यह काम फिर शुरू हुआ है ।
इन दो सालों में अकादमिक क्षेत्र में सबसे त्वरित और केंद्रित हमला इतिहास पर हो रहा है । यह बाबरी ढहाये जाने का ही सीक्वल है, नए ढंग का नए फ़ार्मेट में । 6 दिसंबर को सभी हिंदुओं की नहीं , कठमुल्ला ( कट्टर ) हिंदुओं की दखली रामभक्ति ने , एक बड़े समुदाय की आत्मा पर कब्जा कर लेना चाहा था । बड़े समुदाय का आशय किसी एक मजहब से नहीं , सभी तरक्की और अमन पसन्द लोगों से है ।

उधर, 12.55 बजे कारसेवक पत्रकारों और फोटोग्राफरों पर टूट पड़े थे । जमीन पर औंधे गिरे एक पत्रकार को बजरंग दल के कार्यकर्ता कुचलते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे । एक विदेशी फोटो पत्रकार को लोहे की रॉड से पीटा जा रहा था । जो पत्रकार जहां मिला, वहीं धुन दिया गया । गर्द – गुबार , चीख – पुकार , आगजनी, अंधी आस्था की आवाज निकालते तुरही , सिँघा की भों … पों और नगाड़े की कड़कड़ …

राजशेखर , 6 दिसम्बर 1992 की अयोध्या की याद दहशत से भर देती है । शाम शायद 4. 30 बजे तक बाबरी का तीसरा गुबंद भी जमींदोज हो चुका था । उसके बाद तो अयोध्या में जो शुरू हो चुका था । लिखना मुश्किल है ।

मुझे अपने और अनिल के जिंदा बचे रह जाने की खबर गोरखपुर भेजने में भी दिक्कत थी । तब गोरखपुर में मेरे घर पर लैण्ड लाइन वाला फोन भी नहीं था । पड़ोसी के यहां फोन करना होता है । धन्यवाद , छोटे लोहिया (स्व. जनेश्वर मिश्र )! जिनकी वजह से गोरखपुर मेरे घर फोन लग सका ।
बस केंद्र की एक खानापूरी बच गई थी। उसे भी हम दोनों ने देख ली । रामलला ढहे मलबे पर रखे जा चुके थे । 6 दिसम्बर की रात 12 बजे के बाद करीब तीन बजे लाठी पटकते रैपिड एक्शन फोर्स के जवान यहां पहुंचे । उनमें से कुछ ने अपने कमर में बंधी चमड़े की बेल्ट अलग की और रामलला के सामने साष्टांग लेट गए ।
हाफ़िजा गर वस्ल ख्वाही सुलहकुन बा खासो आम , बा मुसलमां अल्लाह – अल्लाह , बा बरेहमन राम – राम ।
या
उसके फरोगे हुस्न से झमके है सबमें नूर ,शम्मे हरम हो याकि दिया सोमनाथ का …
किससे कहता ? लोग किससे प्रेरित होते भी ? मैं तो फकीर ( मुस्लिम साधु ) हूं , …… निकल पडूंगा । यह कहने वाला भी तो कोई नहीं था । अब हम दोनों अयोध्या से लखनऊ आने के जुगाड़ में लगे थे ।

.राघवेंद्र दुबे

(वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे उर्फ़ भाऊ अपने फ़क्कड़ अंदाज़ और निराली भाषा के लिए ख़ासतौर पर जाने जाते हैं। इन दिनों वे अपने पत्रकारीय जीवन की तमाम यादों के दस्तावेज़ तैयार कर रहे हैं।  भाऊ 6 दिसंबर 1992 को  साथी पत्रकार अनिल कुमार यादव के साथ अयोध्या में दैनिक जागरण रिपोर्टर बतौर मौजूद थे, जब बाबरी मस्जिद तोड़ी जा रही थी। भाऊ अपने संस्मरण में जिन राजशेखर को क़िस्सा सुना रहे हैं वे वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं जिन्होंने बड़े प्यार से भाऊ को यादों की वादियों में धकेल दिया है। )

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