प्रिय पाठको, चार साल पहले मीडिया विजिल में ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी। दिमाग़ को मथने वाली इस ज़रूरी शृंखला को हम एक बार फिर छाप रहे हैं। पेश है इसकी सत्रहवीं कड़ी जो 11 सितंबर 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक
आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–17
आदर्श हिन्दू घर (2)
परिवार की उत्पत्ति, विकास एवं विशेषता को समझाते हुए आरएसएस कहता है—
‘हिन्दू जीवन में माना गया है कि सृष्टि के प्रारम्भ में एक परमात्मा ही था. उसमें एक स्फुरण हुआ. ‘एकोऽहं बहुस्याम’—एक हूँ, अनेक बन जाऊं’. कहते हैं, इस संकल्प के परिणामस्वरूप बहुत होने की प्रक्रिया में परिवार की रचना हुई.’
अगर इसकी दार्शनिक व्याख्या की जाएगी, तो चार्वाकों, आजीवकों, बौद्धों और भौतिकवादियों (नास्तिकों) की दृष्टि से बात बहुत दूर तक जाएगी, और इसमें से परमात्मा निकल जायेगा. किन्तु, यह हिन्दू जीवन की अवधारणा है, इसलिए जरूरी है कि इसे हिन्दू दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया जाए. अत: जब ‘एकोऽहं बहुस्याम’ के आधार पर परिवार बन गया, तो फिर संस्कार भी चाहिए. इस बारे में आरएसएस दो तरह के संस्कारों की बात करता है, एक बहिरंग और दूसरा अन्तरंग. बहिरंग का मतलब है घर का बाह्य परिवेश और अन्तरंग का मतलब है अंदर का परिवेश. घर के बाह्य परिवेश के बारे में वह लिखता है—
‘देश में विभिन्न प्रान्तों में जलवायु की भिन्नता है. अत: घर का बाह्य परिवेश एक समान नहीं हो सकता, परन्तु जहाँ तक संभव हो, निम्न कुछ बातें हो सकती हैं-
- तुलसी का चबूतरा रहना चाहिए.
- आंगन में नारियल-केला का पेड़ होना चाहिए.
- गो-सेवा, गो-पालन एवं गो-संवर्धन होना चाहिए.
- सुबह जल्दी उठकर सूर्यनमस्कार करना चाहिए.
- वास्तु नियम से घर का द्वार दक्षिण छोड़कर अन्य किसी भी दिशा में हो सकता है. घर की आग्नेय दिशा में रसोई-भोजन, ईशान्य दिशा में देव-ध्यान कक्ष होना चाहिए.
- सुबह उठकर भजन, श्लोक गाना चाहिए.
- देवगृह के साथ पवित्र गंगाजल का कलश, तुलसी रुद्राक्ष की माला, और शालिग्राम होने चाहिए.
- हर घर में ‘ओंकार’ का चित्र होना चाहिए.
- ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ और मनुष्ययज्ञ—ये पांच यज्ञ होने चाहिए.
- जन्मदिन पर केक काटने के बजाए देवदर्शन, दीप-प्रज्ज्वलन हिन्दू पद्धति से करें.
पता नहीं, इन बातों में आरएसएस ने यह क्यों नहीं जोड़ा कि प्रत्येक हिन्दू को अपने सर पर शिखा भी रखनी चाहिए. जब सब कुछ शास्त्रोक्त ही होना चाहिए, तो अंग्रेजी लिबास भी क्यों ? आदर्श हिन्दू परिवार में प्रत्येक सदस्य को पूरे शरीर पर एक ही धोती लपेट कर रहना चाहिए.
यहाँ हरिमोहन झा की किताब ‘खट्टर काका’ से एक अंश उद्धृत करना प्रासंगिक लग रहा है, जो इस प्रकार है—
‘खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले—हाँ ! जैसे कुछ लोग समझते हैं कि गोपदतुल्य शिखा रखने से मस्तिष्क में ज्यादा विद्युत् प्रवाहित होती है. प्राय: उसी विद्युत् के कारण उन्हें दूर की सूझती है.
मैंने कहा—परन्तु इतना आचार-विचार और किसी देश में है?
खट्टर काका बोले—अजी, और देशों को इतनी फुर्सत ही कहाँ है? यदि यूरुप-अमेरिका हम लोगों की पद्धति को लेकर आन्हिक कृत्य करने लगता, आसन पर पलथा लगाकर आँखें मूंदकर रुद्राक्ष की माला जपने लगता, तो फिर रेल, तार, हवाई जहाज, रेडियो और टेलिविज़न का आविष्कार कौन करता? उन दिनों अपने यहाँ के शास्त्रकारों को और कोई काम तो था ही नहीं. बैठे-बैठे वचन गढ़ा करते थे. दतुवन कै अंगुलियाँ लम्बी हो? कै बार कुल्लियाँ की जाएँ? किस दिन तेल लगाया जाए? प्रसूतिका कब स्नान करे? व्रत रखने वाली स्त्री कोंहड़ा लेकर पारण करे या कद्दू लेकर?’ (पृष्ठ 112-13)
आरएसएस यही चाहता है. कहता है कि वास्तु नियम से हिन्दू घर का द्वार दक्षिण में नहीं होना चाहिए, इससे याद आया कि दक्षिण दिशा अछूत मानी जाती है. अछूतों की बस्तियां गाँव के बाहर दक्षिण दिशा में होती थीं. इसलिए अछूत बस्ती को ‘दक्खिन टोला’ भी कहा जाता है. ‘दक्खिन टोला’ नाम से अंशु मालवीय की कविताओं का एक संग्रह कुछ साल पहले काफी चर्चा में आया था. डा. आंबेडकर ने अपने निबन्ध ‘Outside the Fold’ में लिखा है— ‘The Untouchables must be located towards the South, the South is the most inauspicious of the four directions. A breach of this rule shall be deemed to be an offence.’ अर्थात, अछूतों की बस्तियां अत्यंत अशुभ दिशा, यानी दक्षिण दिशा में होनी चाहिए. अगर कोई अछूत इस नियम का उल्लंघन करेगा, तो उसे अपराध माना जायेगा. (Dr. Babasaheb Ambedkar : Writings and Speeches, Vol. 5, p. 21) आरएसएस के वास्तु नियम में दक्षिण दिशा अन्य तीन दिशाओं से अशुभ दिशा क्यों है? आरएसएस के लेखक ने यह क्यों नहीं बताया ? अगर विज्ञान की दृष्टि से वह वास्तव में अशुभ है, तो उस अशुभ दिशा में अछूतों को क्यों बसाया गया ? इस सम्बन्ध में आरएसएस के ‘भूतनाथों’ को कुछ तो ‘दसना’ चाहिए था.
अब आदर्श हिन्दू घर के उन आडम्बरों को भी देख लिया जाए, जिन्हें वह अन्तरंग परिवेश कहता है. वह कहता है—
‘भारतीय समाज संरचना में परिवार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और मध्यवर्ती स्थान है. समाज-हितैषी ऋषियों ने आदर्श समाज के लिए जो व्यवस्था, जो संस्कार आवश्यक समझे, वे उन्होंने परिवार के द्वारा ही देने की व्यवस्था की. संस्कारों का प्रमुख स्थान परिवार ही रहा है और उन्हें अभिप्रेत आदर्श समाज स्वयं ही साकार हो उठा. उसके लिए अलग से प्रयास करने की आवश्यकता ही नहीं रही.’ (आ.द.घ., पृष्ठ 8)
इसमें यह और जोड़ दिया जाए कि जन्म से लेकर मृत्यु तक के इन समस्त संस्कारों के अनुष्ठान में ब्राह्मण को भोजन, वस्त्र और धन का दान किया जाए. देवीभागवत (9/30) में लिखा है, जो ब्राह्मण को अन्न दान करेगा, वह शिवलोक जायेगा, जो गाय दान करेगा, वह विष्णु लोक जायेगा और जो वस्त्राभूषण दान करेगा, वह चन्द्रलोक जायेगा. हरिमोहन झा टिप्पणी करते हैं, ‘अजी, चन्द्रमा पर पहुँचने का ऐसा नायाब नुस्खा अमेरिका या रूस, किसी देश को मालूम है?’ (खट्टर काका, पृष्ठ 129) जब हिन्दू संस्कारों में इतनी ताकत है कि ब्राह्मण को दान करने से ही आदमी दूसरे लोकों में चला जाता है, तो फिर क्या जरूरत है नासा जैसी विज्ञानशालाओं की. हमारे शासक बस ब्राह्मण को दान करके किसी को भी मंगल और चाँद पर भिजवा सकते थे.
आज आरएसएस यह तय कर ही रहा है कि क्या खाया जाए, और क्या न खाया जाए, उसी तरह वह यह भी तय कर रहा है कि आदर्श हिन्दू घर के आदर्श संस्कार कैसे होने चाहिए. देखिए, वह कहता है–
‘सितम्बर 1991 में उत्तराखण्ड के चार धामों (बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री) की यात्रा पर जाना हुआ था. उस समय यमुनोत्री की यात्रा में जयपुर से आए हुए दो भाइयों के दर्शनों का सौभाग्य मिला. एक की आयु लगभग 60 वर्ष की होगी, दूसरे की 50-55 की. दोनों अपनी वृद्धा माँ को यात्रा कराने लाए थे. माँ की इच्छा पदयात्रा की थी. दोनों भाई उस दुर्गम पथ पर माँ को अपने कंधों पर आधार दिए इस प्रकार चलाकर ले जा रहे थे, जिससे माता के चरण तो धरती का स्पर्श करें, किन्तु कंकरीली कष्टमयी भूमि से उसे कोई कष्ट न हो. माता को चारों धामों की यात्रा कराने वाले उन दो भाइयों को देखकर हमको कलियुग की जगह सतयुग का स्मरण हो आया. मन पवित्र गौरव से भर उठा.’ (वही)
आरएसएस की इस कहानी में सबसे बड़ा झूठ सतयुग के स्मरण का है, क्योंकि सतयुग को ब्राह्मणों ने इस सिद्धांत पर बनाया है कि शुरु में सत्य और ज्ञान ही था, असत्य और अज्ञान बाद में आया. इस अवैज्ञानिक अवधारणा का यह दुनिया का पहला ‘पागल राग’ है, जो सीधे सत्य का राग अलापता है. जबकि विज्ञान और अन्य सारे धर्म यही मानते हैं कि आदि में असत्य और अज्ञान था, और सत्य और ज्ञान का विकास बाद में हुआ.
दूसरा झूठ इस कहानी में सतयुग में चारों धामों को मानना है, जबकि सच यह है कि सतयुग में चारों धाम अस्तित्व में ही नहीं थे. चारों धामों का निर्माण हुआ है आदि शंकराचार्य के द्वारा, जिनका समय सन ईसवी 788-820 है, और यह समय कलियुग का ही है.
कहानी में वृद्धा माँ को कन्धों पर बैठाकर चारों धामों की यात्रा कराने वाले दो भाइयों के बारे में पढ़कर मुझे लगा कि कहानी लेखक जान जोखिम में डालकर यात्रा कराने वाले इन भाइयों की निंदा करेगा, पर मैं यह देखकर हैरान रह गया कि वह उसे पवित्र कृत्य कहकर उस पर गर्व कर रहा है. मैं तो ऐसी माँ को भी लानत भेजूँ, और ऐसे बेटों को भी भी. कोई पागल माँ ही होगी, जो अपनी अंतिम अवस्था में पैदल तीर्थ यात्रा करने की सोचेगी, और अपने बेटों के कन्धों पर चढ़कर उन्हें कष्ट देकर यात्रा करना चाहेगी. माँ तो बेटों को कष्ट में देखकर परेशान हो जाती है. यह कैसी माँ थी, जो बेटों का जीवन ही खतरे में डाल रही थी? उस माँ के बेटे उससे भी बड़े पागल थे, जो उसे कंधे पर बैठाकर ले गए. जब परिवहन के साधन मौजूद हैं, तो पैदल चलने की कोशिश वही करेगा, जो पागल होगा, या जिसके पास फूटी कौड़ी भी न होगी. ऐसे अंधे और पागल लोगों की धर्मभीरुता को ही तो आरएसएस भुनाता है. अगर कोई व्यक्ति इस पागलपन को पवित्र और गौरवमयी कहता है, तो वह मेरी नजर में संसार का सबसे बड़ा पागल है, या बहुत बड़ा मक्कार है, जो गरीबों को धर्म के नाम पर तीर्थों के आडम्बरों में फंसाकर मूर्ख बनाकर रखना चाहता है. वैसे भी ऐसे मूर्खतापूर्ण आडम्बर हिन्दुओं में ही होते हैं, कोई सड़क पर लेट-लेटकर मन्दिर जाता है, कोई घुटनों के बल सरक-सरककर मन्दिर जाता है, और लहुलुहान हो जाता है. कोई नाचता हुआ पागलों की तरह मन्दिर जाता है. ऐसा पागलपन क्या किसी दूसरे धर्म में मिलता है? ऐसे पागलपन की निन्दा करने की बजाए, उस पर गर्व करने वाला व्यक्ति दिमाग वाला तो हो नहीं सकता.
आगे आरएसएस परिवार-प्रमुख पर चर्चा करता है—
‘पारिवारिक जीवन के केंद्र में ‘मैं’ और ‘मेरा’ नहीं ‘अपना’ की आत्मीय भावना सब सदस्यों को प्रेमसूत्र में बांधे रहती है.
‘प्रत्येक ज्येष्ठ को कनिष्ठ की चिंता रहती है.
‘परिवार का मुखिया मदांध नहीं हुआ करता, उसका स्थान और कार्य शरीर में मुख के स्थान के समान है.’
क्या अद्भुत आदर्श है. पर परिवार का यह आदर्श समाज और राष्ट्र रूपी जीवन में क्यों लागू नहीं होता है? दलितों के साथ, आदिवासियों के साथ, ईसाईयों के साथ और मुसलमानों के साथ यह ‘अपना’ होने की भावना क्यों नहीं है? यहाँ आरएसएस उनके प्रति समाज में घृणा क्यों फैलाती है? इसी घृणा के उन्माद ने तो उड़ीसा और गुजरात में हजारों ईसाईयों और मुसलमानों की हत्याएं कराई हैं. क्या आरएसएस का यह आदर्श मुंह में राम और बगल में छुरी नहीं है? क्या इसी उन्माद ने 5 सितम्बर को कन्नड़ पत्रकार गौरी लंकेश को गोलियों से नहीं भूना था?
(जारी…)
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