भारतीय मीडिया लोक में मालेगाँव बम धमाके के आरोपी लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित की बेल का जैसा जश्न मनाया जा रहा है, वह अभूतपूर्व है। ऐसा लगता है कि नौ साल बाद मिली बेल ही पुरोहित की बेगुनाही का ऐलान है। ज़रा न्यूज़ 18 इंडिया के ऐंकर सुमित अवस्थी के इस ट्वीट को देखिए जिसमें उन्होंने अपने कार्यक्रम ‘हम तो पूछेंगे’ का प्रचार करते हुए पूछा है कि क्या कर्नल पुरोहित को फँसाने से सेना का मनोबल गिरा होगा ? यानी सुमित को पूरा भरोसा है कि पुरोहित को ‘फँसाया’ गया। सवाल बस यह है कि सेना का मनोबल इससे गिरा होगा या नहींं !
…यह भाषा आज की पत्रकारिता की हक़ीक़त है । कई चैनलों पर पुरोहित की बेल पर दिखाए गए कार्यक्रमों में ज़ोर इसी बात पर रहा कि यूपीए सरकार ने ‘हिंदू आतंकवाद’ जैसा शब्द वोटबैंक के नज़रिए से गढ़ा। हक़ीक़त में ऐसा कुछ नहीं था। चैनलों में पुरोहित का नाम लगातार बहुत आदर-सम्मान से लिया गया। जबकि आतंक की घटनाओं पर चर्चा के दौरान आरोपियों के प्रति हिक़ारत का भाव रहता है और उन्हें अदालती फ़ैसले के पहले ही दोषी की तरह पेश करने का रिवाज है (ज़ाहिर है वे मुस्लिम होते हैं, पुरोहित की तरह हिंदू नहीं !)
पर हक़ीक़त क्या है ?..मशहूर वकील प्रशांत भूषण का यह ट्वीट देखिए जो बता रहे हैं कि कर्नल पुरोहित ने ख़ुद माना था कि वे अभिनव भारत में जासूसी करने गए थे। यानी अभिनव भारत के ख़तरनाक इरादों के बारे में पुरोहित ख़ुद गवाही दे रहे हैं।
बहरहाल, समझौता बम विस्फोट की जांच करने वाली एसआईटी के प्रमुख रहे हरियाणा कैडर के रिटायर्ड आइपीएस विकास नारायण राय ने इस संबंध में कुछ गंभीर सवाल उठाते हुए ख़ास मीडिया विजिल के लिए एक लेख लिखा है..पढ़ें–
मोदी के न्यू इंडिया में पुरोहित का यह एनआईए इंडिया भी शामिल है !
नौ वर्ष तक भारतीय सेना का एक अफसर बिना ट्रायल भारतीय जेल की सलाखों के पीछे रहा हो और अब भारत का सर्वोच्च न्यायालय उसे जमानत पर छोड़ने के आदेश दे तो भला किसकी सहानुभूति उसके साथ नहीं होगी. विशेषकर जब देश के सबसे महंगे वकील ने उस अफसर की पैरवी में दावा किया हो कि उसे सत्ता राजनीति का शिकार बनाया गया है. मालेगांव आतंकी मामले के आरोपी कर्नल श्रीकांत पुरोहित और उच्चतम न्यायालय में उनके वकील हरीश साल्वे अपने लिए इससे बेहतर माहौल की कल्पना नहीं कर सकते थे.
जेल से निकले पुरोहित को मीडिया ने हाथों-हाथ उठा रखा है. जाहिर है वे सेना यूनिट में वापसी करेंगे. हालाँकि वे नौकरी से निलंबित हैं और गंभीर दुराचरण के लिए कोर्ट मार्शल भुगत रहे हैं. भाजपा और आरएसएस पुरोहित की जमानत को ही उनकी बेगुनाही बतौर पेश कर रहे हैं. जबकि कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों का कहना है कि मोदी सरकार के दबाव में एनआईए ने जानबूझकर पुरोहित के मामले को कमजोर कर उसी तरह उनकी जमानत का रास्ता प्रशस्त किया है जैसे पहले सह-अभियुक्त प्रज्ञा के लिए किया था. इन तमाम संशयों से दो-चार से पहले घटनाक्रम पर एक संक्षिप्त नजर.
2006 मालेगांव विस्फोटों की अनिश्चितता के बाद, सन 2007 में एक के बाद एक देश भर में मुस्लिम ठिकानों को निशाना बनाकर आतंकी घटनायें हुयीं. समझौता एक्सप्रेस (पानीपत), मक्का मस्जिद (हैदराबाद), अजमेर शरीफ (राजस्थान). शुरू में जांच एजेंसियों की शक की सुई सिमी और अल-कायदा जैसे मुस्लिम आतंकी संगठनों पर टिकी रही, पर सामने आये तथ्यों की रोशनी में छान-बीन ने अलग मोड़ ले लिया. पहली बार भगवा मार्का आतंकी गिरोह का नाम सामने आया.
सितम्बर 2008 मालेगांव-दो आतंकी विस्फोटों में घटनास्थल से बरामद हुयी प्रज्ञा सिंह की मोटरसाइकिल ने पुलिस को अंततः उपरोक्त आतंकी मामलों में असीमानंद और सुनील जोशी के नेतृत्व में संघियों की संलिप्तता और उन्हें बारूद मुहैया कराने वाले कर्नल प्रसाद पुरोहित और उनके संगठन ‘अभिनव भारत’ के परस्पर गठजोड़ तक पहुँचाया. इस बीच प्रज्ञा के साथ दुर्व्यवहार को लेकर दिसंबर 2007 में सुनील जोशी की हत्या उसके संघी साथियों के हाथों हो चुकी थी. गिरोह के सदस्यों की गिरफ्तारियां हुईं लेकिन दो प्रमुख संघी आरोपी, संदीप डांगे और रामचंद्र कुल्सान्ग्रे आज तक फरार चल रहे हैं. कुल्सान्ग्रे, जो इलेक्ट्रिकल इंजीनियर है, ने विस्फोटक जंतर जोड़ने में भूमिका निभायी थी.
प्रज्ञा और पुरोहित की महाराष्ट्र एटीएस द्वारा गिरफ्तारी के महीने भर में एटीएस चीफ हेमंत करकरे मुंबई 26/11 हमलों में शहीद हो गए. एटीएस ने 2009 में अदालत में आरोप पत्र दाखिल कर दिया था. केन्द्रीय जांच एजेंसी एनआईए ने 2016 में मकोका को हटाने वाला और प्रज्ञा को क्लीन चिट देने वाला नया आरोप पत्र दाखिल किया, और इस तरह पहले प्रज्ञा और अब पुरोहित की जमानत का रास्ता सुलभ कर दिया.
ध्यान दीजिये, इसी जुलाई में पंचकुला की एनआईए अदालत में समझौता कांड के पाकिस्तानी गवाहों का बयान और जिरह होना था. वैसे केस में एनआईए पहले ही सारे अभियोजन गवाह बैठा चुकी है और तमाम हिंदुत्व ब्रांड आरोपियों का बरी होना तय है. तब भी आरएसएस ने हरियाणा सरकार के वरिष्ठ मंत्री अनिल विज से बयान दिलवाया कि एक हिन्दू कभी आतंकी हो ही नहीं सकता. दरअसल, यही है आज का एनआईए इण्डिया दर्शन. यह और बात है कि आतंकवाद के इतिहास में विश्व का सर्वाधिक कृतसंकल्प दुहसाह्सी संगठन लिट्टे, एक हिन्दू संगठन ही था.
एनआईए, केंद्र सरकार की आतंकी अपराधों की छानबीन करने वाली एक पेशेवर पुलिस संस्था है. उसे किसी राजनीतिक अंध विश्वास को हवा देने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. उसे कांग्रेस या भाजपा-आरएसएस के राजनीतिक दर्शन से कुछ लेना-देना नहीं होना चाहिये. आतंकी धमाकों के लिए सेना का बारूद मुहैया कराने वाले कर्नल पुरोहित की सुप्रीम कोर्ट से जमानत के सन्दर्भ में जरा निम्न सवालों पर नजर डालिए.
- क्या भारतीय सेना इतनी असहाय है कि कोई जांच एजेंसी उसके सेवारत कर्नल को झूठे आरोपों, और वह भी सेना का ही बारूद चुरा कर आतंकियों को देने जैसे संगीन आरोप में सालों-साल जेल में बिना प्रतिवाद के रखने की जुर्रत कर सके?
2. सेना के लिए यह बेहद अपमान की बात रही होगी कि उनकी अपनी इंटेलिजेंस यूनिट में सेवारत कर्नल ऐसे देशद्रोही मामले में लिप्त पाया गया. सेना ने पुरोहित के विरुद्ध कोर्ट मार्शल के आदेश दिए. ऐसा प्रथम दृष्ट्या पुरोहित के आचरण को गंभीर रूप से गलत पाकर ही किया जाएगा.
3. कर्नल पुरोहित ने सह अभियुक्तों के साथ ‘अभिनव भारत’ की बैठकों में भाग लेने की बात स्वीकारी है क्योंकि इसे वे अपने से जुड़ती कड़ियों के चलते झुठला नहीं सकते थे. उनका दावा है कि उन्होंने अपने वरिष्ठों की जानकारी में यह तथ्य लाया हुआ था. जबकि जांचकर्ताओं ने उनकी यूनिट के अफसरों के जो बयान दर्ज किये हुए हैं उनमें इस दावे को नाकारा गया है.
4. क्या यह बात विश्वासयोग्य है कि पुरोहित अपने वरिष्ठों को संघी गिरोह के बारे में बताते भी रहे और तब भी एक के बाद एक आतंकी वारदातें भी होने दी गयीं. समझौता ब्लास्ट फरवरी 2007 में और मालेगांव-दो सितम्बर 2008 में हुआ. सेना के पास इस दौरान चुप रहने का क्या कारण हो सकता है?
5. जमानत पाने के लिए वकील साल्वे का मुख्य तर्क रहा कि जब मुख्य आरोपियों में से एक प्रज्ञा को जमानत मिल गयी तो नौ साल जेल में रहने के बाद पुरोहित भी इसके हकदार हैं. यह तर्क काम कर गया क्योंकि एनआईए के नए आरोप पत्र के मुताबिक, मकोका हट जाने के बाद, पुरोहित सिर्फ बारूद मुहैया कराने के अपराधी रह जाते हैं और उस हिसाब से नौ वर्ष काफी कहे जा सकते हैं.
6. किसी भी अदालत ने, यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायलय ने भी, न तो एटीएस के पहले आरोप पत्र को ख़ारिज किया है और न ही एनआईए के दूसरे आरोप पत्र को स्वीकारा है. अभी ट्रायल कोर्ट के सामने दोनों आरोप पत्र हैं और उसे तय करना है कि किसका संज्ञान लिया जाय. लिहाजा, भाजपा-आरएसएस का जमानत होने के आधार पर पुरोहित को बेक़सूर बताना कोरी राजनीतिक जुमलेबाजी है.
7. मई 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद एनआईए ने इन तमाम मामलों में सरकारी गवाहों को बिठाने और आरोपों को कम करने का सिलसिला शुरू किया. फिर भी अजमेर शरीफ मामले में पुरोहित की बैठकों में शामिल दो संघियों को ट्रायल कोर्ट से सजा मिल चुकी है जबकि मालेगांव मामले में स्वयं अभियोजक ने मीडिया के सामने आकर एनआईए के दबाव का आरोप लगाया था.
8. सारे संकेत हैं कि एनआईए चीफ शरद कुमार ने सेवा विस्तार पाने और बाद में कोई बड़ा पद हथियाने के क्रम में ‘इस हाथ दे और उस हाथ ले’ के तहत भाजपा सरकार को उपकृत किया है. शरद कुमार 2013 में ही एनआईए चीफ हो गए थे और एक वर्ष तक इन मामलों के पुराने आरोप पत्रों के अनुसार तमाम मामलों में ट्रायल चलते रहे. मई 2014 में मोदी सरकार बनते ही उनका बदला रंग नजर आने लगा.
9. नौकरशाही में यह कोई नयी बात नहीं है. दरअसल, भाजपा ने कांग्रेस से ही यह सब सीखा है. फलस्वरूप शरद कुमार को मोदी सरकार से अब तक दो बार सेवा विस्तार मिल चुका है. तीसरा, पुनः इसी अक्तूबर में मिल जाएगा. अन्यथा, उन्हें किसी और महिमावान कुर्सी से नवाजा जाएगा.
10. सर्वोच्च न्यायलय में एनआईए ने दिखावे के लिए पुरोहित की जमानत का विरोध किया था. दरअसल, अपने जांचकर्ताओं के ही जुटाए सबूतों को झुठलाने से एनआईए में स्वाभाविक असंतोष है, और उसे अनदेखा कर पुरोहित को भी क्लीन चिट दे पाना शरद कुमार के लिए भी संभव नहीं रह गया था.
इसे विडम्बना ही कहेंगे कि राष्ट्रवादी आरएसएस, शहीद हेमंत करकरे के बजाय स्वामिभक्त कर्नल पुरोहित के साथ खड़ी है। वैसे, अंग्रेजों ने भी क्रांतिवीर भगत सिंह को फांसी दी थी और स्वामिभक्त सावरकर को क्षमादान।
.विकास नारायण राय