लोग विदेशों में बस रहे हैं–यह ख़बर दूसरे अख़बारों में लीड क्यों नहीं है?  

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
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2022 में नागरिकता छोड़कर विदेश में बसने वालों की संख्या 2011 के बाद सबसे ज्यादा है 


कौन बताएगा क्यों? 

आज के मेरे पांच अखबारों में पांच अलग-अलग लीड हैं। जब कोई बड़ी और आम सहमति वाली खबर नहीं हो तो ऐसा होता है और ऐसे मौकों पर पता चलता है कि कौन सा अखबार किस बात को महत्व देता है। अमूमन आपने देखा होगा कि किसी खबर को एक अखबार अगर ज्यादा महत्व देता है तो दूसरे में वह सिंगल कॉलम में होता है लेकिन आज जैसी खबरें जो एक अखबार में लीड होती हैं, संभव है दूसरे में पहले पन्ने पर या अंदर भी हो ही नहीं। खबरों की दुनिया ऐसी ही है। सबके अपने नियम हैं, अपनी राजनीति और अपनी पत्रकारिता वह भी स्वतंत्र या बेशर्म। फिर भी इन दिनों सरकार का विरोध करने में सब एक नहीं हैं समर्थन में ज्यादातर एक होते हैं। यह सब नई गढ़ी जा रही पत्रकारिता की परिभाषा या आवश्यकता के बावजूद है। हालांकि, आज एक खबर है जो सभी अखबारों में लीड हो सकती थी और वह है, बड़ी संख्या में लोग देश छोड़कर विदेशों में बस रहे हैं, निवेश भी कर रहे हैं।   

द हिन्दू में आज यह सरकार विरोधी खबर लीड है। इसके अनुसार भारत के लोग पश्चिम के देशों में जा रहे हैं और निवेश करके वहां रहने की सुविधा प्राप्त कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार सीमा सुरक्षित करने की बात करती है। जबरदस्ती का राष्ट्रवाद फैलाती है और देशभक्ति का माहौल बनाती है। इसके बावजूद लोग देश छोड़कर जा रहे हैं और ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। 2022 में सवा दो लाख लोगों ने भारतीय नागरिकता छोड़ दी और यह 2011 के बाद सबसे ज्यादा है। हम कह सकते हैं कि अच्छे दिन का परिणाम है, नामुमकिन मुमकिन हुआ है। और ऐसी हालत में सरकार सीमा सुरक्षित करके वाहवाही लूटना चाहती है। देश छोड़ने के कई कारण हैं। मैं उसके विस्तार में नहीं जा रहा लेकिन ज्यादातर कारणों को दूर करना सरकार का काम है और इसमें कोई दो राय नहीं है। ऐसे में देश छोड़ने वालों की तादाद बढ़ रही है तो यह सरकार से निराशा है और चूंकि वे देश छोड़ जा रहे हैं इसलिए वोट नहीं देंगे और उनके वोट का असर सरकार पर नहीं पड़ेगा। यही लोकतंत्र है। इसमें वोट देने वाले की भी जिम्मेदारी पर हिन्दुत्व के नशे में मस्त लोगों को कौन समझाए। 

टाइम्स ऑफ इंडिया में आज पहले पन्ने पर एक खबर है, ईसी (चुनाव आयोग) को अपमानित करने के लिए महाराष्ट्र भाजपा ने (संजय) राउत पर हमला बोला। शिवसेना के चुनाव निशान का विवाद और उसपर चुनाव आयोग का फैसला आप जानते हैं। उसपर संजय राउत की प्रतिक्रिया प्रभावित पक्षों में से एक की प्रतिक्रिया है। भाजपा इसे चुनाव आयोग को अपमानित करना कह रही है लेकिन खुद सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करती और कर चुकी है या करती रहती है। वैसे भी, भाजपा को चुनाव आयोग का बचाव करने की क्या आवश्यकता है। चुनाव आयोग क्या इतना कमजोर या अक्षम है कि वह अपनी आलोचना भी न झेल सके या अनुचित आलोचना के मामले में कार्रवाई न कर सके। अगर ऐसा है तो सरकारी पार्टी होने के नाते भाजपा का पहला काम चुनाव आयोग को स्वतंत्र करना है उसके बचाव या समर्थन में खड़े होकर भगत बनने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन भगत बनना स्वभाव है शौक भी क्योंकि इससे अधिकार मिल सकते हैं। और जो हो रहा है वह आप देख रहे हैं। सवाल कोई नहीं पूछता और पूछो तो जवाह नहीं, जवाबी प्रचार ऊपर से।  

इसी तरह सुप्रीम कोर्ट का स्वतंत्र रहना और यह सुनिश्चित करना कि ज्यादा से ज्यादा मामले समय पर सुने जा सकें सुप्रीम कोर्ट के साथ सरकार का भी काम है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के बारे में भाजपा नेताओं के कैसे बयान आते रहे हैं उन्हें आपने भी देखा ही होगा।  मेरा मानना है कि लोकतंत्र में और मौजूदा व्यवस्था में अखबारों का काम लोगों को सच बताना है और जनता को अपना फैसला करना है। लेकिन अखबार अक्सर प्रचार करते पाए जाते हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड भी आज सरकार विरोधी है। इस खबर के अनुसार बद्रीनाथ हाईवे पर नई दरार उभर आई है। अखबार ने लिखा है कि (डबल इंजन वाली) उत्तराखंड सरकार ने शनिवार को चारधाम यात्रा की तारीख घोषित की उसके तुरंत बाद बद्रीनाथ हाईवे पर जोशीमठ के पास 10 और बड़ी दरारें उभर आई है। जोशीमठ धंसने की खबरें और फिर उन्हें दबा देने की चर्चा के बाद खबरें लगभग गायब हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया की यह खबर और इसे लीड बनाना आज की पत्रकारिता में अपवाद है। 

हिन्दुस्तान टाइम्स की आज की लीड सरकारी है और मुझे नहीं लगता कि खबर है भी। यह ऐसा मामला है जो होना ही था और जानकारों को पता ही होगा बाकी के लिए कोई दिलचस्पी का मामला नहीं है क्योंकि खबर तो इसके बाद आएगी। अखबार का शीर्षक है, सेना का चुनाव चिन्ह पाने के बाद शिन्दे ने सुप्रीम कोर्ट में कैविएट दायर किया। इसका मतलब हुआ कि इस मामले में अद्धव ठाकरे कोई अपील दायर करें तो उन्हें भी सुना जाए। यह अदालती व्यवस्था है और ऐसे मामलों में प्रावधान है। इसलिए मुझे लगता है कि यह तो होना ही था और यह इतनी बड़ी खबर नहीं है। सिंगल कॉलम से ज्यादा नहीं। लेकिन संपादकीय विवेक किसी सिलेबस को पढ़ने या घोल कर पीने से नहीं आता है कि सबका एक जैसा हो और इसमें भिन्नता आम बात है। दिलचस्प यह है कि बाकी खबरों में कौन सी किस अखबार में है और कितनी प्रमुखता से। मैं अपने पांच अखबारों के आधार पर खबरें बताता हूं। अखबार क्या कर रहे हैं इसे आप अपने अखबार के लिहाज से समझिये और तय कीजिए। 

जहां तक सरकार विरोधी खबरों की बात है, गुजरात एसआईटी ने कहा है कि मोरबी के पुल हादसे में आधे से ज्यादा केबल हादसे से पहले टूट गए हो सकते हैं। जाहिर है, यह एक बड़ी प्रशासनिक और तकनीकी चूक है। हादसे के बारे में आप जानते हैं। उससे संबंधित प्रचार, प्रधानमंत्री का दौरा, अस्पताल में दौरे की तैयारी और उसपर सही या गलत खबरें तथा उसे शेयर करने के मामले में सरकार विरोधी दल के एक प्रवक्ता की गिरफ्तारी के साथ यह भी तथ्य है कि मोरबी में हादसे के बावजूद भाजपा जीत गई। ऐसे में इस खबर का महत्व – सरकार समर्थक और सरकार विरोधी के लिए अलग होगा। लेकिन खबरें निष्पक्ष भाव से दी जानी चाहिए और देखिए आपके अखबार में है, कहां है कितनी बड़ी है। अखबारों में फॉलोअप भी जरूरी है। आपक अखबार  फॉलोअप करता है। हाल में किसकी की?  

इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर आज दिलचस्प खबरें हैं। लीड है, सरकार (कश्मीर) घाटी के अंदरूनी हिस्से से सेना को चरणों में वापस लेने पर विचार कर रही है। फ्लैग शीर्षक है, संभावना है कि इसकी जगह सीआरपीएफ और पुलिस लेगी। इस खबर के बारे में मुझे जो कहना था वह उपशीर्षक में अधिकारियों के हवाले से कहा गया है, सेना की उपस्थिति स्थिति सामान्य होने के दावों के साथ अजीब लगती है। 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद (दो केंद्र शासित प्रदेश में बांट दिए गए) राज्य की स्थिति के बारे में खबरें नहीं के बराबर आई हैं। मीडिया जिस ढंग से सरकार समर्थन में लगा हुआ है और विज्ञापनों के जरिए उसका जो और जैसा उपयोग हो रहा है उससे मुझे लगता है कि दोनों केंद्र शासित प्रदेशों की राजधानियों में सभी मीडिया संस्थानों के दफ्तर खुल जाने चाहिए थे और 370 हटाने के फायदे बताए जाने चाहिए थे। पर ऐसा भी कुछ नहीं हुआ। इससे साफ है कि 370 हटाने से कोई खास फायदा नहीं हुआ। या उसे प्रचारित करने की जरूरत ही नहीं समझी गई। सरकार अगर अब सेना हटाने पर विचार कर रही है तो स्थिति कैसी होगी उसका अनुमान लगाया जा सकता है। आपको याद होगा, लोग कश्मीर में प्लॉट खरीद रहे थे पर कश्मीर अभी घूमने के लिए सामान्य हो गया है ऐसा कोई दावा किया गया हो तो मुझे मालूम नहीं है। 

बात इतनी ही नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस में आज ही खबर है, जम्मू और कश्मीर ने तोड़फोड़ रोका, अधिकारियों से कहा गया कि अभियान को सावधानी से हैंडल करें। यह आदेश डबल इंजन वाले राज्यों से अलग है। उत्तर प्रदेश में अलग बुलडोजर बेलगाम घूम रहे हैं तो यहां कहा गया है कि अगर कोई घर गिराया गया है तो उसका विवरण मंडल आयुक्त तैयार करेंगे और मुख्य सचिव के कार्यालय में जमा कराया जाएगा। जाहिर है कि यह खबर इसी कारण महत्वपूर्ण है और इसीलिए इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर है। लेकिन इससे यह तो तय है कि कश्मीर में स्थिति उत्तर प्रदेश जैसी सामान्य या सरकार के अनुकूल नहीं है। काश! अखबार वाले यह सब खुलकर बताते या सरकार ही कुछ कहती। कोई उससे पूछता।   

जम्मू कश्मीर में अतिक्रमण रोकने, सावधानी से हैंडल करने की खबर के साथ आज ही इंडियन एक्सप्रेस में ही पहले पन्ने पर खबर  और फोटो है जो बताती है कि दिल्ली में बिजली के खंभे अतिक्रमण की भेंट चढ़ गए हैं। घरों के ड्राइंग रूम में हैं या फिर छतों पर नजर आते हैं। वैसे तो यह स्थानीय किस्म की खबर है लेकिन पहले पन्ने पर छपी है तो इसीलिए कि दिल्ली देश की राजधानी है। यहां आम आदमी पार्टी की सरकार है और उसपर केंद्र सरकार द्वारा नामित लेफ्टिनेंट गवर्नर का नियंत्रण है। दिल्ली पुलिस स्थानीय सरकार के नियंत्रण में नहीं है और अतिक्रमण हटाना अगर नगर निगम का काम है तो उसके चुनाव समय निकलने के बाद हाल में संपन्न हुए हैं लेकिन जीतने वाली पार्टी कई कोशिशों के बावजूद मेयर का चुनाव नहीं करवा पाई है और अब सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से होना तय हुआ है। ऐसे में उत्तर प्रदेश के बुलडोजर राज, दिल्ली में यथा स्थिति और जम्मू कश्मीर में संभल कर काम करने तथा तोड़फोड़ रोक देने के आदेशों के अपने मायने हैं। आप समझना चाहें तो समझिये नहीं तो ज्यादातर अखबार आपको टेंशन दे भी नहीं रहे हैं।

इन सबके बीच द टेलीग्राफ की लीड आज देश में पत्रकारिता की दशा से संबंधित है। और यही आज देश की मुख्य चिन्ता है या होनी चाहिए। लेकिन मीडिया को उससे भी मतलब नहीं है। बीबीसी देश के अखबारों में पहले पन्ने पर आया तो नहीं ही अब शायद है भी नहीं। फिर भी, द टेलीग्राफ की लीड है, पत्रकारों को काम करने से रोका गया : बीबीसी। फ्लैग शीर्षक है, रिपोर्ट में सर्वेक्षण पर आयकर के दावों पर विवाद। खबर इस प्रकार है, बीबीसी ने कहा है कि दिल्ली और मुंबई स्थित उसके कार्यालयों में तीन दिवसीय कर सर्वेक्षण के दौरान पत्रकारों को कई घंटों तक काम करने की अनुमति नहीं थी। आयकर विभाग ने दावा किया है कि “ऑपरेशन इस तरह से चलाया गया था कि नियमित मीडिया/चैनल गतिविधि को जारी रखना संभव हो”। इसके खिलाफ बीबीसी हिंदी ने शनिवार को कहा कि कर अधिकारियों और पुलिस वालों ने “कुछ पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार किया।” आयकर विभाग द्वारा सर्वेक्षण पर बयान जारी करने के एक दिन बाद जारी रिपोर्ट में, बीबीसी ने कहा है कि पत्रकारों के कंप्यूटरों की तलाशी ली गई और उन्हें अपने फोन जमा करने के लिए कहा गया और उनकी रिपोर्टिंग विधियों के बारे में पूछताछ की गई। 

बीबीसी हिंदी ने कहा, “दिल्ली कार्यालय में पत्रकारों को सर्वेक्षण के बारे में कुछ भी लिखने से रोक दिया गया।” यहां तक कि वरिष्ठ संपादकों के बार-बार अनुरोध के बाद काम जब फिर से काम शुरू करने की अनुमति दी गई, तो हिंदी और अंग्रेजी भाषा के पत्रकारों को कुछ समय के लिए काम करने से रोक दिया गया। रिपोर्ट में कहा गया है कि इन दो भाषाओं के पत्रकारों को काम करने की अनुमति तब दी गई थी जब प्रसारण समय करीब था। आप जानते हैं कि यह सर्वेक्षण नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा देश में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर, मोदी की आलोचना करने वाली बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री को ब्लॉक करने के लिए आपातकालीन शक्तियों का उपयोग करने के कुछ सप्ताह बाद आया है। फिल्म, इंडिया: द मोदी क्वेश्चन, बीबीसी द्वारा केवल यूके में दिखाई गई थी। आयकर विभाग ने शुक्रवार को छापेमारी पर अपना पहला आधिकारिक बयान जारी किया। इसमें बीबीसी का नाम नहीं लिया गया लेकिन कहा कि एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मीडिया कंपनी के व्यावसायिक परिसर में एक सर्वेक्षण किया गया था। 

खबर के अनुसार, कर विभाग के बयान में कहा गया था, “यह बताना जरूरी है कि केवल उन कर्मचारियों के बयान दर्ज किए गए जिनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी, जिनमें मुख्य रूप से, वित्त, कंटेंट डेवलपमेंट और अन्य प्रोडक्शन संबंधी कार्यों से जुड़े लोग शामिल थे।” इसमें आगे कहा गया है. “भले ही विभाग ने केवल प्रमुख कर्मियों के बयान दर्ज करने के लिए उचित सावधानी बरती, लेकिन यह देखा गया है कि मांगे गए दस्तावेजों/समझौतों के संदर्भ में देरी करने वाली रणनीति अपनाई गई थी। समूह के इस तरह के रुख के बावजूद, सर्वेक्षण संचालन इस तरीके से किया गया था जिससे नियमित मीडिया/चैनल गतिविधि को जारी रखा जा सके।” अखबार ने लिखा है कि आयकर विभाग का बयान विशिष्टताओं पर कम था – इसमें सर्वेक्षण से संबंधित निर्धारण वर्ष की व्याख्या नहीं की गई थी, न ही यह बताया गया है कि कथित कर उल्लंघन की सीमा या उसका विस्तार क्या है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।