देश को आर्थिक रूप से बर्बाद कर चुकी मोदी सरकार में किसानों की माँग मानने का बूता नहीं!


सरकार किसानों की माँग तभी मान सकती है जब अंबानी-अडानी की जकड़बंदी में फँसी अर्थव्यवस्था को वह समाजवादी मोड़ दे। ऐसा करना न तो उसका मक़सद है और न ही उसमें ऐसी कोई इच्छा ही है। आरएसएस अपने जन्मकाल से ही दक्षिपंथी अर्थतंत्र की वक़ालत करता रहा है और बीजेपी को मिली चुनावी सफलता के दम पर मोदी पूरी क्रूरता से उसी राह पर चल रहे हैं जिसकी क़ीमत देश के जल, जंगल और ज़मीन के साथ उन्हें बचाने वालों को भी चुकाना पड़ रहा है। मोदी सरकार का रुख बताता है कि उसने अंबानी-अडानी के पक्ष में खड़े होकर किसानों पर लट्ठ बजाने का फ़ैसला कर लिया है। उसे यह नज़र नहीं आता कि समय की बेआवाज़ लाठी का शिकार बने ऐसे न जाने कितने शासक, इतिहास के कूड़ेदान में बिलबिला रहे हैं।


डॉ. पंकज श्रीवास्तव डॉ. पंकज श्रीवास्तव
ओप-एड Published On :


नया साल, दिल्ली की सरहदों पर इतिहास की सबसे दिलचस्प जंग का साक्षी बन रहा है। लाखों किसान दिल्ली के तमाम बॉर्डर पर जिस तरह से शीतलहर, ओलावृष्टि और बारिश के बीच डटे हुए हैं, उसने इन जगहों को किसानों की नजर में तीर्थ बन दिया है। यह वजह है कि जिसे शुरू में सिर्फ़ पंजाब और हरियाणा के किसानों का आंदोलन कहा गया था, अब वहाँ देश के लगभग सभी राज्यों के किसान या किसान संगठनो के प्रतिनिधि जमा हो चुके हैं। सरकार के साथ आठ दौर की वार्ता से भी कोई नतीजा न निकलने पर किसान संगठनों को अब समझ आ गया है कि मोदी सरकार दरअसल उन्हें थका कर हराने की रणनीति पर काम कर रही है। ऐसे में सबकी नज़र 26 जनवरी पर है जब किसानों ने दिल्ली में घुसकर ट्रैक्टर परेड का ऐलान किया है। गणतंत्र दिवास पर तंत्र और गण की इस मुठभेड़ के नतीजे से आने वाले भारत की तस्वीर तय होगी।

किसानों के इस आंदोलन में अब तक 60 से ज़्यादा लोग कुर्बान हो चुके हैं, फिर भी पीएम मोदी का दिल नहीं पसीज रहा है। उनके मंत्रियों का अहंकार भी आंदोलन को लेकर उनकी टिप्पणियों में झलकता रहता है, पर यह सिर्फ भाव और भंगिमा का मसला नहीं है। आँकड़े बताते हैं कि सरकार जिस आर्थिक मॉडल को ‘माई-बाप’ मानकर चल रही है, उसमें कॉरपोरेट जगत की ज़रूरतों के लिहाज़ से ही जुंबिश हो सकती है। सरकार को कृषि पर निर्भर आबादी को कम करके शहरों में सस्ता श्रम उपलब्ध कराना है ताकि सेवा क्षेत्र विकसित हो सके। ऐसे में एमएसपी का सुरक्षातंत्र तोड़ना उसके लिए ज़रूरी है जिसका सीधा असर सस्ते गल्ले की दुकानों के ख़ात्मे पर होगा।

एक समस्या यह भी है कि मोदी सरकार के नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक के फ़ैसलों ने देश की अर्थव्यवस्था की ऐसी-तैसी कर दी है। एमएसपी को क़ानूनी दर्जा देने की माँग पूरी करने के लिए सरकार को जितना पैसा चाहिए, वह उसके ख़ज़ाने में है ही नहीं। सरकार की बेढब नीतियों का नतीजा है कि एमएसपी पर किसानों से ख़रीद करने वाली भारतीय खाद्य निगम यानी फ़ूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया  मार्च, 2020 तक साढ़े तीन लाख करोड़ के क़र्ज़ में डूब चुका था। सरकार ने 2020-21 में एमएसपी ख़रीद का बजट 77 हज़ार करोड़ रुपये तय किया था जो कुल उपज की ख़रीद करने के लिए ज़रूरी धनराशि का क़रीब दस फ़ीसदी है । उस पर भी सरकार ने ख़रीद सिर्फ़ 1.14 करोड़ की ही की थी। यानी सरकार का इरादा ही नहीं है कि एमएसपी का मसला दूर तक खिंचे।

सरकार और उसके पालतू मीडिया  देश की ख़राब आर्थिक हालत के लिए अक्सर कोरोना को ज़िम्मेदार ठहराता है, लेकिन हक़ीक़त ये है कि कोरोना के पहले ही देश की अर्थव्यवस्था निगेटिव हो चली थी।वर्ल्ड बैंक ग्रुप के इंटरनेशनल कम्पेरिजन प्रोग्राम (आईसीपी) के मुताबिक 2005 में भारत दुनिया की दसवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी लेकिन मात्र 6 सालों में यानि 2011 में जापान को पछाड़कर अमेरिका और चीन के बाद यह तीसरी सबसे बड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था बन गया था। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार ने तेज़ तरक्की की इबारत लिखी थी। लेकिन नरेंद् मोदी के नेतृत्व में अर्थव्यवस्था पाँचवें नंबर पर लुढ़क गयी है। यानी मनमोहन के राज में सात पायदान ऊपर चढ़ने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था मोदी राज में दो पायदान लुढ़क चुकी है।

साफ है कि सरकार किसानों की माँग तभी मान सकती है जब अंबानी-अडानी की जकड़बंदी में फँसी अर्थव्यवस्था को वह समाजवादी मोड़ दे। ऐसा करना न तो उसका मक़सद है और न ही उसमें ऐसी कोई इच्छा ही है। आरएसएस अपने जन्मकाल से ही दक्षिपंथी अर्थतंत्र की वक़ालत करता रहा है और बीजेपी को मिली चुनावी सफलता के दम पर मोदी पूरी क्रूरता से उसी राह पर चल रहे हैं जिसकी क़ीमत देश के जल, जंगल और ज़मीन के साथ उन्हें बचाने वालों को भी चुकाना पड़ रहा है। मोदी सरकार का रुख बताता है कि उसने अंबानी-अडानी के पक्ष में खड़े होकर किसानों पर लट्ठ बजाने का फ़ैसला कर लिया है। उसे यह नज़र नहीं आता कि समय की बेआवाज़ लाठी का शिकार बने ऐसे न जाने कितने शासक, इतिहास के कूड़ेदान में बिलबिला रहे हैं।

लेखक मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।