CPC@100: चीन में समस्याएं तो हैं, लेकिन….!


जिस तरह चीन वैचारिक चुनौतियों और विश्व शक्ति संतुलन के बीच घिर गया था, वह खुद को बदलते हुए और झुक कर चलते हुए अपना विकास करने की राह पर नहीं चलता, तो क्या आज वह वैसी ताकत के रूप में खड़ा हो पाता, जैसाकि आज है? उस समय सीपीसी ने अपना सारा ध्यान दुनिया बदलने के सपने से हटा कर चीन में अपना शासन बचाए रखने और देश को समृद्ध बनाने के सपने पर केंद्रित नहीं किया होता, तो क्या आज समाजवाद (भले वह चीनी स्वभाव वाला हो, जिससे वामपंथी लोगों की असहमति है) को पश्चिमी दुनिया उतनी गंभीरता से लेती, जितना आज उसे लेना पड़ रहा है? और क्या तब पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए दुनिया में कोई चुनौती रह जाती, जैसाकि अब हम देख रहे हैं?


सत्येंद्र रंजन सत्येंद्र रंजन
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चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 100 साल7

 

जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शताब्दी मनाने की तैयारियों में जुटी है, तब बाकी दुनिया के लिए दिलचस्पी का विषय यही समझना है कि आखिर चीन ने अपनी ऐसी हैसियत कैसे बनाई? सीपीसी ने कैसे एक जर्जर देश को वापस खड़ा किया? इस दौरान उसने क्या प्रयोग किए? उन प्रयोगों के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम कैसे रहे हैं? वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन इस विषय पर मीडिया विजिल के लिए एक विशेष शृंखला लिख रहे हैं। पेश है इसकी  सातवीं कड़ी-संपादक

 

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के अनुसार authoritarianism का अर्थ ऐसी राजनीतिक व्यवस्था से है, जिसमें सत्ता किसी एक ऐसे नेता या एक छोटे शासक समूह के हाथ में केंद्रित रहती है, जो संवैधानिक रूप से जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होता। इसकी व्याख्या करते हुए ब्रिटैनिका में लिखा है- authoritarian नेता अक्सर अपनी सत्ता का उपयोग मनमाने ढंग से और कानून सम्मत संस्थाओं का बिना आदर किए करते हैं। इन नेताओं को जनता चुनावी प्रतिस्पर्धा के जरिए हटा नहीं सकती।

अब आइए, इस परिभाषा के आधार पर चीन की व्यवस्था को परखने की कोशिश करते हैं। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नौ करोड़ सदस्य हैं। उसकी इकाइयां शहरो और गांवों से लेकर औद्योगिक इकाइयों तक में फैली हुई हैं। फिर श्रमिक संगठनों, कृषक संगठनों, छात्र संगठनों आदि का एक पूरा तंत्र देश में फैला हुआ है। इस पूरे तंत्र से नीचे से ऊपर तक पार्टी इकाइयों के पदाधिकारियों के चुनाव की प्रणाली काम करती है। पार्टी की केंद्रीय समिति, पॉलित ब्यूरो, पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति, और पदाधिकारी इसी प्रक्रिया से चुने जाते हैँ। नेशनल पीपुल्स कांग्रेस यानी राष्ट्रीय संसद के लिए लगभग 2,200 सदस्यों का चुनाव इसी तरह नीचे से ऊपर तक की प्रक्रिया से होता है। बेशक इस चुनाव प्रक्रिया में कम्युनिस्ट पार्टी या पीपुल्स रिपब्लिक के मूलभूत सिद्धांतों के प्रति निष्ठा रखने वाली बाकी आठ पार्टियों के सदस्य ही हिस्सा लेते हैं। लेकिन गौरतलब है कि चीन ने कभी यह नहीं कहा कि वह बहुदलीय लोकतंत्र है। लेकिन बहुदलीय लोकतंत्र ना होने का मतलब सत्ताधारी नेताओं की कोई जवाबदेही का ना होना भी है, ये समझ सही नहीं है।

दुनिया में राजनीतिक संगठन के स्वरूप का अब तक कोई एक आदर्श ढांचा नहीं उभरा है। विभिन्न समाज या वहां की सियासी ताकतें यह तय करती हैं कि वहां कैसा राजनीतिक ढांचा अपनाया जाएगा। मसलन, ईरान ने अगर इस्लामिक रिपब्लिक का ढांचा अपनाया है, तो सिर्फ लिए उसकी वैधता (legitimacy) को संदिग्ध नहीं माना जा सकता कि वह अमेरिका या ब्रिटेन या जर्मनी जैसा ढांचा नहीं है। फिर ये समझ भी सिरे से गलत है कि पश्चिमी ढंग के राजनीतिक संगठन में authoritarianism नहीं है। जैसी authority चीन में कम्युनिस्ट पार्टी या ईरान में गार्जियन काउंसिल assert करती हैं, वैसा ही अमेरिका में वहां का कॉरपोरेट सेक्टर करता है, जिसकी मंशा से अलग वहां कोई चुनाव परिणाम या मुख्यधारा मीडिया विमर्श चलना संभव नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका में बर्नी सैंडर्स और ब्रिटेन में जेरेमी कॉर्बिन को सत्ता के करीब पहुंचने से रोकने के लिए व्यवस्था की जैसी गोलबंदी हुई और खासकर जिस तरह कॉर्बिन को बदनाम करने की कोशिशें हुईं, उसके बाद इस बात में और भी कोई संदेह नहीं रह गया।

मानव विकास के क्रम में ऐसी तमाम authority का लोप होना चाहिए। ऐसी अवस्था आनी चाहिए जब नागरिक सचमुच स्वतंत्र हों। लेकिन वो अवस्था अभी दुनिया के किसी हिस्से में नहीं आई है। कम्युनिस्ट पार्टियों का भी आखिर यही दावा है कि वे ऐसी अवस्था लाने के लिए प्रयासरत या संघर्षरत हैं। लेकिन इसके लिए उनकी समझ है कि मनुष्य की स्वतंत्रता को सीमित करने वाले पहलू समाज की सरंचना में निहित हैं। जब तक इस संरचना को बदल कर एक उन्नत संस्कृति का सूत्रपात नहीं होगा, सभी मनुष्यों की समान स्वतंत्रता की बात महज छलावा है।

अगर हम मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के ‘Freedom as Development’ की अवधारणा पर गौर करें (यानी विकास को स्वतंत्रता के संदर्भ में समझने की कोशिश करें), तो ये बात कुछ और स्पष्ट हो सकती है। प्रो. सेन के मुताबिक विकास का मतलब और मकसद मनुष्य को अस्वतंत्रताओं (un-freedoms) से क्रमिक रूप से मुक्त करना है। गरीबी, चिकित्सा का अभाव, पर्याप्त शिक्षा का अभाव, उन परिस्थितियों के अभाव जिनसे इनसान अपनी तमाम क्षमताओं के विकास कर सके और अपनी तमाम संभव स्वतंत्रताओं को जी सके, ऐसे un-freedoms हैं, जो हमारे आस-पास मौजूद रहते हैं। यहां प्रासंगिक प्रश्न यह है कि अगर कोई व्यवस्था अपनी आबादी के अंदर करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर लाती है, सबको बेहतर चिकित्सा और शिक्षा की सुविधाएं मुहैया कराती है, उनकी सांस्कृतिक अवस्था को उन्नत बनाती है, तो वे लोग अपने आस-पास मौजूद un-freedoms से धीरे-धीरे मुक्त होते हैं या नहीं? चीन ने पिछले 71 साल में इस रूप में un-freedoms से अपने लोगों को मुक्त करने की दिशा में अभूतपूर्व प्रगति हासिल की है- ये बात विश्व बैंक जैसी पूंजीवादी दुनिया की संचालक संस्थाएं भी मानती हैँ।

अभिव्यक्ति की आजादी समेत तमाम मानव अधिकारों की रक्षा बेशक हर समाज में होनी चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में चीन का रिकॉर्ड और वहां मौजूद परिस्थितियां समस्याग्रस्त हैँ। यहां तक कि कुछ समय पहले चीन के सरकार समर्थक अखबार के संपादक हू शिनजिन ने भी ये बात स्वीकार की थी। इस रूप में मानव अधिकार संबंधी एक अहम पहलू पर चीन का रिकॉर्ड कमजोर है। ये बहस का मुद्दा है कि उत्पादक शक्तियों को उन्नत करते हुए सबको विकास और तमाम स्वतंत्रताओं का अधिकतम मौका देते हुए व्यक्तियों के सभी अधिकारों की रक्षा को कैसे संभव बनाया जाए। लेकिन एक बार फिर यहां ‘whataboutism’ (यानी एक के दोष की चर्चा होने पर दूसरे पक्ष का दोष बताना) की कीमत पर भी इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि दुनिया में अभी कोई ऐसा देश या समाज नहीं है, जहां सबके अधिकारों की समान रक्षा की व्यवस्था कायम कर ली गई हो। पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में जो संवैधानिक अधिकार निहित हैं, उनका एक वर्ग चरित्र रहता है। वो अधिकार सचमुच किसे कितना मिलते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि वह व्यक्ति किस वर्ग से संबंधित है।

दरअसल, अधिकार या आजादी कोई वर्ग निरपेक्ष धारणाएं नहीं हैं। इनका एक वर्गीय संदर्भ (class context) होता है। पूंजीवादी समाजों में होता यह है कि शासक वर्ग इनके बारे में अपनी समझ और अपने हित को पूरे समाज या देश की समझ और हित के रूप में पेश कर देता है। चूंकि वह शासक वर्ग है, इसलिए राजनीति, जनमत को तय करने वाली तमाम तरह की संस्थाओं, समाचार माध्यमों आदि पर उसका नियंत्रण रहता है। इनके जरिए वह जनता के उपेक्षित और शोषित तबकों में भी अपनी राय पर सहमति गढ़ने में सफल हो जाता है। विश्व जनमत पर पश्चिमी संस्थाओं और मीडिया की ऐसी पकड़ है कि उन देशों के अंदर के विभेदों, अंतर्विरोधों और कमजोरियों पर बाकी दुनिया में कोई तथ्यपरक और सार्थक चर्चा नहीं हो पाती। जबकि जिन देशों को ये देश अपने लिए खतरा या जिन्हें दुश्मन मानते हैं, उनके खिलाफ वे पूरी दुनिया में माहौल बना देते हैं। एक समय सोवियत संघ, फिर इस्लामी दुनिया और आज चीन को लेकर जिस तरह का एकतरफा विमर्श दुनिया ने देखा है या देख रही है, उसकी असल वजह यही है।

वरना, अगर सामाजिक विकास और न्याय के साथ विकास की कसौटियों पर गौर करें, तो चीन की व्यवस्था में अनेक खामियों और समस्याग्रस्त पहलुओं के बावजूद हकीकत यह है कि उसकी उपलब्धियां आधुनिक काल में ठोस और विचार-विमर्श का एक महत्त्वपूर्ण आधार उपलब्ध करवाने वाली हैं। आखिर हर व्यवस्था एक प्रयोग है। राजतंत्र से लेकर उदारवादी लोकतंत्र तक के विकास क्रम में अनेक बातें बिना किसी सचेत मानवीय प्रयास के हुईं। कुछ उपलब्धियों के लिए लोगों को प्रयास करने पड़े और कुछ के लिए कुर्बानियां भी देनी पड़ीं। फ्रांस की क्रांति, उपनिवेशवाद विरोधी महान संघर्ष, समाजों के भीतर न्याय के लिए अनगिनत लड़ाइयां आदि सचेत मानवीय प्रयास के उदाहरण हैं, जिस दौरान हजारों लोगों ने अमूल्य बलिदान दिए हैं। लेकिन उन संघर्षों के परिणामस्वरूप जो व्यवस्थाएं बनीं, उन पर जल्द ही धनी और समाज पर दूसरे तरह के प्रभाव रखने वाले समूहों या निहित स्वार्थों ने नियंत्रण कर लिया। ऐसा उन समाजों में भी काफी हद तक हुआ, जहां समाजवाद या साम्यवाद का आदर्श सामने रख कर क्रांतियां हुईं। चीन भी इसका अपवाद नहीं है। लेकिन चीन की विशेषता यह है कि उसने अपने प्रयोग को आगे बढ़ाया।

जैसा कि चीन के कई अध्ययनकर्ताओं ने कहा है, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने सौ साल के अपने इतिहास में सीखने और नए हालात के मुताबिक अपना पुनर्आविष्कार करने की जैसी मिसालें कायम की हैं, वैसा उदाहरण कोई और नहीं मिलता। अब यह काल्पनिक बात है, और काल्पनिक बातों का कोई महत्त्व नहीं होता, फिर भी कई बार ये सवाल अक्सर मन में आता है कि अगर सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी सीखने और खुद को बदलने की ऐसी क्षमता या ऐसा लचीलापन दिखाया होता, तो आज दुनिया की सूरत कैसी होती!

बहरहाल, जो लोग खुद को वामपंथी मानते हुए भी चीन को एक बुराई या पश्चिमी पूंजीवाद के समकक्ष मानते हैं, ये प्रश्न उनके सामने हैः सोवियत संघ के बिखराव के बाद चीन की व्यवस्था भी अगर ढह गई होती, तो उनकी राय में वह दुनिया के लिए अच्छी बात होती या बुरी बात? उस समय जिस तरह चीन वैचारिक चुनौतियों और विश्व शक्ति संतुलन के बीच घिर गया था, वह खुद को बदलते हुए और झुक कर चलते हुए अपना विकास करने की राह पर नहीं चलता, तो क्या आज वह वैसी ताकत के रूप में खड़ा हो पाता, जैसाकि आज है? उस समय सीपीसी ने अपना सारा ध्यान दुनिया बदलने के सपने से हटा कर चीन में अपना शासन बचाए रखने और देश को समृद्ध बनाने के सपने पर केंद्रित नहीं किया होता, तो क्या आज समाजवाद (भले वह चीनी स्वभाव वाला हो, जिससे वामपंथी लोगों की असहमति है) को पश्चिमी दुनिया उतनी गंभीरता से लेती, जितना आज उसे लेना पड़ रहा है? और क्या तब पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए दुनिया में कोई चुनौती रह जाती, जैसाकि अब हम देख रहे हैं?

अब चूंकि बात साम्राज्यवाद पर आ गई है, तो बेशक इस सवाल पर भी चर्चा होनी चाहिए कि चीन साम्राज्यवादी है या नहीं। हमारी इस लेख शृंखला के अगले लेख का विषय यही होगा। लेकिन उसके पहले एक बात जरूर रेखांकित करनी चाहिए कि अभाव और गरीबी में आई समता टिकाऊ नहीं होती है- सोवियत संघ के प्रयोग का यही अनुभव है। अगर लोगों को जरूरी चीजों के लिए लंबी कतारें लगानी पड़े और वे लोग अपनी प्रतिस्पर्धी विचारधारा वाली व्यवस्था के उच्च वर्ग की सुख सुविधाओं को ललचाई आंखों से देखते रहें, तो उसका क्या परिणाम होता है, यह दुनिया ने देखा है। ऐसा परिणाम चीन का होगा या नहीं, यह मालूम नहीं है। लेकिन फिलहाल तथ्य यह है कि सोवियत संघ का प्रयोग कुल 74 साल चला। चीन का अब 71 साल का हो चुका है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 

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