‘’वे अपनी असहमति दर्ज कराते थे, मुनाफा नहीं जोड़ते थे’’ : स्‍मृतिशेष मूलचंद सोनकर


बनारस के प्रतिबद्ध लेखक मूलचंद सोनकर को श्रद्धांजलि


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संस्मरण Published On :


मूलचंद सोनकर बनारस के प्रतिबद्ध लेखक-चिंतक थे। लंबी बीमारी के बाद बीते 19 मार्च को उनका देहांत हो गया। अभी 12 मार्च की बात है जब बनारस में रामजी यादव के घर पर जुटी मंडली में मूलचंद जी के स्‍वास्‍थ्‍य को लेकर बातें हो रही थीं। वे दिल्‍ली के मेदांता अस्‍पताल से इलाज करवाकर लौटे थे और कोई दो हफ्ते से घर पर ही थे। उनके साथ दो साल पहले ‘गांव के लोग’ पत्रिका के एक आयोजन में शिरकत करने का मौका मिला था। ऐसे सज्‍जन, तीक्ष्‍ण मेधा वाले दुर्धर्ष और प्रतिबद्ध लोग राजधानियों में नहीं मिलते, जिला-जवार में ही मर-खप जाते हैं- उनसे मिलकर पहला अफसोस यही हुआ था। 19 को उनकी मौत की खबर की पुष्टि रामजी यादव सेकी, तब रामजी ने उनके बारे में लिखने को कहा। ज़ाहिर है, जिसका दिन-रात का संग हो, उसका लिखा ज्‍यादा प्रामाणिक होता है। मैं इंतज़ार करता रहा। रामजी भाई ने अब जाकर उन पर यह भावप्रवण श्रद्धांजलि फेसबुक पर लिखी। इससे बेहतर मूलचंद सोनकर पर शायद कुछ नहीं हो सकता था। (संपादक)


रामजी यादव

कई दिन हुये मित्र हमेशा के लिए छोड़ गए। वे दिनचर्या में इस तरह शामिल हो गए थे कि जैसे चंद्रबली सिंह शामिल थे। उनको शामिल किए बिना इधर शायद ही हमने कोई काम किया हो। बहुत सी उम्मीदें और सपने थे जो हम लोगों के साझा उपक्रम थे। किताबें और जनशिक्षण के लिए गाँव-गाँव घूमना और बहुजन संस्कृति के सभी रूपों का यथासंभव दस्तावेजीकरण। बहुत उत्साह था और हम कहीं से भी निराश नहीं थे। लेकिन कुल जमा दो महीने से भी कम समय में सब बिखर गया। लेकिन सुबह-सुबह लगता है कि उनकी खनकती हुई आवाज सुनाई देगी। उन्होंने हमारी आँखों के सामने अंतिम सांस ली लेकिन अभी भी मन मानने को तैयार नहीं कि वे हमेशा के लिए चले गए।

दो हज़ार आठ से हुई दोस्ती में कई पड़ाव आए। झगड़े और असहमतियाँ ज़ाहिर हुईं। उनकी अंबेडकरवादी प्रतिबद्धता और ज़िद सनक की हद तक जाती थी। वे खाल उकेल लेने की सीमा तक निर्मम थे लेकिन बहुत अच्छे और पगले भी थे। भोला भंडारी। दिखते औपचारिक थे लेकिन बहुत सहज और घरेलू थे। कभी भी बात-बेबात मुंह फुला लेते थे और गलत बात पर डांटने पर बच्चों की तरह अहद लेते थे कि अब ऐसा नहीं करूंगा। अक्सर फेसबुक और व्हाट्सप पर वे तल्ख टिप्पणियाँ कर डालते और अपने को सही साबित करने के लिए जूझने को उतारू हो जाते। इधर बड़ी मुश्किल से अपर्णा ने उन्हें सोशल मीडिया से तौबा करने को मना लिया था। तब से वे अपनी तीन महत्वाकांक्षी पुस्तकों की भूमिका पर लगे थे लेकिन बीच में ही गड़बड़ा जाते। लिखा हुआ मिटा डालते और नए सिरे से लगते लेकिन बात उनके हिसाब की अंततः नहीं बनी।

कथाकार रत्न कुमार सांभरिया ने कल कहा कि उनके लेखन में गुणात्मक विस्तार हो रहा था। और उम्र मिली होती तो और भी बड़ा काम करते। बेशक जितना वे लिख पाये वह उनकी ख्याति के लिए पर्याप्त है। मूलचंद सोनकर एक अधखुली किताब थे। लंबे-लंबे बोझिल उद्धरणों और पन्नों लंबे लेखों के बावजूद बात की तह तक जाने का उनका सलीका उठाओ-गिराओ की राजनीति से प्रेरित लेखन नहीं था बल्कि उनमें सवालों की तह तक जाने की एक दुर्निवार कोशिश थी। उनकी मान्यताएँ एकरेखीय नहीं थीं और उनको लेकर उनमें कोई दुविधा नहीं थी। वे अगर मानते थे कि तुलसीदास हिन्दू जाति-व्यवस्था और चातुर्वर्ण्य के समर्थक हैं तब यह भी बहुत सख्ती से कहते थे कि जब तक उनको पाठ्यक्रम से पूरी तरह नहीं हटाया जाएगा तब तक सारी बातें दिल्लगी का माध्यम भर रहेंगी। इसके लिए उन्होने अनेक जगहों पर अपनी बातें रखी और कई जगहों पर अपनी माइक से भी उन्हें हाथ धोना पड़ा अर्थात मित्रों ने उन्हें बोलने ही नहीं दिया।

वे बार बार कहते कि अब सरकारी स्कूलों में तो केवल दलित पिछड़ों के ही बच्चे पढ़ रहे हैं इसलिए तुलसीदास को पढ़ाने का कोई मतलब नहीं है। निकाल बाहर करने के लिए आंदोलन करना चाहिए। उनकी असहमतियाँ अपरम्पार थीं लेकिन उनके लिए उन्हें और वक्त मिलना चाहिए था। वे फासिस्ट मोदी सरकार के मुखर आलोचक थे लेकिन वक्त भी उनके खिलाफ फासिस्ट होगा, मुझे नहीं पता था। 

ढेरों लोग हैं जो उन्हें बहुत प्यार करते हैं और उनमें ऐसे संवेदनशील लोग भी हैं जैसे कथाकार हेमंत कुमार। आजमगढ़ में हेमंत की कहानी की उन्होंने मुखर और बेहद तल्ख आलोचना की लेकिन हेमंत ने एकदम बुरा नहीं माना। बीमारी के दिनों में वे उन्हें देखने आए और उनकी हालत देखकर रो पड़े। देर तक भावुक रहे। लेकिन बहुत से लोग उन्हें लेखक नहीं मानते थे। पता नहीं वे इस बात को कैसे लेते थे लेकिन स्वयं वे किसी अदने से और अधकचरे लेखक को भी लेखकीय कुर्सी से उतारने या उसको खारिज करने के पक्षधर कतई नहीं थे। बीस बार कह चुके थे कि हमारा समाज बोलना नहीं जानता। वह लच्छेदार लिख नहीं सकता अलबत्ता सारी मार्मिक कहानियाँ उसी के पास है। प्रतिरोध वही कर सकता है। उसे बोलने को प्रेरित करो।

अभी साल भर भी नहीं बीता है- एक दिन वे दलितों के सूर्य नाम एक नाटक का ज़िक्र करने लगे। छोटा ही नाटक था लेकिन वे उस नाटक के कथानक से बिलकुल असहमत थे और इसे बत्तीस पेज में दर्ज किया। अगर वे यही काम किसी बाजारू लेखक के लिए करते तो उन्हें अधिक यश मिलता और शायद परिश्रमिक भी, लेकिन वे तो अपनी असहमति दर्ज करते थे। मुनाफा थोड़े जोड़ते थे। उनका प्रचुर लेखन असहमति का लेखन है। बड़े बड़ों की उन्होने धज्जियां उड़ाई है। 

वे शुरू में वामपंथ की ओर गए लेकिन जाति का सवाल लेकर गए और यह बात वहाँ अझेल हो गई। वामपंथ में जाति का प्रश्न काला नाग है जिसे कोई उठाने की हिम्मत नहीं करता। इसलिए उन्हें डिच किया गया। अपमानित करने वाली स्थितियाँ पैदा की गईं। लेकिन मूलचंद सोनकर भी पके हुये लोहा थे। अंबेडकरवाद भी उनका शरण्य नहीं था लेकिन वहाँ से वे अपनी बातें कह रहे थे गोया वे इस बात पर प्रतिबद्ध थे कि फिलहाल तो विचार-दर्शन और राजनीति की दक्षिणपंथी प्रवृत्तियों से संघर्ष ही बहुत जरूरी है और वे इसमें जुटे हुये थे। अनेक दलित साहित्यकारों ने उनसे अपनी किताबों पर मनमुताबिक लिखने के लिए मोहा लेकिन अंततः वे अपनी असहमतियों से मुक्त नहीं हो पाये और बहुतों को नाराज किया। 

इसीलिए मूलचंद हमारे दोस्त बने रहे। क्योंकि असहमतियों का भंडार इधर भी पर्याप्त है ! श्रद्धांजलि लिखते हुये हाथ कांप रहे हैं मित्र!

(रामजी यादव ‘गांव के लोग’ पत्रिका के संपादक हैं और समकालीन कथाकारों के बीच अपनी देशज भाषा और विषयों के चयन के लिहाज से मौलिक मुकाम रखते हैं)