बजट: ‘बेचो, खाओ और सेहत बनाओ’ के हाइवे पर सरपट दौड़ पड़ी सरकार!

कृष्ण प्रताप सिंह कृष्ण प्रताप सिंह
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वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा सोमवार को संसद में पेश किया गया देश का बजट, उनके इस पुराने दावे के बरक्स कि वह सदी का सबसे अच्छा बजट सिद्ध होगा, उर्दू के अपने समय के लासानी शायर मिर्जा हैदर अली ‘आतिश’ का यह शे’र ही याद दिलाता है: बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो इक कतर-ए-खून निकला! इस उम्मीद को नाउम्मीद करता हुआ कि वे मंदी और महामारी के कारण उपस्थित अभूतपूर्व परिस्थितियों से निपटने के लिए कुछ असाधारण कदम उठायेंगी। वह कांग्रेस के इस कथन को भी गलत नहीं ही सिद्ध करता कि वित्तमंत्री के पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि वे लीपापोती करके कुछ सुनहरी कहानियां गढ़ डालें।

यकीनन, वित्तमंत्री ने ऐसा करते हुए अर्थव्यवस्था का पुराना ढर्रा बदलना और प्राथमिकताओं को पुनर्निर्धारित करना भी कुबूल नहीं किया और ‘बेचो, खाओ और सेहत बनाओ; की राह पर सरपट दौड़ने का फैसला कर डाला है। इस कारण यह बजट इस सवाल को और बड़ा करता है कि तथाकथित गुजरात मॉडल का शोर मचाकर आई नरेन्द्र मोदी सरकार का कठिन कोरोनाकाल में भी गैरबराबरी के अनर्थ बढ़ाते रहने वाले आर्थिक मॉडल से मोह कब भंग होगा? आक्सफेम की पिछले दिनों आई रिपोर्ट साफ कहती है कि लॉकडाउन के दौरान भी अरबपतियों की सम्पत्ति में पैंतीस प्रतिशत की वृद्धि हुई, जब करोड़ों देशवासी रोजी-रोटी तक से महरूम हो कर दरबदर होने और पलायन करने को मजबूर थे।

निस्संदेह, इसके लिए वे आर्थिक नीतियां ही जिम्मेदार थीं, जिनके नाते भारत में दो भारत बस गये हैं और ‘चमक-दमक’ का सारा खेल सिर्फ दस करोड़ लोगों यानी जनसंख्या के दस प्रतिशत से भी कम लोगों तक सीमित होकर रह गया है। इनके बरक्स आम लोग कम खाने और गम खाने को विवश हैं और देश के लम्बे समय की जद्दोजहद के हासिल, यहां तक कि रिजर्व बैंक का ‘रिजर्व’ भी, बरबादी की ओर बढ़ चले हैं। दुर्भाग्य से इन नीतियों के पास यह सहूलियत भी नहीं है कि वे इस बरबादी के लिए कोरोना के अप्रत्याशित संक्रमण से पैदा हुए संकट की आड़ ले सकें। देश की अर्थव्यवस्था बिना सोचे-समझे की गई नोटबंदी और जीएसटी की मार से कोरोना के पहले भी बदहाल ही थी और फाइव ट्रिलियन डॉलर इकानमी का सरकारी सपना टूटकर रह गया था।

ऐसे में स्वाभाविक ही था कि देशवासी सदी के सबसे अच्छे बजट में बड़े नीतिगत परिवर्तनों की अपेक्षा करते। खासकर जब भूमंडलीकरण के प्रवर्तक अमेरिका तक में राष्ट्रीय स्वार्थों के लिहाज के अर्थनीति का अनुकूलन किया जाने लगा है। लेकिन हमारा यह बजट भी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के अंधाधुंध विनिवेश के रास्ते उसी जनविरोधी अर्थनीति की पूंछ पकड़े रहकर वैतरणी पार कर लेने का मुगालता पाले हुए है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह आम आदमी के बजाय विनिवेश और बाजार का बजट है, जो आर्थिक उपलब्धियां बढ़ाये या नहीं, गैरबराबरी जरूर बढ़ायेगा। इस गैरबराबरी का पांच या दस प्रतिशत उच्च या उच्च मध्यमवर्ग को पहले से कहीं ज्यादा लाभ मिले तो मिल जाये, लेकिन बाकी नब्बे-पंचानवे प्रतिशत के लिए आत्मनिर्भर भारत का एकमात्र यही अर्थ रह जाने वाला है कि वे सरकारी-गैरसरकारी रियायतों, सहूलियतों, अनुदानों और अमीरों की चैरिटी वगैरह के ज्यादा मोहताज हो जायें। साथ ही यह ताना भी सुनें कि उनके कारण देश की आर्थिक महत्वाकांक्षाओं के पैरों में चक्की बंधी हुई है और वह ‘महाशक्ति’ नहीं बन पा रहा।

पुरानी कसौटियां के आईने में देखें तो इस बजट में करयोग्य आयसीमा न बढ़ाये जाने से मध्य वर्ग भी निराश ही हुआ है। 75 पार के वरिष्ठ नागरिकों को आयकर रिटर्न भरने से जो छूट दी गई है, उसका हासिल भी बहुत बड़ा नहीं होने वाला। दो महीनों से ज्यादा से आन्दोलित किसानों की तो, जो जनसंख्या के लिहाज से देश का सबसे बड़ा समुदाय हैं, वित्तमंत्री ने बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर की गई कृषि उपजों की खरीद की राशि और कृषि ऋण लक्ष्य में वृद्धि के आंकड़े गिनाकर ही छुट्टी कर दी है- किसान सम्मान निधि में बढ़ोतरी की उनकी आस को भी निराश करते हुए। डीजल और पेट्रोल पर उनके नाम पर जो कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर विकास सेस लगाया है, उससे हासिल राजस्व को वह उनके लिए कैसे खर्च करेंगी, यह अभी भविष्य के गर्भ में है।

उन्होंने उन प्रवासी मजदूरों के लिए भी, जो अभी भी घर बैठे हुए और लाचार हैं, लीक से हटकर कोई एलान नहीं किया है, जबकि सभी मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन की नीति के नफे-नुकसान इस तथ्य की रौशनी में समझने होंगे कि श्रमकानूनों में पिछले दिनों किये गये संशोधनों के बाद अनेक मजदूरों की रोजी-रोटी ही महफूज नहीं रह गई है। फिर वे न्यूनतम वेतन के लिए भला कैसे लड़ेंगे? उच्चतम स्तर पर जा पहुंची बेरोजगारी भी कम कैसे होगी, जब मनरेगा के अलावा उसके पीड़ितों के लिए इतना ही आश्वासन है कि इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने के बजटीय उपायों से हालात बदल जायेंगे।

जिन्हें उम्मीद थी कि वित्तमंत्री किसी बड़े आर्थिक पैकेज का एलान करेगी, वे उन्हें महज उन राज्यों पर अनुकम्पा करती देख रहे हैं, जहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। तिस पर वहां भी मामला वोट का ही है। गरीब की जेब में सीधे नकदी पहुंचाने की अर्थशास्त्रियों की नसीहत भी वित्तमंत्री ने नहीं ही सुनी है। अलबत्ता, राजकोष भरने के लिए अंधाधुंध निजीकरण उन्हें इतना रास आया है कि उन्होंने आगे उससे एक लाख पिचहत्तर हजार करोड़ रुपये और जुटाने की घोषणा कर डाली है। जाहिर है, उसे लेकर उठने वाले सवालों की ओर पीठ किये रहकर।

अर्थशास्त्रियों का वह समूह जो सरकार के गौरवगान के कोरस में शामिल नहीं होता, बजट से पहले ही कह रहा था कि सरकार इस बजट में अपनी अनर्थकारी अर्थनीति से पूरी तरह पीछा छुड़ा ले और सारें कदम जमीनी सच्चाई से आंखें मिलाकर और सोच-समझकर उठाये तो भी उसके ‘करिश्मों’ से जर्जर हो चुकी अर्थव्यवस्था के संभलने में देर लगेगी। ऐसे में वित्तमंत्री अधिकतम यही कर सकती थीं कि जिनका चाहें, बजट बना दें और जिनका चाहें बिगाड़ डालें। उन्होंने किया भी यही है और ऐसा करते हुए उन देशवासियों को भूल गई हैं, जिनका सारा जीवन-संघर्ष आज तक ही सिमटा रह जाता है और वे कल का बजट बना ही नहीं पाते।

वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने अपनी एक टिप्पणी में ठीक ही कहा है कि आज साधारणजन भारत में रहते हैं और भद्रलोक इंडिया में और उनके बीच खड़ी अभेद्य दीवार को भेदने वाला बजट ही असाधारण कहला सकता था। तब, जब भारत के 140 करोड़ नागरिकों के लिए पांच चीजें लगभग अयत्नसिद्ध कर दी जायें : रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा। डॉ. वैदिक के ही अनुसार 100 करोड़ से भी ज्यादा देशवासियों के लिए ये चीजें श्रमसाध्य बनी हुई हैं, लेकिन यह वित्तमंत्री की चिन्ता का सबब नहीं है। उन्होंने स्वास्थ्य क्षेत्र पर बजट आवंटन बढ़ाया भी है, तो उसका बड़ा हिस्सा कोरोना वैक्सीन के नाम कर दिया है। प्रधानमंत्री इसी को जान और जहान दोनों की चिन्ता बता रहे हैं।

वे कह सकती हैं कि अर्थव्यवस्था की ऋणात्मकता ने उन्हें बहुत कुछ करने से रोक दिया। लेकिन पारदर्शिता के साथ यह बताने से उन्हें किसने रोक रखा था कि मांग को बढ़ावा देकर पूंजी का प्रवाह बढ़ाने और अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने के जो थोड़े बहुत बजट प्रस्ताव उन्होंने घोषित किये हैं, उनके लिए भी धन कहां से आयेंगा? अगर विनिवेश से तो बढ़ते एनपीए के कारण खस्ता होती बैंकों की हालत के बीच विनिवेश पर बढ़ती निर्भरता महज यही बताती है कि सरकार घर फूंक तमाशा देखने वाली है। तिस पर विडम्बना देखिये : विदेशों से काला धन वापस लाने वाले उसके वादे का हश्र यह हो गया है कि अब वह तीन साल से ज्यादा पुरानी टैक्स चोरी की फाइलें न खोलने ‘गारंटी’ दे रही जबकि कर्मचारियों की भविष्यनिधि के ब्याज पर भी कर लगाने जा रही है।


कृष्ण प्रताप सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।