G-23 काँग्रेस: बग़ावत या भगावत?


दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र का दम भरने वाले अमेरिका में 1776 में क्रांति हुई थी, लेकिन 1860 में वहाँ गृहयुद्ध हो रहा था। काले-गोरों की क़ानूनी बराबरी का मुद्दा इन 84 सालों में हल नहीं हो पाया था। राष्ट्रपति लिंकन को अपनी जान भी गँवानी पड़ी थी क्योंकि वे कालों को हक़ देने के पक्ष में थे। भारत में एक आदर्श संविधान बन जाने से राज और समाज आदर्श नहीं बन गया है। उसे बनाना होगा। यह एक विराट राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रोजेक्ट है। कांग्रेस जैसी पार्टी इस प्रोजेक्ट को धार देते हुए ही खुद को प्रासंगिक और मज़बूत बना सकती है। गाँधी परिवार की ख़ूबी यह है कि उसने निरंतर हमला झेलते हुए भी यह विचारभूमि नहीं छोड़ी है। उसे तिरंगे की जगह भगवा पहनाना ‘मोदी है तो मुमकिन है’ के तुमुलघोष के बीच भी मुमकिन नहीं हो पाया है। यही उसकी शक्ति है जिसे जी-23 ‘सीमा’ समझ रहा है।


डॉ. पंकज श्रीवास्तव डॉ. पंकज श्रीवास्तव
ओप-एड Published On :


जिस समय पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक चुनावी संग्राम की दुंदुभी बजी हो, कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता जम्मू में जमा हुए, यह बताने के लिए कि कांग्रेस की स्थिति बहुत कमज़ोर है। मीडिया में ये लोग ‘जी-23’ के नाम से मशहूर है। यानी उन 23 नेताओं का समूह जिन्होंने बीते दिनों सोनिया गाँधी को चिट्ठी लिखकर पार्टी को मज़बूत करने और सांगठनिक चुनाव की माँग उठायी थी।

मीडिया ग़ुलाम नबी आज़ाद के नेतृत्व में इसे पार्टी में ‘बग़ावत’ का नाम दे रहा है। कुछ राजनीतिक पंडित पार्टी में एक और टूट का कयास लगा रहे हैं। उधर, बिना पद के कांग्रेस के सबसे बड़े चेहरे राहुल गाँधी दक्षिण भारत में ज़मीन से लेकर समुद्र तक मथ रहे हैं तो महासचिव प्रियंका गाँधी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर इलाहाबाद तक किसानों से लेकर मछुआरों के बीच पूरे तेवर के साथ जुटे रहने के साथ, असम के चुनावी रंग को बदलने के लिए उत्तर पूर्व का चक्कर लगा रही हैं। ऐसा लगता है कि इन दोनों नेताओं को पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के इस रुख से कोई चिंता ही नहीं है।

इसकी वजह तथाकथित विद्रोही नेताओं की अपना रवैया है। जम्मू में जुटे इन नेताओं के सर पर भगवा पगड़ी थी और वे एक ही बात को सबसे मुखर तरीक़े से कह पा रहे थे- ‘पार्टी ग़ुलाम नबी आज़ाद की सेवाओं का उपयोग नहीं कर रही है, लेकिन आज़ाद साहब रिटायर नहीं होंगे।’ घूम-फिर कर सारी बात ग़ुलाम नबी आज़ाद पर टिक गयी थी गोया उनके साथ कोई ‘बड़ा अन्याय’ हो रहा है। वे ऐसा कोई संदेश नहीं दे सके जो बताये कि कांग्रेस किसी वैचारिक विचलन का शिकार हो रही है।

आख़िर ये अन्याय है क्या? यही न कि पार्टी आलाकमान ने उन्हें दोबारा राज्यसभा में भेजने की कोई ठोस पहल नहीं की है। या निकट भविष्य में ऐसा करने का आश्वासन ही दिया है। ग़ुलाम नबी आज़ाद तीन दशकों से ज़्यादा समय से संसद में हैं। बीच में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री भी रहे हैं। जब कांग्रेस सत्ता में रही तो केंद्र में मंत्री रहना तय रहा। तमाम राज्यों के प्रभारी रहे हैं। एक पार्टी किसी नेता को जो दे सकती है, वह सब आज़ाद को 71 साल की उम्र में हासिल हो चुका है, सिवाय प्रधानमंत्री पद पर बैठाये जाने के। कुछ दिन पहले तक वे राज्यसभा में नेता विपक्ष थे और उनके रिटायरमेंट पर, उनसे अपने रिश्तों को याद करते हुए आँसू भरी आँखों से जैसा विदाई भाषण प्रधानमंत्री मोदी ने दिया, वह बहुतों को चौंका गया। जिस दौर में कांग्रेस को सबसे कठिन वैचारिक चुनौती से जूझना है, उस दौर में पार्टी के एक नेता के प्रति कांग्रेस मुक्त भारत का संकल्प करने वाले पीएम से ऐसे सघन रिश्ते का मतलब क्या है?  मौक़ा पाते ही आज़ाद भी मोदी जी की तारीफ़ करने से नहीं चूके। हाल ही में उन्होंने एक तारीफ़ यह भी की कि पीएम मोदी ने अपनी पृष्ठभूमि छिपाई नहीं। ( आख़िर किस प्रधानमंत्री ने छिपाई, यह बात भी बता देते तो अच्छा रहता। देश आनंद भवन से आये नेहरू और अभावों में पले शास्त्रीजी से लेकर विभाजन की पीड़ा झेलकर बेहद ग़रीबी से निकले मनमोहन सिंह की पृष्ठभूमि अच्छी तरह जानता है। यह अलग बात है कि किसी ने उसे इस तरह बेचा नहीं जैसा कि मोदी जी ने चायवाला बनके किया।)

ये वाक़ई चौंकाने वाली बात है कि जब लगभग सौ दिनों से देश के लाखों किसान कृषि कानूनों के खिलाफ देश की राजधानी घेरे हुए हैं तो कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेता जम्मू जाकर आज़ाद के साथ हो रही नाइंसाफ़ी को मुद्दा बना रहे हैं। कोई भी पार्टी जनसंघर्षों से ही मज़बूत होती है। इस दल को किसने रोका है कि वह किसानों के मुद्दे पर देश भर को मथें। जी-23 का कार्यक्रम गाँधी जी के नाम से जुड़े एक बैनर तले हुआ और सबने ख़ुद को गाँधी की विचारधारा से जोड़ा भी, लेकिन क्या गाँधी जी किसानो के इस आर्तनाद के बीच प्रधानमंत्री के क़सीदे गढ़ते या फिर किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते? इसलिए जी-23 के नेता जो कर रहे हैं, उसे बग़ावत नहीं ‘भगावत’ ही कहेंगे, यानी कठिन समय में पार्टी को छोड़कर कोई ऐसा रास्ता तलाशने की कोशिश करना जिससे उनके साधे सत्ता समीकरण बने रहें।

वैसे इन नेताओं को पूरा हक़ है कि वे गाँधी परिवार का नेतृत्व न मानें और उसे चुनौती पेश करें, लेकिन उन्हें बताना होगा कि वह कौन सी वैचारिक भूमि है जिस पर खड़े होकर वे गाँधी परिवार को चुनौती दे रहे हैं। कांग्रेस में चुनाव न होने की समस्या वाक़ई है, लेकिन तथाकथित बाग़ी नेताओं में कितने हैं जो चुनाव की प्रक्रिया से ऊपर आये हैं। लगभग सभी को आलाकमान ने मनोनीत करके ही नेतृत्व की भूमिका दी है।  याद आता है, जब राहुल गाँधी ने राजनीतिक पारी की शुरुआत की थी तो संगठन चुनावों पर बहुत ज़ोर दिया था। युवा कांग्रेस में ऐसे कुछ प्रयोग उन्होने किये भी थे, तब यही लॉबी उन्हें नौसिखिया बता रही थी। आज इन नेताओं की इसके अलावा क्या शिकायत है कि गाँधी परिवार अब उस तरह से वोट नहीं घसीट पा रहा है जैसा कभी इंदिरा गाँधी के ज़माने में होता था (और इससे उनका राजसुख कमज़ोर पड़ गया है।) पर क्या यह असफलता का पैमाना हो सकता है?  पचासों साल तक अटल और आडवाणी की जोड़ी चुनाव में नाकामी झेलते रहे, क्या उनके संगठन ने ये सवाल उठाया? या फिर वे अपनी विचारधारा को बढ़ाने में जुटे रहे जिसका फल आज नरेंद्र मोदी भोग रहे हैं।

इसलिए विचारधारा का सवाल अहम है। कांग्रेस में पहले भी कई विभाजन हुए हैं लेकिन मुद्दा किसी नेता की राज्यसभा सीट नहीं बल्कि वैचारिक भूमि ही रही है। गाँधी जी के फ़ैसलों से असहमत होकर देशबंधु चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने 1923 में ही स्वराज पार्टी का गठन कर लिया था। वे गाँधी जी के असहयोग आंदोलन वापस लेने और विधान परिषद में न जाने के फैसले से नाराज़ थे। सुभाष बोस ने तो सीधे गाँधी जी को चुनौती देते हुए अलग रास्ता चुना। कांग्रेस अध्यक्ष पद और अहिंसक आंदोलन छोड़, जनरल की वर्दी पहनकर आज़ादी के लिए सशस्त्र संग्राम के रास्ते पर निकल गये। आज़ादी के तुरंत बाद लोहिया,जेपी, नरेंद्र देव जैसे समाजवादी दिग्गजों ने कांग्रेस छोड़ी क्योंकि उन्हें समाजवादी क्रांति की जल्दी थी। 1948 में उन्होंने कांग्रेस से निकलकर सोशलिस्ट पार्टी बनायी। 1959 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने समाजवादी रास्ते से असहमति जताते हुए स्वतंत्र पार्टी बना ली। इंदिरा गाँधी के समय विभाजन के पीछे समाजवादी नीतियों का दक्षिणपंथी नेताओं से स्पष्ट टकराव था। बाद में नरसिम्हाराव के समय पार्टी टूटी जब उनकी नीतियों से असहमत अर्जुन सिंह और नारायणदत्त तिवारी ने मोर्चा खोला। बाबरी मस्जिद न बचा पाने को पार्टी के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर बड़ा कलंक माना गया था। ‘तिवारी कांग्रेस’ बनायी गयी थी। उस दौर में सोनिया गाँधी और उनके बच्चे राजनीति में दूर-दूर तक नहीं थे। कांग्रेस नेताओं ने अनुनय-विनय करके उन्हें राजीव गाँधी की मृत्यु के लगभग सात साल बाद राजनीति में आने के लिए राज़ी किया और पार्टी सोनिया गाँधी के पीछे एकजुट हुई। सोनिया गाँधी ने अटल बिहारी वाजपेयी जैसै दिग्गज को परास्त करने में कामयाबी पायी और दस सालों तक कांग्रेस केंद्र की सत्ता में रही। आज के जी-23 के नेताओं ने तब जमकर सत्ता सुख भोगा था। ऐसे में ये सवाल स्वाभाविक है कि इन लोगों ने पार्टी को मजबूत करने के लिए क्या किया? कपिल सिब्बल सरकार न रहने पर सुप्रीम कोर्ट में और सरकार रहने पर मंत्रिमंडल में होते हैं, लेकिन जिस चाँदनी चौक से वे चुनाव लड़ते रहे हैं, वहाँ कांग्रेस की स्थिति को बेहतर करने या संगठन को मजबूत करने के लिए उन्होंने क्या किया?

एक बात यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आज कांग्रेस के सामने जैसी चुनौतियाँ हैं वैसी इसके पहले किसी भी नेता के सामने नहीं रही। मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने राष्ट्रीय सहमति के तमाम बिंदुओं को ध्वस्त करके लोकतंत्र को बहुसंख्यकवाद में बदल दिया है। जिस समावेशी ‘आयडिया ऑफ इंडिया’ को अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कभी खुलकर चुनौती नहीं दी वह आज आईटी सेल के ज़रिये मज़ाक़ का विषय बन गया है। ऐसे में कांग्रेस को सांगठनिक चुनावों के साथ-साथ यह समझाना भी ज़रूरी है कि कांग्रेसी होने का मतलब क्या है! इस मामले में राहुल गाँधीकहीं ज़्यादा स्पष्ट है। शायद नेहरू के बाद वे कांग्रेस के पहले नेता हैं जो आरएसएस पर इस तरह तीखा हमला कर रहे हैं। यह समस्या की नाभि पर प्रहार है। संघ ने आज़ादी के पहले से ही भारत के समावेशी समाज के नाश का जो बीड़ा उठाया था वह गाँधी जी की हत्या के बाद थोड़ा ठिठका ज़रूर था, लेकिन अनवरत गुणा-भाग का वह  सफ़र ही आज यहाँ तक पहुँचा है जहाँ धर्म को राष्ट्र बताने के ‘सावरकर-जिन्ना अभियान’ के सिर जीत का सेहरा दिखता है। जी-23 को वाक़ई अगर पार्टी की चिंता होती तो वह इस इस वैचारिक अभियान को धार देता, न कि आरएसएस और प्रधानमंत्री पर तीखे हमले करने के लिए राहुल गाँधी पर सवाल उठाता।

याद रखिये, दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र का दम भरने वाले अमेरिका में 1776 में क्रांति हुई थी, लेकिन 1860 में वहाँ गृहयुद्ध हो रहा था। काले-गोरों की क़ानूनी बराबरी का मुद्दा इन 84 सालों में हल नहीं हो पाया था। राष्ट्रपति लिंकन को अपनी जान भी गँवानी पड़ी थी क्योंकि वे कालों को हक़ देने के पक्ष में थे। भारत में एक आदर्श संविधान बन जाने से राज और समाज आदर्श नहीं बन गया है। उसे बनाना होगा। यह एक विराट राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रोजेक्ट है। कांग्रेस जैसी पार्टी इस प्रोजेक्ट को धार देते हुए ही खुद को प्रासंगिक और मज़बूत बना सकती है। गाँधी परिवार की ख़ूबी यह है कि उसने निरंतर हमला झेलते हुए भी यह विचारभूमि नहीं छोड़ी है। उसे तिरंगे की जगह भगवा पहनाना ‘मोदी है तो मुमकिन है’ के तुमुलघोष के बीच भी मुमकिन नहीं हो पाया है। यही उसकी शक्ति है जिसे जी-23 ‘सीमा’ समझ रहा है। तीस साल से किसी संवैधानिक पद पर न होने के बावजूद आरएसएस के विकट घृणा अभियान के केंद्र में यह परिवार यूँ ही नहीं है।

 

पुनश्च: शीर्षक में भगावत ही लिखा है, ‘भागवत’ नहीं! दूसरी बात ‘डील’ की जानकारी होने के बाद गाँधी परिवार बहुत लोड नहीं लेता। महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया से सारी निकटता के बाद उन्हें  ‘आज़ाद’ करने में कोई हिचक नहीं दिखायी गयी जबकि मध्यप्रदेश में सरकार खोने का ख़तरा वास्तविक था, जैसा बाद में हुआ भी।

 

पंकज श्रीवास्तव मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।