अभिषेक श्रीवास्तव
यह बात आज से करीब पांच साल पहले अगस्त 2012 के आखिरी सप्ताह की है जब एक तस्वीर बड़े संक्रामक तरीके से फेसबुक से लेकर अखबारों और चैनलों समेत हर जगह फैल गई थी। इसमें कुछ ग्रामीणों को बांध के पानी में खड़ा दिखाया गया था। वे बांध की ऊंचाई को कम करने की मांग कर रहे थे। मामला ओंकारेश्वर बांध का था और जगह थी मध्यप्रदेश का खंडवा जिला। भारी जनसमर्थन उमड़ा। ऑनलाइन पिटीशन चलाए गए। मानवाधिकार आयोग को पत्र भेजे गए। 10 सितम्बर को हमें बताया गया कि ग्रामीणों की जीत हुई है। इसके दो दिन बाद हरदा जिले के एक गांव की बिल्कुल ऐसी ही तस्वीरें प्रचार माध्यमों में वायरल हो गईं। यहां मामला इंदिरासागर बांध की ऊंचाई का था। 12 सितम्बर, 2012 की रात यहां पुलिस का दमन हुआ। ग्रामीणों की कोई मांग नहीं मानी गई। उन्हें जबरन पानी से खींच कर बाहर निकाला गया, ऐसी खबरें आईं।
इन दोनों घटनाओं को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि टाइम्स ऑफ इंडिया में एक खबर छपी, ‘रियलिटी बाइट्सः खंडवाज़ मेड फॉर टीवी प्रोटेस्ट’ जिसमें घोघलगांव के आंदोलन को फर्जी और टीवी पर प्रचार बटोरने के उद्देश्य से गढ़ा हुआ बताया गया था। ठीक तीन दिन बाद 18 सितम्बर, 2012 को नर्मदा बचाओ आंदोलन की चित्तरूपा पलित के हवाले से उपर्युक्त रिपोर्ट का खंडन इसी अखबार में छपा कि खंडवा का आंदोलन टीवी प्रचार के लिए नहीं था। खंडन के जवाब में 15 सितंबर, 2012 की रिपोर्ट लिखने वाली पत्रकार सुचंदना गुप्ता ने अपने अनुभव का हवाला दिया और अपने निष्कर्षों पर अड़ी रहीं। ज़ाहिर है गुप्ता की खबर का चारों ओर असर हुआ था।
भारतीय मीडिया में पहली बार ऐसा हुआ था कि किसानों के एक प्रदर्शन के प्रचार को लेकर बहस चली थी और उसे ‘मेड’ या ‘मेड नॉट फॉर टीवी’ ठहराया जा रहा था। मामले की पड़ताल के लिए मैं डेढ़ महीने बाद खंडवा, हरदा और हरसूद की यात्रा पर गया था जब मैंने घोघलगांव का दौरा किया। इतने दिनों बाद भी गांव में प्रवेश पर ऐसा जान पड़ रहा था गोया कोई मेला कल रात ही खत्म हुआ हो। बिल्कुल सामने नाग देवता का मंदिर था जिसके चबूतरे पर अधेड़, बूढ़े और जवान कोई दर्जन भर लोग बैठे होंगे। बगल के पेड़ पर एक पोस्टर लगा था जिसके बीच में महात्मा गांधी थे और चारों तरफ नेहरू, सरदार पटेल, भगत सिंह, शास्त्री, सुभाष चंद्र बोस आदि की तस्वीरें। और पेड़ के साथ ही शुरू होती थी बांस की दर्जनों बल्लियां जो बाईं ओर एक पोखरनुमा जगह तक नीचे की ओर तक लगाई गई थीं। इन बल्लियों पर टीन की नई-नई कई शेड टिकी थीं।
इसी टीन शेड के नीचे लोगों ने जल सत्याग्रह किया था। यही वह जगह थी जहां टीवी चैनलों की ओबी वैन पार्क थीं। यही वह जगह थी जो अगस्त के आखिरी सप्ताह में सोशल मीडिया पर वायरल हो गई थी। हम शेड के भीतर होते हुए नीचे तक उतरते चले गए जहां अंत में एक छोटा सा पोखर सा था। करीब जाकर हमने देखा। यह वास्तव में एक नाला था जो बांध का पानी आने से उफना गया था। जल सत्याग्रही इसी में बैठे थे। उनके बैठने के लिए एक पटिया लगी थी और सहारे के लिए इसमें बांस की बल्ली सामने से बांधी गई थी। उस वक्त पानी दो फुट नहीं था, जैसा कि सुचंदना गुप्ता टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखती हैं। वह लगातार बढ़ रहा था। उस वक्त भले दो फुट रह गया हो।
लब्बोलुआब ये कि दिल्ली तक जल सत्याग्रह की जैसी जानकारियां पहुंच रही थीं, वे उस रूप में वास्तव में थीं नहीं। सत्याग्रह स्थल नदी नहीं, पोखर था। लोग पानी में खड़े तो थे, लेकिन पानी के नीचे बंधी पटिया पर बैठे भी थे। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्टर ने इन तथ्यों के आधार पर सत्याग्रह को झूठा करार दे दिया। सवाल उठता है कि हफ्तों पानी में सत्याग्रह करने के बावजूद मीडिया को सड़े हुए हाथ और पैर न दिखाई दें, देह से गिरती हुई चमड़ी सरोकार न पैदा करे, तो किसान क्या करे?
ज़ाहिर है, फिर किसान अपनी पीड़ा को दर्शाने के लिए समूची देह को उघाड़ देगा, जैसा दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय के सामने दो दिन पहले हुआ है। वह जान भी दे सकता है- याद करें राजस्थान के गजेंदर सिंह को जिसने आम आदमी पार्टी की रैली में दो साल पहजले जंतर-मंतर पर पेड़ से लटक कर जान दे दी थी और पूरे मीडिया में छा गया था। उसकी मौत ने चौतरफा कवरेज के बावजूद मीडिया को दो हिस्सों में बांट दिया था। कोई कह रहा था कि वह नाटक कर रहा था और हादसे में जान चली गई। कोई उसकी मौत को खुदकुशी मान रहा था।
तमिलनाडु के किसानों को दिल्ली लेकर आए उनके नेता इयकन्नु इतिहास से सबक ले रहे हैं कि मरने के बाद भी किसान के ईमान पर मीडिया संदेह करता है। इसीलिए वे खुदकुशी नहीं कर रहे। लगातार मीडिया के लिए ऐसी छवियां पेश कर रहे हैं कि उनकी चिंताएं लोगों के सामने ले जाना मीडिया की मजबूरी बन जाए। पांच दिन पहले इन किसानों ने हाथ काट लिया था। उससे पहले इन्होंने सबके सामने चूहे खाए। उससे पहले ये पेड़ पर चढ़ गए। उससे पहले गले में खोपडि़यां लटका कर इन्होंने प्रदर्शन किया। जब सब कुछ बेकार गया और प्रधानमंत्री ने मिलने का वक्त नहीं दिया, तो ये पूरी तरह नंगे हो गए। किसान नंगे हुए, तो समूचे देश के सामने टीवी के परदे पर लोकतंत्र भी नंगा हो गया। राजा के कान पर फिर भी जूं नहीं रेंगी। तब अगले दिन मंगलवार को इन किसानों ने तपती धूप में सड़क को पत्तल बना लिया और धूल-मिट्टी के साथ मिलाकर चावल और सांभर खाया।
इस लोकतंत्र को पहली बार किसी ने नंगा नहीं किया है। याद करें आज से तेरह साल पहले भारतीय सशस्त्र बलों द्वारा कथित रूप से थांगलाम मनोरमा नामक महिला के बलात्कार और हत्या का विरोध करते हुए मणिपुर की औरतों ने असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने अपने कपड़े उतार दिए थे और ”इंडियन आर्मी रेप अस” लिखे बैनर की आड़ में खड़ी हो गई थीं। पूरी दुनिया ने इस तस्वीर को देखा लेकिन आज तक सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून वहां न सिर्फ लागू है बल्कि और विस्तारित कर दिया गया है। एक दशक से ज्यादा समय तक इस कानून के खिलाफ़ भूख हड़ताल पर रही इरोम शर्मिला ने आखिरकार तंग आकर पिछले साल अनशन तोड़ दिया और चुनाव में शामिल हुईं। बारह औरतों की निर्वस्त्र देह और 12 साल के अनशन का सिला इस लोकतंत्र ने उन्हें महज 90 वोटों के रूप में दिया।
इस लोकतंत्र में किसान सब कुछ आज़मा चुका है। उसे मीडिया को भी आज़माना आ गया है। वह जानता है कि उसे कैसे और क्यों दिखाया जाएगा। इसीलिए महीने भर से दिल्ली में डेरा डालकर बैठे किसान कर्जमाफी की अपनी मांग को मनवाने के लिए लगातार नए-नए दृश्य पैदा कर रहे हैं। मीडिया की मजबूरी है कि उन दृश्यों को दिखाए। इस देश का किसान अब मीडिया फ्रेंडली हो चला है। पांच साल पहले की तरह इनके ऊपर ”मेड फॉर टीवी प्रोटेस्ट” का न कोई आरोप लगा रहा है, न ही ये खंडन कर रहे हैं। नंगा किसान, चूहा खाता किसान, मिट्टी के साथ चावल खाता किसान, पेड़ पर चढ़ा किसान, अपने कंकाल में से झांकता किसान इस लोकतंत्र और मीडिया में तकरीबन स्वीकृत तस्वीर बन चुका है।
वह ये सब क्यों कर रहा है जबकि राजा उसकी सुन नहीं रहा? उसे अब भी भरोसा है कि राजा ने कपड़े पहन रखे हैं। आखिरी तौर पर नंगा उसी के सामने हुआ जा सकता है जिसे आप नंगा नहीं मानते। अगर सामने वाला भी नंगा है, तो नंगा होने का कोई मूल्य नहीं रह जाता। मणिपुर-2004 और दिल्ली-2017 के बीच तेरह साल का फासला है। मणिपुर इस बीच दिल्ली के पीएमओ तक आ चुका है और दिल्ली की तस्वीर मीडिया के माध्यम से मणिपुर तक पहुंच चुकी है, लेकिन राजा को लोगों की आवाज़ अब भी नहीं सुनाई दे रही। किसानों के निर्वस्त्र प्रदर्शन पर उनके नेता इयकन्नु कहते हैं, ”हम भिखारी नहीं हैं। हमें ऐसा करने पर मजबूर किया जा रहा है। हमारे पास कोई और विकल्प नहीं है।”
क्या वाकई कोई और विकल्प नहीं है? यह भी तो हो सकता है कि राजा ही नंगा हो? कुसूर नजरों का भी तो हो सकता है? आखिरी विकल्प तो बेकार जा चुका है। इयकन्नु क्यों नहीं कह देते कि अपने लकदक सूट में राजा दरअसल खुद नंगा है? वे ऐसा नहीं करेंगे। नंगे को नंगा कह दिया तो नंगे से मांगेंगे क्या? नंगा देगा क्या? जब तक आपको राजा से कुछ चाहिए, तब तक उसके कपड़े पहने का भ्रम पाले रखना मजबूरी है। राजा इस बात को अच्छे से जानता है। इसीलिए वह लोकशाही की आड़ में अपनी निर्वस्त्र देह छुपाता है। जनता भी लोकशाही की दीवार को लांघ नहीं पाती, तो तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है। मीडिया इस चौतरफा नंगई का तमाशबीन बना फिरता है। उसके पास अपनी नंगई को छुपाने के लिए संविधान का अनुच्छेद 19(अ) है।
इस लोकतंत्र में सबको नंगा होने का हक़ है। सबके पास नंगई छुपाने की तरकीब भी है। इसीलिए किसी की नंगई किसी को शर्मिंदा नहीं करती। इसीलिए किसानों का आखिरी हथियार भी बेकार जा चुका है। जर्जर हो चुके लोकतंत्र के परदे की आड़ में चल रहा एक भव्य नग्न-पर्व है। क्या हुआ कि यह इक्कीसवीं सदी का सतरहवां साल है? नंगा होना अब भी बुरा काम है। राष्ट्रपिता कह गए हैं बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो। राजा इसीलिए आश्वस्त है।