…नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छुपी रहे : संदर्भ NDTV

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गुरुवार 6 अक्‍टूबर को एनडीटीवी पर बरखा दत्‍त द्वारा पी. चिदंबरम का लिया साक्षात्‍कार न चलाए जाने और राष्‍ट्रीय सुरक्षा संबंधी एक आंतरिक ईमेल की ख़बर जब सिद्धार्थ वरदराजन ने दि वायर पर चलाई, तो चैनल के दर्शकों को हैरत होना स्‍वाभाविक बात थी। दरअसल, एनडीटीवी की पहचान उसके संपादकीय कंटेंट से होती रही है और सामान्‍य विवेकवान व उदारमना दर्शकों के बीच उसकी विश्‍वसनीयता भी इसी वजह से कायम है कि उसने टीआरपी की होड़ में कभी भी निष्‍पक्षता से प्रत्‍यक्षत: समझौता नहीं किया। इस चेहरे के पीछे हालांकि जो दिक्‍कतें हैं, उनसे दर्शकों का वास्‍ता इसलिए नहीं पड़ता क्‍योंकि कारोबारी दुनिया की ख़बरें एक तो अंग्रेज़ी में लिखी जाती हैं। दूसरे, मीडिया के भीतर मीडिया का परदाफाश करने का कोई चलन नहीं रहा है (हालांकि इधर बीच यह बढ़ा है)।

मीडियाविजिल विभिन्‍न प्रकाशित स्रोतों से अपने पाठकों तक एनडीटीवी के संदर्भ में तमाम विवादों को हिंदी में इस श्रृंखला के अंतर्गत पहुंचा रहा है। इसका उद्देश्‍य एनडीटीवी को किसी कठघरे में खड़ा करना नहीं है, न ही इसके पीछे कोई प्रच्‍छन्‍न मंशा है। इसका सीधा सा उद्देश्‍य यह है कि आम दर्शक एक सौम्‍य संपादकीय चेहरे के पीछे की हकीकत को जान-समझ सके और मीडिया के बारे में उसकी समग्र समझदारी विकसित हो सके।



एनडीटीवी चूंकि सबसे पुराना नेटवर्क है, लिहाजा इससे जुड़े विवाद भी उतने ही पुराने हैं। इसकी एक झलक हमें आज से करीब बीस साल पहले 1997 में मिलती है जब एक संसदीय कमेटी ने दूरदर्शन की वित्‍तीय जांच की थी और पाया था कि एनडीटीवी के साथ किए गए सौदों में ”अनियमितताएं” मौजूद थीं- खासकर दूरदर्शन की प्रौद्योगिकी तक कंपनी को दी गई पहुंच के मामले में और उन विज्ञापन रों के मामले में जो उसे लेने की छूट दी गई थी। केंद्रीय अन्‍वेषण ब्‍यूरो ने 1998 में पहली बार एनडीटीवी के मालिक प्रणय रॉय और दूरदर्शन के अफसरों के खिलाफ़ एक एफआइआर दर्ज की थी जिनमें 1993 से 1996 के बीच दूरदर्शन के महानिदेशक रहे रतिकांत बसु भी शामिल थे। इस मामले में सीबीआइ ने 2013 में अदालत के समक्ष क्‍लोज़र रिपोर्ट दाखिल कर दी थी जिसे अदालत ने मंजूर कर लिया और मुकदमे में लगे सभी आरोपों से सभी को बरी कर दिया।

यह शुरुआती फिसलन बाद के दिनों की आहट थी जिसने एनडीटीवी के स्‍वामित्‍व को लेकर काफी विवाद खड़ा किया जो आज तक कायम है। जुलाई 2009 में रिलायंस इंडस्‍ट्रीज़ लिमिटेड (आरआइएल) से जुड़ी एक कंपनी विश्‍वप्रधान कॉमर्शियल प्राइवेट लिमिटेड ने बिना किसी ब्‍याज के एनडीटीवी के मालिक प्रणय रॉय, उनकी पत्‍नी राधिका रॉय और इनकी प्राइवेट होल्डिंग कंपनी आरआरपीआर होल्डिंग प्राइवेट लिमिटेड को 350 करोड़ :पये का कर्ज दिया। यह कर्ज की शक्‍ल में कंपनी को कर्ज के संकट से मुक्ति दिलाकर उसके स्‍वामित्‍व के ऊपर कब्‍ज़ा करने की कवायद थी।

इस कर्ज का इकलौता उद्देश्‍य रॉय दंपत्ति द्वारा लिए गए एक बैंक के कर्ज को चुकाना था। 21 जुलाई 2009 को हसताक्षरित समझौते के तहत रॉय द‍ंपत्ति को एक परिवर्तनीय वॉरंट जारी करना था जो ”परिवर्तन के समय लेनदारों (रॉय दपंत्ति और आरआरपीआर होल्डिंग्‍स) की पूर्ण शेयर पूंजी” के 99.9 फीसदी के बराबर होता और उसके बदले में अम्‍बानी समूह ने अपनी शेयरधारिता को 26 फीसदी तक सीमित करने की सहमति दी थी।

इस समझौते में कुछ ऐसे प्रावधान थे जिनके सहारे अम्‍बानी ने प्रभावी तरीके से कंपनी का स्‍वामित्‍व अपने हक़ में कर लिया।

1. समझौते का उपबंध 6 वॉरंट की बात करता है, जिसमें कहा गया है कि ”देनदार (अम्‍बानी) की मर्जी पर” वॉरंट को शेयरों में तब्‍दील किया जा सकता है ”कर्ज अवधि के किसी भी वक्‍त या उसके बाद जिसमें देनदार की ओर से आगे किसी और कार्रवाई या समझौते की ज़रूरत नहीं होगी”। एक ऐसा समझौता जो देनदार को कर्ज की अवधि समापत होने के बाद भी वॉरंट को शेयरों में तब्‍दील करने की छूट देता हो, बिक्री समझौते के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।

2. य‍ह कर्ज वास्‍तव में कंपनी की बिक्री है, इसका एक और संकेत उपबंध 11 से मिलता है, जो कहता है कि देनदार आरआरपीआर में केवल तीन निदेशक होंगे। इनमें एक को लेनदार यानी अम्‍बानी नामित करेगा। इतना ही नहीं, अगर यह निदेशक हर बोर्ड मीटिंग में मौजूद नहीं रहा तो कोरम अधूरा समझा जाएगा। ज़ाहिर तौर पर एक समझौता यह भी किया गया कि देनदार एनडीटीवी की संपादकीय नीतियों में दख़ल नहीं देगा, लेकिन यह सोचने वाली बात है कि ऐसा कैसे प्रभावी होगा।

3. उपबंध 9 कहता है कि अगले तीन से पांच साल तक अम्‍बानी समूह औश्र आरआरपीआर एक ‘स्थिर’ और ‘विश्‍वसनीय’ खरीददार की तलाश आरआरपीआर के लिए करेगा जो ”एनडीटीवी के ब्रांड और विश्‍वसनीयता को कायम रख सके”। पांच साल से ज्‍यादा बीत चुके हैं, इसीलिए इस होल्डिंग की संभावित बिक्री की चर्चा पिछले साल से हो रही है जो कि एनडीटीवी के स्‍वामित्‍व के लिहाज से अहम है।

4. कुछ और दिक्‍कतें हैं। मसलन, विश्‍वप्रधान कॉमर्शियल्‍स की ओर से समझौते पर दस्‍तखत श्री केबआर राजा ने किए थे। श्री राजा वही शख्‍स हैं जिनके कॉरपोरेट लॉबीस्‍ट नीरा राडिया के फोन पर हुए संवादों के कारण जून 2011 में रिलायंस इंडस्‍ट्रीज को तत्‍कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम के समक्ष माफीनामा जारी करना पड़ा था। राजा का नाम न्‍यूज़ एक्‍स में हिस्‍सेदारी की आरआइएल द्वारा खरीद के संबंध में भी सामने आता है , जिसकी जांच सीरियस फ्रॉड इनवेस्टिगेशन ऑफिस (एसएफआइओ) ने की थी। इस पर मीडिया वेबसाइट दि हूट ने ख़बर की थी।

5. हर कोई जानता है कि कर्ज सौदे का लेना-देना ब्‍याज से होता है, मूल्‍यांकन से नहीं। यह सौदा हालांकि इस मामले में भिन्‍न है क्‍योंकि अनुसूची 3(2) और उपबंध बी, सी और डी का ताल्‍लुक एनडीटीवी और एनडीटीवी समूह के साथ है जिसे अम्‍बानी की कंपनी द्वारा ”पूर्व लिखित मंजूरी” की दरकार होगी। इसमें समूह का न्‍यूनतम मूल्‍यांकन 1346 करोड़ पर किया गया है और इससे नीचे की किसी भी कॉरपोरेट कार्रवाई को देनदार की अनुमति की जरूरत होगी।

6. ये प्रावधान स्‍पष्‍ट करते हैं कि एनडीटीवी के प्रवर्तक अम्‍बानी की मंजूरी के बगैर तकरीबन कुछ भी अपने मन से नहीं कर सकते हैं। चूंकि भारत के प्रत्‍याभूमि विनिमय बोर्ड (सेबी) ने पिछले साल एनडीटीवी पर आयकर के नोटिस के जवाब की घोषणा में चूकने पर दो करोड़ का जुर्माना लगाया था, लिहाजा इस समझौते में क्‍या-क्‍या अघोषित है, वह कहीं ज्यादा गंभीर जान पड़ता है।

(जारी)

Source:

The Caravan

www.moneylife.in 

www.newslaundry.com