सरकारों के बारे में कहा जाता है कि वे अपने नागरिकों की अभिभावक होती हैं और उनसे अभिभावक के रूप में पेश आती ही अच्छी लगती हैं, लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार है कि किसान आन्दोलन के चार महीने बीत जाने के बाद भी उससे सास के रूप में ही पेश आ रही है। अपमानित, अवमानित और लांछित करके अथवा बल प्रयोग व किलेबन्दी वगैरह की मार्फत इस आन्दोलन को ठिकाने लगाने की कई कोशिशें विफल हो जाने के बाद शायद उसको लग रहा है कि उसके पास कानों में तेल डालकर बैठी रहने का ही एकमात्र विकल्प शेष है। इसलिए यह दावा करते हुए कि वह अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ प्रस्ताव दे चुकी, अब किसान जानें और उनका काम, वह किसानों से ‘एक फोनकॉल की दूरी’ बनाये हुए है। इस तथ्य की ओर से जानबूझकर अनजान बनी हुई है सो अलग कि स्वतःस्फूर्त आन्दोलन कभी हारते या विफल नहीं होते। खासकर, जब उनके आयाम इतने व्यापक हो गये हों।
यह सरकार संभवतः अपने मित्र मीडिया द्वारा लगातार फैलाई जा रही इस धारणा से खुश है कि किसानों के हौसले पस्त हो रहे हैं और प्रतीक्षा कर रही है कि कब ऐसा हो और उसके सिर से बला टले। इसलिए न ‘जब तक कानून वापसी नहीं, तब तक घर वापसी नहीं’ के उनके इरादे को गंभीरता से ले रही है, न ही किसान नेताओं द्वारा पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुड्डचेरी के विधानसभा चुनावों में मतदाताओं से की जा रही भारतीय जनता पार्टी को वोट न देने की अपील को। भले ही किसान नेता समझते हों कि वे राजनीति के मर्तबान में हाथ डालकर उंगली टेढ़ी कर लेंगे और उसी उंगली से घी निकालने में लग जायेंगे तो सरकार को सबक सीखना और उनकी मांगों को मानना ही पड़ेगा।
कौन जाने, सरकार की समझ हो कि किसान इस तरह ‘राजनीति पर उतरकर’ उसे अपने अराजनीतिक आन्दोलन को एक बार फिर राजनीतिक व निहित स्वार्थों से प्रेरित ठहराने का मौका उपलब्ध करा रहे हैं। काश, वह समझती कि इस आन्दोलन ने अपने अब तक के सफर में ही दीवार पर ऐसी इबारत लिख दी है, जिसको पढ़ने से इंकार किसी भी तरह सरकार या देश के हित में नहीं हो सकता। सरकार को और नहीं तो गत आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिला किसानों के उस रोष से डरना चाहिए, जो उन्होंने आन्दोलन की बागडोर अपने हाथ में लेकर प्रदर्शित किया।
उनके इस प्रदर्शन का फल यह हुआ कि अमेरिका की जिस ‘टाइम’ पत्रिका के 16 जुलाई, 2012 के अंक में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को ‘अंडर अचीवर’ लिखे जाने को लेकर भाजपा के अरमान बल्लियों उछलने लगे थे, उसी ने अपने कवर पेज पर ’भारत के किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाली महिलाओं’ की तस्वीर छापी, जिसमें वे गोद व बगल में छोटे व दुधमुंहे बच्चे-बच्चियों को लिए मुट्ठियां लहराकर एलान करती दिखीं : ’मैं भयभीत नहीं हो सकती। मुझे खरीदा नहीं जा सकता’ और जो डरते नहीं हैं या जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता, दुनिया का इतिहास गवाह है कि सारे राजसिंहासनों को उनसे डरना और उनके आगे झुकना पड़ता है।
अब किसानों का आन्दोलन उस मोड़ पर जा पहुंचा है, जहां सरकार का उसे ‘भारत के खिलाफ विदेशी साजिश’ से जोड़कर देखना काम नहीं आ रहा। वह इस तथ्य से भी पीछा नहीं छुड़ा पा रही कि गुलामी के दौर में गोरी सरकार ने भी ज्यादातर मौकों पर किसान आन्दोलनों के प्रति ऐसा अडियल रुख नहीं अपनाया। कई बार अपनी गलतियों का अहसास किया और उन्हें सुधारा भी। हमारे इतिहास में इसकी कई मिसालें हैं, जिनमें 1917 में बिहार के चम्पारण में किसानों पर थोपे गये तिनकठिया कानून को समाप्त कराने के लिए महात्मा गांधी द्वारा चलाया गया आन्दोलन सबसे महत्वपूर्ण है।
तब वहां के किसान कानूनन अपनी कृषिभूमि के 3/20 हिस्से में उसकी ‘असल मालिक’ गोरी सरकार के लिए नील की खेती करने को मजबूर थे। उनकी तकलीफों की जांच-परख के लिए बापू चम्पारण के रास्ते में ही थे कि पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट ने उन्हें चम्पारण छोडने का नोटिस तामील करा दिया-उसकी अवज्ञा पर दूसरे दिन अदालत में हाजिर होने का समन भी। फिर उन पर दफा-144 के उल्लंघन का मुकदमा भी चलाया। लेकिन बापू ने इस बाबत वायसराय को बताया तो मजिस्ट्रेट द्वारा सजा का आदेश सुनाने से पहले ही मुकदमा वापस ले लिया गया। फिर कलेक्टर ने बापू को पत्र लिखा कि जो भी जांच करनी हो, करें और अधिकारियों से जिस भी मदद की जरूरत हो, मांग लें। इस पर बापू कलेक्टर से मिलने गये तो उसने उनसे कहा कि आप जब भी चाहें, मुझसे मिल सकते हैं।
फिर तो बापू ने न केवल तिनकठियापीड़ित किसानों के बयान दर्ज किये बल्कि उनके बच्चों के लिए पाठशालाएं खुलवाई और साफ-सफाई का प्रबन्ध भी किया। बिहार के गवर्नर ने उनसे आगे की जांच बंद कर सूबा छोड़ देने का आदेश दिया तो निर्भीकता से उत्तर दिया कि जब तक किसानों की तकलीफें दूर न हो जायें, वे उक्त आदेश नहीं मानेंगे। इससे शरमाये गवर्नर ने स्वयं जांच कमेठी बना दी तथा उनको उसका सदस्य बनने का आमंत्रण भिजवाया। बापू ने कहा कि वे इसी शर्त पर सदस्य बनेंगे कि सरकार यह समझने की गलती न करे कि इससे मैं किसानों की हिमायत छोड़ दूंगा। जांच के बाद भी मुझे संतोष न हुआ तो किसानों का नेतृत्व करने की अपनी आजादी मैं नहीं छोड़ने वाला।
गवर्नर ने उनकी शर्त भी मान ली तो सर फ्रेकस्लाई की अध्यक्षता में कमेटी बनी, जिसने किसानों की सारी शिकायतों को सही पाया। उनसे अनुचित रूप से लिए गए रुपयों का कुछ भाग वापस लौटाने तथा तिनकठिया पद्धति को रद्द करने की सिफारिश भी की। फिर निलहों के प्रबल विरोध के बावजूद उसकी सर्वसम्मत सिफारिशों को लागू कर सौ सालों से चला आता तिनकठिया कानून रद्द कर दिया गया।
इसी तरह गोरी सरकार ने 1928 में गुजरात के बारडोली तालुके में हुए किसान सत्याग्रह से निपटने में भी अपनी प्रतिष्ठा को आड़े नहीं आने दिया था। दरअसल, 1921 के असहयोग आन्दोलन के वक्त बापू ने इस तालुके को आन्दोलन का मुख्य केन्द्र बनाने का निर्णय किया था, लेकिन अंतिम क्षणों में चौरीचौरा के कारण वह आन्दोलन ही स्थगित हो गया। तभी से सरकार से नाराज इस तालुके का 1928 में रिवीजन सेटिलमेंट हुआ तो किसानों के लगान में 22 प्रतिशत की अभूतपूर्व वृद्धि कर दी गयी। तब तालुके के किसान नेता सरदार वल्लभभाई पटेल के पास पहुंचे, जिन्होंने उनको सत्याग्रह का रास्ता सुझाया। साथ ही चेताया भी कि सरकार उनके दमन के लिए अपनी सम्पूर्ण सत्ता का उपयोग कर सकती है।
हुआ भी यही। सत्याग्रही किसानों ने लगान देना बन्द कर दिया तो उनसे कृषि भूमि खाली कराई जाने लगी। उन्होंने उसे तो ‘खुशी-खुशी’ खाली कर ही दिया, उनकी दुधारू भैंसें पकड़ ली गईं तो उन्हें भी ले जाने दिया। फिर सरकार दूसरे जिलों से ऐसे दबंग अधिकारी ले लायी, जो उनसे किसी भी तरह लगान वसूल लें। दो-चार रुपये के लगान के लिए हजारों रूपये की जमीनें जब्त की जाने लगीं। कुछ जब्त भूखंडों को नीलाम कर कई किसान नेताओं को जेल भी भेज दिया गया।
लेकिन किसान नहीं झुके तो सरकार ने उनके सामने झुकने में हेठी नहीं समझी और उनकी सारी बातें मान लीं। इसी के बाद बापू ने बारडोली के सरदार वल्लभभाई पटेल को देश का सरदार घोषित किया। साफ है कि विदेशी सरकार भी कई बार अपनी गलती स्वीकार कर अपने अडियल रुख से पीछे हटने का नैतिक साहस प्रदर्शित किया करती थी। उनके उलट आज देश की चुनी हुई और खुद को ‘लोकतांत्रिक’ कहने वाली सरकार ने किसानों के आन्दोलन के प्रति कहीं ज्यादा अड़ियल रवैया अपना रखा है तो इसे इसके अलावा और किस रूप में देखा जा सकता है कि वह अपने अभिभावकत्व के प्रति हद दर्जे तक गैरजिम्मेदार हो चली है।
कृष्ण प्रताप सिंह, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।