सरकार की कॉरपोरेटपरस्त नीतियों से धधकी है किसान आंदोलन की आग!

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बादल सरोज

अब तक की प्रतिक्रियाओं से साफ़ हो गया है कि किसी भी तरह किसान आंदोलन की धधकती आग पर पानी डालने का केंद्र सरकार का आख़िरी ब्रह्मास्त्र भी खाली चला गया है। सुप्रीम कोर्ट को बीच में लाकर किसानों को घर भेजने और इस तरह थोड़ी मोहलत पाकर विवादित कृषि कानूनों को हलक में उतारने की उसकी मंशा पूरी नहीं हुई है। इन तीन कृषि कानूनों के प्रभावों-दुष्प्रभावों, हानि-लाभों पर कागजों से लेकर सड़क तक इतनी इबारतें लिखी जा चुकी हैं कि अब उन्हें दोहराने से बेहतर यह जानने की कोशिश होगी कि क्या सचमुच किसानों का भय वास्तविक है? क्या वाकई सरकार के पास कोई रास्ता नहीं है?

हर रोज ढाई हजार किसानों के खेती-किसानी छोड़ने और हर आधा घंटे में एक किसान के आत्महत्या करने के आंकड़ों के पीछे छुपी वजह किसानों के इस उभार का मुख्य कारण है। लगभग सभी पक्ष मान चुके हैं कि इसकी वजह भारत का कृषि संकट है, जो खतरे की सभी सीमायें लांघ चुका है। तीनों क़ानून बीमारी से कहीं ज्यादा घातक दवा हैं। इस संकट का एक महत्वपूर्ण लक्षण है किसान को उसकी उपज का दाम न मिल पाना। इसे दूर करने का एक उपाय न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का तर्कसंगत निर्धारण और उसपर कड़ाई से अमल हो सके, इसके लिए एक बाध्यकारी क़ानून का बनाया जाना है। इससे सरकार न केवल साफ़ इंकार कर रही है, बल्कि इन कानूनों के मार्फ़त ऐसे प्रावधान कर रही है कि भविष्य में किसी लाभकारी दाम के मिलने की संभावना ही समाप्त हो जाए।

पूरे किसान आंदोलन के दौरान सरकार, उसकी पार्टी और उसके समर्थक कॉरपोरेट मीडिया ने गला फाड़कर एलान किया था कि वह किसानों को एमएसपी दे रही है- मगर जब पहले गृहमंत्री अमित शाह के साथ हुयी मुलाक़ात और उसके बाद सातवें दौर की वार्ता में जब किसानों ने इसे कानूनी दर्जा देने की मांग की, तो सरकार साफ़ मुकर गयी। उसने कहा कि इसके लिए जितनी धनराशि की जरूरत होगी, उतनी उसके पास नहीं है। क्या सचमुच ?

सबसे पहले एमएसपी के बारे में। एमएसपी को निर्धारित करने के दो फॉर्मूले हैं। एक में बीज, मजदूरी, उर्वरक, खाद, कीटनाशक जिन्हें ए और अन्य फुटकर लागतें जिनका जोड़ ए-2 कहा जाता है, उसमें  फॅमिली लेबर (एफएल) जोड़ी जाती है। सरकार इसी फॉर्मूले से जोड़-जाड़कर कीमत तय कर देती है। कुल जमा 23 फसलों का समर्थन मूल्य घोषित किया जाता है, मगर खरीदी सिर्फ ढाई फसलों- गेंहू, धान और कुछ दालों की होती हैं। उनमें से भी करीब नब्बे फीसदी खरीद इस तरह घोषित एमएसपी से 30% तक कम दर से की जाती है।

किसानों की मांग है कि इसमें भूमि का किराया और ब्याज भी जोड़ा जाना चाहिए। यह फॉर्मूला स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर है, जिसे सी-2 कहा जाता है। सी-2 मतलब लागत के दोनों खर्च ए-2 + (एफएल) पारिवारिक श्रम+किसान की भूमि का किराया और ब्याज!! किसानों की मांग है कि इस जोड़ में 50% की राशि और जोड़कर कुल जमा को एमएसपी के रूप में घोषित किया जाये, उस पर खरीद सुनिश्चित की जाये और उससे कम पर खरीदने को दंडनीय अपराध घोषित किया जाए।

मोटे जोड़ के हिसाब से इन दोनों के बीच के अंतर से हर वर्ष देश के किसानों को 3 से 4 लाख करोड़ रुपयों का नुकसान होता है। सरकार के मुताबिक़ उसके पास इतना पैसा नहीं है। किसान कहते हैं कि जो सरकार गुजरे छह वर्षों में अँगुलियों पर गिने जा सकने वाले देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों को 35 लाख करोड़ रूपये से अधिक की छूट दे सकती है, 20 लाख करोड़ के लॉकडाउन पैकेज का भारी हिस्सा उनकी तिजोरियों में उड़ेल सकती है- उसे कृषि से जुड़ी देश की 60 प्रतिशत आबादी के लिए इतना-सा पैसा तो खर्च करना ही चाहिए।

सरकार किसानों को समझाती है कि जो कीमत वह नहीं दे पा रही, उसका भुगतान सीधी खरीद करने वाली कॉरपोरेट कंपनियां करेंगी। यह एक ऐसी समझाईश है, जिस पर जिसे अर्थशास्त्र के अ की भी जानकारी नहीं है, वह भी विश्वास नहीं करेगा। वैश्वीकरण, उदारीकरण और पूंजीवाद के हिमायती भी मानते हैं कि कॉर्पोरेट्स प्रतियोगिता बढ़ाते नहीं है, उसे हमेशा के लिए ख़त्म करते हैं।

ठीक जब केंद्र सरकार लाभकारी दाम देने वाली एमएसपी से साफ़ इंकार कर रही है, केरल में धान 2748 रुपये प्रति क्विंटल खरीदा गया। केंद्र की तय एमएसपी से 900 रुपये प्रति क्विंटल ज्यादा दिया गया किसानों को।

इतना ही नहीं। केरल की एलडीएफ सरकार ने अपने प्रदेश को देश का एकमात्र प्रदेश बना दिया, जहाँ 16 किस्म की सब्जियों और फलों का भी आधार मूल्य तय किया गया है। जैसे कसावा (12 रु), केला (30 रु), वायनाड केला (24 रु), अनन्नास (15 रु), कद्दू लौकी (9 रु), तोरई गिलकी (8 रु), करेला (30 रु), चिचिंडा (16 रु), टमाटर (8 रु), बीन्स (34 रु),  भिण्डी (20 रु), पत्ता गोभी (11 रु), गाजर (21 रु), आलू (20 रु), फली (28 रु), चुकन्दर (21 रु), लहसुन (139 रु) किलो तय किया गया है।

ध्यान रहे कि केरल ऐसा प्रदेश है, जहां 82% फसलें मसालों या बागवानी की होती हैं- जिनके लिए केंद्र ने कभी समर्थन मूल्य घोषित ही नहीं किया, उलटे मुक्त व्यापार समझौते करके विदेशी उपजों से देश पाटकर उनकी मुश्किलें बढ़ाईं। 2006 में जब पहले एलडीएफ सरकार आई थी तो केरल, किसान आत्महत्याओं का केरल था। एलडीएफ उनके लिए कर्ज राहत आयोग लेकर आया। कर्जे माफ ही नहीं किये, अगली फसलो के लिए आसान शर्तों पर वित्तीय मदद का प्रबंध किया। कहाँ से? अपने राज्य से आर्थिक संसाधन जुटाकर और किसानों की उपज को उपभोक्ता उत्पादों में बदलकर उनका मूल्य संवर्धित करने वाली सहकारी समितियों का ढांचा खड़ा करके।

इसलिए यहां समस्या रास्ते की कमी की नहीं, राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी और जनता के हितों को पूँजी मुनाफों से ऊपर रखने की मानवीय भावनाओं के अकाल की है। समस्या उन कॉरपोरेटपरस्त नीतियों की है – और ठीक यही नीतियां हैं, जिन्हें भारत का किसान बदलवाना चाहता है।


लेखक पाक्षिक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।