कोरोना काल में जब पूरा देश गरीबी, बेरोजगारी और दरकती अर्थव्यवस्था के संकट से जूझ रहा है, तो ऐसी विपरीत परिस्थिति में अधिकांश ग्रामीण अकुशल श्रमिकों के लिए मनरेगा योजना जीविकोपार्जन का एकमात्र जरिया साबित हो रहा है। लेकिन दूसरी तरफ मजदूर इस बात से बेहद निराश हैं कि इतनी भयावह त्रासदी के बाद भी केन्द्र की सरकार ने अब तक कार्य के दिनों में कोई बढ़ोत्तरी की घोषणा नहीं की। श्रमिक संगठनों का मानना है कि केन्द्र सरकार एक साजिश के तहत पिछड़े राज्यों के लिए कम मजदूरी का निर्धारण कर पूंजीपतियों तथा कार्पोरेट घरानों के लिए सस्ते मजदूर उपलब्ध कराने की मन्शा रखती है।
यही कारण है कि देश भर के मजदूरों अपनी तीन सूत्री माँगों को लेकर 29 जून को नरेगा अधिकार दिवस मनाया और भारत के प्रधानमन्त्री के नाम स्थानीय ग्राम पंचायत मुखिया, प्रखण्ड विकास पदाधिकारी को विभिन्न कार्यक्रमों के जरिये ज्ञापन सौंपे। मजदूर संगठनों की माँग है कि मनरेगा में प्रति वयस्क 200 दिन काम की गारंटी की जाए। सातवें वेतन आयोग की अनुशंसा के आधार पर मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी दर 600 रूपये प्रतिदिन की जाए। साथ ही मनरेगा कानून की धारा 16 (1) के अनुसार ग्राम सभा और वार्ड सभाओं की सिफारिश के अनुसार ही योजनाओं को क्रियान्वित की जाए।
नरेगा अधिकार दिवस के अवसर पर ‘नरेगा मजदूरी क्यों इतनी कम, हो रोज की रूपए 600 कम से कम’ और ‘जब ग्राम सभा को योजना बनाने का अधिकार, तो फिर काम क्यों तय करे सरकार’ जैसे नारा का पोस्टर निकाला गया। अवसर पर नरेगा मजदूरों की एक बैठक भी की गई।
बता दें कि आज देशभर के 693 जिले 6974 प्रखण्डों और 265009 ग्राम पंचायतों में मनरेगा कानून के तहत् योजनाएँ संचालित की जा रही हैं। जिसमें 14.15 करोड़ परिवार व 27.46 करोड़ श्रमिक पंजीकृत हैं। इसी प्रकार झारखण्ड में 52.16 लाख परिवार तथा 90.48 लाख श्रमिक मनरेगा के अन्तर्गत पंजीकृत हैं। लेकिन केन्द्र सरकार की मनरेगा और श्रमिक विरोधी नीतिगत फैसलों ने राज्य के मजदूरों को निरंतर निराश करती रही है।
झारखंड नरेगा वाच के संयोजक जेम्स हेरेंज ने कहा है कि ”इस कोरोना त्रासदी काल में ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा ही देश की गरीबी, बेरोजगारी और दरकती अर्थव्यवस्था के संकट से बचा सकता है। लेकिन केन्द्र सरकार के मनरेगा और श्रमिक विरोधी फैसले इस योजना पर पलीता लगा रहे हैं। मनरेगा पर सरकार के नीतिगत फैसलों के आलोक में जेम्स हेरेंज इससे संबंधित प्रमुख मुद्दों को रेखांकित करते हुए कई बिंदुओं को क्रमवार दर्शाते हैं। जैसे…
कम मजदूरी दर एवं विलंब से मजदूरी का भुगतान
वित्तीय वर्ष 2017-18 में केन्द्र सरकार ने राज्य की मनरेगा मजदूरी में मात्र 1 रूपये बढ़ाई थी। जबकि झारखण्ड राज्य में न्यूनतम मजदूरी 224 रूपये थी। इसी तरह वर्तमान वित्तीय वर्ष में मनरेगा मजदूरी में मामूली वृद्धि करते हुए 194 रूपये की गई है। जबकि राज्य की न्यूनतम मजदूरी 294 रूपये हैं। वहीं स्थानीय स्तर पर दूसरे अन्य कार्यों में श्रमिकों को 250 रूपये से अधिक मजदूरी और वह भी ससमय मिल जाती है। जबकि मनरेगा योजनाओं में प्रावधान के बावजूद 15 दिनों के भीतर मजदूरी नहीं दी जाती है।
श्रमिकों को यह भी अधिकार है कि विलंबित मजदूरी भुगतान के लिए क्षतिपूर्ति राशि देना है। लेकिन राज्य सरकार ने इसमें भी श्रमिकों को मुंह चिढ़ाने वाला नियम निर्धारित किया है। नियम के अनुसार कहा गया है कि बकाया मजदूरी का 0.05 फीसदी के दर से क्षतिपूर्ति राशि भुगतान की जाएगी। आंकड़े बताते हैं कि वित्तीय वर्ष 2017-18 में कुल 18.76 लाख राशि क्षतिपूर्ति के रूप में भुगतान किया जाना था। परन्तु अधिकारियों ने अपर्याप्त निधि और प्राकृतिक आपदा का हवाला देकर क्षतिपूर्ति राशि को खारिज करते हुए महज 4.47 लाख रूपये का भुगतान स्वीकार किया है। लेकिन इसका भुगतान भी श्रमिकों को नहीं किया गया।
आधार की अनिवार्यता एवं तकनीक के अत्यधिक उपयोग ने बढ़ाई परेशानी
मनरेगा में प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण व मजदूरी भुगतान के निमित्त प्रत्येक श्रमिक का आधार सीडिंग अनिवार्य किया गया। राज्य की अधिकांश पंचायतों के आधार सीडिंग आंकड़ों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि पंचायतें 98 फीसदी से भी अधिक श्रमिकों का आधार सीडिंग कर चुकी हैं। दूसरी गौर करने वाली बात ये भी है कि वैसे मजदूर जो 3 वर्षों से मनरेगा योजनाओं में कार्य नहीं कर रहे हैं, उनके रोजगार कार्ड सरकारी आदेशानुसार कम्प्यूटर में बैठकर रद्द कर दिये गये। इससे उन श्रमिकों को अधिक नुकसान हुआ है, जो वास्तव में मनरेगा में कार्य करते थे। लेकिन उनके रोजगार कार्ड में कार्य की प्रवृष्टि न कर बिचैलियों ने अपने लोगों के कार्ड में कार्य विवरणी दर्ज किये। सरकार के इस फैसले से बिचैलिये परिवारों के मजदूर ही सक्रिय श्रमिक के श्रेणी में शामिल हो गये। जिन मजदूरों से बिचैलियों के स्वार्थ सिद्ध नहीं हुए, उनके गाँव टोलों में रोजगार सेवक भी नहीं गए। परिणाम स्वरूप आधार कार्ड सीडिंग नहीं किये गये श्रमिकों के कार्ड रद्द कर दिये जाने से 100 फीसदी आधार सीडिंग का आंकड़ा आसानी से प्राप्त कर लिया गया।
दूसरी ओर मनरेगा कार्यक्रम में दिन प्रतिदिन आधुनिक तकनीक के उपयोग पर सरकार पूरा दबाव बनाती रही है। जबकि उस अनुपात में प्रखण्डों, ग्राम पंचायतों और बैंकां में तकनीक इस्तेमाल के लिए बुनियादी सुविधाओं पर सरकार का ध्यान नहीं है। उदाहरण के लिए जितने भी सुदूर प्रखण्ड हैं वहां नेट कनेक्टीविटी बिल्कुल न के बराबर है। कम्प्यूटर आपरेटरों को कम्प्यूटर से संबंधित सारे कार्यों के लिए 30 से 40 किलोमीटर सफर कर कार्य करना पड़ता है, इसके लिए उन्हें किसी प्रकार की यात्रा भत्ता भुगतान नहीं किया जाता है। अब तो मनरेगा की सारी गतिविधियाँ कम्प्युटर आपरेटरों तक ही सीमित हो गयी हैं। योजना ग्राम से पारित होने के बाद एमआईएस प्रवृष्टि, तकनीकी व प्रशासनिक स्वीकृति के बाद प्रवृष्टि, जियो टैगिंग, डीपीआर फ्रिजिंग, रोजगार कार्ड आई0 डी0 सृजित करना, कार्य मांग की प्रवृष्टि, एम0 बी0 की प्रवृष्टि, कार्य दिवस दर्ज करना, भुगतान आदेश तैयार करना एवं डिजिटल हस्ताक्षर, इन सभी कार्यों की जिम्मेवारी आपरेटरों पर निर्भर है।
विडम्बना यह है कि आपरेटरों द्वारा नियम विरूद्ध कार्य करने पर उनके ऊपर कोई प्रभावी प्रशासनिक कार्रवाई निर्धारित नहीं है। फलतः ऐसे कर्मी दलालों से साठगाँठ और मोटी रकम लेकर फर्जी दस्तावेज के माध्यम से सरकारी राशि का गबन कर रहे हैं। नित नये तकनीकी शब्दों के इजाद से आम श्रमिकों की परेशानियाँ और बढ़ती जा रही हैं। जैसे A/c Blocked or Frozen, Inactive Aadhaar, NO SUCH ACCOUNT, Customer to refer to the Branch, आदि ये शब्द मजदूरी भुगतान के लिए तैयार एफ0टी0ओ0 में परिलक्षित हो रहे हैं। जिसका जवाब श्रमिकों को किसी भी स्तर के अधिकारी संतोषजनक तरीके से नहीं दे पाते।
चालीस फीसदी मनरेगा कर्मियों के पद रिक्त
जहाँ आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल को अनिवार्य किये जाने से मनरेगा योजना और श्रमिकों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। वहीं राज्य में मनरेगा कर्मियों का प्रखण्ड कार्यक्रम पदाधिकारी से लेकर ग्राम रोजगार सेवक तक के 1482 पद वर्षों से रिक्त पड़े हैं। जिन्हें पूर्ण किये वगैर योजनाओं के सफल क्रियान्वयन की उम्मीद नहीं की जा सकती। आंकड़े बताते हैं कि राज्य भर में प्रखण्ड कार्यक्रम अधिकारी के कुल 413 पद स्वीकृत हैं, जिसमें 171 पद खाली हैं। सहायक अभियंताओं के 261 स्वीकृत पदों में सिर्फ 123 कार्यरत हैं। कनीय अभियंता के लिए 846 पद स्वीकृत हैं, जिसमें से मात्र 481 ही कार्यरत हैं। कम्प्यूटर सहायकों हेतु 261 में सिर्फ 142 कार्यरत हैं। इसी प्रकार लेखा सहायकों के 261 पद सृजित हैं और 157 कार्यरत हैं। ग्राम रोजगार सेवकों के 585 पद खाली पड़े हैं।
राज्य रोजगार गारंटी परिषद् के निर्णयों पर सरकारी पहल नहीं
मनरेगा अधिनियम की धारा 12 के तहत् झारखण्ड राज्य रोजगार गारंटी परिषद गठित की गई है। जिसके अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री हैं। नियमानुसार उसे एक वर्ष में कम से कम 2 बैठकें अवश्य करनी चाहिए। लेकिन राज्य इस पर भी गंभीर नहीं है। पिछली बार आखरी बैठक 27 जुलाई 2016 को की गई थी। इसके पूर्व एक बैठक 26 सितंबर 2014 को की गई थी। विगत डेढ़ सालों से यह महत्वपूर्ण बैठक लंबित है। जो अंतिम बैठक सम्पन्न हई थी उसमें मजदूर हित में जो महत्वपूर्ण निर्णय लिये गये थे, उनपर भी विभाग ने कोई पहल नहीं की।
बैठक में निर्णय लिया गया था कि मनेरगा में महिला कार्डधारी (जिन्होंने वर्ष में कम से कम 15 दिनों का कार्य किया हो) को मातृत्व सुविधा के रूप में एक माह की मजदूरी पर होने वाले वित्तीय भार का आकलन करने तथा इस संबंध में विभिन्न विकल्पों के संबंध में अवगत कराने का निर्देश दिया गया था। मनरेगा अन्तर्गत आदिम जनजातियों, महिलाओं, वृद्ध एवं दिव्यांग मजदूरों के लिए अलग SOR (Schedule of Rate) के प्रस्ताव पर विभाग स्तर से Time & Motion Study कराने का निर्देश दिया गया था। इसके साथ ही आदिम जनजातियों के लिए मनरेगा के अन्तर्गत संभावनाओं पर आदिम जनजाति प्राधिकार के साथ मिलकर कार्यशाला का निर्देश दिया गया था। परन्तु ऐसे महत्वपूर्ण निर्णयों पर सरकारी अधिकारी चुप्पी साध लिये।
बेअसर शिकायत निवारण ढाँचा
मजदूरों को उन्हें प्रदत्त पूरे अधिकार मिले। इसके लिए कानून की धारा 19 में प्रभावशाली शिकायत निवारण प्रणाली विकसित करने का उल्लेख है। जिसमें राज्य रोजगार गारंटी परिषदों का गठन, राज्य एवं जिलों के स्तर पर टोल फ्री नंबरों की स्थापना, मनरेगा लोकपालों की नियुक्ति, सावधिक सामाजिक संपरीक्षा, ग्राम पंचायत, प्रखण्ड एवं जिला मुख्यालयों में शिकायत कोषांगों की स्थापना, आनलाईन शिकायत दर्ज करने की सुविधा आदि माध्यमों का उल्लेख किया गया है। धारा 23(6) में निर्दिष्ट अनुसार कार्यक्रम अधिकारी सात दिनों के भीतर ऐसी सभी शिकायतों का निपटान करेगा, कार्यक्रम अधिकारी द्वारा 7 दिनों के भीतर किसी शिकायत का निपटान करने में असमर्थ रहने की स्थिति में इसे अधिनियम का उल्लंघन करना माना जाएगा तथा यह धारा 25 के तहत दण्डनीय है। इन प्रभावशाली प्रावधानों के बावजूद मजदूरों की शिकायतों पर कार्रवाई न होने के कारण स्थिति निराशाजनक होती जा रही है।
लंबे संघर्ष के बाद बना था मनरेगा कानून
उल्लेखनीय है कि भारत की चैदहवीं लोकसभा द्वारा वर्ष 2005 में पारित राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून की औपचारिक शुरूआत आन्ध्र प्रदेश के अनन्तपुर जिले के पंदलापल्ली ग्राम पंचायत से 2 फरवरी 2006 को गई थी। इस ऐतिहासिक और मौलिक अधिकार को कानूनी ढाँचे में लागू कराना इतना सहज नहीं था। देश में मनरेगा अधिनियम बनने के पहले ही महाराष्ट्र रोजगार गारंटी अधिनियम 1978 में लागू किया जा चुका था। लेकिन 2004 तक अर्थात् आजादी के 58 वर्षों बाद भी देश के करोड़ों मजदूरों को रोजगार का मौलिक अधिकार प्राप्त नहीं था। यह उनके संविधान की धारा 21, सम्मान पूर्वक जीवन जीने के अधिकार का हनन था। सन् 2004 के लोक सभा चुनाव में सरकार में शामिल दलों ने साझा न्यूनतम कार्यक्रम में पहली घोषण में नरेगा कानून लाने का वायदा किया था।
चुनाव जीतकर दोबारा सत्ता में आने के बाद 2005 में पूरे देश में रोजगार अधिकार कानून की माँग उठने लगी थी। देश के लगभग हर जिले में लोगों ने हस्ताक्षर अभियान चलाया और रैलियां आयोजित कीं। सबों की एक ही माँग थी, ‘हर हाथ को काम दो! काम का पूरा दाम दो! हम अपना अधिकार माँगते! नहीं किसी से भीख माँगते।’ 21 दिसंबर 2004 को भारतीय संसद में रोजगार गारंटी कानून का एक मसौदा पेश किया गया था। जिसमें यह कहा गया था कि देश के उन्हीं ग्रामीण परिवारों के एक सदस्य को काम दिया जाएगा, जिसके पास बी0पी0एल0 कार्ड होगा।
इस ड्राफ्ट प्रस्ताव में 100 दिनों के काम की गारंटी भी नहीं थी और न ही योजना में जवाबदेही और पारदर्शिता की बात शामिल की गई थी। लोग काम की गारंटी के नाम पर अपने हाथों में झुनझुना पकड़ने को तैयार नहीं थे। इसी कारण फिर एक बार देशव्यापी रोजगार अधिकार गारंटी की माँग जोर पकड़ने लगी। 13 मई 2005 को देशभर के जन अधिकारों से जुड़े करीब 200 जनसंगठनों ने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता ज्याँ द्रेज के नेतृत्व में देशव्यापी रोजगार अधिकार यात्रा निकाली। यह यात्रा देश के 10 विभिन्न राज्यों में 52 दिनों तक चली। अन्ततः 2005 के मानसून सत्र में देश की चैदहवीं लोक सभा में इसे पारित किया गया।
विशद कुमार, स्वतंत्र पत्रकार हैं और झारखंड से लगातार जन-सरोकार के मुद्दों पर मुखरता से ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे हैं।