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एकता वर्मा
आंदोलन और विरोध- प्रदर्शन किसी समाज के धड़कते हुए दिल होते हैं, जिनपर कान रखकर यह बताया जा सकता है कि समाज कितना जीवित है। विरोध प्रदर्शन आश्वासन देते हैं, कि मनुष्य अभी बर्बर नहीं हुआ है, सभ्यता की याद अभी बाक़ी है उसमें। इन प्रदर्शनों पर भरोसा और बढ़ जाता है, जब वे गांधी के देश में हो रहे हों, और उनकी ही परम्परा में हो रहे हों।
औपनिवेशिक दौर की लड़ाई के बाद से अब तक इन प्रदर्शनों ने लोकतंत्र में सेफ़्टी वोल्व की भूमिका निभायी है और बड़ी हिंसाओं या गृह-युद्ध जैसी स्थिति को बहुत हद तक रोका है। तानाशाही दौरों में लोकतांत्रिक स्पेस को ख़त्म किया जाता है सो विरोध प्रदर्शनों की यह परम्परा भी सीधे तौर पर प्रभावित होती है। 2014 के बाद से भारत में एक साम्प्रदायिक तानाशाही का दौर आया है। भारत का लोकतंत्र विभाजन के बाद पहली बार ऐसे नग्न और भीषण साम्प्रदायिक उन्माद से जूझ रहा है। इसके पहले सत्तर के दशक का आपातकाल तानाशाही दौर था लेकिन उसने देश की बहुलतावादी संस्कृति पर उस तरीक़े से आघात नहीं किया इसलिए एक बुरा दौर बनकर लगभग गुजर गया। वर्तमान समय के बहुसंख्यकवाद ने जिस ‘हिंदुत्व तानाशाही दौर’ को जन्म दिया है, वह पहले से बहुत भिन्न और भयानक है। आज आघात देश के मूल आदर्श, भारत की अखंडता, उसके बहुसांस्कृतिक ढाँचे पर हो रहा है और जो निश्चित रूप से देश को अधिकतम नुक़सान पहुँचाएगा। ये आघात एक तरफ़ वर्तमान को रक्त-रंजित कर रहे हैं, अतीत में घुसपैठ कर उसका हनन कर रहे हैं तो दूसरी तरफ़ अल्पसंख्यक समूहों में हमेशा के लिए आशंका और असुरक्षा की भावना पैदा करके भविष्य को भी नींवहीन बना रहे हैं।
इक्कीसवीं सदी का बीसवाँ दशक आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों का रहा है। ऐमज़ॉन के जंगलों का आंदोलन, जलवायु परिवर्तन का आंदोलन, ब्लैक लाइव्ज़ मैटर आंदोलन, सीएए,एनआरसी आंदोलन उससे जुड़ी विश्वविद्यालयों की फ़ी हाइक क्रांति और साल के अंत तक किसानों का आंदोलन आदि ने वैश्विक स्तर तक अपनी आवाज़ पहुँचायी और उनका समर्थन हासिल किया। भारत का तो यह साल शुरू और ख़त्म दो ऐतिहासिक आंदोलनों में ही हुआ है।
नागरिकता संशोधन बिल और फिर किसान आंदोलन लोकतंत्र पर पड़े दबाव की क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप उपजे हैं। पूँजीवादी राष्ट्रीय संरचना जब मुश्किल में फँसती है तब फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद पनपाया जाता है। पूरे विश्व में जो दक्षिण पंथ का उभार राष्ट्रवाद के मिले जुले रूप में उठ खड़ा हुआ है, वह इसी पूँजीवादी राष्ट्रीय संरचनाओं का अवश्यम्भावी परिणाम है। भारत के ये दो ऐतिहासिक आंदोलन इसी प्रक्रिया को समझने का मौक़ा देते हैं। साल के शुरू होते ही नगरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ खड़ा हुआ आंदोलन हिंदू राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ भारत के पंथ निरपेक्ष लोकतंत्र को बचाए रखने की जंग थी। इस क़ानून में निशाना एक अल्पसंख्यक संस्कृति को बनाया गया था लेकिन प्रतिरोध हर उस वर्ग, संस्कृति ने किया जो गांधी, अम्बेडकर और नेहरू के भारत में भरोसा रखते थे। जो भारत को एक हिंदू पाकिस्तान बनने से बचाने के लिए लड़ते रहे थे।
किसान आंदोलन शाहीन बाग शृंखला आंदोलन का नया संस्करण है, उसका नया जामा है। शाहीन बाग आंदोलन जिन उद्देश्यों के लिए दिल्ली की सड़कों पर खड़ा हुआ था, उनसे अलग उसने अपनी जीत में बिल्कुल दूसरे मुक़ाम हासिल किए। कोविड महामारी के चलते उसे रास्तों से उठा तो दिया गया था लेकिन उसने तब तक विरोध प्रदर्शन का एक शानदार अध्याय लिख दिया था, एक नया ऐतिहासिक तरीक़ा भविष्य को दे दिया था।
ऊपर ऊपर से देखा जाए दोनों में अंतर बस बुर्के और दुपट्टे-पगड़ी का ही है, भीतर से दोनों आंदोलन एक ही संरचना वाले हैं, दोनों ही पूँजीवादी राष्ट्रीय संरचना से लड़ रहे हैं; एक सीधा कार्पोरेट घरानों से लड़ रहा है, तो दूसरा चूँकि पूंजीवाद से उपजे सनकी राष्ट्रवाद से। यह किसान आंदोलन शाहीन परम्परा का अगला चरण है, इसलिए इसने कई बिंदुओं को अपने को दुरुस्त किया हुआ है। शाहीन बाग की तरह यह आंदोलन सिर्फ़ आम आंदोलनों की भागीदारी से ही नहीं बना है, यहाँ बहुत मज़बूत राजनैतिक संगठनों ने इसका नेतृत्व सम्भाला हुआ है। इसलिए यह राजनैतिक मोर्चे के हर दांव पेंच को बारीकी से समझ रहा है। और ऐसा भी नहीं है कि यह तैयारी अचानक से हो गयी हो। वामपंथी संगठनों ने लगातार कृषि क्षेत्रों में कार्य करके अपनी यह मजबूत पकड़ और भरोसा बनाया है। शाहीन बाग के समय वामपंथ की ऐसी पकड़ नदारद दिखती है। धार्मिक संरचनाओं से जुड़े मुद्दों पर वह एक एलीट शिक्षित वर्ग में बौद्धिक पकड़ रखता है लेकिन ठेठ निम्न वर्गीय या मध्यवर्गीय घरेलू दुनिया के भीतर धार्मिक संस्थाओं से लोहा लेने वाली कोई संरचना या संस्था (नरेंद्र दाभोलकर की महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की जैसी संस्थाएँ) उनसे छूटी रही।
वास्तव में कोई आंदोलन सिर्फ़ भविष्य की ओर ही यात्रा नहीं करता है बल्कि उसकी गति अतीत में भी होती है। इस किसान आंदोलन ने इस दृष्टि से भविष्य के साथ साथ अतीत में भी कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इस आंदोलन ने उस मीडिया तंत्र को जो ‘सरकार की, सरकार के लिए और सरकार द्वारा’ संचालित है, को अब तक के सबसे नग्न तरीक़े में जनता के सामने ला दिया। आम लोगों ने इस किसान आंदोलन में रहते हुए JNU के सीएए एनआरसी आंदोलन के संघर्ष को पहचाना है और उसकी मीडिया के द्वारा बनाई गयी छवि से अपने आपको अलग किया है। अपने आंदोलन को आतंकियों और खालिस्तानियों का साबित किए जाने के क्रम में जो उनपर बीता, उससे उन्होंने JNU को देशद्रोही और CAA आंदोलन को पाकिस्तानी साबित कर दिए जाने के अर्थ को समझा। उन्होंने किसान आंदोलन की वर्तमान की ज़मीन पर खड़े होकर अतीत को संशोधित किया। यह इस आंदोलन की बड़ी उपलब्धि है।
लोकतंत्र में बहुसंख्यकवाद के हावी हो जाने का ख़तरा हमेशा रहता है। भारत जैसे देश में जहां साक्षरता का स्तर बहुत ख़राब है, वहाँ लोकतंत्र के भीड़तंत्र में तब्दील होने में अधिक समय नहीं लगता। हालाँकि साक्षरता को ही लोकतांत्रिक चरित्रों के निर्माण की शर्त तो नहीं माना जा सकता किंतु निरक्षरता और ग़रीबी का घालमेल साम्प्रदायिक बहुसांख्यिक राजनीति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ तो देती ही है। ऐसे में लोकतंत्र को बचाए रखने की ज़िम्मेदारी जनता की ‘राजनीतिक चेतना’ पर आ जाती है। सीधे तौर पर जो समुदाय अपनी राजनैतिक चेतना में जितना पिछड़ा होता है, वह उतनी आसानी से तानाशाही ताक़तों का सुग्गा बनता है। विरोध प्रदर्शन आवाम में इसी राजनैतिक चेतना को पैदा करने का कार्य करते हैं। CAA NRC आंदोलन, विश्वविद्यालयों के फ़ी हाइक आंदोलन और किसान आंदोलन ने इस मामले में शानदार तरीक़े से कार्य किया है। अब लोगों की यह धारणा कि ‘किसी को भी दे दो वोट, हमें क्या ही असर होना’ बदल रही है तथा राजनैतिक नियमों- नीतियों का विश्लेषण कर उसके गुण-दोष समझकर उनमें अपनी लोकतांत्रिक दख़ल रखने की नयी संस्कृति पनप रही है।
इस किसान आंदोलन ने आंदोलनों की परम्परा को समझा है और उससे अपने आप को जोड़ते हुए तथा इतिहास की कमियों को दुरुस्त करते हुए आगे बढ़ रहा है। उसको सिर्फ़ सरकार से ही लड़ना हो ऐसा नहीं है। अभी तक उसने बहुत सावधनी से गोदी मीडिया को उनकी तमाम कोशिशों के बाद भी कोई मौक़ा नहीं दिया है। 26 जनवरी की छुटपुट घटनाओं को सरकार और उसके मीडिया-तंत्र ने भुनाने की कोशिश की लेकिन किसान आंदोलन के नेताओं की धारदार समझ के आगे वे निष्फल हुए हैं। और वैसे भी गोदी मीडिया को मिले अवसरों से यह आंदोलन कमजोर हो जाएगा यह सोचना त्रुटिपूर्ण है क्योंकि फ़ी हाइक आंदोलन और शाहीन बाग जैसे आंदोलन गोदी मीडिया के नफ़रती प्रॉपगैंडा के साथ-साथ ही चले थे और इतने बड़े स्तर पर सफल हुए थे।
एकता वर्मा, दिल्ली विश्वविद्यालय मेंशोध छात्रा हैं।