अकबर की ‘बेगुनाही’ का सबूत लेकर हाज़िर हैं इलाहाबाद के मोहल्ले !

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इलाहाबादी कवि बोधिसत्व चाहे मुंबई में रहते हों, लेकिन इलाहाबादियों को ‘प्रयागराजी’ बनाने की हिमाक़त के बीच प्रतिवाद के सबसे मुखर स्वरों में हैं। वे लगातार इस झूठ की बुनियाद हिला रहे हैं कि अकबर ने प्रयाग का नाम बदलकर इलाहाबाद कर दिया था। बोधिसत्व जिन तर्कों और तथ्यों को सामने ला रहे हैं, उससे बार-बार साबित होता है कि अकबर ने एक नया नगर बसाया था। दो नदियों के बीच दलदली ज़मीन पर कोई नगर योजना संभव ही नहीं थी जब तक कि नदियों को बाँधा न जाता। अकबर ने यही किया था। गंगा और यमुना पर बाँध बनाए और संगम पर क़िला। इस तरह बीच के सूखे दोआबे पर नगर योजना संभव हुई। अबरनामा में भी जिक्र है कि  अकबर ने नए नगर की नींव डाली। प्रयाग का पौराणिक महत्व ख़्याति  तीर्थ और यज्ञभूमि बतौर थी। पर्वों पर संगम किनारे मेले लगते थे। वनक्षेत्र में आश्रम आदि और कुछ अस्थाई बस्तियाँ  भी थीं पर कोई नगर नहीं। बोधिसत्व अपने इस तीसरे लेख में (मीडिया विजिल में छपे पूर्व के दो लेखों के लिंक नीचे दिए गए हैं) इलाहाबादी मोहल्लों की बसवाट की दास्तान सुना रहे हैं जिससे पता चलता है कि इलाहाबाद कैसे बसते-बसते बसा और फिर सर्वसमावेशी संस्कृति के प्रतीक बतौर हिंदुस्तानी दिलो दिमाग़ में हमेशा के लिए बस गया – संपादक

 

बोधिसत्व


किसी भी शहर के इतिहास वहाँ के निवासियों के इतिहास से बनता बिगड़ता है। लेकिन कभी-कभी वहाँ के भवनों और स्थापत्यों के साथ ही वहाँ के मोहल्लों का इतिहास भी शहर के इतिहास को बयान करता है। आप कह सकते हैं कि मोहल्लों की सथापना ही शहर की स्थापना है।

इलाहाबाद के मोहल्लों का इतिहास ‘प्रयाग प्रदीप’ नामक ग्रंथ में लिखा है। यह किताब अब तक इलाहाबाद का सबसे प्रमाणित इतिहास है। यह ऐतिहासिक किताब 1937 में साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था हिंदुस्तानी एकेडमी से प्रकाशित है और इतिहासकारों द्वारा मान्य है। इसके लेखक शालिग्राम श्रीवास्तव जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापक थे।
‘प्रयाग प्रदीप’ की खुली स्थापना है कि “सोलहवीं शताब्दी में जब अकबर ने नया शहर ऊँची भूमि पर कुछ पश्चिम हटकर बसाया तो बहुत से प्रयाग के लोग उठ कर वहाँ बस गए” यानी इलाहाबाद या इलावास अकबर स्थापित एक नव नगर था। परिवर्तित नहीं। खैर ।
इस किताब के अनुसार केवल अतरसुइया एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ अकबर के पहले संभवतः अत्रि अनुसुइया का एक मंदिर था। मैं पहले से लिखता आ रहा हूँ कि यत्र तत्र संतों के निवास प्रयाग में थे। लेकिन आबादी और मोहल्ले अकबर के बाद बसे। और औरंगजेब के काल से होकर अग्रेजों तक बसते आए।
मोहल्ला खुल्दाबाद जहाँगीर का बसाया हुआ है। शहर में जो मोहल्ला अब शहराराबाग कहलाता है, प्रयाग प्रदीप के अनुसार मोहल्ले का यह स्थान पहले जहाँगीर का लगवाया बनवाया एक बाग था। बाग तो गुम हो गया अब केवल बस्ती बाकी है। इसी तरह दारागंज दाराशिकोह के शाम पर बसाया गया। वहाँ बेणीमाधव मंदिर पहले से था। लेकिन मोहल्ला न था।
पूरा का पूरा कटरा, सवाई जयसिंह ने औरंगजेब के समय में बसाया। यह पूरा क्षेत्र और उसके आस के क्षेत्र सवाई जय सिंह को माफी में मिले थे। 1937 तक कटरे की आबादी में 35 एकड़ भूमि जयपुर राज्य के अधिकार में थी। उसके करीब के राजापुर और फतेहपुर बिछुआ की मालगुजारी जयपुर के राजाओं को मिलती थी।

फकीराबाद की स्मृति खोती जा रही है। लेकिन मध्यकाल में यहाँ 12 दायरे या दयार यानी फकीरों के आश्रम थे। मोहल्ला चक मुगलों की सरकार खत्म होने के करीब में बसाया गया। किन्हीं शाह अब्दुल जलिल को को यह चक का क्षेत्र माफी में मिला था। शाह जलील अरब से आए थे और उनका देहावसान 1702 में हुआ।

मुट्ठीगंज और कीडगंज अंग्रेजी राज में बसे। ये क्रमसः मिस्टर आर. मुटी और जनरल कीड के नाम पर आबाद किए गए। मुट्ठीगंज हो, कीडगंज, कटरा हो या खुल्दाबाद या शहराराबाग या दारागंज ये सब नाम परिवर्तन के मोहल्ले नहीं बल्कि इसी नामपर बसाए मोहल्ले हैं।
कंपनीबाग के दक्षिण का सम्दाबाद मेवातियों का गाँव था। ये मेवाती 1857 में अंग्रेजों के सबसे बड़े शत्रु सिद्ध हुए और इसीलिए सम्दाबाद अंग्रेजों द्वारा पूरी तरह उजाड़ा गया। इसीतरह मिस्टर एफ लूकर के नाम पर 1906 में नया मोहल्ला लूकरगंज बसा तो सर एलन के नाम पर एलनगंज बसा। सोहबतिया बाग और जार्जटाउन 1909 में बसे।
नया कटरा 1927 में और जीरोरोड 1929 में और महम्मद अली पार्क 1931 में आबाद हुए। कटरा और कर्नल गंज और जहाँ दरभंगा कैसल है यहाँ गोरों की बैरिकें थीं।
इलाहाबाद सदैव एक सर्वसमावेशी शहर था। जिसमें अन्य प्रांतों के लोग हमेशा आबाद होते रहे। बंगाली कर्नलगंज में और महाराष्ट्रीय दारागंज में केंद्रित थे। पंडे दारागंज अहियापुर और कीडगंज में और खत्री गंगादास के चौक में आबाद हुए। कायस्थ बादशाही मंडी और अहियापुर में अधिक सघनता से आबाद हुए। मुसलमान दरियाबाद, अटाला, कोइलहनटोला, बख्शीबाजार, नईबस्ती, चौक और बहादुर गंज में आबाद हुए। इसाइयों की बस्ती म्योराबाद और मुट्ठीगंज में रही। अग्रवाल महाजनी टोले में और जैनी चंद के कुवें पर भार्गव त्रिपौलिया और मीरगंज में बसे थे।
यह विवरण 1937 तक का है। अल्लापुर आजादी के बहुत बाद बसा। बाघम्बरी गद्दी कागजात में दारागंज में दर्ज होता था। बाघम्बरी रोड पर तीन घरों के द्वारलेख पर मैंने खुद दारागंज लिखा पाया है।
इलाहाबाद के सभी मोहल्ले नये आबाद हुए। किसी आबाद मोहल्ले का नाम नहीं बदला गया और अकबर के पहले किसी का अस्तित्व न था। भारद्वाज आश्रम में भी किसी आबादी या बस्ती का कोई विवरण नहीं मिलता।
रोचक बात अतरसुइया का नाम अत्रि-अनुसुइया के नाम पर बनाए रखा गया। क्योंकि यहाँ एक जोगी के पास एक शिला थी जिस पर एक पदचिह्न बना था उस पदचिह्न के लिए मान्यता थी की यह चंद्रदेव दुर्वासा और दत्तात्रेय के पिता अत्रि मुनि के चरण चिह्न हैं। अकबर और उसके लोग प्रयाग का नाम बदलते तो अतरसुइया का नाम अमीनाबाद क्यों न करते?
पता नहीं वह अत्रि-चरणांकित पत्थर अब कहाँ है। उसकी खोज होनी चाहिए। अगर मौजूद हो तो उसकी हिफाजत की जाए।
इलाहाबाद के इतिहास का स्कूल आज भले दृष्टिवान और विजनरी हो लेकिन एक समय तक नगर के लोग सम्राट अशोक की लाट को भीम की गदा मानते थे। ऐसी इतिहास दृष्टि वाली जनता की जै हो।

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