मेरा ‘विचित्र किन्तु सत्य’ दोस्त मनीष: एक संस्‍मरण

असीम सत्यदेव
संस्मरण Published On :


‘‘क्या कोई ऐसा गाना भी फिल्म में है जिसमें मुक्का, थप्पड़ चलाने की बात है?’’ मनीष ने पूछा, तो मैंने बताया-‘‘हां ‘जिगरी दोस्त’ फिल्म का गाना है जिसमें जितेन्द्र और महमूद गाते हैं –

‘‘चल शुरू हो जा, चला मुक्का, जमा थप्पड़’’।

‘‘आप मजाक कर रहे हैं। अपने मन से बनाकर कह रहे हैं।’’

‘‘अपने मन से बनाना होता तो कुछ और बनाता। लेकिन यह बात पूरी तरह है, सच है। ‘विचित्र किन्तु सत्य’ की श्रेणी में ऐसी बहुत सारी घटनाएं आती हैं।’’

इस तरह का संवाद मेरे और मनीष के बीच अकसर चलता रहा। गोरखपुर विश्वविद्यालय में उसने हिन्दी विषय में प्रवेश 1994 में लिया। विद्यार्थी राजनीति में दिलचस्पी लेने वाले मनीष का ज्ञान और दिलचस्पी साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में भी अनूठी रही है। मेरे साथ हास्य शैली में (आप उसे अगम्भीर भी कह सकते हैं) उसका लगातार संवाद बेशक चलता रहा, लेकिन जब तक गोरखपुर में रहा उसने हर काम पूरी गम्भीरता से पूरा किया।

सन् 2000 तक वह गोरखपुर में रहा और साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना की लौ जगाने में तन-मन से लगा रहा। गोरखपुर और आसपास के किशोर विद्यार्थी, नौजवानों से लेकर वरिष्ठ साहित्यकारों तथा सांस्कृतिक कर्मियों के दिलो-दिमाग में वह जड़ जमा चुका था। उसका खुद का दिमाग भी उस खेल में लगता जो दिमागी कसरत वाला है-‘शतरंज’।

एक बार एक ‘स्टडी सर्किल’ में दोपहर बाद वह एक साथी को लेकर चला गया था। आने में 20 मिनट की देरी होने पर बड़़े सहज तरीके से बताया कि एक बार यह खेल शुरू होने पर खत्म होने पर ही उठा जा सकता है। शतरंज चैम्पियन विश्वनाथन आनन्द की सभी खूबियों की जानकारी उसको थी। सहज तरीके से गम्भीर बहस में हिस्सेदारी उसकी शैली थी।

एक प्रसंग याद आया- प्रेमचन्द की कहानी ‘मुक्तिमार्ग’ एक किसान और गड़रिये की तबाही की कहानी है। परस्पर दुश्मनी के कारण ये दोनों तबाह होकर मजदूर हो गये थे। इस कहानी के बारे में हमारे कुछ साथी इसका मतलब यह निकाल रहे थे कि ‘दोनों सर्वहारा होकर मुक्त हो गये।’ मनीष ने बड़े सहज अन्दाज में कहा कि इतनी गहराई तक सर्वहारा विचारधारा तक पहुंचने की उम्मीद प्रेमचन्द से करना ठीक नहीं है।

प्रेमचन्द ने प्रायः उपन्यास, कहानी का जो शीर्षक दिया है अन्त उसका उल्टा ही है। जैसे गोदान में किसान होरी की मौत पर कोई गोदान नहीं हुआ, सद्गति कहानी में किसी की सद्गति नहीं हुई बल्कि दुर्गति हुई। इसी तरह ‘मंत्र’ कहानी में ‘एक समय के बाद मरीज न देखने वाले डा. चड्ढा को ‘खलनायक’ मानने की गलती नहीं करनी चाहिए’ इसको भी बड़े सहज तरीके से उसने रखा था।

छोटे-बच्चों के प्रति भी उसकी दिलचस्पी है। बच्चे उसकी ओर बड़े आराम से चले जाते हैं।

गोरखपुर से उसके जाने के बाद विभिन्न सम्मेलनों में उससे मुलाकात होती रही। साम्राज्यवादी बहुराष्ट्रीय निगमों तथा कम्पनियों के खिलाफ संघर्ष के विभिन्न मोर्चे में उसकी भागीदारी रही। जब भी मिला, तो अन्य गम्भीर बातों के साथ मेरे ‘विचित्र किन्तु सत्य’ के किस्से और फिल्मी गानों पर बनायी गयी मेरी राजनीतिक पैरोडी भी जरूर सुनता। आरक्षण और जाति के सवाल पर विद्यार्थियों के बीच बढ़ते वैमनस्य से वह चिन्तित रहा और इस सवाल से जूझता रहा कि ‘‘जाति का ज़हर बचपन से हमारे दिमाग में कितनी गहराई तक पहुंचाया गया है।’’

ऐसा मनीष जनविरोधी व्यवस्था की आंखों में खटकता रहा है। इसलिए जब मुझे यह समाचार मिला कि उसको गिरफ्तार कर उसके खिलाफ उल्टे-सीधे आरोप लगाकर उसे अपराधी ठहराने की घिनौनी कोशिश की जा रही है, तो मुझे दुःख ज़रूर हुआ, लेकिन अचरज की बात बिल्कुल नहीं लगी।

आज हर ऐसा हर इंसान जो साम्प्रदायिकता और जातिवाद के जहर से दूर है और इसे दूर करने के प्रयास में लगा भी है, शासक और मुनाफाखोरों की मौजूदा व्यवस्था को खतरनाक ही लगगा।