मीडियाविजिल अपने पाठकों के लिए एक विशेष श्रृंखला चला रहा है। इसका विषय है ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विकास। यह श्रृंखला दरअसल एक लंबे व्याख्यान का पाठ है, इसीलिए संवादात्मक शैली में है। यह व्याख्यान दो वर्ष पहले मीडियाविजिल के कार्यकारी संपादक अभिषेक श्रीवास्तव ने हरियाणा के एक निजी स्कूल में छात्रों और शिक्षकों के बीच दो सत्रों में दिया था। श्रृंखला के शुरुआती चार भाग माध्यमिक स्तर के छात्रों और शिक्षकों के लिए समान रूप से मूलभूत और परिचयात्मक हैं। बाद के चार भाग विशिष्ट हैं जिसमें दर्शन और धर्मशास्त्र इत्यादि को भी जोड़ कर बात की गई है, लिहाजा वह इंटरमीडिएट स्तर के छात्रों और शिक्षकों के लिहाज से बोधगम्य और उपयोगी हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है ”ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विकास” पर तीसरा भाग:
ब्रह्मांड को जानना और समझना साइंटिफिक टेम्पर विकसित करने का सबसे अच्छा साधन है। ब्रह्मांड को कैसे जाना जाए? मानवता के इतिहास की सबसे बड़ी जिज्ञासा यही है। हमारे पास पांच इंद्रियां हैं। उनके देखने, सुनने, कहने, महसूस करने, सूंघने की एक सीमा है। यह सीमा हम उपकरणों के माध्यम से बड़ा लेते हैं। मसलन, हम लोग घूमने जाते हैं तो एक बाइनॉक्युलर लेकर जाते हैं। पहाड़ों को उससे देखते हैं। दूर की चीज साफ दिखाई देती है। लिखने की सीमा है। हाथ दर्द करने लगता है। तो टाइपराइटर हमने बनाया। फिर कंप्यूटर बनाया। ये जितनी भी मशीनें हैं, तकनीक हैं, ये हमारी इंद्रियों का विस्तार हैं। एक्सटेंशन हैं। जो काम हमारे शरीर से सहज संभव नहीं है, उसे तकनीक संभव बनाती है। ऐसी ही एक तकनीक है टेलिस्कोप।
ब्रह्मांड को जानने-समझने के इतिहास में टेलिस्कोप सबसे अहम तकनीक है और मनुष्य का सबसे अहम आविष्कार है। इस टेलिस्कोप ने हमें दूर तक देखने की सलाहियत दी है। हमने चांद तारों को देखा। मिल्की वे को देखा। दूसरी आकाशगंगाओं को देखा। फिर टेलिस्कोप को हमने उपग्रहों के माध्यम से ग्रहों की कक्षाओं में स्थापित किया ताकि और करीब से पता चल सके कि वहां क्या हो रहा है। टेलिस्कोप नहीं होता तो हम कुएं के मेंढक होते। कुएं से बाहर देखने की तकनीक के सहारे ब्रह्मांड को समझना और जितना समझ में आए, उसके आधार पर टेलिस्कोप की क्षमता से बाहर के प्रसार के बारे में अंदाज़ा़ लगाना ही कॉस्मोलॉजी है। खगोलशास्त्र है।
इसके सफर को संक्षेप में जानना बहुत जरूरी है। बीसवीं सदी में हमें बस इतना पता था कि हमारा एक सौरमंडल है और एक आकाशगंगा है। एक सूरज है। उसके इर्द-गिर्द नौ ग्रह चक्कर लगाते हैं। उनमें एक हमारी धरती भी है। एक चांद है जो धरती का चक्कर लगाता है। आज तक स्कूलों में इतना ही पढ़ाया जाता है। स्कूलों की पढ़ाई इस लिहाज से आधुनिक खोजों से 100 साल पीछे है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में विज्ञान का सबसे अहम सवाल यह था कि क्या हमारी आकाशगंगा के पार भी कोई और आकाशगंगा है या हम इस ब्रह्मांड में अकेले हैं? इस सवाल का हल खोजने के लिए कैलिफोर्निया में एक पहाड़ माउंट विल्सन के शिखर पर 1903 में एक टेलिस्कोप लगाया गया। पहाड़ पर लगाने का खयाल वाकई बहुत आदिम था क्योंकि हम अब भी यही मानते हैं कि जितना ऊपर जाओ, उतना ही दूर और साफ नजर आता है।
सोचिए, उस जमाने में एक पहाड़ के ऊपर ऑब्जरवेटरी बनाने में कितना खर्च आया होगा। कैसे वहां उपकरण पहुंचाए गए होंगे। रात के साफ आकाश में महीनों इस टेलिस्कोप से अंतरिक्ष में देखा गया, तो एक दिन पाया गया कि हमारी आकाशगंगा के पार कुछ धुंधले से प्रकाशमान बादल मौजूद हैं। जैसा हमारा मिल्की वे दिखता है, वैसे ही कई मिल्की वे दिखते थे। इसे नेब्युली कहा गया। नेब्युला लैटिन का शब्द है जिसका मतलब होता है बादल। वे वाकई बादल जैसे दिखते थे। इससे यह अंदाजा लगा कि शायद हमारी आकाशगंगा के पार ऐसी ही कई और आकाशगंगाएं हैं। सबमें प्रकाश था। सारे धुंधले थे, रोशनी घटती बढ़ती रहती थी। यह नहीं पता चल पा रहा था कि इनकी दूरी कितनी है। उस वक्त एक बड़े खगोलविद थे एडविन हबल। उन्हें यहां बुलाया गया और उनसे कहा गया कि आप पता करिए ये नेब्युले कितनी दूर हैं। हबल कई रात आसमान में देखते रहे। यह टेलिस्कोप 100 इंच के लेंस का था। उस समय तक यह दुनिया का सबसे बड़ा टेलिस्कोप था। एक रात उन्होंने पाया कि एक बादल में एक तारा ऐसा भी है जिसकी रोशनी घटती बढ़ती नहीं है। वह मोटे तौर पर बराबर बनी रहती है। इसका मतलब यह हुआ कि उसकी दूरी घट बढ़ नहीं रही है। इसे इस तरह समझिए कि कोई कार रात में आ रही हो तो वह जितनी दूर होगी, उसकी हेडलाइट उतनी छोटी दिखाई देगी। वह जितना पास आती जाएगी, उसके हेडलाइट की रोशनी बढ़ती जाएगी। यानी प्रकाश की तीव्रता या घटने बढ़ने के साथ ऑब्जेक्ट की दूरी का एक रिश्ता होना चाहिए।
इसी फॉर्मूले को बिल साहब ने बादल में कोने पर स्थित उस तारे पर आजमाया। उन्होंने उस तारे को लगातार ध्यान से देखा जिसकी चमक बदल नहीं रही थी। इसे उन्होंने वैरिएबल का नाम दिया। यह तारा जिस नेब्युला में था, उसे नाम दिया गया था एन्ड्रोमेडा। हबल का वैरिएबल तारा एन्ड्रोमेडा की परिधि पर था। उस समय तक इतना तो पता ही था कि प्रकाश की गति क्या है। आप सब जानते होंगे- तीन लाख किलोमीटर प्रति सैंकेंड। प्रकाश की गति और प्रकाश की तीव्रता के आधार पर हबल ने एन्ड्रोमेडा की दूरी पता लगा ली। यह खोज ऐतिहासिक थी। यह बात 1923 की है। हम पहली बार अपनी आकाशगंगा के बाहर किसी दूसरी चीज की दूरी जान सके थे। अब यह सवाल खत्म हो चुका था कि इस ब्रह्माण्ड में हम अकेले हैं या नहीं। इसके अलावा एक बात यह भी सामने आई थी कि दूसरी आकाशगंगाओं का जो प्रकाश समय के साथ घटता हुआ दिखाई दे रहा है वह हमें इस नतीजे पर पहुंचाता है कि चीजें हमसे दूर जा रही हैं। यहां दो संभावनाएं थीं।
इसे आप प्रयोग करके समझ सकते हैं। एक रबड़ का तार ले लीजिए और उसमें कुछ मनके डाल दीजिए। रबड़ का तार लवीला होता है। विज्ञान की भाषा में यह वन डायमेंशनल स्पेस है। इसमें पिरोए गए मनकों को आप ग्रह-नक्षत्र मान सकते हैं। अब आप रबड़ को दोनों सिरों से पकड़ खींचिए। आप पाएंगे कि रबड़ की लंबाई तो बढ़ ही रही है, मनकों के बीच की दूरी भी बढ़ रही है। यानी स्पेस जब फैलता है, एक्सपैंड होता है, तो उसमें मौजूद चीजें भी अपनी दूरी को बदलती हैं। इसका मतलब ये हुआ कि हबल साहब को जो आकाशपिंड और आकाशगंगाएं दूर जाती दिख रही थीं, वह इस वजह से भी हो सकता था कि स्पेस फैल रहा है। यह अजीब बात थी। ब्रह्माण्ड का फैलना, बड़ा होना, विस्तृत होना एक नई बात थी। यह डराने वाली बात भी थी। उन्हें अब इस पर काम करना था।
तो उन्होंने एक बहुत पुराने उपकरण का सहारा लिया। इंटरमीडिएट में या बीएससी में इसे हम लैब में प्रयोग में लाते हैं। इसे स्पेक्ट्रास्कोप कहा जाता है जो सफेद प्रकाश को उसके सात रंगों में तोड़ देता है। यह 18वीं सदी का उपकरण है। हम जानते हैं कि सबसे कम दूरी का प्रकाश नीले रंग का होता है। इसे हम वेवलेंथ कहते हैं। सबसे लंबी वेवलेंथ का रंग लाल होता है। इंद्रधनुष में यह साफ दिखाई देता है। रंगों के पूरे पैटर्न को हम विबग्योर कहते हैं। वॉयलेट, इंडिगो, ब्लू, ग्रीन, येलो, ऑरेंज, रेड। वॉयलेट की वेवलेंथ सबसे कम और रेड की सबसे ज्यादा। इसका मतलब यह हुआ कि गैलेक्सी अगर हमसे दूर जा रही है, तो उसकी वेवलेंथ और ज्यादा लंबी होती जा रही होगी यानी लाल रंग की होगी। इसे हम रेड शिफ्ट कहते हैं। उन्होंने यह निष्कर्ष दिया कि गैलेक्सी की दूर जाने की गति जितनी तेज होगी, उसका रेड शिफ्ट भी उतना ही ज्यादा होगा।
इसी आधार पर बाद में न्यू मेक्सिको में स्थापित किए गए अपाची प्वाइंट ऑब्जरवेटरी से वैज्ञानिकों ने 930,000 गैलेक्सियों की गति का पता लगा लिया। वैज्ञानिको ने यह निष्कर्ष भी निकाला कि ब्रह्माण्ड लगातार फैल रहा है, स्थिर नहीं है। इसका एक सहज तर्क यह है कि अगर ब्रह्माण्ड की कोई सीमा होती, कोई चारदीवारी होती तो 13 अरब साल से दूर जाते जाते लगातार ये पिंड उसके बाहर निकल जाते। जबकि ऐसा तो है नहीं। अगर 13 अरब साल से लगातार आकाशगंगाएं दूर जा रही हैं, इसका मतलब कि चौहद्दी भी लगातार फैल रही है और ब्रह्माण्ड की कोई दीवार नहीं है। इसका दूसरा मतलब यह है कि ब्रह्माण्ड के बाहर कुछ भी नहीं है। इसका तीसरा मतलब यह हुआ कि ब्रह्माण्ड अपनी आरंभिक अवस्था में बहुत छोटी सी चीज रहा होगा और किसी बड़ी प्रक्रिया के तहत उसने फैलना शुरू किया रहा होगा। वह आरंभिक अवस्था क्या थी? इसका जवाब दिया गया- बिग बैंग।
बिग बैंग, यानी मटर के दाने के बराबर रहा ब्रह्माण्ड किसी बड़े विस्फोट के कारण फैलने लगा और फैलते-फैलते आज की स्थिति जा पहुंचा और लगातार फैल रहा है। यह हालांकि सिर्फ एक अंदाजा है, प्रस्थापना है। हम नहीं जान सकते कि 13 अरब साल पहले क्या हुआ था। यह जानना असंभव है। इसके लिए एक ऐसे टेलिस्कोप की जरूरत पड़ेगी जो विबग्योर यानी दृश्य स्पेक्ट्रम से बाहर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम को देख सके क्योंकि वह हमारी आंखों की क्षमता से बाहर की चीज है। मामला फिर एक टेलिस्कोप पर आकर टिक गया।