प्रिय पाठको, चार साल पहले मीडिया विजिल में ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी। दिमाग़ को मथने वाली इस ज़रूरी शृंखला को हम एक बार फिर छाप रहे हैं। पेश है इसकी इक्कीसवीं कड़ी जो 7 अक्बटूर 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक
आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–21
नारी जागरण और संघ
आरएसएस के राष्ट्र जागरण अभियान में सातवीं पुस्तिका का नाम ‘नारी जागरण और संघ’ है. इस पुस्तिका को लिखने के पीछे मुख्य उद्देश्य संघ की उस आलोचना का जवाब देना है, जिसमें संघ में स्त्रियाँ को शामिल न करने का आरोप लगाया जाता है. पुस्तिका में स्वयं इस बात को स्वीकार किया गया है—
‘संघ में महिलाओं को स्थान नहीं है अथवा इस विषय पर संघ की कोई भूमिका नहीं है, ऐसी टीका विरोधियों की ओर से होती रहती है. हिंदुत्व के विषय में प्रसूत गैरसमझ इस आलोचना के पीछे हैं. अपनी परम्परा में आई अवांछित रूढ़ियों और अंधश्रद्धाओं का हिंदुत्व विचार समर्थक है, ऐसा अपप्रचार इस टीका के पीछे रहता है. इस कारण हिंदुत्व का पुरस्कार करने वाला संघ स्त्री-विरोधी है, ऐसा जानबूझकर दुष्ट हेतु लेकर बुद्धिभेद करने का प्रयास इन आलोचकों द्वारा होता रहता है.’ [पृष्ठ 2-3]
इस आलोचना के प्रत्युत्तर में संघ का उत्तर यह है—
‘शाखा के कार्य का स्वरूप प्रमुख रूप से शारीरिक कार्यक्रमों का है. ऐसी शाखा में महिलाओं का सहभाग नहीं है, यह सच है. परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि संघ में महिलाओं का समावेश नहीं है. शाखा के माध्यम से चलने वाले अनेक नैमित्तिक कार्यक्रमों में महिलाओं का सहभाग रहता है.
एक तरह से यह अच्छा है कि शाखाओं में हिंदुत्व के दुश्मनों—दलितों, ईसाईयों और मुसलमानों के सर फोड़ने के लिए लाठी-डंडे और अन्य हथियार चलाने का जो प्रशिक्षण लड़कों को दिया जाता है, उससे आरएसएस ने स्त्रियों को बचाकर रखा है, वरना, तो स्त्रियाँ भी प्रशिक्षित होकर हिंदुत्व के शत्रुओं का इस कदर सर फोड़तीं कि कालोनियां रंगभूमि बन जातीं. मगर इसके पीछे असल कारण भी हिंदुत्व ही है, जिसमें स्त्रियों की ‘मर्दानी’ भूमिका स्वीकार नहीं है. मर्दानी भूमिका समानता की भूमिका है. ऐसी भूमिका सनातन धर्म के खिलाफ है. ऐसा नहीं है कि हिन्दू स्त्रियों ने मर्दानी भूमिका नहीं निभाई है, खूब निभाई है, पर उससे ज्यादा उन्होंने जौहर किया है. जौहर पर हिंदुत्व गर्व करता है, और मर्दानी भूमिका की सराहना, क्योंकि मर्दानी स्त्रियाँ साधारण स्त्रियाँ नहीं थीं, वरन उनका सम्बन्ध राजपरिवारों से था. वहां कोई भी हिंदुत्व का पैरोकार सवाल खड़े नहीं करेगा. कारण, हिंदुत्व का मूल आधार ही सामन्तवाद है. ब्राह्मणवाद उसी की शक्ति से फलाफूला है, और फलता-फूलता है. इसीलिए, ब्राह्मणवाद और सामन्तवाद दोनों का गठजोड़ है. क्योंकि दोनों एक-दूसरे के बिना जिन्दा नहीं रह सकते. दोनों को ही एक-दूसरे के सहारे की जरूरत है. आजकल तीसरी शक्ति पूंजीवाद भी इस गठजोड़ में शामिल हो गई है. उसके पास धन की अपार शक्ति है, जो दोनों को चाहिए. धन आरएसएस को भी चाहिए और उसकी राजसत्ता को भी. इसलिए पूंजीवाद की जयजयकार दोनों करते हैं. जिस तरह पूंजीवाद जनता के शोषण पर जीने वाली व्यवस्था है, उसी तरह धर्म और राजसत्ताएँ भी जनता के शोषण पर जीने वाली व्यवस्थाएं हैं. धर्म को मार्क्स ने इसीलिए अफीम कहा है, क्योंकि वह जनता को अचेत अवस्था में रखती है, जिससे धर्म-आधारित राजसत्ता को मजबूती मिलती है. धर्म की इसी अफीम ने हिन्दू स्त्री को रूढ़ियों में जकड़कर परतंत्र बनाकर रखा है.
पूंजीवाद एक आधुनिक व्यवस्था है, जिसने भारत में हिंदुत्व के लिए एक विकट समस्या पैदा कर दी है. वह समस्या यह है कि उसने उस जातिभेद को तोड़ा है, जिसे हिंदुत्व बनाए रखना चाहता है. यह स्थिति आरएसएस के लिए भी बेहद दुविधाजनक है. इसलिए उसे अब अपनी अधिकाधिक ऊर्जा दलित-पिछड़ी जातियों को हिंदुत्व से जोड़ने के लिए खर्च करनी पड़ रही है. इसके लिए वह तमाम तरह के हथकंडे अपना रहा है. उनके झूठे इतिहास गढ़ रहा है. लेकिन स्त्री को यह अभी भी हिंदुत्व के सनातन नियमों की शिक्षा देता है. देखिए, वह क्या कहता है—
‘संघ का दृष्टिकोण समग्रता का है. समाज की किसी भी समस्या का विचार एकांगी पद्धति से अथवा टुकड़ों में न कर एकात्म पद्धति से करना चाहिए. समाज घटक की समस्याओं का निराकरण सर्व समाज के एकजुट प्रयास से ही होगा, यही भूमिका स्थाई परिवर्तन के लिए उपयुक्त है. यह सत्य है कि स्त्री की ओर देखने का अपने समाज का दृष्टिकोण स्वस्थ नहीं रहा. वास्तविकता यह है कि इस सन्दर्भ में न्यायपूर्ण तथा स्वस्थ दृष्टिकोण को पुरुष प्रधानता के कारण दुर्लक्षित किया गया. शिक्षा, अर्थार्जन, स्वास्थ्य और आत्मसम्मान इन सभी बातों में भूतकाल तथा वर्तमान में भी इस अन्यायपूर्ण व्यवहार का अनुभव आता ही है. पारिवारिक व्यवहार से लेकर सार्वजनिक जीवन तक इस मानसिकता का व्यवहार देखने को मिलता है. भारतीय संस्कृति की मूल संकल्पना में वस्तुतः इसे कोई स्थान नहीं है. उदात्तता वर्चस्ववादी भूमिका से न आकर स्वाभाविक विकसित हो, यह अपनी संस्कृति की देन है. कुटुंब व्यवस्था उसका मूल आधार है. मातृशक्ति का गौरव उसका अविभाज्य अंग है. स्त्री निर्बलता का प्रतीक न होकर एक क्षमता-सम्पन्न व्यक्तित्व है. कुटुंब संस्था के संगोपन में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण है. इसका अर्थ उसे चार दीवारों के भीतर ही रहना चाहिए, ऐसा कदापि नहीं होता. प्रजनन, संगोपन व संस्कारशीलता का निसर्गदत्त कार्य स्त्री का जिम्मा है. आधुनिक प्रवाह में से जो योग्य है, उसे अपनाने का उसे पूर्ण अधिकार है. परन्तु ऐसी मानसिकता उत्पन्न न होने के कारण ही अनेक समस्याएं खड़ी होती हैं. अन्याय की बहुत दुर्भायपूर्ण तथा प्रदीर्घ परम्परा की हिस्सेदार महिला बनी हुई है.’ [पृष्ठ 3-4]
आरएसएस ने अपने इस शब्दजाल में स्त्री की स्वतंत्रता का कोई पक्ष नहीं लिया है, बल्कि उसे वही स्थान दिया है, जो हिन्दू धर्मशास्त्रों ने उसे दिया है. इस शब्दजाल में उसने आधुनिक विचार के निकट आने की बहुत फूहड़ कोशिश की है, और अन्तत: उसे कुटुंब का ही जिम्मा देना चाहा है. वह कहता है कि ‘कुटुंब संस्था के संगोपन में स्त्री की भूमिका महत्वपूर्ण है.’ फिर, तुरंत ही कहता है कि इसका अर्थ उसे चार दीवारों के भीतर ही रखना नहीं है. इसे पढ़कर ‘शोले’ फिल्म का वह डायलाग याद कीजिए, जिसमें मौसी जय से कहती है, ‘तुम्हारे दोस्त में हजार बुराइयां हैं, पर तुम्हारे मुंह से उसकी अच्छाई ही निकलेगी.’ आरएसएस अपने शब्दजाल में स्त्री से यही कह रहा है—कुटुंब का जिम्मा लो, पर इसका मतलब चारदीवारी नहीं है. क्या कुटुंब चारदीवारों के बाहर होता है?
एक और शब्दजाल देखिए. आरएसएस कहता है—‘आधुनिक प्रवाह में से जो योग्य है, उसे अपनाने का उसे पूर्ण अधिकार है.’ पर यह कौन तय करेगा कि आधुनिक प्रवाह में योग्य क्या है? इसका निर्धारण तो पुरुष ही करेगा कि स्त्री के क्या योग्य है? क्या पुरुष (और आरएसएस भी) स्त्री को ‘योग्य’ का निर्णय करने की स्वतन्त्रता देता है? अगर हिन्दू स्त्री ने आधुनिक प्रवाह में से अंतर्धर्मी या अंतरजातीय विवाह को योग्य चुन लिया, तो क्या पुरुष और आरएसएस उसकी स्वीकृति देगा? नाक का सवाल उस स्त्री का जीना ही मुश्किल कर देगा.
आरएसएस कहता है, ‘संघ का दृष्टिकोण समग्रता का है. यह भी एक शब्दजाल है. समग्रता का मतलब स्त्री के सम्पूर्ण विकास से नहीं है, बल्कि उसके विकास को सभी निर्धारित दायरों में देखे जाने से है. उसकी स्वतन्त्रता किस दायरे में होनी चाहिए और किस दायरे में नहीं होनी चाहिए, यह समग्रता का दृष्टिकोण है. इसलिए वह एकांगी पद्धति से नहीं, एकात्मक पद्धति से विचार करने की बात कहता है. अगर हम स्त्री की स्वतंत्रता की बात करें, तो आरएसएस कहेगा कि यह एकांगी पद्धति है. इसलिए, परोक्ष रूप से वह एकांगी पद्धति को पश्चिम की पद्धति मानता है और एकात्मक पद्धति को हिंदुत्व की पद्धति मानता है.
यह शब्दजाल भ्रमित करने वाला ही नहीं, बल्कि झूठ पर भी खड़ा किया गया है. वह कहता है, ‘यह सत्य है कि स्त्री की ओर देखने का अपने समाज का दृष्टिकोण स्वस्थ नहीं है.’ पर, समाज का दृष्टिकोण स्वस्थ क्यों नहीं है? यह वह नहीं बताता. क्या यह अस्वस्थ दृष्टिकोण अपने आप बन गया? क्या यह अस्वस्थ दृष्टिकोण पश्चिम से आया है? या इस्लाम से आया है? या इसे भी अंग्रेजों ने पैदा किया है? आरएसएस को यह स्वीकारने में संकोच क्यों है कि स्त्री के प्रति समाज का अस्वस्थ दृष्टिकोण और दमनात्मक व्यवहार उसी हिन्दूधर्म से आया है, जिस पर वह गर्व करता है? क्या हिन्दूधर्म ने स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार दिया है? क्या कुटुंब के सिवा भी उसकी भूमिका निश्चित की है? ‘स्त्रीशूद्रोनधियताम’ यह श्रुति क्या पश्चिम से आई थी, जिसका अर्थ है कि स्त्री और शूद्र को शिक्षा नहीं देनी चाहिए? यह श्रुति हवा में नहीं थी. बाकायदा इस पर अमल किया गया था. बौद्ध भारत को छोड़कर, ब्राह्मण भारत में स्त्री-शूद्र को कभी शिक्षा नहीं दी गई. भारती, भामती और गार्गी जैसी शास्त्रार्थ करने वाली स्त्रियों को छोड़ दीजिए, क्योंकि वे उन थोड़ी सी आर्य स्त्रियों में से थीं, जो आर्यों के साथ भारत में आयीं थीं. किन्तु भारत में रहकर जिन स्त्रियों से उन्होंने विवाह किए, उन्हें उन्होंने गुलामी के बन्धनों में जकड़कर रखा था. यह श्रुति इसी काल में बनी थी. इस श्रुति ने हिन्दू स्त्रियों की स्थिति किस कदर नर्क बना दी थी, इसका हृदयविदारक वर्णन कैथरीन मेयो ने ‘मदर इंडिया’ में किया है. अगर अंग्रेज भारत में न आए होते, तो पता नहीं उन्हें कब तक इस नर्क में रहना पड़ता. हिन्दू स्त्रियों की अशिक्षा का यह विकट हाल था कि जब अंग्रेजों ने स्त्रियों के लिए कालेज खोले, तो सबसे पहले उसका लाभ उच्च वर्गों के हिन्दुओं ने ही उठाया, जिनमें सामंतों, धनी ब्राह्मणों और सेठों की लड़कियां प्रमुख थीं. आलम यह था कि इन वर्गों की कोई लड़की अगर मेट्रिक पास कर लेती थी, तो ‘चाँद’ जैसी तत्कालीन हिंदी पत्रिकाएँ गर्व के साथ उसका चित्र छापती थीं. यह थी स्त्री-शिक्षा की दयनीय स्थिति, जिसके लिए हिन्दूधर्म और सिर्फ हिन्दूधर्म जिम्मेदार है. दलित-पिछड़ी गरीब हिन्दू स्त्रियों को तो आज भी शिक्षा से वंचित करने के सारे उपक्रम आरएसएस और भाजपा की सरकारें कर रही हैं. उनके लिए ‘स्त्रीशूद्रोनधीयताम’ की श्रुति अप्रत्यक्ष रूप से आज भी व्यवहार में है. ब्राह्मण नहीं चाहते कि निम्न वर्गों की स्त्रियाँ शिक्षित होकर अपने शोषण और दमन को समझने लगें, और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जायें. इसीलिए मनु ने यह व्यवस्था दी है—‘स्त्री बाल्य काल में पिता के, जवानी में पति के और पति के मरने पर पुत्रों के अधीन होकर रहे. वह कभी स्वतंत्र न रहे.’ [5/148]
आरएसएस ने अपने शब्दजाल में भी इस सच्चाई को स्वीकार किया है कि ‘महात्मा फुले ने स्त्री-शिक्षा का विषय न लिया होता, तो अपने समाज में स्त्री को शिक्षा का सूर्योदय देखने में अनेक दशक लगते.’ [पृष्ठ, 4] महात्मा फुले ने 1848 में कन्या स्कूल खोला था, जो सम्पूर्ण भारत में पहला कन्या स्कूल था. क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि न प्राचीन हिन्दू भारत में और न मध्यकालीन मुस्लिम भारत में, केवल ब्रिटिश भारत में ही हिन्दू स्त्रियों की शिक्षा का सूर्योदय हुआ था. 1848 सम्पूर्ण विश्व में महान परिवर्तन का वर्ष है. इसी वर्ष कार्ल मार्क्स ने ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ जारी किया था. इसी वर्ष अमेरिका में स्त्रियों के अधिकारों का पहला महान सम्मेलन हुआ था. धनंजय कीर ने लिखा है, ‘जब अमरीकन स्त्री सड़क पार कर रही थी, उस वक्त हिन्दू स्त्री गुलाम बनी हुई थी.’ [Mahatma Jotirao Phooley, p. 20] कितना महान संयोग है कि भारत में हिन्दू स्त्री का सूर्योदय भी इसी वर्ष हुआ. आरएसएस वेद, उपनिषद, रामायण, गीता में जितने भी काल्पनिक आविष्कार ढूँढ कर खुश होता है, वह सब इस सच्चाई को झुठलाने के लिए है कि हिन्दुओं को सभ्य और इंसान बनाने का काम पश्चिम की विचारधारा ने ही किया है.
जारी…
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