अनुपूरक बजट को आमतौर पर किसी सरकार की उपलब्धि के तौर पर नहीं देखा जाता। वह ऐसा बजट लाती है तो माना जाता है कि मुख्य बजट पेश करने के दौरान उसके होमवर्क में कमी रह गई थी, जिसके चलते कई विभागों और योजनाओं के लिए किये गये धनराशि के प्रावधान अपर्याप्त सिद्ध हुए और मजबूर होकर दोबारा करने पड़ रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अनुपूरक बजट की जरूरत वित्तमंत्री की अदूरदर्शिता व अक्षमता की परिचायक होती है, जिसके कारण सरकार को बजटीय प्राथमिकताएं पूरी करने में दिक्कतें आने लगीं और अनुपूरक बजट पर निर्भर करना पड़ा।
हां, कई बार अचानक सामने आ गये आपात या परिस्थितिजन्य खर्चों अथवा विपरीत परिस्थितियों से, जिनका बजट के वक्त पूर्वानुमान नहीं किया जा सका, अनुपूरक बजट के बगैर निपटना संभव नहीं होता, इसलिए उसे लाया जाता है। सामान्य या वार्षिक बजट पूरे वित्त-वर्ष के लिए होता है, लेकिन अनुपूरक बजट उसकी शेष अवधि के लिए ही। इसको ऐसे छात्रों के उदाहरण से भी समझ सकते हैं, जो अध्ययन में लापरवाही के कारण वार्षिक परीक्षा में असफलता के कगार पर जा पहुंचते हैं तो उन्हें अगली कक्षा में जाने के लिए सप्लीमेंटरी एग्जाम यानी पूरक परीक्षा से गुजरना पड़ता है।
अलबत्ता, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सरकार ने वित्तीय वर्ष के दौरान पूरी गंभीरता से और खासी तेजी से काम किया, जिसके चलते धनराशि का बजटीय आवंटन कम पड़ गया और अनुपूरक बजट की मार्फत अतिरिक्त व्यवस्था करनी पड़ी। लेकिन उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार गत बुधवार को प्रदेश विधानसभा चुनाव के लगभग 6 महीनों पहले सात हजार तीन सौ एक करोड़ रुपयों का इस वित्तवर्ष का पहला और अपने कार्यकाल का जो आखिरी अनुपूरक बजट ले आई है, उसमें जिस तरह चुनाव वर्ष में मतदाताओं को ‘बनाने’और लॉलीपाप थमाकर ठगने पर जोर है, वह स्वयमेव ऐसी किसी संभावना को खारिज कर देता है।
फिर भी उसका सौभाग्य कि प्रचार माध्यम इस सबके लिए उसकी बदनीयती, बजटीय अदूरदर्शिता या अगम्भीरता की ओर उंगली उठाने के बजाय तारीफों के पुल बांधते हुए मुफ्त में उसका चुनाव प्रचार किये दे रहे हैं। कोई यह तक नहीं पूछ रहा कि उसे किस इमर्जेंसी के तहत यह अनुपूरक बजट लाना पड़ा है? इतना ही नहीं, यह पूछने से भी परहेज बरता जा रहा है कि जितने का अनुपूरक बजट लाया गया है, उतनी राजस्व आय किन स्रोतों से आयेगी? या कि राजस्व के खराब प्रबंधन को सुधारे और उसका मुकम्मल इंतजाम किये बगैर भरी भरकम बजट प्रावधानों का हासिल क्या है? कौन कह सकता है कि सरकार द्वारा अपने राजस्व प्रबंधन को मुकम्मल बताये जाने के बावजूद ऐसे प्रश्न पूछने और प्रतिप्रश्नों की मार्फत उनका परीक्षण करने की आवश्यकता नहीं थी?
लेकिन उलटे हालत यह है कि कोई अनुपूरक बजट के पीछे की बदनीयती छुपाते हुए उसको गांव, गरीब, युवा, खिलाड़ी, महिला और अधिवक्ता वगैरह को तोहफे के तौर पर देख रहा है तो कोई रोजगार के लिए सरकारी खजाना खोलने के रूप में। कहीं उसे ‘चुनावी ध्येय भेदने को मानदेय’ बताया जा रहा है तो कहीं ‘युवाओं, किसानों व मानदेय वालों की सुध।’। युवाओं को समर्पित मिनी चुनावी बजट बताने वालों की भी कोई कमी नहीं दिख रही। उसकी ‘भारी भरकम’ राशि के गुणगान में तो यह तक भुला दिया गया है कि वह प्रदेश के कुल बजट का महज 1.33 प्रतिशत और केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा बुधवार को ही प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन के लिए मंजूर की गई ग्यारह हजार चालीस करोड़ रुपयों की धनराशि से भी कम है।
इस सिलसिले में सबसे अच्छी बात यह है कि अब धीरे-धीरे ही सही, लोग-बाग कुछ रेवड़ियों के बदले में गैरपत्रकारीय कारणों से बनाये जाने वाले तारीफों के इन पुलों की बाबत समझने लगे हैं कि वे सत्यों व तथ्यों का एक भी जोरदार रेला बर्दाश्त नहीं कर पाते और उनसे मुठभेड़ होते ही टूटकर ढह जाते हैं। इस अनुपूरक बजट के सिलसिले में तो वे इस एक सवाल का सामना कर पाने की हालत में भी नहीं हैं कि क्या इसका फोकस उस कथित धार्मिक व सांस्कृतिक एजेंडे से इतर है, अयोध्या, मथुरा, काशी-बनारस और साथ ही गोरखपुर में स्वर्ग उतार देने के नाम पर गत बजट की प्रस्तुति के दौरान जिसके भरपूर गुन गाये गये थे? फिर युवाओं को डिजिटली सक्षम बनाने का जो काम गत साढे चार साल में नहीं किया गया, तीन हजार करोड के कोष से चुनाव पूर्व के छः महीनों में कैसे किया जायेगा और उससे क्या हासिल होगा?
बटलोई के दो चावलों से इस एजेंडे की असलियत पहचानना चाहें तो अरसे तक क्योटो बनाये जाने के सपने देखता रहा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी की दिक्कतें न सिर्फ कोरोना के दौरान दुर्निवार रहीं, बल्कि पिछले दिनों आई बाढ़ में भी। अयोध्या में तो खैर, जिनका उससे बसों और रेलों की खिड़कियों तक का रिश्ता है, वे अभी भी उसकी बाबत प्रचारित बड़ी-बड़ी विकास योजनाओं की बाबत पढ़ व सुनकर ‘दूर के ढोल सुहावने’ की तर्ज पर आह्लादित होते रहते हैं। लेकिन जो आम लोग रोज-रोज यहां जिन्दगी की जंग लड़ते व हिचकोले खाते रहते हैं, उनके समक्ष तो ‘दरद न जाने कोय’ की ही स्थिति है। इस अनपूरक बजट में भी उनकी अयोध्या के लिए दो सौ नौ करोड़ रुपयों के प्रावधान किये गये हैं, लेकिन ‘भूखा तो तब पतियाये जब चार कौर भीतर जाये।’
दूसरे पहलू पर जायें तो भी विडम्बनाओं के ही दर्शन होते हैं। बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे के निर्माण के लिए एक सौ करोड़ और बलिया लिंक एक्सप्रेस वे के लिए पचास करोड़ रुपयों के प्रावधान के पीछे मान सकते हैं कि सरकार विधानसभा चुनाव से पहले इनके निर्माण को गति प्रदान कर और संभव हो तो पूरा कराकर वाहवाही लूटना और वोट जुटाना चाहती है। लेकिन समझ में नहीं आता कि उसे वाहवाही और वोट ही अभीष्ट है तो उसने किसानों के बकाया गन्ना मूल्य के भुगतान के लिए दो सौ करोड़ रुपयों की ऊंट के मुंह में जीरे जैसी धनराशि क्यों दी है, जबकि चीनी मिलों पर किसानों के आठ सौ करोड़ रुपये बकाया हैं। अगर इसका अर्थ यह है कि उसने मान लिया है कि अनेक दूसरे कारणों से भी नाराज किसानों को सम्पूर्ण गन्ना मूल्य के बकाये के भुगतान के बावजूद वह नहीं मना पायेगी, तो निस्संदेह यह उसकी असहायता का ही प्रतीक है।
वैसे ही, जैसे दस लाख फील्ड कार्मिकों के, जिनमें शिक्षामित्र, अनुदेशक, रसोइये, आशा कार्यकर्ता व संगिनी, आगनबाड़ी कार्यकर्ता व सहायिका, पीआरडी जवान, रोजगार सेवक, चौकीदार व ग्राम्य प्रहरी आदि शामिल हैं, मानदेयों में प्रस्तावित वृद्धि का सच यह है कि वे लम्बे अरसे से अपनी मांगें पूरी न होने पर सरकार को चुनावों में सबक सिखाने की चेतावनी दे रहे थे। चुनाव में बूथ लेबल अधिकारी के रूप में वोट घटाने-बढ़ाने से लेकर मतदान सम्पन्न कराने तक ‘उपयोगी’ माने जाने वाले इन कार्मिकों को लेकर भी यह सवाल बना हुआ है कि मानदेय में इस वृद्धि से वे ‘खुश’ हो जायेंगे या यह समझकर कि सरकार ने लगातार अनसुनी के बाद ऐन चुनाव के वक्त दबाव में आकर थोड़ी सुनी है, उस पर और ज्यादा के लिए दबाव बनायेंगे?
अगर वे समान कार्य के लिए समान मेहनताने के सिद्धांत के तहत फिर भी खुद को दूसरों के मुकाबले अन्याय का शिकार बताते रहे, तो सरकार क्या करेगी? प्रकारांतर से उनकी नाराजगी को स्वीकार कर लेने के बाद सरकार को इस सवाल का सामना भी करना ही चाहिए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।