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अनुराग अन्वेषी
पीएमओ से मार्फ्ड की हुई तस्वीर जारी होती है और अखबार उसकी कड़ी आलोचना करते हैं। लालू यादव के ट्वीटर हैंडल से भीड़ की मार्फ्ड तस्वीर ट्वीट की जाती है तो अखबार से लेकर सोशल मीडिया तक पर उसकी जगहंसाई होती है। पर कोई अखबार लेआउट के नाम पर तस्वीरें मार्फ्ड करता है तो हम चुप हो जाते हैं।
इन दिनों पत्रकारिता में एक ट्रेंड देखने को मिल रहा है। जो करुण है उसे और करुण बना कर पेश करो, जो वीभत्स है उसे और वीभत्स बना कर परोसो। जो डरावना है, दुखद है; उसे और डरावना बनाओ और दुखद बनाओ। यानी कुल मिलाकर सही स्थिति रखने के बजाए पाठकों के सामने उसकी सनसनी रखो।
पत्रकारिता के पेशे में आने के साथ ही यह बात समझ में आने लगी थी कि जो समाज के लिए सबसे बुरी खबर है वह खबरनवीसों के लिए सबसे अच्छी खबर होती है। महानगर के बड़े अखबारों में काम करते हुए खबरों के चयन के थोड़े और विकृत रूप से मुलाकात हुई। अब अपने ‘टारगेट रीडर’ को ध्यान में रख कर खबरों का चयन होने लगा है। यानी यमुना पुश्ते में अगर अखबार का प्रसार नहीं है और दक्षिणी दिल्ली में है, तो यमुना पुश्ते पर किसी किशोरी के साथ हुई सामूहिक बलात्कार की खबर भले हाशिए पर चली जाए लेकिन दक्षिणी दिल्ली में हुई किसी वृद्धा से छेड़छाड़ की खबर प्रमुखता से ली जाएगी।
राम-रहीम के अंधभक्त इस स्वयंभू बाबा को दोषी करार दिए जाने के बाद अगर पंचकूला को आग में झोंक देते हैं तो यह‘मसाला’ देश की राजधानी के एक प्रमुख अखबार के लिए बहुत बिकाऊ ‘आइटम’ हो जाता है। इसके लिए उसकी संपादकीय टीम अखबार के सेंट्रल स्प्रेड (बीच के दोनों पन्ने) प्लान करते हैं। डिजाइनिंग टीम को बता दिया जाता है कि भयावह हालत है, इसे ‘खूबसूरत’ ढंग से पेश करना है। दुखद यह है कि डिजाइनिंग टीम में अक्सर ऐसे ही लोग होते हैं जिन्हें किसी भी चीज को आकर्षक तरीके से पेश करने का सलीका तो आता है पर डिजाइन को आकर्षक बनाने में पत्रकारिता के किसी मूल्य पर चोट हो रही है या नहीं, इसकी समझ उन्हें नहीं होती।
इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस मुद्दे पर संपादकीय टीम की भी निगाह नहीं जाती। जी हां, 26 अगस्त को इस बीच के पन्ने पर जलती हुई मोटरसाइकिल, सेना, पुलिसकर्मी और जलती हुई कारों का कोलाज तैयार किया गया है। मास्ट के तौर पर नहीं, मेन विजुअल के रूप में। एक झटके में देखने से पाठकों के बीच यह भ्रम बनता है कि यह किसी स्पॉट की एक तस्वीर है। पर नहीं, यह अलग-अलग स्पॉट की तस्वीरों का कोलाज है, मुमकिन है कि डिजाइनर ने आग का चरम दिखाने के लिए कहीं और की आग का इस्तेमाल बैकग्राउंड में कर लिया हो।
तथ्यों के साथ ‘खेलने’ का यह भौंडा प्रदर्शन हमें इशारे कर रहा है कि हम सोचें कि हम पत्रकार कहां जा रहे हैं। किस ओछी और बीमार मानसिकता के हम शिकार हो रहे हैं जिसमें अपने पाठकों को लेआउट के नाम पर छलने का, धोखा देने का और भ्रम फैलाने का काम कर रहे हैं।
यह आज की पत्रकारिता का सच है कि वह किसी आयोजन को अपने अतिउत्साह से उत्सव में बदल देती है और किसी उत्सव को फूहड़ तमाशे में। गंभीर से गंभीर मसला उसके लिए महज मसाला रह जाता है, इसीलिए पंचकूला की आग शायद पूरे पन्ने पर पसर जाती है। जितनी आग लगी नहीं उससे ज्यादा भयावह दिखाई जाती है मानो प्रतियोगिता चल रही है कि तुम्हारे अखबार ने कितनी आग लगाई, हमने तो देखो इतनी लगाई।
यकीन मानिए, अब भी हम न चेतें तो यह आग हमारे चेहरे को इतनी बुरी तरह झुलसा देगी कि पत्रकारिता का चेहरा और उसके मूल्य पहचान में नहीं आएंगे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं