आरएसएस के ‘आंबेडकर’ यानी मक्कार इरादों का पुलिंदा (2)


डा. आंबेडकर इन प्रश्नों के संदर्भ में कहते हैं— ‘हिन्दूधर्म के दर्शन को मानवता का धर्म-दर्शन नहीं कहा जा सकता. बाल्फोर के शब्दों में अगर कहूँ, तो हिन्दूधर्म सामान्य मनुष्य के अन्तरंग जीवन को खत्म कर देता है. अगर यह वास्तव में कुछ करता भी है तो सिर्फ जीवन को पंगु बनाने का काम करता है. हिन्दू धर्म में सामान्य मनुष्यों के लिए कोई सुख नहीं है, इसमें सामान्य मानव-दुखों के लिए कोई संवेदना नहीं है, और इसमें कमजोर लोगों के लिए कोई सहायता भी नहीं है. यह ब्राह्मणों का स्वर्ग और सामान्य आदमी का नर्क है.’


कँंवल भारती कँंवल भारती
दस्तावेज़ Published On :


प्रिय पाठको, चार साल पहले मीडिया विजिल में  ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी।  दिमाग़ को मथने वाली इस ज़रूरी शृंखला को हम एक बार फिर छाप रहे हैं। पेश है इसकी  चौबीसवीं कड़ी जो  1नवंबर 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक

आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–24


आरएसएस के साहित्य में डॉ.अंबेडकर को लेकर की जा रही गड़बड़ियों का ज़िक्र आप 23वीं कड़ी में पहले भाग के रूप में पढ़ चुके हैं। आगे पढ़िए–

 

‘मूकनायक’ का पहला अंक 31 जनवरी 1920 को निकला था. उसके मुखपृष्ठ पर तुकाराम का यह अभंग छापा गया था—


‘काय करूं आता धरुनिया भीड.

नि:शंक हे तोंड वाजविले.

नव्हे जगी कोणी मुकियांचा जाण.

सार्थक लाजून नव्हे हित.’


इसका अर्थ है— ‘अब मैं संकोच करके क्या करूं. मुझे अपना मुंह खोलने के लिए विवश किया गया है. इस संसार में जो अबोल (मूक) हैं, उनकी ओर से बोलने वाला कोई नहीं है. यह जानकार भी संकोच करने में कौन सी भलाई है?’ (13)

डा. आंबेडकर ने अनेक संतों की वाणी में से संत तुकाराम के अभंग को चुना था, जो ‘मूक नायक’ की पत्रकारिता के अनुकूल था. इस अभंग में मूक लोगों के दर्द को अभिव्यक्ति देने की बात कही गई है. यह अभंग हिन्दुओं का उत्पीड़न झेल रहे अछूतों के बारे में है, जिनकी मुक्ति के लिए आवाज उठाने वाला कोई नहीं था.


आगे आरएसएस ने बाबासाहेब डा. आंबेडकर को मन्दिर-प्रवेश अभियान से जोड़ते हुए लिखा है—

‘बाबासाहेब ने मन्दिरों में प्रवेश के लिए कई सत्याग्रह चलाए. इसमें अमरावती का अम्बादेवी मन्दिर सत्याग्रह, पूना का पार्वती मन्दिर सत्याग्रह तथा नासिक का कालाराम मन्दिर सत्याग्रह प्रमुख हैं. उस समय का उनका सोच यह था जो अम्बादेवी मन्दिर सत्याग्रह के समय व्यक्त हुआ (अगस्त 1927) – ‘हिंदुत्व पर जितना स्पृश्यों का अधिकार है, उतना ही अस्पृश्यों का भी है. हिंदुत्व की प्रतिष्ठा जितनी वशिष्ठ जैसे ब्राह्मणों, कृष्ण जैसे क्षत्रिय, हर्ष जैसे वैश्य, तुकाराम जैसे शूद्र ने की, उतनी ही वाल्मीकि, चोखामेला व रविदास जैसे अस्पृश्यों ने भी की है. हिंदुत्व की रक्षा करने के लिए हजारों अस्पृश्यों ने अपना जीवन दिया है. व्याध-गीता के अस्पृश्य दृष्टा से लेकर खडं की लड़ाई (इस युद्ध में राजाराम के सेनापति परशुराम भाऊ को मुगलों की गिरफ्त से छुड़ाया गया था) के सिदनाक जैसे अस्पृश्यों ने हिंदुत्व के संरक्षण के लिए अपना सर हथेली पर रखा. उनकी संख्या कम नहीं है. जिस हिंदुत्व को स्पृश्य व अस्पृश्यों ने मिलकर बढ़ाया और उस पर संकट आने पर अपने जीवन की परवाह न करते हुए उसकी रक्षा की. हिंदुत्व के नाम पर खड़े किए गए मन्दिर जितने स्पृश्यों के हैं, उतने ही अस्पृश्यों के भी हैं.’ (14)


निस्संदेह हिन्दू धर्म को जिन्दा रखने वाले शूद्र और अस्पृश्य वर्ग ही हैं. आज भी हिंदुत्व के लिए इन्हीं वर्गों को खून बहाते हुए देखा जाता है. सारे हिन्दू संस्कारों, आडम्बरों,  रीतिरिवाजों और त्यौहारों को यही वर्ग अपने कन्धों पर ढो रहे हैं. होली, दिवाली, दशहरा, रामलीला, कृष्णलीला, नवरात (दुर्गा पूजा) सब इन्हीं के बल पर अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं. जबकि, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ग इन पर शासन करने वाला, हिंदुत्व का व्यापार करने वाला और उससे सर्वाधिक लाभ उठाने वाला वर्ग है. इसलिए इस बात में भी संदेह नहीं होना चाहिए कि जिस दिन शूद्र और अस्पृश्य वर्गों के कन्धों से हिंदुत्व का जुआ उतर जायेगा, तो सारे हिन्दू मन्दिर और व्यापार गधे के सर से सींग की तरह गायब हो जायेंगे. यही डर है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों मिलकर शूद्रों और अस्पृश्यों (पिछड़ी और दलित जातियों) को सत्ता बल से, धन बल से और राजनीति-बल से अनपढ़ और गरीब बनाकर रखे हुए हैं, ताकि वे आजीवन शासक बने रहें.

डा. आंबेडकर ने कुछ भी गलत नहीं कहा था. देवताओं की मूर्तियाँ बनाने वाले वे, मन्दिरों का निर्माण करने वाले वे, उनकी रक्षा करने वाले वे, यानी शूद्र और अस्पृश्य ! किन्तु मन्दिरों में प्रवेश करने वाले हिन्दू, उनकी कमाई खाने वाले हिन्दू और उनके नाम पर उन्माद भड़काने वाले हिन्दू, यानी द्विज !  डा. आंबेडकर ने बिल्कुल सही कहा था कि ‘हिंदुत्व की रक्षा करने के लिए हजारों अस्पृश्यों ने अपना जीवन दिया है.’ परन्तु उन्होंने यह सवाल भी उठाया था कि हिंदुत्व की रक्षा करके अस्पृश्यों को क्या मिला? हिंदुत्व ने उनके लिए क्या किया? क्या उन्हें सभ्यता का प्रकाश दिया? क्या उन्हें मनुष्य के बराबर दर्जा दिया? आरएसएस महाराणाप्रताप को हिंदुत्व का नायक मानता है. पर क्या उसने  कभी उन लाखों खानाबदोश वीरों की चिंता की, जो राणाप्रताप के साथ जंगलों में घास की रोटी खाते हुए जीते थे, और जिन्होंने मरते दम तक राणाप्रताप का साथ दिया था. आज उनके वंशज किस बुरी हालत में दर-दर भटकते हैं, उस हिंदुत्व ने उनके लिए क्या किया, जिसके लिए उनके पूर्वजों ने अपना जीवन दिया? आरएसएस ने कभी उनकी कोई सुध ली? उनका पुनर्वास किया? उनकी शिक्षा का प्रबंध किया? उत्तर है, हिंदुत्व के ठेकेदार आरएसएस ने कुछ नहीं किया. वह यह कहकर तो दलित वर्गों पर प्रभाव डालता है कि उन्होंने हिंदुत्व की रक्षा के लिए यह किया है, वह किया है, पर वह यह क्यों नहीं बताता कि उसने दलितों के विकास के लिए क्या किया है, और जातिप्रथा के विनाश के लिए क्या किया है?  डा. आंबेडकर ने अपने निबन्ध ‘Untouchability And Lawlessness’ में लिखा है, कि ‘हिन्दू समझते हैं कि दलित जातियां उनकी सेवा के लिए पैदा की गयी हैं.’ (15)

वे एक अन्य निबन्ध ‘Civilization or Felony’ में लिखते हैं कि हिन्दू कहते हैं कि उनकी सभ्यता दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता है, तो इस सबसे पुरानी हिन्दू सभ्यता ने भारत की जरायमपेशा जातियों, आदिम जन जातियों और अछूत जातियों को क्या दिया है?  क्या उन्हें समानता का अधिकार और सभ्यता का प्रकाश दिया है?’ (16) यही प्रश्न आज आरएसएस से पूछा जाना चाहिए कि वह इन अस्पृश्यों को किस आधार पर हिन्दू मानता है, जबकि उसने इनके लिए कुछ किया ही नहीं है? हकीकत में इन जातियों का जो भी थोड़ा सा विकास हुआ है, वह डा. आंबेडकर के प्रयासों से लागू कराए गए आरक्षण के कानून से हुआ है, जिसे भी आरएसएस समाप्त करने की बयानबाजी करता रहता है.

आरएसएस ने दलितों को हिंदुत्व से जोड़ने के लिए एक और प्रसंग का सहारा लिया है. उसने लिखा है—

‘बाबासाहेब को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विषय में पूरी जानकारी थी. हिंदू धर्म छोड़ने की उनकी घोषणा के बाद 1936 के मकर संक्रांति उत्सव (पुणे, 13 जनवरी 1936) में संघ संस्थापक डा. हेडगेवार के अनुरोध पर वे कार्यक्रम में अध्यक्षता हेतु आए. कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उपस्थित स्वयंसेवकों के बीच घूम-घूमकर उन्होंने प्रत्यक्ष जानकारी की कि संघ में लगभग 15 प्रतिशत कथित अछूत समुदायों से हैं. वे अपने व्यवसाय के निमित्त दापोली गए और वहां शाखा पर जाकर स्वयंसेवकों से खुले मन से बातचीत की.(17)

इसके बाद वह लिखता है—

‘संघ के जातिविहीन समरस समाज बनाने के प्रयत्न बाबासाहेब को प्रभावित करते थे.

‘जब नेहरु ने महात्मा गाँधी के हत्याकांड में वीर सावरकर और गोलवलकर (श्री गुरु जी) को गिरफ्तार किया, और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर प्रतिबन्ध लगाया, तब बाबासाहेब ने, जो तत्कालीन कानून मंत्री थे, विरोध जताया था. संघ पर से प्रतिबन्ध हटवाने की उन्होंने कोशिश की, जिसके लिए संघ प्रमुख श्री गोलवलकर ने सितम्बर 1949 में उनसे मिलकर धन्यवाद दिया था. यह भी स्मरणीय है कि 1952 में मुंबई से लोकसभा के चुनाव तथा 1954 में भंडारा से लोकसभा के उपचुनाव में बाबासाहेब शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के प्रत्याशी थे, तब संघ के कार्यकर्ताओं व अन्य हिन्दुत्ववादी दलों ने बाबासाहेब का समर्थन किया था.’ (18)

अगर यह सच होता, तो डा. आंबेडकर चुनाव क्यों हारते?  डा. बृजलाल वर्मा ने, जो आरएसएस की विचारधारा के लेखक हैं, लिखा है कि डा. आंबेडकर इसलिए हारे थे, क्योंकि उन्होंने मुसलमानों का पक्ष लिया था और कश्मीर के विभाजन की बात कही थी. (19)

इससे स्पष्ट समझा जा सकता है कि आरएसएस कितना बड़ा झूठ बोल रहा है. क्या कोई यकीन करेगा कि आरएसएस और हिन्दुत्ववादी दलों ने चुनावों में उन डा. आंबेडकर का समर्थन किया होगा, जिन्होंने मुसलमानों के पक्ष की बात कही हो और कश्मीर के  विभाजन को सही ठहराया हो? सच यह है कि यही आरएसएस और अन्य हिन्दुत्ववादी दल उन दिनों डा. आंबेडकर के हिन्दू कोड बिल पर उन्हें हिन्दूधर्म का शत्रु कहकर उनके खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे और उनके पुतले जला रहे थे. रामचन्द्र गुहा ने अपने एक लेख ‘Which Ambedkar’ में ठीक ही सवाल उठाया है कि आरएसएस जो जयजयकार आज आंबेडकर की कर रहा है, वह जयजयकार उनके जीवनकाल में उसने क्यों नहीं की थी? ख़ास तौर  से उस वक्त, जब डा. आंबेडकर संविधान का निर्माण कर रहे थे और हिन्दू स्त्रियों को अधिकार देने के लिए हिन्दू पर्सनल लॉ बना रहे थे, तो आरएसएस ने उनके इन दोनों ही कार्यों का विरोध किया था.

उस समय आरएसएस के मुखपत्र ‘The Organiser’ के 30 नवम्बर 1949 के अंक में, संविधान के ड्राफ्ट पर, जिसे डा. आंबेडकर ने संविधान सभा को सौंपा था, जो सम्पादकीय लिखा गया था, उसमें कहा गया था— ‘भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे भारतीय कहा जाए. इसमें न भारतीय कानून हैं, न  भारतीय संस्थाएं हैं, न  शब्दावली और पदावली है. इसमें प्राचीन भारत के अद्वितीय कानूनों के विकास का भी उल्लेख नहीं है, जैसे मनु के कानूनों का, जो स्पार्टा के लाइकुर्गुस या पर्शिया के सोलोन से भी बहुत पहले लिखे गए थे. आज मनुस्मृति के कानून दुनिया को प्रेरित करते हैं. किन्तु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उनका कोई अर्थ नहीं है.’  (20) इसी लेख में गुहा और भी बताते हैं कि आरएसएस ने आंबेडकर को हिन्दू-विरोधी बताते हुए उनके द्वारा किये गए हिन्दू विवाह सुधारों के खिलाफ महीनों तक आन्दोलन चलाया था. सवाल है कि आरएसएस के लिए जो आंबेडकर 1949 से 1952 तक हिन्दू-विरोधी थे, वे चुनाव में उनका समर्थन कैसे कर सकते थे? फिर आज वह उसकी नजर में हिन्दू समर्थक, गोभक्त और भगवा-प्रेमी कैसे हो गए? क्या वह दलितों की आँखों में धूल नहीं झोंक रहा है?

आरएसएस ने आगे लिखा है—

‘बाबासाहेब ने जुलाई 1947 में संविधान सभा की झंडा समिति  की बैठक में भगवाध्वज को राष्ट्रध्वज घोषित करने की चर्चा की थी. इसके अलावा उन्होंने संस्कृत भाषा को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव 11 सितम्बर 1949 को 13 अन्य सदस्यों को साथ लेकर प्रस्तुत किया और इस मामले पर पश्चिम बंगाल से चुने गए एक सदस्य लक्ष्मीकान्त मैत्र के साथ संस्कृत में वार्तालाप कर संविधान सभा के  सदस्यों को चकित कर दिया था. यद्यपि दोनों ही मामलों में बाबासाहेब अपनी बात मनवा नहीं सके, पर उनकी सोच जगजाहिर हुई.’(21)

इसमें दो बातें कही गई हैं, एक भगवा ध्वज की, और दूसरी संस्कृत की. पहली बात में झूठ का तत्व शामिल है, और दूसरी बात पूरी तरह सच है. पहली बात में भगवा शब्द आरएसएस का अपना गढ़ा हुआ है. बाबासाहेब ने राष्ट्रध्वज में केसरिया अर्थात काषाय रंग और अशोक चक्र का समर्थन किया था, जिनका सम्बन्ध बौद्धधर्म से है. संस्कृत के सम्बन्ध में प्रमाण मिलता है कि भारत के विधि मंत्री के रूप में डा. आंबेडकर उन लोगों में थे, जिन्होंने संस्कृत को भारत संघ की राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था. इस प्रस्ताव पर पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने पीटीआई के संवाददाता को कहा था, ‘What is wrong with Sanskrit?’ (इसमें गलत क्या है?) (22)

इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि संस्कृत का प्रस्ताव रखने के पीछे बाबासाहेब डा. आंबेडकर का उद्देश्य राष्ट्रवादी हिन्दू नेताओं को, जो संस्कृत को भारतीय अस्मिता से जोड़ते थे, उनके छद्म का आईना दिखाना था. वे जानते थे कि ब्राह्मण कभी भी संस्कृत को जन-जन की भाषा नहीं बनने देंगे, क्योंकि ऐसा करने से उनके सारे रहस्य पर्दे से बाहर आ जायेंगे. और यही हुआ, ब्राहमणों ने संस्कृत को राजभाषा बनाने के प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया.

आरएसएस ने अपने संदर्भित लेख में जिन दो बातों का जोर देकर जिक्र किया है, उनमें एक बात भगवद्गीता पर बाबासाहेब की आस्था के सम्बन्ध है. इस विषय पर के. सुब्रामणियम की एक टिप्पणी देख ली जाये, जो  ‘फ्री प्रेस इंडिया’ के 7 दिसम्बर 1944 के अंक में प्रकाशित हुई थी. इसमें उन्होंने लिखा था— ‘गीता पर डा. आंबेडकर का विष-वमन किसी को भी आश्चर्य में डाल सकता है. डाक्टर (आंबेडकर) ने गीता के अध्ययन में 15 वर्ष खर्च किए हैं और यह चकित कर देने वाली खोज की है कि इस किताब का लेखक या तो पागल आदमी था या फिर मूर्ख था.’ (23) यह मूर्ख लेखक दलितों के उत्थान के कार्य में डा. आंबेडकर की क्या सहायता कर सकता था?

आरएसएस ने दूसरा जोर इस  बात पर दिया है कि डा. आंबेडकर ने मुसलमानों को न सुधरने वाली कौम कहा था. उनकी पाकिस्तान पर लिखी जिस किताब के हवाले से वह उन्हें मुस्लिम विरोधी बताता है, (जिसका एक उद्धरण इस लेख के आरम्भ में दिया गया है), उसी किताब में वे आगे क्या लिखते हैं, उस पर आरएसएस कोई चर्चा नहीं करता है. वे मुसलमानों में सुधार-भावना न होने का कारण हिंदुत्व को ही बताते हैं. वे लिखते हैं, ‘भारत से बाहर, तुर्की जैसे अनेक मुस्लिम देशों में क्रांतिकारी स्वरूप के सुधार हुए हैं. जब इन देशों के मुसलमानों के मार्ग में इस्लाम बाधक नहीं बना, तो वह भारत के मुसलमानों के मार्ग में बाधक क्यों बना हुआ है?’ वे जवाब देते हैं, ‘इसका सामाजिक कारण मुझे यह दिखाई देता है कि यहाँ मुसलमान एक ऐसे हिन्दू वातावरण में रहते हैं, जो धीरे-धीरे खामोशी से उन पर हावी होता जा रहा है. इसे वे अपने इस्लामीकरण के लिए खतरा महसूस करते हैं. इसलिए वे अपने इस्लामीकरण को सुरक्षित रखने के लिए हर वह चीज करते हैं, जो इस्लामिक है.’ इसका दूसरा कारण वे यह बताते हैं कि ‘भारत में मुसलमान हिन्दू-प्रभुत्व वाले राजनीतिक वातावरण में रहते हैं. यह वातावरण उन्हें हमेशा यह अनुभव कराता है कि हिन्दू उनका दमन करके उन्हें दलित वर्ग बना देंगे. यही वह चेतना है, जो उन्हें हिन्दू समाज और राजनीति में विलीन होने से बचाने के लिए सतत जागरूक रखती है. यही चेतना उन्हें, मेरे विचार में, अन्य देशों के मुस्लिमों की तुलना में अधिक पिछड़ा बनाए हुए है. मुझे लगता है कि उनकी सारी शक्ति सीटों और पदों के लिए, दूसरे शब्दों में  अपने अस्तित्व को बचाने के लिए हिन्दुओं के विरुद्ध संघर्ष करने में ही लगी रहती है, इसलिए उनके पास सुधारों के लिए समय ही नहीं है.’ (24)

इसी वक्त यह भी देख लिया जाय कि आरएसएस जिस हिंदुत्व से डा. आंबेडकर को जोड़ रहा है, उसके बारे में उन्होंने क्या कहा है? उन्होंने सीधे-सीधे आरएसएस जैसे हिन्दुत्ववादियों से प्रश्न किया है—

  1. क्या हिन्दू धर्म समानता का दर्शन है?
  2. क्या हिन्दू धर्म स्वतंत्रता का दर्शन है?’
  3. क्या हिन्दू धर्म भ्रातृत्व का दर्शन है?

इन तीनों प्रश्नों के उत्तर आरएसएस के पास नहीं हैं. इसलिए डा. आंबेडकर इन प्रश्नों के संदर्भ में कहते हैं—

‘हिन्दूधर्म के दर्शन को मानवता का धर्म-दर्शन नहीं कहा जा सकता. बाल्फोर के शब्दों में अगर कहूँ, तो हिन्दूधर्म सामान्य मनुष्य के अन्तरंग जीवन को खत्म कर देता है. अगर यह वास्तव में कुछ करता भी है तो सिर्फ जीवन को पंगु बनाने का काम करता है. हिन्दू धर्म में सामान्य मनुष्यों के लिए कोई सुख नहीं है, इसमें सामान्य मानव-दुखों के लिए कोई संवेदना नहीं है, और इसमें कमजोर लोगों के लिए कोई सहायता भी नहीं है. यह ब्राह्मणों का स्वर्ग और सामान्य आदमी का नर्क है.’ (25)

अंत में, इस बात पर भी चर्चा कर ही ली जाए कि डा. आंबेडकर साम्यवाद के विरोधी थे. आरएसएस ने लिखा है—

‘बाबासाहेब का खुद को अनुयायी बताकर कम्युनिस्टों के साथ गठबंध-तालमेल की कोशिश भी उनके विचार के विरुद्ध है. बाबासाहेब ने साम्यवाद को ढकोसला बताया था. उन्होंने कहा था कि ‘सवर्ण हिन्दुओं और कम्युनिस्ट के बीच गोलवलकर (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रमुख) एक अवरोध है. उसी प्रकार परिगणित जातियों और कम्युनिस्ट के बीच आंबेडकर अवरोध है. उनका मानना था कि दुनिया को गौतम बुद्ध एवं कार्लमार्क्स के बीच एक को चुनना होगा.’(26)

यहाँ भी दो बातें कही गई हैं. पहली बात में कोई संदेह नहीं है, आरएसएस मूलत: कम्युनिस्ट विरोधी है. उसकी मुख्य शत्रुता अगर किसी से है, तो वह कम्युनिज्म से ही है. इसलिए वह सदैव उस साम्यवादी दर्शन के खिलाफ रहता है, जो भौतिकवादी और वैज्ञानिक है, और उस ब्राह्मणवादी दर्शन का प्रचार-प्रसार करता है, जो परलोकवादी और अवैज्ञानिक है.. कम्युनिज्म वर्गविहीन समाज का वैज्ञानिक दर्शन है, जो जनता का शोषण करने वाले पूंजीवाद का विरोध करता है. आरएसएस कम्युनिज्म का विरोध करके जनता का शोषण करने वाले पूंजीवाद का समर्थन करता है. अर्थात, वह वर्गवाद, धर्मवाद, जातिवाद और शोषण को पालने वाले कारपोरेट पूंजीवाद को स्थापित करता है. इसलिए वह क्रान्ति को रोकने के लिए सवर्ण और कम्युनिज्म के बीच सचमुच एक बड़ा अवरोध है. क्या इसी प्रकार दलितों और कम्युनिस्टों के बीच आंबेडकर भी अवरोध हैं? इसका जवाब हाँ में देना मुश्किल है. यह सच है कि तत्कालीन कम्युनिस्टों के एजेंडे में जाति के सवाल नहीं थे, इसलिए डा. आंबेडकर उनको पसंद नहीं करते थे. इसके विपरीत वे समाजवादियों को पसंद करते थे, जिनके राजनीतिक एजेंडे में दलित सवाल थे. इसीलिए 1952 के चुनावों में उन्होंने कम्युनिस्टों से तालमेल करने से मना कर दिया था. उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि ‘वे कम्युनिज्म में विश्वास ही नहीं करते हैं.’ (27) वे बौद्धधर्म को कम्युनिज्म से बेहतर मानते थे, शायद इसी वजह से वे बौद्ध भारत चाहते थे, कम्युनिस्ट भारत नहीं.

किन्तु, बौद्धधर्म में उनके धर्मांतरणके बाद भी स्थितियां बदली नहीं हैं. वे आज जीवित होते तो इस बात को जरूर अनुभव करते कि बौद्ध भारत में भी जाति, गरीबी और शोषण के सवाल बने हुए हैं और समाजवादी शक्तियां भी इन सवालों की उपेक्षा करके  जातिवाद और धर्म की ही पूंजीवादी राजनीति कर रही हैं. इसलिए, भारत को आरएसएस और धर्म की जोंकों से निजात दिलाने का कम्युनिज्म के सिवा कोई रास्ता नहीं है. बाबासाहेब ने स्वयं कहा था कि श्रमिक वर्गों के दो शत्रु हैं—ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद. इन किन्तु, इन दोनों का खात्मा तभी हो सकता है, जब इसके लिए दलित शोषित वर्ग अपनी लड़ाई को वर्गीय बनाएगा.

संदर्भ–

13. चांगदेव भवानराव खैरमोडे, उपरोक्त, पृष्ठ 298.

14. राष्ट्रोदय, पृष्ठ 11

15. Babasaheb Ambedkar : writings and speeches, Vol. 5, p. 5

16.वही, पृष्ठ 138

17.राष्ट्रोदय, पृष्ठ 11

18. वही.

19.डा. भीमराव अम्बेदकर, 1991-92, पृष्ठ 352.

20. The Indian Ez[ress, 21 April 2016, The Editorial Page, Which Ambedkar, By Ramachandra guha, p. 10.

21. राष्ट्रोदय, पृष्ठ 11-12

22.The Sunday Standard, dated 11th September 1949.

23. See, Source material on Dr. Babasaheb Ambedkar and the movement of untouchables, Part 1, pp. 291-92.

24.Babasaheb Ambedkar : writings and speeches, Vol. 8, p. 235.

25.Babasaheb Ambedkar : writings and speeches, Vol. 3, pp. 77-78.

26. राष्ट्रोदय, पृष्ठ 10.

27. The Chronicle, dated 8th November 1991, see, Source Material………, Part 1, p. 382.

पिछली कड़ी

आरएसएस के ‘अंबेडकर’ यानी मक्कार इरादों का पुलिंदा ! (1)

स्वदेशी का ‘कपट’ गढ़ता पूँजीवाद का लटक है आरएसएस !

 स्त्रियों की ग़ुलामी को ‘हिंदू गौरव’ बताता है आरएसएस !

गाय के नाम पर अंधविश्वासों का गोबर लीप रहा है आरएसएस !

RSS की नज़र में सब कुछ ब्रह्म है तो मुस्लिम और ईसाई ब्रह्म क्यों नहीं ?

आरएसएस चाहे दस ‘पुत्रों’ को जन्म देने वाली आदर्श हिंदू बहू ! 

‘सतयुग’ अवैज्ञानिक अवधारणा का पहला ‘पागल राग’ है, जिसे RSS अलापता है !

आरएसएस का प्राचीन आदर्श परिवार ग़रीबों को ज़िन्दा मारने का षड्यन्त्र है !

RSS को ना देश की आज़ादी से मतलब था, ना दलितों की आज़ादी से !

दलित-आदिवासियों की मूल समस्याओं की चिंता ना चर्च को है, ना मंदिर को !

दलितों के बौद्ध बनने पर RSS के सीने पर साँप क्यों लोटता है ?

‘दलितों का बाप बनने की कोशिश न करे RSS, अपमान के ग्रंथ ईसाईयों ने नहीं लिखे!’

RSS की ‘हिंदू रक्षा’ में दलित शामिल नहीं ! अस्पृश्यता को धर्मग्रंथों का समर्थन !

वर्णव्यवस्था के पक्षधर आरएसएस की ‘समरसता’ केवल ढोंग है !

‘सेवा’ के नाम पर समाज को हिंसक और परपीड़क बना रहा है RSS !

RSS कभी मुस्लिम बन चुके ब्राह्मणों और राजपूतों की ‘घर-वापसी’ क्यों नहीं कराता ?

धर्मांतरण विरोध का असली मक़सद दलितों को नर्क में बनाए रखना है !

अल्पसंख्यकों के हक़ की बात ‘सांप्रदायिकता’ और बहुसंख्यक सर्वसत्तावाद ‘राष्ट्रवाद’ कैसे ?

‘हिंदुत्व’ ब्राह्मणों के स्वर्ग और शूद्रों के नर्क का नाम है !

‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं !’ मगर क्यों ?

आरएसएस की भारतमाता द्विजों तक संकुचित है !

भारत को गु़लामी में धकेलने वाली जाति-व्यवस्था को ‘गुण’ मानता है RSS !

RSS का सबसे बड़ा झूठ है कि वह धर्मांध संगठन नहीं !