अभिषेक श्रीवास्तव
बमुश्किल दो-ढाई हफ्ते पहले की बात है। मशहूर सरोद वादक पंडित विकास महाराज बनारस से दिल्ली आए हुए थे एक गुहार लेकर। यह गुहार बीते कई दशक से अनसुनी जाते-जाते एक अफ़सोस की तरह बनारस के कलाकारों के मन में घर कर चुकी है। इसी अफ़सोस के चलते गिरिजा देवी ने बनारस छोड़ा था। कलकत्ता चली गई थीं। बनारस में एक अदद संगीत अकादमी का सवाल था, जिसकी कसक मन में लिए जाने कितने उस्ताद दुनिया से रुख़सत हो गए। बनारस में पैदा हुए लेकिन मरते वक्त बनारस की मिट्टी जिन्हें नसीब नहीं हुई। लंबे समय बाद शायद यह आखिरी कोशिश थी। प्रधानमंत्री कार्यालय से पंडित विकास महाराज को संदेश गया था कि आप संस्कृति मंत्री महेश शर्मा से मिल लें।
मुलाकात के लिए दिन में 11 बजे का वक्त तय था। पंडितजी अपने सुपुत्र प्रभाष महाराज के साथ दिल्ली के कबीर भवन में उपस्थित थे। आखिरी वक्त पर मंत्री के पीए ने कह दिया कि मंत्रीजी को किसी ज़रूरी बैठक में जाना पड़ रहा है, अभी नहीं मिल पाएंगे। दो दिन पहले अमित शाह के बेटे पर एक कहानी आई थी जिसे लेकर हड़कम्प मचा हुआ था। अचानक कैबिनेट की बैठक बुलवा ली गई थी। महेश शर्मा अपने बुलाए अतिथि को भूलकर बैठक में चले गए।
उस शाम पांच बजे प्रेस क्लब में मैं प्रभाष महाराज के साथ बैठा हुआ था। साथ में बनारस के डॉ. लेनिन और शबाना जी भी थे। पंडितजी कबीर भवन में विश्राम कर रहे थे। मंत्री से मिलने की कोई सूरत नहीं दिखती थी। प्रभाष महाराज के चेहरे पर एक शिकायत और खीझ का मिश्रित भाव था। चाय-पान के बीच में उन्होंने ऐसे ही पीए को फोन लगा दिया। एक आखिरी कोशिश। पीए ने साढ़े छह बजे शास्त्री भवन में बुलवा लिया। अब समस्या यह थी कि पंडितजी को कैसे लाया जाए। प्रेस क्लब से कबीर भवन जाने और वापस आने में ही सारा वक्त चला जाता। तय रहा कि पंडितजी थ्रीवीलर ऑटो लेकर शास्त्री भवन आ जाएंगे।
प्रभाष महाराज को इस बात का अफ़सोस था कि पहले पता रहता तो वे कायदे का कुरता डालकर आते। वे बोले, ”पीए कह रहा था कि अपनी गाड़ी का नंबर गेट पर लिखवा दीजिए। एंट्री में दिक्कत नहीं आएगी। ओके का मालूम कि पापा ऑटो से आवत हउवन…।” इस बात पर सहज ही सब हंस दिए, लेकिन यही वह बात थी जो जिंदगी भर बिस्मिल्ला खां को सालती रही थी। भारत रत्न लेकर भी वे जिस गुरबत में गुज़र गए, कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उन्होंने बनारस के लिए एक संगीत अकादमी की मांग करने के बजाय अपने बच्चों के लिए आखिर सरकार से पेट्रोल पंप क्यों मांग लिया।
एक अदद संगीत अकादमी बनारस की शाश्वत कसक है। पंडित रविशंकर से लेकर गिरिजा देवी तक सब इस शहर को छोड़ गए क्योंकि कायदे से एक जगह नहीं है यहां जहां बैठकर सीखा-सिखाया जा सके। मुझे याद है जब पहली बार संगीत सीखने के लिए कबीरचौरा की गलियों में मैंने कदम रखा था। आठवीं कक्षा का शहरी छात्र था। बनारसी संगीत परंपरा का अंदाजा नहीं था। सोचा था कि कहीं ट्यूशन क्लास जैसी व्यवस्था होती होगी सीखने-सिखाने की। सीढ़ी पर पैर रखा तो वह पंडित विनोद मिश्रा का घर निकला। चौबेपुर से कबीरचौरा तबला सीखने जाना काफी श्रमसाध्य काम था। एक हिचक मन में यह भी रहती थी कि उस्ताद के घर में जाना पड़ता है जहां एक कमरे में संगीत चल रहा हेाता है तो बाकी कमरों में सारा घरेलू कारोबार। आउटसाइडर सा महसूस होता था। घरेलू बनने की कभी कोशिश भी नहीं की। तब तक यही मानता आया कि घर में साधकों को संगीत सिखाना विशुद्ध परंपरा है।
एक इतवार घनघोर बारिश हुई। सुबह से घटाटोप था। पंडितजी के घर पहुंचते-पहुंचते मैं सांगोपांग शराबोर हो चुका था। जैसा कि सामान्य मध्यवर्गीय घरों में बारिश के दौरान माहौल होता है, वैसा ही था। औरतें सब्ज़ी काट रही थीं। बच्चे भीतर-बाहर कर रहे थे। पंडितजी तैयार बैठे थे। टीवी भी चल रहा था। उस पर से मैं लसर-पसर पहुंच गया। इतनी किचकिच के बीच उस छोटे से घर के एक कोने में हम अभ्यास के लिए बैठे। चारों तरफ बजबजाती घरेलू आवाज़ों के बीच संयम साधे हुए बजाते-बजाते मेरा मन जाने क्यों खिन्न-सा हो गया। इसके बाद मैं सीखने नहीं गया। उस दिन पंडितजी ने निष्कर्ष निकाला कि लड़का अधीर है। उसी दिन मुझे समझ आया कि दरअसल सुविधाओं के अभाव और विपन्नता को परंपरा का नाम देकर किस तरह बनारस घराना संगीत को बचाने और भावी पीढि़यों को तैयार करने में लगा हुआ है।
इतने बरस बाद आज भी यही हाल है। बनारस के बाहर भी कुछ खास बेहतर स्थिति नहीं है। पंडित विनोद मिश्रा से बुनियादी कायदा सीखकर मैं लखनऊ रामकुमार वर्मा की शरण में पहुंचा। वहां हालत और बुरी थी। भातखण्डे में आचार्य रहे गुरुजी साइकिल से राजाजीपुरम के एक संपन्न मारवाड़ी परिवार में सिखाने आया करते थे, जहां के ड्राइंग रूम में मुझे भी एडजस्ट कर दिया गया था। गुरुजी की स्थिति इतनी भी नहीं थी कि वे बच्चों को अपने घर पर बुला पाते। यहां भी मैं आउटसाइडर ही रहा। एक समय बाद निकल आया। कुछ साल बाद तबला रिश्तेदारी में एक छोटे भाई को दे दिया।
सोचता हूं कि वाकई बनारस में कोई संगीत अकादमी होती तो मैं या मेरे कई मित्र दूसरी राह क्यों चुनते? गिरिजा देवी बनारस छोड़कर क्यों जातीं? बिस्मिल्ला इतनी गुरबत में क्यों निकल लेते? बनारस में जो बच रहे हैं, वे अपनी कब्र पर पतंग उड़ा रहे हैं। एक उम्मीद जगी थी बनारस में जब पंडित छन्नूलाल मिश्र प्रस्तावक बने थे नरेंद्र मोदी के। सियासी लोगों ने भले भावना में बहकर गालियां दी हों उन्हें, लेकिन बनारस घराना मन ही मन उम्मीद से था। कोई फायदा नहीं हुआ। न पंडितजी का, न घराने का, न संगीत का।
उस दिन पंडित विकास महाराज, महेश शर्मा से मिलकर वापस प्रेस क्लब आए। आधे घंटे से भी लंबी मीटिंग चली थी। क्लब के दालान में बैठकर उन्होंने तीन दशक पहले का वो दिन याद किया जब उन्होंने यहां परफॉर्म किया था। वो दिन और यह दिन… इतने लंबे वक्फ़े में बनारस से लेकर कलकत्ता के बीच सरोद बजाने वाले बचे-खुचे ‘हिंदू’ कलाकारों के बीच विकास महाराज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य सर्वाधिक प्रयोगधर्मी शख्स हैं जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत, जैज़ और क्रॉसओवर में विपुल काम किया। दुनिया के सौ से ज्यादा विश्वविद्यालयों में वे एमेरिटस प्रोफेसर हैं, लेकिन ग़लती बस एक हो गई। वे बनारस में ही रह गए। कन्हैयालाल मिश्रा और संतोष मिश्रा जैसे वरिष्ठ सरोदवादकों का भी यही हाल है। अंशुमान मिश्रा अभी युवा हैं, तो बाहर कदम रखना शुरू किए हैं।
जो बनारस से बाहर निकला, दुनिया ने उसके हुनर से बनारस को जाना। ऐसे लोग लौटकर फिर बनारस कभी नहीं आए। जो बनारस में ही रह गए, उनका हाल उन्हीं से पूछिए। लंका के हेरिटेज अस्पताल में जब बिस्मिल्ला खां आखिरी सांसें गिन रहे थे, उस रात पंडित विकास महाराज वहीं उनके बिस्तर के किनारे मौजूद थे। वे बताते हैं, ”उनकी हालत कुछ स्थिर हुई तो हम लोग थोड़ी देर के लिए टहलने नीचे आए। थोड़ी देर में फोन आया कि जल्दी ऊपर आइए, हालत बिगड़ रही है। हम लोग भागे-भागे ऊपर गए।” यह आखिरी पुकार थी। मरने से ठीक पहले बिस्मिल्ला खां के होठों पर ठुमरी थी।
बनारस से निकले तमाम कलाकार दूसरी धरती पर सिधार गए। पलट कर वापस नहीं आए। गिरिजा देवी इस बार 22 साल बाद संकटमोचन संगीत समारोह में गाने आई थीं। दुनिया भर में कोई कलाकार चाहे कहीं भी गा ले बजा ले, लेकिन संकटमोचन के प्रांगण में आए बगैर उसकी मुक्ति नहीं होती। गिरिजा देवी बनारस की थीं। इस बात को जानती थीं। क्या जाने क्या सोचकर इतने बरस बाद वे घर आईं। कहीं छह महीने पहले उन्हें आखिरी रुख़सत का इल्म तो नहीं हो गया था?