जानिए, कौन थे पेरियार, जिनकी मूर्ति तोड़े जाने से हिल गई मोदी सरकार !

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पंकज श्रीवास्तव

 

‘ईश्वर नहीं है, ईश्वर नहीं है, ईश्वर बिल्कुल नहीं है। जिसने ईश्वर का आविष्कार किया, वह महामूर्ख था। जिसने ईश्वर का प्रचार किया, वह धूर्त था। जो ईश्वर की पूजा करता है, वह बर्बर है..’

क्या भारत जैसे धर्मभीरु देश में ऐसी बातें करने वाले किसी व्यक्ति का सार्वजनिक जीवन में कोई स्थान हो सकता है? किसी का भी जवाब होगा- नहीं। लेकिन ई.वी.रामास्वामी नायकर इस धारणा के विरुद्ध खड़ी एक ऐसी मीनार हैं और जिन्हें जनता ने दुत्कारा नहीं, प्यार से पेरियार (सम्मानित व्यक्ति) कहा।

जी हाँ, ‘ईश्वर के नकार’ से जुड़ा ऊपर जो बयान है, वह उन्हीं पेरियार का है। उनकी मृत्यु के 45 साल बाद भी उनका महत्व इससे समझिए कि वेल्लोर में उनकी मूर्ति तोड़ने की ख़बर से दिल्ली दरबार हिला गया। त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़े जाने में ‘वैचारिक जीत’ का आनंद ले रहे केंद्र के नेताओं ने तुरंत मूर्ति तोड़ने की प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ ट्विटरबाज़ी शुरू कर दी।

ईश्वर के अस्तित्व को दार्शनिक और अकादमिक क्षेत्र में चुनौती तो बहुतों ने दी है, लेकिन इसे एक विचार की तरह जन-जन में फैलाते हुए राजनीति की दिशा बदलने का काम भारत में पेरियार के अलावा किसी ने नहीं किया। तमिलनाडु में यह वैचारिकी इतनी प्रबल है कि कमल हासन जैसे प्रसिद्ध अभिनेता नई पार्टी बनाते हुए पेरियार को ही अपनी प्रेरणा बताते हैं।

ये संयोग नहीं कि लेनिन की मूर्ति तोड़ने के बाद उत्साहित तमिलनाडु के बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव एच.राजा ने फ़ेसबुक पर लिखा कि पेरियार की मूर्ति का यही हश्र होगा। दरअसल, पेरियार भी लेनिन के प्रशंसक थे और उनका ब्राह्मणवाद, आर्य और अवतारों का विरोध बीजेपी नेताओं को फूटी आँख नहीं सुहाता।

पेरियार का जन्म तमिलनाडु के इरोड में एक समृद्ध नायकर (चरवाहा) परिवार में 17 सितंबर 1879 को हुआ था। कुशाग्र बुद्धि रामास्वामी बचपन से ही तर्क करने में बहुत प्रवीण थे और पूजा-पाठ और ईश्वर की अवधारणा आदि पर ब्राह्मणों को चुनौती देते थे। उन पर राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव पड़ा और 1919 में वे काँग्रेस में शामिल हो गए। गाँधी जी के अनुयायी बनकर असहयोग आंदोलन में जमकर काम किया। लेकिन 1924 में शूद्रों के मंदिर प्रवेश के लिए किए गए उनके वायकोम सत्याग्रह ने काँग्रेस के उच्चवर्णीय नेताओं से उनके मतभेद हो गए। गाँधी जी का रुख भी उन्हें ठीक नहीं लगा। फिर ब्राह्मण वर्चस्व वाली नौकरशाही और विधानसभा में शूद्रों, पिछड़ों की भागीदारी से जुड़े उनके प्रस्ताव ने कांग्रेस संगठन के अंदर लड़ाई तीखी कर दी और 1925 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी।

पेरियार ने आत्मसम्मान आंदोलन चलाते हुए जनता के बीच तर्क और विज्ञान के महत्व को प्रचारित किया। वे पूजा-पाठ और ईश्वर को शूद्रों के ख़िलाफ ब्राह्मणों का षड़यंत्र मानते थे।1932 में वे सोवियत यूनियन गए और वहाँ से बेहद प्रभावित होकर लौटे। उत्पादन के साधनों पर राज्य का नियंत्रण हो, इसके वे समर्थक बन गए। उनके समर्थकों के बच्चों का नाम ‘रसिया’ से लेकर ‘मास्को’ तक रखा जाने लगा। करुणानिधि के बेटे स्टालिन आज भी तमिल राजनीति में बड़ी हैसियत रखते हैं।

पेरियार 1938 से 1944 तक जस्टिस पार्टी के अध्यक्ष रहे जो गैरब्राह्मणों को हर स्तर पर भागीदारी और सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष कर रही थी। साथ ही पेरियार ‘द्रविड़ राष्ट्रवाद’ के भी पुरोधा बनकर उभरे और 1937 के हिंदी विरोधी आंदोलन में गिरफ्तार भी हुए। 1944 में उन्होंने द्रविड़ कड़गम बनाया जिसने तमिलनाडु की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया।आगे चलकर पार्टी में विभाजन हुआ और डीएमके- एआईएडीएमके बनी, लेकिन पेरियार निर्विवाद पथप्रदर्शक माने गए।

पेरियार देश के सामाजिक परिवर्तन आंदोलन के बड़े नायक माने जाते हैं। उत्तर भारत में पहले अर्जक संघ और फिर बहुजन समाज पार्टी के आंदोलन ने उनकी पुस्तिकाओं को गाँव-गाँव पहुँचाया। 2007 में यूपी में अपने बूते सत्ता में आने के बाद मायावती ने लखनऊ में पेरियार की मूर्ति लगाने की योजना बनाई थी, लेकिन राममंदिर का नाम जपकर राजनीति की मुख्यधारा में आई बीजेपी को ‘रामविरोधी’ का यह सम्मान रास नहीं आया। विनय कटियार जैसे बीजेपी नेताओं ने पेरियार की मूर्ति को तोड़ने का ऐलान कर दिया और बहुजन से सर्वजन की ओर बढ़ रहीं मायावती ने अपने क़दम पीछे खींच लिए।

बीजेपी का पेरियार से विरोध का बड़ा कारण ‘सच्ची रामायण’ जैसी उनकी रचना भी है।‘सच्ची रामायण’ राम सहित रामायण के तमाम चरित्रों को खलनायक के रूप में पेश करती है। पेरियार की स्थापना है कि राम आर्यों के प्रतिनिधि हैं जिन्होंने दक्षिण के द्रविड़ों (मूलत: तमिलजनों) का संहार किया जिन्हें राक्षस कहा जाता है। इस किताब को लेकर कभी उत्तर भारत में भी बहुत बवाल हुआ था, लेकिन अभिव्यक्ति की आज़ादी के संवैधानिक संकल्प को, अंत में जीत मिली।

दरअसल, यूपी के समाजसुधारक और आरपीआई के नेता ललई सिंह यादव  (जिन्हें उत्तर भारत का पेरियार कहा गया) ने 1968 में “सच्ची रामायण” का हिंदी में अनुवाद किया था। इसके प्रकाशन के साथ ही बवाल शुरू हुआ और यूपी सरकार ने 20 दिसंबर 1969 को इसे जब्त कर लिया । ललई सिंह यादव ने इस प्रतिबंध के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 19 जनवरी 1971 को जस्टिस ए.के.कीर्ति, जस्टिस के.एन.श्रीवास्तव और जस्टिस हरि स्वरूप के पीठ ने किताब से प्रतिबंध हटाते हुए ललई सिंह यादव को 300 रुपये हर्जाना दिलाने का आदेश सुनाया।

हाईकोर्ट के इस फ़ैसले के ख़िलाफ यूपी सरकार सुप्रीम कोर्ट गयी। लेकिन न्यायपालिका ने “भावनाओं के आहत” होने की दलील पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को तरजीह दी और 16 सितंबर 1976 को जस्टिस पी.एन.भगवती, जस्टिस वी.आर.कृष्ण अय्यर और जस्टिस मुर्तजा फाजिल अली की सदस्यता वाले पूर्णपीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला बरकरार रखते हुए आदेश सुनाया।

यह फ़ैसला बताता है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में ( जहाँ एक का नायक, दूसरों का खलनायक हो सकता है ) सभी को अपनी बात कहने का हक़ है। भारत असहमति पर सहमति के इसी सिद्धांत पर भरोसा रखते हुए ही एक रह सकता है। बीजेपी इसी ‘राष्ट्रीय सहमति’ को तोड़ने में जुटी हुई है। त्रिपुरा में लेनिन और तमिलनाडु में पेरियार की मूर्ति को तोड़ना इसी का सबूत है। वह भूल गई है कि विविधता और ‘विरुद्धों’ के सम्मान की संवैधानिक सहमति को तोड़ना, दरअसल भारत को तोड़ना है।

पुनश्च : पेरियार जनता के बीच बड़े कड़े शब्दों में देवी-देवताओं पर प्रहार करते थे। धर्मभीरु लोग कहते थे कि पेरियार पर ईश्वर का कहर टूटेगा..लेकिन पेरियार उल्टा चुनौती देते थे कि अगर भगवान है और उसमें ज़रा भी शक्ति है तो  उन्हें दंड क्यों नहीं देता..उनका जीवन छीन ले..। वे लगातार ऐसा करते थे…और ऐसा करते हुए जब एक दिन पेरियार निष्प्राण हुए तो उम्र हो चुकी थी 96 साल।

 

पंकज श्रीवास्तव मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।