आज़ाद सोच के बिना आज़ादी? भगत सिंह आज होते, तो शायद UAPA के तहत जेल में होते!

मयंक सक्सेना मयंक सक्सेना
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(यह लेख, 5 साल पहले लिखे गए लेख का वर्तमान समय में विस्तार है। इसे 2016 में सबरंग के लिए लिखा गया था, लेखक का मानना है कि इसकी प्रासंगिकता अब और बढ़ गई है – जब हम ये देखते हैं कि भगत सिंह 20 के दशक में नास्तिकता से लेकर सांप्रदायिकता और जातिवाद पर खुल के लिख सकते थे। लेकिन क्या अब ऐसा आसानी से लिखा जा सकता है? लेखक, का ये सवाल ख़ुद से भी है कि क्या हम सब ज़िम्मेदार नहीं हैं, आज़ादी के बुनियादी मतलब के ही खारिज हो जाने पर? जवाब गांधी, भगत सिंह और आंबेडकर – तीनों के पास है। )

उस कुर्बानी और उस नायकत्व को कैसे परिभाषित किया जा सकता है, जिसको आज वह भी अपना नायक और प्रेरणा बता रहे हों, जिनका भगत सिंह के विचार से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। पीएम के मन की बात में भगत सिंह को आदर्श और नायक बताने के बाद, एक बात जो मन में आती है वो ये है कि दरअसल भगत सिंह की महानता यही है, लेकिन उनकी सामयिक प्रासंगिकता वह कतई नहीं, जिसको संघ और उसे जुड़े संगठनों की भगत सिंह को अपने रंग में रंगने की कोशिश की वजह बता दिया जाए। जबकि भगत सिंह के जेल से लिखे हुए, लेखों और चिट्ठियों को हम पढ़ें तो ये पाएंगे कि अगर भगत सिंह आज होते तो वो न केवल वर्तमान निज़ाम और माहौल के ख़िलाफ़ लड़ रहे होते – बहुत संभव है कि वे भी यूएपीए के तहत जेल में ही होते।

हां, यक़ीनन भगत सिंह प्रासंगिक हैं और उनकी ही वजह से हैं, जो उनको भुनाने की सबसे ज़्यादा कोशिश कर रहे हैं, लेकिन सच ये भी है कि भगत सिंह के विचारों के सबसे ज़्यादा खिलाफ़ भी वही लोग और संगठन हैं। आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठन जैसे कि एबीवीवी, विश्व हिंदू परिषद् और बजरंग दल समेत बीजेपी, पिछले कुछ सालों से भगत सिंह को (फोटोशॉप द्वारा उनकी पगड़ी का रंग बदल कर) अपने पोस्टरों पर इस्तेमाल कर रहे हैं। अब पीएम ने मन की बात में, भगत सिंह से प्रेरणा लेने की बात कर दी लेकिन क्या सिर्फ किसी व्यक्ति की तस्वीर इस्तेमाल कर के, बिना उसके विचारों को अपनाए और उनको आत्मसात किए, आप किसी को नायक मान लेते हैं? दरअसल नहीं, क्योंकि भगत सिंह के नायकत्व का अहम हिस्सा, उनका फांसी पर झूल जाना ही नहीं है और न ही वो टीम वर्क – जिसका बहुत चालाकी से पीएम अपने भाषण में आरोपण कर देते हैं, बल्कि उनके विचार हैं। वह विचार ही थे, जिन के कारण वह फांसी पर हंसते हुए चढ़ गए। वरना भगत सिह या किसी आम अपराधी की फांसी में क्या अंतर होता, इस बारे में अदालत में जिरह के दौरान ही भगत सिंह ने बेहद साफ शब्दों में स्पष्ट किया था, जिसकी भावना को समझा जाए तो;

जब तक अभियुक्त की मनोभावना का पता न लगाया जाए, उसके असली उद्देश्य का पता ही नहीं चल सकता। यदि उद्देश्य को पूरी तरह भुला दिया जाए, तो किसी के साथ न्याय नहीं हो सकता, क्योंकि उद्देश्य को नजरों में न रखने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति भी साधारण हत्यारे नजर आएंगे। सरकारी कर वसूल करने वाले अधिकारी चोर, जालसाज दिखाई देंगे और न्यायाधीशों पर भी कत्ल करने का अभियोग लगेगा।

वर्तमान निजाम के लिए इससे अहम कोई सीख नहीं हो सकती, क्योंकि पिछले 6 साल में तो हमने ये देखा ही है – पर सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन में शामिल नौजवानों-एक्टिविस्ट्स के ख़िलाफ़ सरकारी तंत्र जिस दुर्भावना से काम कर रहा है, वो आपको भगत सिंह के कहे की बार-बार याद दिलाएगा। साथ ही आरएसएस और उनके संतान संगठनों के लिए भी ये भगत सिंह का संदेश है कि सिर्फ हिंसा देख कर, उसका उद्देश्य समझे बिना ही युवाओं को वोट बैंक बनाने और धर्मांधता के साथ खड़े करने के लिए वह भगत सिंह का फौरी इस्तेमाल तो कर सकते हैं…लेकिन यह लम्बे समय तक नहीं चल सकता है।

कांग्रेस-बीजेपी समेत तमाम राज्यों की सरकारों ने भगत सिंह के नाम को ज़रूर इस्तेमाल करने की कोशिशें की, लेकिन कभी भी भगत सिंह के लिखे या उनके विचारों को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया। रएसएस से ही जुड़ा शैक्षणिक संगठन विद्या भारती, ऐसी तमाम पाठ्य पुस्तकें तैयार करता रहा है, जिनमें छोटे-छोटे बच्चों को एक धर्म विशेष के देवी-देवता, कर्मकांडों और अंधविश्वासों ही नहीं, कुकर्मी बाबाओं और धर्मगुरुओं तक को महापुरुष कह कर पढ़ाया जा रहा है। लेकिन जिस भगत सिंह को यह युवाओं के बीच अपने लिए ब्रांड एम्बेसडर बना कर पेश कर रहे हैं, उनके लिखे या कहे गए शब्दों को वह इस में शामिल नहीं करेंगे। इसके पीछे एक बड़ा कारण है, कि जो कुछ भगत सिंह ने दस्तावेजी तौर पर कहा और लिखा है, वह संघ के एजेंडे से बिल्कुल मेल नहीं खाता है। संघ एक धर्म विशेष की कट्टरता को राजनैतिक और सामाजिक तौर पर मान्य जीवन प्रणाली बनाने के षड्यंत्र में लगा है, जबकि भगत सिंह प्रामाणिक रूप से, जेल में रहते हुए ही, एक लेख लिख कर, यह सार्वजनिक कर चुके थे कि वह नास्तिक थे। यह विश्व प्रसिद्ध लेख, मैं नास्तिक क्यों हूं 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार द पीपल में प्रकाशित हुआ, इसमें वह लिखते हैं;

अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिये सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए। रोमांस की जगह गम्भीर विचारों ने ली ली। न और अधिक रहस्यवाद, न ही अन्धविश्वास। यथार्थवाद हमारा आधार बना। मुझे विश्वक्रान्ति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाये थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे निरलम्ब स्वामी की पुस्तक सहज ज्ञानमिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था।

इससे सिर्फ ये ही स्पष्ट नहीं होता है कि भगत सिंह नास्तिक थे, बल्कि यह भी साफ हो जाता है कि वह मार्क्सवादी क्रांतिकारियों से प्रभावित साम्यवादी थे और कम से कम इसलिए आरएसएस के लिए वह आदर्श नहीं हो सकते हैं। अगर आरएसएस उनको आदर्श भी मानता है और साम्यवादियों को देशद्रोही भी कहता है, तो इससे ही आरएसएस के दोहरे मापदंड या दिमागी भ्रम स्पष्ट हो जाता है। क्या वाकई यह दिमागी भ्रम है? नहीं, ऐसा नहीं है लेकिन हम इसके बारे में लेख में आगे बात करेंगे। फिलहाल संघ के भगत सिंह को भगवा पगड़ी पहनाने के दावे पर बात करते हैं। संघ की ओर से भगत सिंह को ब्रांड बना कर, उस पर कब्ज़ा करने की मुहिम में उसके छात्रों के दिमाग को भ्रष्ट करने वाले ब्राह्मणवादी संगठन, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् को लगाया गया है। एबीवीपी पिछले कुछ सालों से अपने पोस्टर और प्रचार सामग्री में प्रचार तो उग्र हिंदुत्व का करती है, लेकिन तस्वीर भगत सिंह की इस्तेमाल करती है, जिसे ज़ाहिर है कि भगत सिंह को लेकर दुष्प्रचार ही माना जाएगा। क्योंकि यह दीगर बात है कि भगत सिंह न केवल धर्म के खिलाफ थे, बल्कि धर्म की राजनीति के तो हर तरह से खिलाफ़ थे। अपने एक अहम लेख में वह लिखते हैं;

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतंत्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमागी गु़लामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है, बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताक़त और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है। मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों। उनमें पूँजीपतियों के ऊँच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे। लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है। बीसवीं सदी में भी पण्डित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने की इन्कारी है। यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की कसम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिये, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा। लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाये। बहुत खूब! अछूत को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाये। भेदभाव तो फिर भी रहा ही। गुरुद्वारे जाकर जो सिख राज करेगा खालसागायें और बाहर आकर पंचायती राज की बातें करें, तो इसका मतलब क्या है?

                                (मई, 1928 के किरतीमें यह लेख छपा।)

इस लेख के और भी कई हिस्से हैं, जो स्पष्ट करते हैं कि भगत सिंह, धर्म के दर्शन के ही विरोध में थे। यह उनकी आंतरिक सोच और मंथन से उपजा सत्य था। यह सत्य उनका नितांत निजी हो सकता है, लेकिन आरएसएस का सच तो सार्वजनिक है कि वह धर्म और उसके दर्शन पर आधारित संगठन है, जो धर्म विशेष के राज की पैरवी ही नहीं करता, सबको एक जैसा भी बनाना चाहता है। यही नहीं, भगत सिंह संघ के दूसरे सरसंघचालक के विचारों का भी खंडन करते दिखाई देते हैं। गोलवलकर ने स्पष्ट रूप से (श्री गुरु जी समग्र में) वर्ण व्यवस्था और मनुस्मृति को ही अपना संविधान माना है और जाति प्रथा का खात्मा करने के संविधान के उद्देश्य का विरोध किया है। हालांकि बाद में राजनीति में वर्चस्व स्थापित करने के लिए संघ ने दलितों को हिंदू धर्म का हिस्सा बताने का ढोंग ज़रूर किया, लेकिन उसके लिए भी वह अछूतोद्धार जैसा अश्लील शब्द इस्तेमाल करता रहा। यही नहीं, संघ में कोई भी सरसंघचालक दलित तो छोड़िए, पिछड़ी जाति से भी नहीं आता। जून, 1928 के ‘किरती’ में विद्रोही नाम से प्रकाशित एक लेख में पंडित मदन मोहन मालवीय तक पर प्रश्न करते हुए, भगत सिंह कहते हैं;

कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है। हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन एक इन्सान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है। इस समय मालवीय जी जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किये बिना स्वयं को अशुद्ध समझते हैं! क्या खूब यह चाल है! सबको प्यार करनेवाले भगवान की पूजा करने के लिए मन्दिर बना है लेकिन वहाँ अछूत जा घुसे तो वह मन्दिर अपवित्र हो जाता है! भगवान रुष्ट हो जाता है! घर की जब यह स्थिति हो तो बाहर हम बराबरी के नाम पर झगड़ते अच्छे लगते हैं? तब हमारे इस रवैये में कृतघ्नता की भी हद पाई जाती है। जो निम्नतम काम करके हमारे लिए सुविधाओं को उपलब्ध कराते हैं उन्हें ही हम दुरदुराते हैं। पशुओं की हम पूजा कर सकते हैं, लेकिन इन्सान को पास नहीं बिठा सकते!

भगत सिंह के लेख में सिर्फ सवर्णवादी रवैये पर ही सवाल नहीं है, बल्कि दलितों के संगठनबद्ध होने, अपने राजनैतिक संगठन बनाने और संसाधनों में बराबर अधिकार मांगने की लड़ाई का भी समर्थन है। जबकि रोहित वेमुला के ही उदाहरण से हम संघ और भाजपा का दलितों के प्रति रवैया समझ सकते हैं। भगत सिंह आज नहीं हैं, लेकिन आरक्षण का विरोध करने और फिर विरोध न करने का नाटक करने वाले मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए उनकी ओर से 85 साल पहले ही संदेश दे दिया गया था। इसी लेख में भगत सिंह कहते हैं;

लेकिन यह काम उतने समय तक नहीं हो सकता जितने समय तक कि अछूत कौमें अपने आपको संगठित न कर लें। हम तो समझते हैं कि उनका स्वयं को अलग संगठनबद्ध करना तथा मुस्लिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की माँग करना बहुत आशाजनक संकेत हैं। या तो साम्प्रदायिक भेद को झंझट ही खत्म करो, नहीं तो उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो। कौंसिलों और असेम्बलियों का कर्तव्य है कि वे स्कूल-कालेज, कुएँ तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतन्त्रता उन्हें दिलाएं। जबानी तौर पर ही नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुओं पर चढ़ाएं। उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलाएं। लेकिन जिस लेजिस्लेटिव में बालविवाह के विरुद्ध पेश किए बिल तथा मजहब के बहाने हाय-तौबा मचाई जाती है, वहाँ वे अछूतों को अपने साथ शामिल करने का साहस कैसे कर सकते हैं

दरअसल भगत सिंह जानते थे कि न केवल हालात तब बदतर थे, आज़ादी के बाद भी जिनके हाथ में देश चलाने के अधिकार जाने थे, वह भी इन्हीं हालात को बरक़रार रखना चाहते थे। हाल ही में सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ आंदोलन ही नहीं, उसके पहले से लिंचिंग विरोधी, जाति विरोधी और साम्प्रदायिकता विरोधी अभियानों के दौरान गांधी, आम्बेडकर के साथ तीसरे आइकन के तौर पर भगत सिंह उभरे, इसमें कोई हैरानी नहीं है। भगत सिंह ने अपने एक लेख में साम्प्रदायिकता पर विस्तृत चर्चा की थी। यह लेख भी संभवतः जेल से ही लिखा गया था,

ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन धर्मोंने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन धर्मजनोंपर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।  

(प्रस्तुत लेख जून, 1928 के किरतीमें छपा साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज)

इस लेख में आगे की ओर बढ़ें, तो भगत सिंह एक बेहद अहम बात करते हैं, वह यह है कि खासकर श्रमिक और सर्वहारा के साथ युवाओं को वर्ग चेतना या वर्ग संघर्ष को समझना बेहद ज़रूरी है। वर्ग चेतना के विकास से, साम्प्रदायिकता का शैतान भस्म किया जा सकता है। वर्ग चेतना का अर्थ यह है कि हम यह समझें कि समाज में हमारे असल शत्रु, किसी धर्म विशेष के लोग नहीं हैं, बल्कि पूंजीपति हैं। यदि आज के हालात में देश को देखें, तो साम्प्रदायिक शक्तियां, पूंजीवादी शक्तियों के कंधों पर बैठ कर, उनकी ही पूंजी से सत्ता में आई हैं। इससे ही साफ है कि भगत सिंह देश के मुस्तकबिल को भी कितना समझते थे। उनकी कही बात आज भी प्रासंगिक है, वह इसी लेख में कहते हैं;

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।

(साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज)

लेकिन भगत सिंह यह भी बखूबी समझते थे कि देश की तरक्की में न सिर्फ साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरपंथ रोड़ा है, बल्कि आने वाले समय में आज़ादी के मायने सिर्फ वोट डालने के अधिकार के तौर पर बचे रह सकते हैं। भगत सिंह ने धार्मिक कट्टरता पर गहरा प्रहार किया, इतना तीखा कि धर्म के विचार की ही समाप्ति की बात कर डाली;

धार्मिक अन्धविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं। वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं और हमें उनसे हर हालत में छुटकारा पा लेना चाहिए। ‘’जो चीज आजाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए।‘’ इसी प्रकार की और भी बहुत सी कमजोरियाँ हैं जिन पर हमें विजय पानी है। हिन्दुओं का दकियानूसीपन और कट्टरपन, मुसलमानों की धर्मान्धता तथा दूसरे देशों के प्रति लगाव और आम तौर पर सभी सम्प्रदायों के लोगों का संकुचित दृष्टिकोण आदि बातों का विदेशी शत्रु हमेशा लाभ उठाता है।

(11, 12, 13 अप्रैल, 1928 को हुए नौजवान भारत सभा के सम्मेलन के लिए तैयार किया गया सभा का घोषणापत्र)

सोचिए, क्या आरएसएस भगत सिंह को अपनाते वक़्त उनके इन विचारों को अपना सकता है? जवाब, हां में हो ही नहीं सकता…सिर्फ इतना ही नहीं, भगत सिंह, देश के दैवीकरण के ख़तरे को भली भांति समझते हैं। हाल ही में ‘भारत माता विवाद’ को लेकर आरएसएस और बीजेपी की सरकार, जिस तरह का कट्टर रवैया अपना रही है, उसका भी जवाब भगत सिंह के ही लिखे में मिल जाता है। ऐसा जवाब, जिसे आरएसएस भगत सिंह के साथ स्वीकार नहीं करना चाहेगी। हां, भले ही वह भगत सिंह की तस्वीर छाप ले, लेकिन क्या वह भारत माता के विचार को कोरी भावुकता मानेगी? लेकिन भगत सिंह इस विचार को ही कोरी भावुकता मानते थे। अपने जुलाई 1928 के किरती में प्रकाशित लेख में वह कांग्रेस के नेताओं द्वारा भारत माता की अभ्यर्थना पर तंज करते हुए लिखते हैं;

आप एक कवि हैं। कवित्व आपके विचारों में सभी जगह नजर आता है। साथ ही यह धर्म के बहुत बड़े उपासक हैं। यहशक्तिधर्म चलाना चाहते हैं। यह कहते हैं, “इस समय हमें शक्ति की अत्यन्त आवश्यकता है।वह शक्तिशब्द का अर्थ केवल भारत के लिए इस्तेमाल नहीं करते। लेकिन उनको इस शब्द से एक प्रकार की देवी का, एक विशेष ईश्वरीय प्राप्ति का विश्वास है। वे एक बहुत भावुक कवि की तरह कहते हैं

“For in solitude have communicated with her, our admired Bharat Mata, And my aching head has heard voices saying… The day of freedom is not far off.” ..Sometimes indeed a strange feeling visits me and I say to myself – Holy, holy is Hindustan. For still is she under the protection of her mighty Rishis and their beauty is around us, but we behold it not.

अर्थात् एकान्त में भारत की आवाज मैंने सुनी है। मेरे दुखी मन ने कई बार यह आवाज सुनी है कि आजादी का दिन दूर नहीं‘…कभी कभी बहुत अजीब विचार मेरे मन में आते हैं और मैं कह उठता हूँ हमारा हिन्दुस्तान पाक और पवित्र है, क्योंकि पुराने ॠषि उसकी रक्षा कर रहे हैं और उनकी खूबसूरती हिन्दुस्तान के पास है। लेकिन हम उन्हें देख नहीं सकते।

यह कवि का विलाप है कि वह पागलों या दीवानों की तरह कहते रहे हैं — “हमारी माता बड़ी महान है। बहुत शक्तिशाली है। उसे परास्त करने वाला कौन पैदा हुआ है।इस तरह वे केवल मात्र भावुकता की बातें करते हुए कह जाते हैं — “Our national movement must become a purifying mass movement, if it is to fulfil its destiny without falling into clasaa war one of the dangers of Bolshevism.”

इससे ही साफ है कि आरएसएस, जिस विचार को आज सब पर थोपने की कोशिश में है. भगत सिंह 1928 में ही व्यर्थ बता चुके थे। इस तरह से संघ के इस षड्यंत्र को भी अगर भगत सिंह को पढ़ा जाए, तो समझा जा सकता है कि दरअसल यह सब एक धर्म विशेष के यथास्थितिवाद को सब पर थोपने की ही कोशिश है। शायद यही वजह है कि आरएसएस और उसके संगठन भगत सिंह का नाम तो लेते हैं, लेकिन उनका लिखा, कभी अपने प्रचारकों और कार्यकर्ताओं में वितरित नहीं करते। हां, हिटलर की जीवनी संघ में ज़रूर बांटी जाती रही है। आप भगत सिंह को पढ़ते हुए सोचने लगते हैं कि ये नौजवान आज होता तो किस ओर खड़ा होता? ज़ाहिर है कि सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़, जातिवाद के ख़िलाफ़, शोषण के ख़िलाफ़…और संभवतः सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन में मुट्ठी बांध कर नारे लगा रहा होता।

एक और हिस्सा है, जहां भगत सिंह आरएसएस से न केवल दूर खड़े होते हैं, आरएसएस के आदर्शों की पोल भी खोल देते हैं। ज़रा सोच कर देखिए कि जिस समय आरएसएस के मान्य महापुरुष सावरकर, अंग्रेज़ों के नाम माफ़ीनामा लिख रहे थे, भगत सिंह अपने पिता से इस बात का रोष प्रकट कर रहे थे कि वह उनको फांसी से बचाने की कोशिश क्यों कर रहे थे…

पिता जी, मैं बहुत दुख का अनुभव कर रहा हूँ। मुझे भय है,आप पर दोषारोपण करते हुए या इससे बढ़कर आपके इस काम की निन्दा करते हुए मैं कहीं सभ्यता की सीमाएँ न लाँघ जाऊँ और मेरे शब्द ज्यादा सख्त न हो जायें। लेकिन मैं स्पष्ट शब्दों में अपनी बात अवश्य कहूँगा। यदि कोई अन्य व्यक्ति मुझसे ऐसा व्यवहार करता तो मैं इसे गद्दारी से कम न मानता, लेकिन आपके सन्दर्भ में मैं इतना ही कहूँगा कि यह एक कमजोरी है- निचले स्तर की कमजोरी।

यह एक ऐसा समय था जब हम सबका इम्तिहान हो रहा था। मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप इस इम्तिहान में नाकाम रहे हैं। मैं जानता हूँ कि आप भी इतने ही देशप्रेमी हैं, जितना कि कोई और व्यक्ति हो सकता है। मैं जानता हूँ कि आपने अपनी पूरी जिन्दगी भारत की आजादी के लिए लगा दी है, लेकिन इस अहम मोड़ पर आपने ऐसी कमजोरी दिखाई, यह बात मैं समझ नहीं सकता।

अन्त में मैं आपसे, आपके अन्य मित्रों एवं मेरे मुकदमे में दिलचस्पी लेनेवालों से यह कहना चाहता हूँ कि मैं आपके इस कदम को नापसन्द करता हूँ। मैं आज भी अदालत में अपना कोई बचाव प्रस्तुत करने के पक्ष में नहीं हूँ। अगर अदालत हमारे कुछ साथियों की ओर से स्पष्टीकरण आदि के लिए प्रस्तुत किए गए आवेदन को मंजूर कर लेती, तो भी मैं कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत न करता।

4 अक्तूबर, 1930

ज़ाहिर है कि आरएसएस के पास नायकों का भीषण अभाव है, वह यह भी नहीं कह सकता है कि उसके फलाने कार्यकर्ता ने आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया था। इसलिए इस संकट को मिटाने के लिए वह कभी भगत सिंह और कभी सरदार पटेल के नामों का सहारा लेता है। लेकिन भगत सिंह को जिस तरह से उनके विचारों के ठीक विपरीत काम करने के लिए प्रयोग किया जा रहा है, वह इस बात का भी द्योतक है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उच्च स्तरीय विचार मंडल जितना चालाकी से नायकों का कायांतरण कर ले रहा है, उतना ही उनका समर्थक विचारहीनता से ग्रस्त है और सत्य जानने की कोशिश में ही नहीं है। जिस मूर्खतापूर्ण ढंग से भगत सिंह के विचारों पर ज़रा भी ध्यान दिए, सिर्फ उनकी पगड़ी को फोटोशॉप कर के, उनके नाम का इस्तेमाल हो रहा है, अंततः एक दिन यह इन तस्वीरों को चिपकाने के लिए ही विनाशकारी होगा। भगत सिंह कोई मामूली शक्ति नहीं है, जैसी राजनैतिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक समझ भगत सिंह में 23 साल की उम्र में थी, प्रचारकों में उम्र बीत जाने पर भी नहीं है। भगत सिंह का दुरुपयोग करने की चाल, शातिर समझ कर चली गई थी, लेकिन यह उल्टी ही पड़ेगी। शायद ऐसे लोगों के लिए ही भगत सिंह ने लिखा था,

हमारा लक्ष्य शासन-शक्ति को उन हाथों के सुपुर्द करना है, जिनका लक्ष्य समाजवाद हो। इसके लिये मज़दूरों और किसानों केा संगठित करना आवश्यक होगा, क्योंकि उन लोगों के लिये लार्ड रीडिंग या इरविन की जगह तेजबहादुर या पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास के आ जाने से कोई भारी फ़र्क न पड़ सकेगा। 

यह वह सारी बातें और विचार हैं, जिनको आरएसएस, संविधान से ही बाहर करवा देना चाहता था। लेकिन भगत सिंह की कुर्बानी सिर्फ देश की अंग्रेज़ों से आज़ादी के लिए नहीं थी, वह धर्मांधता और साम्प्रदायिकता से भी आज़ादी के लिए थी। हमको निश्चिंत रहना चाहिए कि देश भर में और कई भगत सिंह बन रहे हैं, जो उनकी कुर्बानी को आरएसएस जैसी शक्तियों के हाथों ज़ाया नहीं जाने देंगे। जैसा कि भगत सिंह लिखते हैं;

निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जाएगा और यह युद्ध निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद व पूँजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं। यही वह लड़ाई है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हम अपने पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया है और न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा।

20 मार्च, 1931

उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फा क्या है,

हमे यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।

दहर से क्यों खफ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,

सारा जहाँ अदू सही, आओ मुकाबला करें।

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,

चराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।

हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,

ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे रहे न रहे।

सेंट्रल जेल, लाहौर,

3 मार्च, 1931

(छोटे भाई कुलतार के नाम लिखे गए पत्र से)

इतिहास के एक ग़ैर पाठ्यक्रम विद्यार्थी के तौर पर मेरा दृढ़ विश्वास है कि भगत सिंह आज होते, तो वे शाहीनबाग़ से लेकर असम तक – नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ आंदोलन में होते। वे दिल्ली के सांप्रदायिक दंगों में लोगों को बचा रहे होते और एकता बनाने के लिए प्रभातफेरी निकाल रहे होते। मुझे यक़ीन है कि वे किसानों के आंदोलन का अहम चेहरा होते…और शायद ये भी यक़ीन है कि वर्तमान सरकार भी उनकी – उतनी ही दुश्मन होती, जितनी कि ब्रिटिश सरकार थी…


मयंक सक्सेना, मीडिया विजिल के एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं। पूर्व टीवी पत्रकार हैं, वर्तमान में मुंबई में फिल्म लेखन करते हैं। मयंक के वीडियोज़ आप हमारे फेसबुक पेज पर देख सकते हैं।