भगत सिंह की सज़ा का विरोध करने वाले जस्टिस आग़ा हैदर को भुलाया क्यों?


भगत सिंह की इस कहानी में एक किरदार ऐसा भी है जिसे अक्सर भुला दिया जाता है। यह किरदार है जस्टिस आगा हैदर का जिन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों को सज़ा देने से इंकार करते हुए कहा था- ‘मैं जज हूँ कसाई नहीं!’




भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत के दिन यानी 23 मार्च को हर साल देश भर में कार्यक्रम होते हैं। ख़ासतौर पर भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों और एक शोषणमुक्त भारत के उनके सपने को याद किया जाता है। लेकिन भगत सिंह की इस कहानी में एक किरदार ऐसा भी है जिसे अक्सर भुला दिया जाता है। यह किरदार है जस्टिस आगा हैदर का जिन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों को सज़ा देने से इंकार करते हुए कहा था– ‘मैं जज हूँ कसाई नहीं!’

जस्टिस आगा हैदर  उस स्पेशल ट्रिब्युनल के एकमात्र भारतीय सदस्य थे जो लाहौर षड्यंत्र केस की सुनवाई कर रही थी। इसके तहत भगत सिंह और उनके साथियों के ख़िलाफ़ ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने के लिए मुक़दमा चलाया जा रहा था। 12 मई 1930 को एक बस में भरकर भगत सिंह को साथियों समेत लाहौर के पुँछ हाउस लाया गया जहाँ मुक़दमा चल रहा था। सभी अभियुक्तों के हाथ में हथकड़ी थी, जिसका वे विरोध कर रहे थे। पुलिस ने हथकड़ी नहीं उतारी तो उन्होंने बस से उतरने से इंकार कर दिया और नारेबाज़ी के साथ देशभक्ति के गीत गाने लगे। इस पर एक जज जे.कोल्डस्ट्रीम ने पुलिस को बल प्रयोग का आदेश दिया जिसका जस्टिस हैदर ने कड़ा विरोध किया। उन्होंने कार्यवाही पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। जस्टिस हैदर ने असहमति जताते हुए लिखा

मैं आरोपी को कोर्ट से जेल भेजने के आदेश का पक्षकार नहीं था और मैं इसके लिए किसी तरह ज़िम्मेदार नहीं था। मैं उस आदेश के परिणामस्वरूप आज जो कुछ हुआ उससे ख़ुद को अलग करता हूँ।

जस्टिस आगा हैदर ने सुनवाई की निष्पक्षता पर भी सवाल उठाये थे और तमाम गवाहों से कठोर और बारीक़ सवाल पूछ रहे थे। उनकी पूछताछ की वजह से छहसात गवाहों की गवाहियाँ झूठ साबित हो चुकी थी। यही नहीं वे ट्रिब्युनल के अंग्रेज जजों के आदेशों से बारबार लिखित रूप से अपने को अलग कर रहे थे। साफ़ लग रहा था कि वे क्रांतिकारियों को सज़ा देने के पक्ष में नहीं हैं। अंग्रेज़ों ने सोचा था कि ऑक्सफ़ोर्ड से पढ़े मुसलमान जज की ओर से क्रांतिकारियों के प्रति सख़्ती बरती जाएगी लेकिन जस्टिस हैदर बिल्कुल उलट रुख़ के लग रहे थे। आख़िरकार ब्रिटिश सरकार ने जस्टिस आगा हैदर को ट्रिब्युनल से अलग कर दिया। जस्टिस हैदर ने साफ़ कहा– ‘मैं जज हूँ, कसाई नहीं!’

लेकिन भगत सिंह की क्रांतिकथा से जस्टिस हैदर आगा का नाम अक्सर ग़ायब कर दिया जाता है। जैसे यह भी कम लोग जानते हैं कि भगत सिंह का मुक़दमा लड़ने वाले वकील प्रसिद्ध कांग्रेस नेता आसफ़ अली थे। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों के योगदान को कम दिखाने की समझ का नतीजा है।

जस्टिस आग़ा हैदर ज़ैदी का जन्म 1876 में सहारनपुर के मोहल्ला मीरकोट निवासी एक प्रसिद्ध ज़मींदार परिवार में हुआ था। उनके पिता सैयद अहसन अली एक सरकारी वकील थी और दादा ग़ुलाम रसूल भी एक जानीमानी शख़्सियत थे। आग़ा हैदर ने इंग्लैंड से क़ानून की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने 1904-1909 के बीच सहारनपुर में वक़ालत की और फिर इलाहाबाद चले गये। वे मोती लाल नेहरू के समकालीन थे और लंबे समय तक हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करते रहे। 1926 में उन्हें पंजाब हाईकोर्ट का जज चुना गया और वे लाहौर चले गये। लाहौर हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस शादी लाल ने जस्टिस कोल्डस्ट्रीम और जस्टिस जी.सी.हिल्टन के साथ उन्हें लाहौर षड्यंत्र केस की सुनवाई के लिए बनाये गये विशेष न्यायाधिकरण का सदस्य मनोनीत किया।

इस न्यायाधिकरण ने 5 मई1930 को सुनवाई शुरू की थी। भगत सिंह और उनके साथियों ने साफ़ कहा कि उनका अंग्रेज़ों की न्याय व्यवस्था पर कोई यक़ीन नहीं है। वे मुक़दमे के ज़रिए अपनी बात को जनता तक पहुँचाना चाहते थे।ऐसा लगता है कि जस्टिस आगा हैदर इन क्रांतिकारियों के विचारों से प्रभावित थे और जब 12 मई 1930 को भगत सिंह और साथियों पर हथकड़ी के सवाल पर पुलिस दमन किया गया तो जस्टिस हैदर से रहा नहीं गया और उन्होंने लिखित असहमति जता दी।

बहरहाल, 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर जेल में फाँसी दे दी गयी। जस्टिस हैदर 1936 में लाहौर हाईकोर्ट से रिटायर होकर वापस सहारनपुर आ गये।5 फ़रवरी 1947 को उनका निधन हो गया और वे अपने ख़ानदानी क़ब्रिस्तान में दफ़्न कर दिये गये। अफ़सोस कि न उत्तर प्रदेश सरकार और न सहारनपुर के लोग ही जस्टिस हैदर को याद करते हैं।


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